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Monday, 31 July 2017

रक्त-रिश्ते

रक्त-रिश्ते


रिश्तें हैं प्राण- वाहक, हम निकले उनसे, रक्त-संपर्क से युजित

कह सकते हैं सीधे जुड़े, किसी औपचारिकता की न जरूरत॥

 

कुछ रिश्तें अति-प्रगाढ़ जैसे माँ-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना

भाई-बहन, मामा-मौसी, चाचा-बुआ, चचेरा-फुफेरा, ममेरा-मौसेरा।

रक्त से अभिभावक-कुलों से सीधे जुड़ते, शृंखला-गमन दूर तक

माना दूर तक ढूँढ़ना-निबाहना कठिन, तथापि प्रयास से संभव॥

 

कितनी गहराई तक हैं रक्त-मूलें, हम अधिक ध्यान न दे पाते

इस अल्प- जिंदगी में इतने मशगूल, भूलते कोई और भी हैं।

अति- सुलभ अन्वेषण यदि चाहें, गहन योग देह-आत्माओं में

प्रेम-भाषा बोलकर देख, सब आऐंगे बाह पसारे गले मिलने॥

 

रिश्तें हमारा उद्गम-स्थल, रक्त-वीर्य प्रवाह होता अति-दूर तक

एक-दूजे के गुण परस्पर बाँटते, शक्लें-व्यवहार जाते से मिल।

अति स्थल-दूरी से संपर्क बाधित, कुछ समय पूर्व था स्नेह-अति

विवाह-उत्सवों में मिलन-रीत, परस्पर देख होती अति-ख़ुशी॥

 

हम आपस के सुख-दुःख बाँटते, जानते अपना है हानि न करे

जैसे निज आत्मा का एक रूप, कुछ न दुराव अपने भीतर है।

ख़ुशी- नाराजगी तो वहाँ भी हैं, कह-सुनकर हल्का होता मन

सभी मनोभावों से हम गुजरते, हर परिस्थिति नहीं निज-रूप॥

 

अनुवांशिक- गुण तो अति- विस्तृत, विज्ञान से विस्तार-विवरण

माता-पिता, भाई-बहनें निकटतम, रिश्तें हैं सुदूर तक वाहक।

हममें-उनमें अभिभावक-गुण साँझे, अटूट योग है नित-सुदृढ़

अनेक ही उसमें युजित हो सकते, जितना चाहे उतने संभव॥

 

रक्त- रिश्तें अति-महत्त्वपूर्ण, माना सिमट जाते कुछ दूरी पर

जानते हैं अपने ही, संसाधन-समय अभाव से दे पाते न ध्यान।

कुनबा-अवधारणा ज्ञान, माना कि सदस्य भी आपस में लड़ते

तथापि न्यूनतम सदाश्यता, अन्य- विरुद्ध सब हैं एक-जुटते॥

 

प्रेम की चहुँ ओर जरूरत है, स्वार्थ से किंचित कृत-संकुचित

निज-कोटरों में ही दुबके, बाहर आ अन्यों को न लगाते कंठ।

स्व-दामन सिकोड़ अनावश्यक, जब अनेक जन समा सकते

मन को जब स्नेह-शून्य किया, विश्व-बंधुत्व राह खुलेगी कैसे?

 

संबंधी सब आर्थिक-सामाजिक स्थिति में, निर्धन से दूरी अग्रों में

जब समुचित जानते अपने ही, तटस्थता-भाव दिखाते स्वार्थ में।

ज्ञान का क्या लाभ यदि न व्यवहार-दर्शित है, किए दूर निज भी

संबंधियों को तज अन्यों से संपर्क बढ़ाते, धीरे दूरी बढ़ती जाती॥

 

स्व-रुचियाँ हैं महत्त्वपूर्ण, न आवश्यक रिश्तेदारों से पूर्ण-मेल

अपने-२ गुट बना लेते, समय आने पर यह या वह पक्ष है लेत।

स्पर्धा-स्पृहा अधिक परस्पर में, आगे-पीछे टाँग भी खींच देते

एक-दूजे का मज़ाक भी बनाते, जैसा उचित जँचे निभा लेते॥

 

मित्रता एक वृहद-अध्याय, इस पर विस्तार से चिंतन कभी

अभी विषय रक्त-रिश्ता, कैसे मिठास है डाली जा सकती?

उसके अतिरिक्त संबंधी भी, भले प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ते

मेल-जोल से ही निज बनते, अपनापन सा हो जाता शनै-२॥

 

जहाँ हृदय-समीप वहाँ माधुर्य, प्रेम से परस्पर वर्धन-उत्साह

सभी कुछ सहन चाहे कत्ल भी हो, प्रेम सर्वोपरि लेगा स्थान।

अभिभावक-संतानों में न है स्पर्धा, झेल लेते उच्छृंखलता भी

बंधु-भगिनियों में आदर, अति-गुणवत्ता संभव अस्वार्थ यदि॥

 

एकत्रित करें संबंधी-कुटुंबियों को, घर जाकर दिखाऐं स्नेह भी

वे भी हमारे प्रेम के भूखें, मिलने-जुलने से तो निकटता बढ़ेगी।

यदि परस्पर स्नेह-समझदारी, एकजुटता से तो शक्ति-विश्वास

एक-दूजे को सहना भी श्रेष्ठ गुण, जीवंतता से है वर्धन-सौहार्द॥

 

सबमें सब भाँति के गुण, उत्तम को अपनाऐं क्षीणता को तज

सहनशीलता निज-पालक, आगे बढ़ो, सबको लगाओ कंठ॥



पवन कुमार,
३१ जुलाई, २०१७ समय १३:५१ दोपहर 
(मेरी डायरी दि० २५ जुलाई, २०१६ समय १०:२७ प्रातः से) 
    

