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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 9 February 2020

कालिदास परिचय

कालिदास परिचय 
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चलो कालिदास विषय में कुछ चिंतन, स्रोत कुछ पूर्वलिखित से ही संभव
उनका समकक्ष तो न कि देखा सुना हो, हाँ अध्ययन से कुछ ज्ञानार्जन। 

मेरे द्वारा कालिदास परिचय जैसे किसी महानर का मूढ़ द्वारा व्याख्यान 
या अंधों समक्ष गज खड़ा कर दिया, उनसे विवेचना हेतु किया हो उवाच। 
उनके मस्तिष्क का अथाह ज्ञान व पूर्ण-व्यक्तित्व समझना ही अति दुधर्ष 
माना वे भी पढ़-सुन ही विद्वान, पर कुछ अद्वितीय सर्जनात्मकों में एक।  

कवि भी मनुज ही, ज्ञान बाहर से ही, पर समझने-परखने की शक्ति प्रखर
कथानकों-दृश्यों का अंग सा बना, व्याख्या कि माना पात्र बोल रहे स्वयं। 
साधारण नर व्यवसाय-कार्यालय-गृह कार्यों में ही व्यस्त, मूढ़ सा है जीवन 
क्रांतदर्शी प्राप्त काल का उचित निर्वाह जानता, अनुपम रचना है सतत। 

सितंबर २०१८ में नागपुर यात्रा थी, ७० कि०मी० दूर रामटेक के भी दर्शन 
कहते हैं प्रभु श्रीराम ने वनवास अंतराल कुछ काल यहाँ किया था आवास।
निकट अगस्त्य मुनि आश्रम भी, पुराणों अनुसार समुद्र पीकर किया रिक्त
राम ने ऋषि-मुनियों के तप-भंगक दैत्यों से पृथ्वी रहित का लिया था प्रण। 

यहीं कालि-स्थानक भी, मान्यता है रामटेक पर्वतिका पर ही मेघदूत रचना 
कालि इसी रामगिरि से अलकापुरी तक का यात्रा-वृतांत मेघदूत में करता। 
यहीं खड़े यक्ष को एक विपुल कृष्ण मेघशावक देख निज भार्या होती स्मरण 
और उसे अपनी सजनी हेतु संदेश देता, कि तुम ऐसे करना व ऐसा कथन। 

कवि-भाव अति मनोहारी, भिन्न भागों से विचरते सौंदर्य-दृश्य दर्शनार्थ प्रेरणा 
विभिन्न स्थल-लघुकथाऐं काव्य-रोपित, पाठक अंग बने बिन न रह सकता। 
यह निस्संदेह कि मेघदूत यक्ष स्वयं कालिदास, अलका प्रिय नगरी उज्जैयिनी 
रामटेक पर कालि की अति भाव-विभोर हो विनती कि रो देगा मेघ स्वयं भी। 

रामटेक पर कालिदास ने  अश्रुओं को स्याही बनाया, नयन  बनें मषिकूपी 
प्रेम-वेदना से हृदय-विदारण गाथा रची, यहाँ की पर्वतिका जिसकी साक्षी। 
स्मारक में भित्ति पर कालिदास के नाटकों के कई दृश्य अंकित किए गए 
शंकुतला अपने हरिण संग व मेघ-दर्शन करते यक्ष सहज पहचाने जाते। 

संस्कृत महाकवि-नाटककार ने पौराणिक कथा-दर्शन को  आधार कृत 
रचनाओं में भारतीय जीवन-दर्शन के भिन्न रूप व मूलतत्त्व  निरूपित। 
अभिज्ञान-शाकुंतलम उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना, व मेघदूत सर्वश्रेष्ठ 
प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत परिचय, खंडकाव्यों में है ओतप्रोत। 

