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Sunday 6 May 2018

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका
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अन्वेषण प्रक्रिया से एक शब्द-यात्रा, प्राप्ति तो कुछ अग्र चरण  
सकल जीवन यूँ चिंतन में बीता, ठहर क्यूँ न उठाता अनुपम। 

चारों ओर ध्वनि-नाद गुंजायमान, मैं कर्ण होते भी न श्रव्य-सक्षम  
अंतः से कुछ भी निकल न रहा, यूँ मूढ़ भाँति प्रतीक्षा करता बस। 
इतना विशाल विश्व सर्व-दिशा ध्वनित, पर मैं तो मात्र सा निस्पंद 
कुछ तरंगें तो मुझमें से भी उदित, सुयोग हो बात बने किञ्चित। 

क्यूँ रिक्तता मन-देह प्राण में, चाहकर भी न कुछ मनन-अक्षम 
क्या कोई गति ही न है, कोलाहल में सर्वथा भी न लगता दिल। 
उससे पृथक न कोई प्रलोभन, वर्तमान क्षण भी स्व तक सीमित 
हर दुविधा निज-हल ले आती, चिर-काल से मुझसे न बना पर। 

क्या कुछ शून्यातीत होते हुए भी, अंतः-स्वर निकलने हैं संभव 
स्व  को समझा ही न पाता, कैसे क्या घटित, जानना कठिन।  
यह क्या है स्व-क्षेत्र, न सुलझती मस्तिष्क-ग्रंथि की प्रहेलिका 
 स्वयं अपार, बहु-साँसते जग की, कई पेंचों से विकट-सामना। 

कितना सिकुड़ जाता स्वयं में,  अतिरिक्त संवाद न संभव भी 
न जग-ज्ञान, कैसे जन परस्पर-संवाद, मैं तो खड़ा एकाकी ही। 
दिवस-काल में कुछ शब्द संचार, जगत-चलन को आवश्यक 
कुछ निश्चित कर्त्तव्य भृति-कुटुंब हेतु भी, निर्वाह तो अनिवार्य।  

उसमें न अति-रूचि,  करना विवशता, स्व में खोया  चाहता 
निज-मूढ़ता में इतना तल्लीन हूँ, व्यग्र होते भी पाता सांत्वना। 
निष्ठ अज्ञात परम-तत्व खोज में, कब सान्निध्य, फिरूँ भटकता
अति-विडंबना न ध्येय-ध्यान, क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ न पता। 

विचित्र स्थिति क्या ऐसा भी, अचेतना में ही समग्र वय व्यतीत 
मति-कर्मशाला में तो अनेक निज-मग्न, क्या खोजते न प्रतीत। 
जग आभासित कि मतिमंद हैं, वरन आगे बढ़ न करते संवाद 
सत्य अंतः-स्थिति वे जानें, बाहरी तो लगा सकते बस कयास। 

क्या अवस्था स्व-तल्लीनता की, कुछ न सूझे तथापि रहना चाहता 
न बहिर्दर्शन-इच्छा, जितना संकुचन संभव, उतना प्रयास करता। 
जीवन-चिंतन  विज्ञान में न महद रुचि, इस दशा में ही परमानंद  
न ईश-प्राप्ति ही इच्छा, जी लूँ इन पलों को भरपूर यही कवायद। 

क्या इस सम स्थिति से कुछ निष्कर्ष संभव, या मात्र नदी सम प्रवाह 
उद्गम-उद्भव-संगम अन्य अपनों से,  या जलनिधि में निश्चित विलय। 
किसी भी उसकी एक अवस्था में, पर न कोई स्पंदन चलित सहज 
 किस जीव-विकास प्रक्रिया की अमुक अंश-यात्रा, कथापि ज्ञात न। 

कौन नियंत्रक इस मन-देह-प्राण का, क्यों स्थिति में रखना चाहता इस 
क्या अपेक्षाऐं उसकी न मालूम प्रयोजन हितकारी अथवा समय-व्यर्थ। 
कर्म तो बहु-प्रकार के शक्य थे इन पलों में, इसमें ही धकाया गया क्यों 
क्यों रह-२ वैसे भाव उभरते, सदुपयोग हो तो कुछ काम की बात हो। 

अनेक विद्वद-जनों के ग्रंथ समक्ष, न जानता वे भी ऐसा करते अनुभव
पर लेखन-संवाद जग-समक्ष विलग ही, ज्ञान विशेष  अन्य  प्रयोजन। 
न प्रतीत कि गुण-ग्राह्य हूँ, इस स्थिति से क्या किसी  को होगा ही लाभ
पर यहाँ न तो और हैं निज ही न पता, बस चल रहें इसी में है आनंद। 

अब लेखन-अंत ओर बढ़ना होगा, पर  सिलसिला मन में चलित सतत  
आओ इसे महका लें, शरद-पूर्णिमा निकट-गत, चंदा की प्रखर चमक। 
 भाँति-२ के पुष्प खिलने शुरू हो रहें,  हाँ पतझड़ का अपना आनंद भी 
जब झड़ जाऐंगे पुरातन तो नवोदित, नव-जीवन से ही निकलेगी सृष्टि। 

जैसा भी जहाँ मुझे पूर्णातिरेक रहना  चाहिए, निज में तो है परमानंद 
स्व-आत्मसात औरों के श्रेयस बोध में  मदद,  सदुपयोग में लो अतः। 
अग्र-सहज स्थिति मिलन दैवाधीन, अनर्थक-संवाद दूरी अति-सुभीता  
अज्ञात ज्ञान-मिलन कब किस क्षण, अभी रस में, ऐसे ही रहना चाहता। 

चलो चलते कहीं दूर यात्रा, अपने में भी अनेक क्षेत्र-विचित्रताऐं पूरित 
परिचय हो जग भी देख लूँगा, संपूर्ण  प्रयास है स्व-संवाद व प्रबोध। 


पवन कुमार,
६ मई, २०१८ समय १९:१२ सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० १८ अक्टूबर, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)

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