Sunday, 5 February 2017

प्रोत्साहन-मनन

प्रोत्साहन-मनन


मनन यह क्या चिंतन हो, निर्मल-चित्त तो वृहत-आत्मसात कहते

हम सब उसी के ही भिन्न अवयव, पूर्णता से जुड़ पूर्ण ही बनेंगे॥

 

लेखन भी है अद्भुत विधा, कुछ न भी दिखे तथापि पथ ढूँढ़ लेती

कलमवाहक को बस माध्यम बना लेती, उकेरेगा जो यह चाहती।

माना लेखक की सोच का पुट होता, पर शक्तिमान तो कलम ही

यह परिवर्तित करती कर्ता को भी, उसके भावों को सुदृढ़ करती॥

 

चलते आज इसके संग ही, नवीन-प्राचीन या भावी अथाह में कुछ

जो समक्ष आएगा उकेरा जाएगा, निज का न कोई है विशेष पक्ष।

मात्र कलम संग है एकीकरण, परस्पर-वार्ता से निकलेंगे कुछ सुर

हेतु क्षण अति महत्त्वपूर्ण-अमूल्य हैं, इनमें स्थित हो हुआ निर्मित॥

 

अवसर तो जीवन देता हर पल, आवश्यक मात्र संजीदा हो विचारें

क्या हम वर्तमान नियुक्ति में, या जीवन-यापन सफल समृद्धि में।

कैसी भी स्थिति में तो होंगे, सर्व-दिशाऐं आव्हान करती निमन्त्रण

 प्रतिपल अनुभव ही जीवन, चलो ज्ञानेंद्रियों से करो प्रकृति-स्पंदन॥

 

आशान्वित होना है अग्रिम-पलों में, मानव को देता नित गति-प्रेरण

हाँ सब पल तो एकसम न हैं, पर न चलें तो निश्चित ही रहेंगे मन्द।

मन-देह का न पूर्ण उपयोग है, स्थिर-जल बहु-संभावना सड़न की

चलेंगे-भिड़ेंगे तो घर्षण-संघर्ष, प्रक्रिया में ही बनेंगे गोल-उपयोगी॥

 

पाषाण-शैल सम निश्चल, यूँ तटस्थ प्रकृति-निकटता का ही दर्शन

अनेक जीव-पादप पोषक हैं, सूर्य-चन्द्र-तारक-ऋतु से आत्मसात।

अनेक सर-सरिताऐं इस देह से हैं गुजरते, प्रवाह बहु-अवयव संग

तव मिलन सागर साथ ही, दिशा-पवन सुनाती हैं सुदूर के संदेश॥

 

माना प्रकृति अचलता की है, विपुल देह संग गति तो अति-दुष्कर

कमसकम प्रकृति-कारकों से तो साहचर्य-प्रवृत्ति, तभी हो जीवंत।

जब कुछ त्याग कर सकोगे, तभी तो रिक्तता बनेगी नव-ग्रहण की

चाहिए आदान-प्रदान ही प्रक्रिया, परस्परता से पूर्णता-राह बनेगी॥

 

अनेक भिन्न अवयव निश्चल से हैं, सूक्ष्म-दर्शन से ही होती गति स्पष्ट

स्पंदित, प्रकृति-रस आस्वादन तो है सदा, सहयोग से चले ब्रह्मांड।

भले अदर्शित हो पर हर की पूर्ण-भागीदारी, रिक्तता से मूल्य ज्ञात

अतः जरूरत परस्पर-सम्मान की, सहभागिता से ही बनती बात॥

 

तथापि कुछ अति-गतिमान भी हैं, अनेक निश्चलों में भी प्राण भरते

अवयव आदान-प्रदान में सहायक, निम्न की भी गुणवत्ता हैं बताते।

सर्वत्र है संभावना-उदय, मैं अति-दूर से आया हूँ तुम भी सकते जा

विश्व में अनेक स्थल प्रगतिरत, नेत्र खुलें तो मन-विकास भी होगा॥

 

अनेक अविष्कार नित घटित हैं, सहभागिता दिखाओ नव-निरूपण

जब और कर सकते तो तुम क्यूँ नहीं, अनावश्यक शक़्ल चाहे कुछ।

क्यों सोचते हो तुम स्वीकृत न होवोगे, चलोगे तभी तो सुराह दिखेगी

नव-अनुभव से गतिमान होवोगे, स्थिर-कारकों से तो से घिसोगे ही॥

 

जीवन में नित प्रायः एकसम ही घटित, लगता कि इस हेतु ही जन्म

व्यापन में मौलिक-समर्पण जरूरी है, हो लाभ उपस्थिति का तव।

हाँ परिवर्तन यकायक प्रकटन होता, चाहे प्रसन्न या न जँचे उपयुक्त

वृहद विश्व- प्रणाली में तुम मात्र पुर्जे हो, चाहने से ही न सब संभव॥

 

ध्यान से देखो, प्रयास भी हो, पर प्रवाह संग ही होगा तो सुदूर-गमन

क्यों विलोम-दिशा बहाव, ऊर्जा-क्षय, हाँ अत्यावश्यक तो करो वह।

एक पुण्य-विचार में ही हाँ मिलाओ, तुम्हारी मौलिकता है निज पूँजी

विरोध भी एक सभ्य- प्रकार का, उचित को लोक- हृदय स्वीकृति॥

 