कालि वैदर्भी रीति कवि, अलंकार युक्त किंतु सरल-मधुर भाषा हेतु प्रसिद्ध 
अद्वितीय प्रकृति वर्णन, विशेषरूप से निज उपमाओं के लिए हैं विख्यात। 
अपने अनुपम साहित्य में औदार्य प्रति कालिदास का है विशेष प्रेम-अनुग्रह
    श्रृंगार रस प्रधान साहित्य में भी निहित आदर्शवादी परंपरा व नैतिक मूल्य।   

उनके नाटक हैं अभिज्ञान शाकुंतलम, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्रम
दो महाकाव्य रघुवंशम व कुमारसंभव, दो खंडकाव्य मेघदूत-ऋतुसंहार। 
कुमारसंभव में शिव-पार्वती की प्रेमकथा व कार्तिकेय जन्मकथा है वर्णित 
गीतिकाव्य मेघदूत में मेघ से संदेश-विनती व प्रिया पास भेजने का वर्णन 
ऋतु-संहार में ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का है ललित निरूपण। 

पवन कुमार,
९ फरवरी २०२० समय ११:५८ म० रा० 
(मेरी डायरी दि० २४ जनवरी, २०२० समय ९:०६ प्रातः से )  


Tuesday, 28 January 2020

प्रजा खुशहाल

प्रजा खुशहाल 
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एक गहन चिंतन वर्ग-उद्भव का, दमित भावना कुछ कर सी गई घर 
समाज में अन्यों प्रति अविश्वास दर्शित, सत्य में वे परस्पर-सशंकित। 

व्यक्तिगत स्तर पर नर विकास मननता, कुछ श्रम कर अग्र भी वर्धित 
सामाजिक तो न एकसम वृद्धि, अनेक विकास के निचले पायदान पर। 
माना अनेकों ने एक ही पीढ़ी में, निम्न से मध्य वर्ग मेंन बना लिया स्थल 
जहाँ शासन की निर्बल प्रति सद्भावना, प्रगति वहाँ तनिक भी संदेह न। 

देखिए प्रतिभा तो चहुँ ओर बिखरी, अब कैसे वर्धन हो एक मूर्धन्य प्रश्न 
जब सक्षम ही निर्धन-असहाय बंधुओं को न सहेजेंगे, बाह्य आएगा कौन?
माना सर्व गृहों के खर्चें-आवश्यकताऐं, अन्यों हेतु न अति निकलता शेष 
तथापि सदनीयत से कुछ प्रगति, हर के बढ़ने से आगे बढ़ जाएगा देश। 

देखिए विकास-जरूरत तो प्रत्येक जन को, चाहे उसका कोई भी वर्ग 
किंतु संसाधन-नौकरियाँ तो हैं सीमित, सबको चाहिए तो होगा संघर्ष। 
सब काल तो प्रतियोगिता-युत, जो मेहनत-चतुराई न करते पीछे धकते 
सर्व उर वश में तो कोई न सक्षम, जीवन संभव ही परस्पर विश्वास से। 

कुछ लोग सशंकित कि भारत में नई सरकार आई, संविधान बदल देगी 
अल्प-संख्यक, दलित-पिछड़े एक हासिए पर होंगे, मनुस्मृति लागू होगी। 
नूतन विद्या होगी अप्रोत्साहित, बस पुरा धर्म-आधारित होगा हावी ज्ञान 
प्राचीन अस्मिता नाम पर दबंग एकत्र हो, सारे संसाधन लेंगे निज कर। 

आजकल पूर्व रिज़र्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की पुस्तक पढ़ रहा, नाम है
'The Third Pillar- How Markets & State Leave Community Behind' 
वे समुदायों की प्रगति चर्चा करते कि कैसे संघर्ष से निज दशा बदल ली। 
शासन विवश हुए बात मानी गई, प्रतिनिधियों को सरकार में बने भागी
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निजों की सहायता, नियम-नीतियाँ हक़ में बनवा ली। 