बहु-कारक वाँछित गति-शैली निर्माणार्थ, निज को तो पूर्ण जीना ही

जीवन अमूल्य है सँवरता देह-अंग-मन द्वारा, जो स्वतः ही अद्वितीय।

विपुल समृद्धि पर प्रयोग मद्धम है, कोई सुविज्ञ कहेगा यह अत्यल्प

प्रयत्न से इस कल को चलाओ, जो निज कर में सँवारो उसे प्रथम॥

 

किसको ज्ञात है आगे क्या होगा, पर वर्तमान में तो झोंक दो सर्वस्व

विश्व-सहायता करो उत्तम-वहन में, बहुकाल से प्रतीक्षा है रहा कर।

निज-संग भी हो अनुरूप दिशा-चरण हो, मनन से कानन सुवासित

कर्म संग तो मनन स्वतः ही, सोचो और अल्प-वृहद से जाओ जुड़॥

 

देखना तुरंत शुरू करो अति-दूर तक, स्व-लघुता का होगा अहसास

व्यर्थ शिकायत- वादों में मत उलझो, सुविचार से ही लो उत्तम-राह।

कार्य-क्षेत्र तो सदा प्रतीक्षा करता, आगे बढ़ करो सब विभ्रम ही ध्वंस

श्रम से निश्चितेव सुपरिणाम, किञ्चित नहीं रुद्ध, सहायों का लो संग॥

 

सब लोग भी तुम सम अपने से सोचते, मन व्यथित होता यदि न रुचे

निज पक्ष समझाओ विराट-समर्पणार्थ, स्व-लोभ त्याग करने हैं पड़ते।

परिश्रम किस हेतु कर रहे हो, ग्राहक को तो चाहिए ही ज्ञान मूल्य का

यदि सम्मान दें तो अति-सुंदर, अन्यथा भी तो निज कर्त्तव्य है करना॥

 

ध्यान से देखो बहुत नर कितने हैं, घोर दुःखी- असन्तोषी व विव्हलित

नकारात्मकता तो है मन में, माना सकल विश्व के दुःख उनके ही संग।

विलोप सकारात्मक पक्ष का भी है, काल बीतता ही खुलता है नव-पथ

जीव को एक निस्वार्थी बनना चाहिए, आत्म-ज्ञान से ही है राह प्रकट॥

 

सकारात्मक- परिवेश नित-आवश्यक है, सब प्राणियों का ही सहयोग

किसी को भी नगण्य मत समझो, सहयोग से है अति-करणीय सक्षम।

बोलो मृदु- वाणी, मन- संगीत फूटे, प्रहर्ष में लोग घना काम हैं करते

हटा दो पर्दा भ्रम- शिकायत का, उज्ज्वल पक्ष देख, सहयोग करेंगे॥

 

बस विराम देता आज-वार्ता को, निर्मल-चेष्टा हेतु सदा रहो प्रयासरत

अन्यों को बहुत अपेक्षाऐं हैं तुमसे, सब न सही कुछ तो ही करो पूर्ण।

माना निज भी समय- ऊर्जा चाहता है, प्रतिबद्धता है कार्यक्षेत्र में भी

आशा लाओ सब सहयोगी- मनों में, सदा उत्तमार्थ करो प्रोत्साहित॥



पवन कुमार,
५ फरवरी, २०१७ समय २३:२९ म० रा० 
(मेरी डायरी दि० २३ सितम्बर, २०१७ प्रातः ८:५० से )  
   

Sunday, 25 December 2016

दर्शन-यथार्थता

दर्शन-यथार्थता



कैसा जहाँ हम बनाना चाहते, सोच का ही है खेल

जो भी यहाँ अच्छा-बुरा जैसा, सब है मानव-कृत॥

 

क्या सोचते हम परिवेश हेतु, जो हमारा आवास है

कितनों को व क्या सबको, उसमें सम्मिलित करते?

अपने जैसों से सम्पर्क साधते, अन्यों को बाहर रखते

स्वार्थ निज, साधन सबके, व फिर अधिकार जमाते॥

 

कैसे संग्रह कुछ ही द्वारा, जब सब कुछ है प्रकृति-दत्त

पृथ्वी पर जन्म लेने का अर्थ तो, भागीदारी है समस्त।

कैसे कुछ वैभवशाली बनते, अन्य अनेक पिछड़ जाते

भौतिक-दशा में अति-अंतर, यदा-कदा संग्राम होते॥

 

यह मेरा और तूने उठाया, निश्चित ही है अपराध महद

मेहनत का यह परिणाम है, तू मुफ्त में चाहता मगर।

एक बड़े ध्यान से कार्य करे, दूजा काम से दिल चुराऐ

ईर्ष्या करें या भाग्य कोसें, या अपराध- प्रवृत्ति है पाले॥

 

शरीर- मन स्थिति में असल, सबका पृथक है व्यवहार

कुछ की रूचि इसमें या उसमें, अन्यों का और विचार।

कुछ निज-प्रेरणा से इंगित, अन्य तो रास्तों पर चिन्हित

अलग श्रम व ईनाम भिन्न, लाभ भी होता तथैव वितरित॥

 

फिर किसी के पास, अधिक उपलब्ध संसाधन-वस्तुऐं

अनेक किन्हीं अल्प से ही, अपना जीवन यापन करते।

शनै वर्धित है अंतर उनमें, भौतिक -स्थितियाँ होती भिन्न

प्रयोग तब प्रासंगिक-वस्तुओं का, अन्यों से और पृथक॥

 

अभिमान प्रकट नव-धनाढ्यों में, अन्यों को समझें निम्न

कुछ यदि उन्नति भी चाहें, उसमें बाधा करते हैं उत्पन्न।

समकक्ष जन अपने दल बनाते, और अन्यों से है स्पर्धा

निर्बल मात्र निज-दैव कोसते, व करते लाचार गुजारा॥

 

तब सुख-तृप्ति हेतु, उनको होती सेवक-आवश्यकता

कुछ निरीह पकड़ काम हेतु, बनाते हैं दास-सेविका।

संघर्ष अल्प करणार्थ, कुछ मृदु- भाषी चतुरों के साथ

वाक-पटुता से, करते अन्य-दलों की सन्तुष्टि-प्रयास॥

 

सकल कलाप आरम्भ, सामान्यों की स्थिति रखने निम्न

युग्म मधु-सोम, नशे में रहें, चाहे कहीं और फँसाकर।

वे अल्पज्ञ भ्रमित होते, तथाकथित ज्ञान के व्यूह-पाशित

सम्मिलित कर्म-कांड, अंध-विश्वासों में, व्यर्थ प्राण फिर॥

 

समस्त दर्शन व ज्ञान उपलब्ध की हैं, निज प्राथमिकताऐं

कुछ सज्जन समदर्शी भी, पर अन्य स्वार्थों को ही बढ़ाऐं।

कुछ का हित-साधन, स्वयं को परितोषिक, यही है दर्शन

बाह्य वेष-आभास मृदुता से, अन्यों को भी लाभ है कुछ॥

 

किनको रखना किनको हटाना, किसको क्या देना ज्ञान

इसका निर्धारण चतुर करते, अल्पज्ञ रहते हैं जन-आम।

बड़े-संगठन, बड़ी-चर्चाऐं हैं, निश्चित ही समर्थ बल-वर्धन

अच्छा होता यदि सर्व-हित, लाभ भी बँटता सार्वजनिक॥

 

जीवन- विस्तार को, एक ज्ञान ही प्रेरणा-वाहक, संवर्धक

अगर वह भी उचित न, तो कैसे विकास-सुदर्शन संभव?

मृदु-चित्त समझते सब, षडयन्त्र-स्थापन का घोर-विरोध

झंडेवाले आते झुठलाने को, यथा-स्थिति रखने पर जोर॥

 

दार्शनिक हित साधते समर्थों का, तभी तो पाते हैं सम्मान

आमजन की क्या चर्चा हो, अल्पज्ञान से व्यूह न पाते फाँद।

यदि उन्हें भला भी लगता, तो भी न है निम्न- स्थिति उबार

आध्यात्मिक ज्ञान- विकास से, कुछ तो अवश्य ही बाहर॥

 

चिंतक चिंतन करें यदि सर्वहित-सुख, तो निश्चितेव श्लाघ्य

यदि वह नितांत भ्रामक-स्वार्थी, तो कितना विकास समग्र?

आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने, बहु-आयाम लाने की एक पहल

सुविद्या-ज्ञान उपलब्ध सबको, तथापि प्रचलित कुछ प्रपंच॥



पवन कुमार, 
२५ दिसम्बर' २०१६, समय १८:४० सायं  
(मेरी डायरी दि० ५ जुलाई, २०१४ समय ११:५५ मध्याह्न से)

Saturday, 17 December 2016

विश्व-बवाल

विश्व-बवाल 


क्यों मनुज कष्टमय व्यवधानों से, अविश्वास में विश्व उबल है रहा

सर्वत्र ही हिंसा-साम्राज्य है, परस्पर मार रहें पता न क्या लेंगे पा?

 

जब से जन्में युद्ध विषय में सुन-पढ़ रहें, क्या मूल-कारण इसके

किंचित यह लोभ- तंत्र निज-समृद्धि ही, औरों की तो न चिंता है।

कौन प्रथम-कारक, दमन-प्रवृत्ति है या अन्य-अधिकारों का हनन

हम महावीर सर्वस्व कब्जा कर लें, और क्या करें हमें न मतलब॥

 

विषमता है क्षेत्र- जाति-देशों में, प्रकृति-साधन भी असम विभक्त

संभव तुम एक स्थल समृद्ध, हम दूजे में, मिल-बाँटते हैं सब निज।

अनेक स्थल नर सुख-वासी, प्रकृति- सदाश्यता व आत्म-सुप्रबंधन

प्रयास से भी वह अग्र-गमित, निर्माण निस्संदेह ही माँगता सुयत्न॥

 

'Ants and the Grasshopper' एक लघुकथा बचपन में थी पढ़ी

चींटियाँ सर्वदा कर्मठ-संगठित हैं, परिश्रम से कुछ संग्रह कर लेती।

टिड्डा आनंद में है उछलता, रह-रहकर दूजों को बाधित करता बस

कुछ कहीं से पा लेता तो पेट है भरता, बड़े कष्ट में होता अन्य समय

न जरूरी दूजे सहायतार्थ आऐं, वे भी स्व-व्यस्त व स्वार्थी हैं किंचित॥

 

क्या टिड्डे का रक्षण चींटियों का दायित्व, या उसकी आत्म-निर्भरता

उचित समय वह योग्य था, परिश्रम से गृह-भोजन जुटा था सकता।

पारिश्रमिक श्रम अनुरूप ही मिलता, `जितना बोओगे उतना काटोगे'

फिर कौन रोक रहा आगे बढ़ना, अवरोध तो पार करने ही हैं होते॥

 

चींटियों ने घरबार-किले बनाए, बहु भंडार-भोजन-सामग्री संग्रहार्थ

सेना-रक्षक, भृत्य रख लिए, चोर-डकैत-अपराधों से सुरक्षा-उपाय।

विद्यालय-अस्पताल-सड़क-कार्यालय निर्माण, अपने सों को आराम

'यथासंभव लूट लो' प्रवृति भी दर्शित है, विषमता तो वर्धित बेहिसाब॥

 

मैं समृद्ध-समर्थ हूँ, वह निर्धन, एक आत्म-निर्भर, दूजा परमुखापेक्षी

किंचित योग्य अनेक उपाय जानता, कैसे समृद्धि बढ़ाई जा सकती।

चाहे अन्यों के प्राण-मूल्य पर ही हो, व सर्व-वैभव में अल्प-रिक्तता

अन्य भाग्य या अन्यों को कोस रहता, पर जाने कुछ न होने वाला॥

 

आर्थिक-असमता विशेष वैमनस्य-कारण, समाज-दशा में अति-भेद

निर्धन-दमित भी आयुध उठा लेते, देखते वे कैसे हो सकते समृद्ध ?