 क्यूँ स्वार्थी बन मात्र अपनी ही बात हो, और भी जग में अनेक सहचर 
जब सबकी वृद्धि में स्वयं स्वतः शामिल, पृथक-प्रतिनिधित्व क्यूँ फिर?
पर देखो कुछ समूह तो अन्यों से अधिक हस्तक्षेप शासन में बलात  
निज अमुक प्रभावी व सुवेतन-परक पदासीन हों, करते हैं पूर्ण यत्न। 

मनुस्मृति काल तो अर्वाचीन, जाति-असमता हावी उत्तम होते भी कुछ
जन्म आधार पर कुछ श्रेष्ठ बन गए, अन्य मध्यम या निम्न सोपान पर। 
अब कुछ तो व्यवस्था से लाभी, बिन कुछ किए कथित श्रेयस घोषित 
अन्यों को हड़काने-जबराने का अधिकार, तो कैसे सर्व-कल्याणक? 

अब धर्मादेश से समाज में नियम रोपित हुए, विरोधी होंगे दंड के भागी 
जब सुघड़ दर्शन अवसर अप्राप्त, तो शनै मनुज की मद्धम शैली भी। 
निज को हीन मानने लगे, कर्म-सिद्धांत द्वारा और अधिक प्रतिपादित 
यहाँ कर्म अर्थ निज जातिगत धंधे, न कि परिश्रम से जीवन प्रगतिमुख। 

हर काल में प्रखर-बुद्धि अवतरित, सक्षम व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्हन में 
आसानी से जर्जर अमानवीय व्यवस्था को साहस से ललकारने लगते। 
अब कितने ऐसों के साथ होंगे और बात, जन भीरु व स्वार्थी अधिकतर 
भय बड़ा शस्त्र शासन व दबंगों के कर, मंसूबे मनवाते रहते जबरन। 

सत्य कि जब ये व्यवस्थाऐं बनी होंगी, तब देश-आबादी थी बड़ी कम 
कुछ को छोड़ अधिकतर अपढ़, राजाओं को भी था ब्रह्म-कोप भय। 
ज्ञान व शक्ति ने मिल स्वार्थ साधनार्थ, निर्धन-भोलों को बनाया आहार
अनेक नृप-युवराज बंदी, विद्रोही जाति-निकास, भेदभावपूर्ण आचार। 

पर १८ वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति से, विरोध-तर्क दर्शन ही परिवर्तित 
प्रजा अधिकार-नियतियों पर चर्चा शुरू, सुधार शनै आने लगें समक्ष। 
कुछ उदारचित्त भी सब काल, जग की कर्कशता-अमानवता सुहाती न 
गरीब-पीड़ितों का साथ चाहे स्वयं कष्ट, नर-हितैषी होना एक साहस।  

करीब सारे विश्व शनै लोकतंत्रमय, शासक-भविष्य अब प्रजा-हस्त 
प्रजा द्वारा नृप-चुनाव, उन्हें भी होना पड़ेगा लोगों प्रति सहिष्णु अब। 
भारतवर्ष भी इसका अपवाद न, सरकार का पिछड़ों को आश्वासन 
शासन-तंत्र सर्व हितार्थ करना ही होगा, प्रधानमंत्री पूर्व से ताकतवर। 

माना शासन के नियम बदल रहे, प्रजा पूर्व से हुई अधिक जागरूक 
शिक्षा-प्रसार हर वर्ग में हुआ, भला-बुरा समझने में मानव हैं सक्षम। 
 शासन-बल दाम-साम-दंड-भेद से, पर प्रजा भांपकर निष्ठा देती बदल
 फिर सब नेता स्वार्थी, परछिद्रान्वेषण न चूकते, लोक को बताते सब। 

निर्धनों पास संख्या-शक्ति पर न श्रेष्ठ संघ, हक में बोलने वाले भी कम 
नेता दिखावा, लोगों में अच्छे मुखर न पनप रहें, सबको ले सके संग।
अतः निर्धन-हित कूर्म-गति सम ही, पर अति प्रगति साधन-संपन्न की
सुनिश्चितता सत्ता-भागीदारी से ही, समृद्ध तो निज-विकास तल्लीन। 