मार-खसोट प्रवृत्ति नर-उत्पन्न, उन्होंने लूटा, कुछ तो हम भी छीन लें

या वहाँ अधिक हम भी चलते हैं, आजीविका मिलेगी, चमकेगा दैव॥

 

सदा निर्धन ही हिंसा का सहारा न लेते, बहुदा विद्रोह-क्षमता न हस्त

लोलुप-धनियों की दमन-लूट प्रवृत्ति सतत, जिससे हो समृद्धि-वर्धन।

कुछ सशस्त्र सेना ले निकलते विश्व-विजय, सर्वाधिकार ही पृथ्वी पर

निर्बल स्वयं पथ देंगे, हठी-दुस्साहसियों का मान-गर्व कर देंगे मर्दन॥

 

फिर विजित क्षेत्रों से उपहार- कर ही मिलेंगे, सर्व- प्रजा होगी अनुचर

मन-मर्जी, समृद्धि से जीवन सुखी होगा, प्रजा भूखी हो तो भी न दुःख।

कुछ धनी-राजा हितैषी भी मिलते, नाम-मात्र तो बहुत बाँटते रहते ही

पर अंदर से सोचते अनावश्यक ही लुटाना, अन्यथा होगी कोष-क्षति॥

 

दबंगों ने नियम बना लिए बल-बुद्धि बूते, अधिकतम को रखो हाशिए

कुछ मृदुभाषी धर्म-नाम की दुहाई से, प्रजा को जाति-धर्म हैं सिखाते।

प्रजा-विद्रोह न हो नृप-समृद्धों के प्रति, सब भाँति युक्ति लगाई जाती

पर मनुज अति-चतुर हैं जिजीविषा से, पंगा लेने का पथ ढूँढ़ लेते ही॥

 

फिर घोर संग्राम होते, मार-काट यूँ, रिपु-सेनाऐं एक दूजे समक्ष खड़ी

अन्य-क्षेत्र में घुसकर महायुद्ध है, कुछ की सनक से बहु-प्रजा मरती।

जीवन विद्रूप- अपघट होते हैं, स्वार्थ में सैनिकों को लोकदमन बनाते

शिशु-अबलाओं पर ही अधिक-मार है, कमाऊ वीरगति प्राप्त होते॥

 

प्रजाजनों को कुछ ही शासन- अंतर दिखता, वे प्रायः रहते दुःखी ही

जब रक्षक ही भक्षक बनें तो कहाँ समाई, कोई भली निकले युक्ति।

राजा कोष, प्रजाश्रम- भोजन युद्ध में झोंके, न परवाह और किसी की

कैसे प्रगति फिर समाजों में, परस्पर अरि, अशांति से महत्तम हानि॥

 

विद्रोह हेतु बड़े लड़ाके उभरते हैं, पर आवश्यक तो न हों उचित ही

वे महद स्वार्थ ले चलते हैं, चाहे आदर्श-लक्ष्य-दिखावा कुछ अन्य ही।

प्रजा को मूर्ख बना रण-दल शामिल करते हैं, मरणार्थ आगे झोंक देते

खेलों, देश-धर्म-जाति-आर्थिक विषमता के कारण भाव स्वतः आते॥

 

यदि सोचें तो अनेक विरोध के कारण हैं, उँगलियाँ भी हाथ में असम

कुछ असमता प्रकृतिस्थ भी, पर्वत-मरुभू गरीबी है या विपुल-वैभव।

नर ने आत्म-धन भुलाया, चंद कंचन-सिक्कों-जमीनों में जान दी लगा

हाँ भोजन-जल-हवा-आवास मूलभूत जरूरतें हैं, गंभीर होना न बुरा॥

 

क्या मनुज का जग-आगमन उद्देश्य, आप भी दुखी औरों को भी करे

जबकि अनेक प्रकृति जीव-जंतु अति-सद्भाव से जीते देखे जा सकते।

कभी-कभार संघर्ष भी दर्शित है, भोजन-जल-स्थल हेतु मात्र विशेष में

दूजे जीव इतने न आक्रमक हैं जितना नर, जरूरत दाँव-पेंच की क्या?

 

क्या इसका मूल मनुष्य का धीमान होना, पर निश्चित श्रेष्ठतम से कम

वरन तो सब मिल-बैठ सर्व मसलों का, न निकालते ही उपयुक्त हल।

क्यों खूँखार वन्य मगर- भेड़िए-लकड़बग्गे- शार्क-सील जैसा आचार

प्रकृति पास पर्याप्त है सब पेट भरने हेतु, मिल-बाँट खाना सदाचार॥

 

देश- जाति- क्षेत्रों ने दल से बना लिए, मात्र संघर्ष करने हेतु ही परस्पर

विशेष सोच कुछ लोगों ने बना ली, क्या वही सत्य, हूबहू मान लें अन्य।

मेरी सोच का ही सिक्का चलना चाहिए, वही सर्वोत्तम दूजे क्यों न माने

स्वयं के दृष्टिकोण-सुधार की आवश्यकता, जैसे हम हैं अन्य भी वैसे॥

 

क्या आवश्यक उदार चिंतन-मनन में भी, हम नित्य अवश्यमेव उचित

निर्णय हैं सीमित पोषण-परिवेश-अनुभव-ज्ञान व मनोभाव पर निर्भर।

संशोधन सदैव आवश्यकता, चरम-परम-आदर्श-सर्वश्रेष्ठ दूर ही स्थित

तो भी उत्तरोत्तर सुधार हो, पूर्व से बेहतर स्थिति में ही होवोगे स्थापित॥

 

मेरा प्रश्न क्यों समाजों ने हथियार उठा रखे हैं, यूँ लगे क्रांति हेतु समग्र

क्यों शासक निरकुंश-स्वयंभू-निर्दयी होता, प्रजा की न चिंता किंचित?

माना अधिकार-निष्ठ सबको अच्छा लगता है, अन्यों की भी सोचो पर

सबके भले में ही अपना भला, मनोदशा कार्यशैली में भी हो स्थापन॥

 

कहीं मात्र क्रूर-बल प्रयोग प्रजा-नियंत्रणार्थ या उपदेश से ही बहलाना

आजमाते जो सूत्र हैं उपयुक्त, रोष- क्रोध-ईर्ष्या-बदला प्रवृत्ति पालना।

तुम अमीर- बेहतर कैसे रह सकते, हम कंगाल हैं क्या तुम्हें न दिखता

तब आओ हमारा भी क्षेम करो, वरन हम तुमको भी स्व सा देंगे बना॥

 

इतिहास में भिन्न गुटों बीच संघर्ष दर्शित है, कभी यह कारण या अन्य

भूमि-भोजन-जल-स्त्री हैं कारण, कहीं शत्रुता, स्व-श्रेष्ठता स्थापन दंभ।

कभी तुमने किसी विषय पर अपमान किया, सिखाना ही पड़ेगा सबक

आओ मैदान, देख लेंगे तेरा पौरुष व साहस,`जो जीता वही सिकन्दर'

 

कभी प्रत्यक्ष युद्ध, चाहे छद्म युक्ति बना, परोक्ष से करते हैं आक्रमण

मंशा है कि शत्रु आगाह न हो पाए, गुप्त रणनीति से अधिक विध्वंस।

कुछ स्वेच्छा से जुड़ें अभियान में, दूजों को डरा-धमका, समझा-बुझा

तब संग तो प्रसन्न रहोगे, हम तेरा रक्षा-भरण करेंगे, दो साथ हमारा॥

 

मानव भी मूढ़ जीव, बिना निजी शत्रुता भी लड़ता दूजों के कहने पर

उसको बताते हैं देश-धर्म-आस्था पर प्रहार, कैसे शांति से बैठे तुम ?

हमेशा रक्त उबलता रहना ही चाहिए, तभी तो दुश्मन होगा पराजित

मर जाओ या मार दो, मंसूबों में जुटे रहो लगाऐ बिना बुद्धि अधिक॥

 

यूँ जातियों में अनावश्यक वैमनस्य वर्धन, दल- प्रमुखों के स्वार्थ निज

अभी तो मात्र ही दुर्भावना थी, पर युक्तियों से अनेक किए सम्मिलित।

दूसरे भी क्या शिथिल ही बैठे हैं, वे भी तैयारी कर रहें आस्तीन चढ़ाऐ

बस प्रतीक्षा करो घोर-संग्राम होगा, अरि-सेना पर जरूर जीत पाऐंगे॥

 

नृप-शासक-निरंकुशों पास अकूत दौलत है, अत्याचार दिखता प्रत्यक्ष

जब निर्धन-बालकों के मुख न भोजन-कोर, रोष तो होना स्वाभाविक।

निज वैभव-सुखों का लोक-प्रदर्शन, दरिद्रों को अपमान-दुत्कार सदा

निज-सुरक्षार्थ किले-सेनाऐं खड़ी की, किसमें साहस है हमसे ले पंगा॥

 

पर इतिहास-वर्तमान में भी देखते, निरंकुशों का अंत तो अति-बुरा ही

यह अन्य बात जगह और कोई लेता, पर आते शालीन-उत्तम-भले भी।

कुछ स्मरण कर सको तो पाओगे, बहु चैन-अमन है श्रेयष शासन जहाँ

राजा- प्रजा परस्पर का ध्यान रखते, समझदारी में ही विकास सबका॥

 

जीव इतना भी न निष्ठुर प्रेम-भाषा न समझे, हाँ खल रखते युक्ति अपनी

इच्छा मात्र अशांति-विसरण, मारकाट- अकाल से अपनी हाट चमकेगी।

निरीह- रक्त पान दुष्ट-प्रवृति, जगत को शांत न बैठने दो, रखो तम-भ्रम

चाहे नाम समग्र हित-विकास का, खल-प्रवृत्ति रग-रग से झलकती पर॥

 

मैं कहता अन्याय-प्रतिकार होना चाहिए, पर क्या रण ही अंतिम विकल्प

सब विषयों पर मिल-बैठ चर्चा संभव, उचित हेतु करो भी विरोध-प्रदर्शन।

प्रजा-अधिकारों से नृप सचेत कराए जाने आवश्यक, हनन से कुंठा-जन्म

सब साथ संग ही चलें, सबका प्राकृतिक-संसाधनों पर है अधिकार सम॥

 