पुरा-युग तो कदापि वापस न क्योंकि शिक्षाप्रसार-जागरूकता काफी है 
फिर वर्तमान में विश्व पूर्व से अति-युजित, नर परस्पर हित साँझा करते। 
लोकतंत्र जहाँ भी दमित, सहिष्णु पसंद न कर रहें, अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी 
प्रजा भावना अनुरूप कर्म शासक-विवशता, मूल नीति बदलना कठिन। 

तथापि मन यदा-कदा सशंकित, कई देशों में आज भी सत्ता मध्य-युग सी 
अफ्रीकी यमन-सोमालिया-मिश्र-सूडान, सीरिया-इराक आदि ग्रस्त हिंसा-अति। 
उत्तरी कोरिया, म्यांमार यहॉँ तक कि रूस-चीन मानवाधिकार दोषी हनन 
फिर शिक्षा से असत्य निश्चित मूल्य रोपित, जो शनै जिंदगी का होते अंश। 

विश्व में दीर्घकाल सहिष्णु शासक-दल सत्ता में थे, दक्षिणपंथ शनै हावी अब 
वे कुछ वर्गों की वास्तविक हितैषी, क्योंकि उनके पोषक पूंजीपति-दबंग। 
निज प्रभुत्व वृद्धि ही मुख्य उद्देश्य, औरों को मात्र लॉलीपॉप दिखाया जाता 
 प्रजा-दुविधा में कहाँ जाऐं, दूसरी ओर भी न दिखे कोई अति-विश्वसनीयता। 

पर समुदाय भविष्य प्रति जागरूकता चाहिए, ताकि प्रजा खुशहाल रहे 
भारत में अब भी जाति-धर्म-स्थान, भाषा-गौरव नाम पर काफी विभेद है। 
आए दिन हिंसा-अत्याचार-बलात्कार की घटनाऐं समक्ष आती ही रहती 
व्यक्ति-विषमता के अतिरिक्त वर्गों में भी परस्पर अविश्वास है काफी। 

मानव के अद्यतन यात्रा में अनेक पड़ाव, अच्छे-बुरे सब कालों से गुजरा 
आदि मानव रूप में भी उसने हिंस्र भेड़िये, शेर-चीते, आदि से की रक्षा। 
तब कोई न शंका होनी चाहिए कि हर वक्त से सफलतापूर्वक लेंगे जूझ 
      फिर बुद्धि सबके पास प्रयोग सीखों, मात्र नकारात्मकता न करेगी कर्म।     

रघुराम राजन अनुसार उत्तम शिक्षा-भृत्ति प्राप्त सहिष्णु हो रहे अधिक 
क्षुद्र भेदों पर न ध्यान, वंचित-अल्पसंख्यक-शरणार्थी भी अवसर प्राप्त।  
जनसंख्या वृद्धि से नगर अधिक गति से स्थापित, निर्धन को पर्याप्त भृत्ति  
जब आमदनी होने लगती, बच्चे पढ़ते, अग्रिम पीढ़ी भविष्य सुधरता ही। 

कई आंदोलन संयुक्त राष्ट्र द्वारा, बुद्धिजीवी-स्वयंसेवी आवाज उठा रहें
लोगों को जागरूकता-प्रेरणा, शासन अवहेलना न करे विवश करते। 
माना शासकों में हेंकड़ी होती, पर उनमें भी कुछ हितैषी-निर्मलचित्त 
समता-व्यवहार संविधान-मूलमंत्र, यही दुआ कि रहे नित प्रतिपादित। 

समुदाय-नेतृत्व पैदा करना होगा, संगठित हो करें वास्तविक हितकार्य 
सरकारों से अनुनय वार्ता शिक्षा-सेहत-मार्ग,समृद्धि-सुरक्षा की हो बात। 
बिन रोए तो माँ भी दूध न देती, अतः स्व अधिकारों की करते रहें बात 
पर अंतः से हर को बली होना आवश्यक, जिससे स्वयं पर हो विश्वास। 