आतंकवाद का न लो सहारा, न खेलो जन-भावनाओं से, शांति से ही प्रगति

जब जान ही न होगी क्या फिर करोगे, सबको समय पर मिलेगा उचित ही।

मनन-चिंतन में समग्र-क्रांति चाहिए, पर मूल उद्देश्य हो भलाई हेतु सबकी

आपसी हानि- हत्या से तो कहीं न पहुँचते, जीवन माँगे बड़ी यज्ञ- आहूति॥

 

अन्याय तो है विश्व में मानना पड़ेगा, कोई धनी यूँ ही स्व को चाहे लुटाना न

फिर जग-व्यवस्थाऐं उचित-पथ ही चाहिए, योजनाऐं सर्व-जन कल्याणार्थ।

नृप-कर्त्तव्य है शासन-तन्त्र उचित करे, निज लोभ तो उन्हें न्यून करने होंगे

जब स्वयं ही लूट के बड़े सौदागर हों, तो कैसे दैत्यों को नियंत्रण कर लोगे?

 

उचित शासन-प्रणाली, जनतंत्र से बहु-भला संभव, रंग लाऐगा पुण्य-प्रयास

जब नर खुश होंगे सदा सहयोग करेंगे, खल साथ न मिलने से होंगे निराश।

लोग दूजे के गृह न देखेंगे, ऊर्जा सकारात्मक-प्रगतिमान उद्देश्यों में युजित

आपसी-सौहार्द-सहकार वृद्धि समूहों में, चाटुकार को न श्रेष्ठ स्तर दर्शित॥

 

जीवन देखना-सोचना माँगता, न लड़ो क्षुद्र स्वार्थ हेतु, न एक-दूजे को हानि

'जीओ व जीने दो'-पुरातन सिद्धांत, समरस-समानता भाव देगा बहु प्रगति।

देश-समाज-क्षेत्र समृद्ध-प्रगतिशील हों, नर श्रेष्ठ-उपलब्धियों में होगा इंगित

सबका साथ सबका विकास', जग और सम होगा सबको मिले प्राण-अर्थ॥



पवन कुमार,
१७ दिसम्बर, २०१६ समय २१:५६ बजे रात्रि 
(मेरी डायरी ६-७ अगस्त, २०१६ समय से १०:०१ प्रातः से)

Monday, 21 November 2016

ज्ञान-सोपान

ज्ञान-सोपान 



निरुद्देश्य तिसपर उत्कण्ठा तीक्ष्ण, अध्येय पर प्रखर आंतरिक-ताप

जीवन स्पंदन की चेष्टा में रत, मन-संचेतना कराती स्व से वार्तालाप॥

 

बहु-विद्याऐं मैं वशित, अबूझ-अपढ़, खड़ा विराट पुस्तकालय सम्मुख

आभ्यंतर का न साहस होता, डर कहीं प्रवेश न कर दिया जाय रुद्ध।

अंदर तो कभी गया नहीं, कुछ विद्वानों को करते देखा सहज- प्रवेश

गूढ़ परस्पर वार्तालाप में, कर में किताबें या स्व-निमग्न विचार-लुप्त॥

 

मैं ग्राम-बाल, राजकीय-विद्यालय शिक्षित, फिर नगर-स्कूल में पठन

मुट्ठी-भर साहस, सुसाधित देख आंशकित, अनुरूप संवाद न संभव।

सभी विज्ञ प्रतीत स्व से उत्तम, निज वास्तविक रूप में रही खलबली

माना अवर-श्रेणी ज्ञात सहपाठी छात्रों में रहकर, कुछ सांत्वना मिली॥

 

पाठ्यक्रम पुस्तकें अनेक रहस्य खोलती, वे असंख्यों में कुछ ही मात्र

पुस्तकालय-निधानों में सुघड़ता से रखी पोथियाँ, मन में लगता त्राण।

कौन सारी पढ़ता होगा, कैसे मस्तिष्क विकसित इतना ग्रहण- सक्षम

बस झलक देख ली काम से मतलब, इतना ही ज्ञान से हुआ सम्पर्क॥

 

कुछ उच्च-अध्ययन माध्यमिक कक्षाओं में, ज्ञान से हुआ साक्षात्कार

तो भी बहुत ज्ञानों की महत्तर टीकाऐं, यूँ मस्तिष्क में न प्रवृष्टि सहज।

बहुदा शिक्षकों द्वारा प्रसारित कक्षा ज्ञान का, कुछ-२ ही पड़ता पल्ले

वह ज्ञान-संपर्क प्रथमतया ही घटित, अतः असहजता स्वाभाविक है॥

 

कुछ सहपाठी स्व से श्रेष्ठ दिखते, अडिग से दिखते ज्ञानोपार्जन में ही

कई बार तो आकस्मिक, जितना परिश्रम वाँछित, झोंकता उतना नहीं।

कुछों की स्थिति और भी दयनीय, लगता कक्षा में नहीं अपितु है जंगल

बस समय यूँ ही व्यतीत किया, नहीं सोचा क्या और बेहतर था संभव॥

 

प्रज्ञान न उपलब्ध मात्र कक्षा उपस्थिति से ही, मात्र कराती परिचय सा

असल सीखना बाद में गृह-कार्य से, जब स्व-शिक्षण से जूझना पड़ता।

धन्य वे जिन्हें भले शिक्षक मिलें, न करते अनेक शिक्षण-निर्वाह उचित

निज- अकर्मण्यता, कर्त्तव्य-विमूढ़ता से, विद्यार्थी-जीवन अप्रकाशित॥

 

कुछ गुरुजन जलाते स्व-दीपक, डाँट-फटकार- वितंडा भी आवश्यक

माना शिक्षक भी सीमित एक स्तर तक, तो भी शिष्य चाहते सर्वांगीण।

यह एक रचना- कृति उपलब्ध साधन-सामग्री से, व प्राण-प्रतिष्ठा तृप्ति

शिष्य अहसास बाद ही सीख सकता, निश्चितेव संभव सब द्वार-प्रवृष्टि॥

 

शैशव से यौवन तक इस यात्रा ने, इतर-तितर बिखरे में की कुछ प्रवृष्टि

किंतु वह ज्ञान भी कितना न्यून था, मात्र विचार से ही है असहजता-वृष्टि।

सत्य कि निज विश्व की बस बुद्धि-कोष्टक सीमा, ऊपर से है प्रयास-अल्प

तब कैसे विकास-वर्धित हो आत्म, तुम जैसे अनेकों ने तो प्रगति ली कर॥

 

क्रमशः वृहद ज्ञान से था कुछ संपर्क, पर जितना निकट, उतना ही शेष

अकेला कहाँ बैठा था प्रकाश से दूर, विद्या-बाधा बने मेरे ही प्रमाद-द्वेष।

इतने बहु विषय, विपुल विज्ञान-संग्रह निकट, सक्षम-प्रयास हैं परिलक्षित

अनेक सदा कर्मशील ही रहते, तभी तो जुड़कर इतना विस्तृत है निर्मित॥

 

माना उन लेखकों, वृहद-दायकों का भी है, एक सीमित-वृत्त में ही प्रज्ञान

तथापि बृहत्तर करते ही जाते, सकल मानवता समाने का करते हैं प्रयास।

कुछ तो कालिदास, शैक्सपीयर बन जाते हैं, कुछ गोएथे सम अति-विस्तृत

नेहरू सम चिन्तन, कुछ मार्क्स, एग्नेल, एसिमोव, कार्ल सागन सम वर्धित॥

 

कैसे पकड़ी कलम महानुभावों ने, और एकत्रण की विपुल सामग्री-लेखन

कितनी समय-ऊर्जा प्रतिदिन ही देते, कहाँ-२ से अनेक विचार हैं पनपन।

कैसे मस्तिष्क प्रबल होता न्यूनतम से ऊपर, और बह निकला ज्ञान-प्रभाग

एक-२ कड़ी योग में समक्ष हैं, उनके कथनों को सब देते अति ही आदर॥

 

प्राथमिक-अवस्था में ज्ञान है जोड़ा, कुछ साहस किया, वृहदता से सम्पर्क

अनेक रोमांचक-रहस्यमयी विभिन्न विषय समक्ष, परिचय न था अभी तक।

पारंगत- सामीप्य से तो अब भी भय सा, स्व-स्थिति होती अति-असहज सी

असल व्यग्रता है स्व-अल्पता ही से, अनेक बहुदा अत्यग्र-बढ़ गए क्योंकि॥

 

फिर संचित ज्ञान भी है अति-सतही, अस्मरण हो जाने से वह जाता फिसल

जो कुछ लब्ध था वह भी खो दिया, हम फिर अकिंचन के ही रहें अकिंचन।

अभूतपूर्व यह मन- प्रणाली, सबको प्रदत्त बावजूद पृथक ढ़ंग से निखारती

कौन प्रेरणा एक को महापुरुष बनाती, व अन्यों को बहु-मद्धम ही रखती॥

 

माना हम सब एक सम अंदर से, विभिन्न मेल-परिस्थितियों में होते असहज

सब स्व दृष्टिकोण-स्तर हैं सहन, अध्ययन- अभ्यास-प्रयास से उच्च- वर्धित।

पर कुछ थोड़े सामान संग भी प्रयास से, वृहद परियोजनाऐं खड़ी लेते कर

प्रत्येक ईंट- जोड़ में प्रयास झलकता, सहायता माँगने में न कोई झिझक॥

 

वे कैसे, किनको मित्र हैं बनाते, योजना-मूर्तरूपण में अक्षुण्ण-सफल बनते

कैसे विभिन्न मस्तिष्क-योग ही होते, सहायता से परियोजनाऐं आगे बढ़ाते।

मानो निज से एक सीमित सम्भव, अतः कुछ तो अवश्यमेव साथी बना लो

यही कवायद करती है किंचित अग्रसर, प्रगति-पथ के अध्याय सीख लो॥

 

मुझे निश्चित ही असहज होना चाहिए, वही तो मति-विवेक श्रेष्ठार्थ खोलेगी

जग-आगमन है तो एक लीक खींच दो, बहु-काल तक न कुछ ही चलेगी।

यही रोमांच खींचेगा तुम्हें अनेक अज्ञात-रहस्यों की ओर, बढ़ाऐगा काष्ठा

जीवन- तात्पर्य ही नित्य-गति है, अतः हिम्मत करो स्व से निकलो बाहर॥

 

सब जगत विद्यालय, पुस्तकें-शोध मेरे लिए ही हैं, साहस से बैठना सीखो

चाहे निज मूढ़ता-अज्ञानता पर हँस लो, पर उचित हेतु सुदृढ़-चित्त हो लो।

अपनी भी श्रेणी बढ़ा सकोगे, यदि ऊर्जाऐं-विकसित करना जाओगे सीख

जीवन माँगता है तुमसे प्रयास, अतः रुको मत, सर्वत्र से होवो आत्मसात॥

 

धन्यवाद। और बेहतर के लिए प्रयास करो॥


पवन कुमार,
२१ नवम्बर, २०१६ समय २२:३८ रात्रि 
(मेरी डायरी दि० ८ मार्च, २०१५ समय ८:५० प्रातः से)