सर्वप्रथम बाल-भविष्य सुधरना चाहिए, शिक्षा-स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान 
सामाजिक कुरीतियाँ-अन्धविश्वास दूर, सहिष्णु साहित्य का सान्निध्य। 
सदस्य एकजुट हो यदि निज पक्ष कह सकें तो ऐक्य-बल होगा दर्शित 
शासनार्थ उदारों को ही भेजे, जो सत्य-जरूरत समझकर ही करें कर्म। 

अतः निराशा की न कोई बात, विश्व-नागरिक हो किंचित जुड़कर रहो 
निर्मल-मूल्यों में विश्वासियों की संख्या बढ़ाओ, लोगों के मन से जुड़ो। 
जब उचित व्याख्या जग को देने लग जाओगे, तुम प्रति संवेदना बढ़ेगी 
जब पड़ोसी तुम्हारी सुरक्षार्थ खड़ा होगा, कोई न दे सकेगा तुम्हें हानि। 

मैं भी निज स्तर पर भी वंचितों को बली-सक्षम निर्माण का करूँ यत्न 
उनकी भय-शंका निर्मूल हो, पर हेतु समस्त वातावरण करूँ संयत। 


पवन कुमार,
२८ जनवरी, २०२० समय १२:२० म० रा० 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी ७ जून, २०१९ समय ८:५० बजे प्रातः)       

Sunday, 5 January 2020

जीवन-कोष्टक

जीवन-कोष्टक
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एक वृहद दृश्यमान समक्ष हो, मन के बंद कपाट सके पूर्ण खुल 
अनावश्यक बाधाओं से न ऊर्जा-क्षय, निपुणता अंततः प्राण-लक्ष्य। 

व्यवसायी-मन में अनेक गुत्थी स्थित, एक-२ कर कुरेदती रहती सब  
मन तो सदैव चलायमान, पर आवश्यक तो न सब बाधा हों विजित। 
एक स्तर है, परेशान-चिड़चिड़ा, भीक या प्रसन्न-सकारात्मक, निडर 
सब समाधान तो किसी को न, हाँ काल संग जीव धीमान ही अवश्य। 

जिंदगी परियोजना, किसी कर्म को सिरे चढ़ाना एक उपलब्धि-कला
सुचारु रूप से समस्या-समाधान हो, वे आऐंगी ही वाँछित सुदृढ़ता। 
कार्यसूची प्रतिदिन बने, प्राथमिकता भी सैट हो फिर हो कार्यान्वयन 
पर स्वयं न संभव, नदी में गिरे हो, हाथ-पैर मारकर ही बचेंगे प्राण।  

इस जीवन के कई कोष्टक हैं - कार्यालय, कुटुंब, कुछ मित्र-स्वजन  
इन्हीं में निज विचरे, कभी कुछ बात, लघु बाधा या विसंगति महद। 
मेरी विरक्ति दोराहों में विभक्त रहती, हर विषय लेता  विराट समय
क्षमतानुसार ही कार्य मिले, निबटान-सामर्थ्य, बनना चाहिए सक्षम। 

 लेखन-उद्देश्य मन के बंद गवाक्ष खोलना, जग के बड़े ढ़ोल भी देखूँ 
अतः इतना सुदृढ़ होना चाहिए, सौंदर्य देखकर यह विभोर हो सकूँ। 
समस्त अंग पुलकित होने चाहिए, सदा स्मित से हर हृदय हो विजय
हर जान को परखने की कला हो, आत्म-मुग्धता से तो होवे न कुछ। 

चक्षुओं को दूर-दृष्टि दे मौला, प्रकृति-सौंदर्य दर्शन से हों पुलकित 
प्राथमिकता जग का वृहत-हित चाहिए, उसी में लगे ऊर्जा सब। 
समाज-परिवार-देश प्रति पुनीत कर्त्तव्य है, बगिया महके, समझे 
सबके सुख में मैं भी, जग एक श्रेष्ठ जीवन-योग्य स्थल बन सके। 

जो भी कार्य-क्षेत्र है उसमें पूर्ण झोंक खुश होकर कर्म करते  रहे 
सब सर्वत्र को हो सकारात्मकता से लाभ, ऐसी प्रक्रिया जारी रहे। 
जीवन सार्थक बने, सोच-समझ इसकी राहें समझ बढ़ते रहो अग्र 
अनेक आशा से मुख देखते, खरे उतरो सफलता मिलेगी अवश्य। 


पवन कुमार,
५ जनवरी, २०२० समय ०१:०३ बजे म० रात्रि 
    ( मेरी डायरी दि० ३० अक्टूबर, २०१८ समय ९:२० बजे प्रातः से)

Saturday, 7 December 2019

महद तंतु

 महद तंतु
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अवकाश दिन संध्या काल, कुछ मनन प्रयत्न से सुविचार आए 
आविर्भूत हो मन-देह, सर्वत्र विस्तृत दृष्टिकोण से सुमंगल होए। 

बहु श्रेष्ठ-मनसा नर जग-आगमित, समय निकाल निर्मल चिंतन 
 उन कृत्यों समक्ष मैं वामन, अत्यंत क्षुद्र-सतही सा ही निरूपण। 
कोई तुलना विचार न संभव, मम काल तो स्व-जूझन में ही रत 
शायद प्रथम श्रेणी प्रारूप, चिन्हित-विधा अपरिचय, अतः कष्ट। 

प्रकृति देख नव-विचार उदित, शब्द-बद्ध कर विश्व-सम्मुख कृत
स्व-विस्मृति उपरांत ही निर्मल-संपर्क, शब्द-रचना हुई सर्वहित। 
मनुज के निर्मल रूप से ही ऊर्ध्व-स्तर, मृदु बनो उठे स्वर-लहरी 
 कालजयी ग्रंथ समाधि-रूप ही चिन्त्य, यति वृहद-मनन सक्षम ही। 

कुछ तो एकांत-चिंतन है महानुभावों का, मन उच्च-द्रष्टा यूँ तो न 
जग-अनुभव उर-रोपित, सर्वमान्य उद्धरणों द्वारा निज-उद्घोष।
अति-विपुल मनन, सर्व-ब्रह्मांड हो निज-कर, कई वर्ण-सम्मिलित 
विनीत-शैली, नर-कष्टों से करुणा, सर्वोदय हो सके यही योजित। 

कैसे विपुल-कथाऐं उनके मन-उदित हुई, वे भी  थे सामान्य नर
 किञ्चित आदि तो तत्र भी अल्प से ही, सततता से पार दुर्गम पथ।
दीर्घ-चिंतन एक विशेष में, सर्व-उद्वेग शमित व उच्च-स्तर लब्ध
विषय-प्रकृति दृढ़-पाशित, सब चरित्र स्व के  प्रारूप समाहित।

उस उच्च-अवस्था गमन प्रयास, पर कब लब्ध यह तो प्रकृति-कर
मन निर्मल, सततता हो ध्येय, कुछ नव-प्रारंभ हो सके यही जप।
पूर्व में तो धृति ही न थी उदित, संभव किसी महद रचनार्थ प्रयास
दैव सम प्रारब्ध का भी निज काल, आशा यह हो शीघ्रातिशीघ्र।

प्रयास-मति इन क्षणों की आवश्यकता, अध्याय से हो मधुर संपर्क
निज-हस्त आ सकें कोई महद तंतु, जिससे सफल हों अग्र चरण।
अनेक कथाऐं सदा विस्तृत दृश्यों में, बस एक पकड़ों दो परिभाषा
कोई न कर में कलम पकड़ाऐ, स्व-यत्न से ही सुलेखन-आकांक्षा।

उद्योग-प्रणेता, एकाग्रचित्त बन एक आदि करने का कर संकल्प
फूटेंगी नव-कोंपलें तुम रुक्ष तरु पर ही, अविचलित भाव तो भर।
जो असहज अभी दर्शित, वही देगा पथ जिसपर होगे तुम गर्वित 
एकाग्र-चित्त से दृष्टि-विस्तृत करो, अनेक विषय होओगे विस्मित।


पवन कुमार,
७ दिसंबर, २०१९ समय १०:३२ सायं
(मेरी डायरी ०१ दिसंबर, २०१९ सायं समय ९:१९ अपराह्न)

Thursday, 21 November 2019

संभव उदय

संभव उदय
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कितना ऊर्ध्व शिशु उदय संभव, इस मनुज के अल्प वय-काल 
चेष्टा से ही संपूर्ण कार्य परिणत, अनुरूप परिस्थिति मात्र सहाय। 

देश-काल में एक समय अनेक जन्म, आवागमन का ताँता सतत 
सबका तो निज समय व्यतीत, पर क्या उच्च स्तर से भी संपर्क ?  
मानसिक-भौतिक की उच्च श्रेणी से निष्णात घड़ित विद्वान-समृद्ध
उन्नत स्तर तो कुछ ही जन्म से, उनमें से अत्यल्प ही पाते सँभल। 

संपन्न-राजकुल जन्मा बालक, पूर्वज-योग्यता प्राप्त हो न आवश्यक 
प्रायः अपघटित कभी वृद्धि भी, निज प्रयास-परिस्थिति भाग अहम।  
कालिदास के रघुवंश में दिलीप-रघु, दशरथ-राम की गुरुता दर्शित
पश्चाद वाले शनै सुख-ऐश्वर्य में मस्त, व महान वंश हो गया विनिष्ट। 

उच्च महत्त्वाकांक्षी कुशल-चेष्टालू ही चाहिए, महत्त्वपूर्ण है प्रतिपल 
मुफ्त में न यश-श्लाघा प्राप्त, यदि भी तो अप्राकृतिक बस अनर्थ। 
योग्य तो बनो एक पद-स्तर के, हो मन में कुछ स्व-आश्वासन भाव 
हाँ अनेक कृत्रिम आत्म-मुग्ध, लघु मूढ़-कूप में ही लगाते छलाँग। 

किससे है निज  तुलना, एक स्तर देखोगे तो ही पाटन-दूरी ज्ञात 
कितनी ऊर्जा-वृद्धि  वाँछित, चरम-स्तर चूमने का लक्ष्य महान। 
अधुना काल में अनेक विज्ञान-अविष्कार, संचार-क्षेत्र अति-प्रगति 
वीडियो-दूरदर्शन, सोशल-मीडिया, अचरज-करतब सतत कई। 

कलाकार अति परिश्रम करते, उच्च अवस्था तो स्वतः ही न प्राप्त
अडिग यावत न वाँछित फलन, पूर्ण झोंके बिना तो न कोई बात। 
खेल-प्रतिभाऐं कठोर अभ्यास-परिश्रमी, अनुशासित लाभार्थ कुछ 
व्यर्थ तज ध्येय में रूचि, ऊर्जा-संघनन से सहसा विक्रम-पौरुष।  

क्यों मद्धम अवस्था में ही मुदित, जब खुले अनेक प्रगति-आयाम 
त्याग अति निद्रा-तंद्रा, घातक निम्न-प्रवृत्ति, तब  अति-दूर छलाँग। 
किसी दिशा बढ़ लो स्वरूचि अनुरूप, भाँति-२ के कुसुम-विस्मय 
अपने को कुछ प्राप्त ही, व्यर्थ सुस्ती छूटे व मिलें विकास आयाम।

अवसर मम  चेष्टा का ही स्वरूप, चलेंगे तो चक्षु दूर तक दर्शन
मन में  नवीन विचार, कई संभावनाओं का नृत्य-गायन प्रस्तुत। 
यदि कुछ जँच जाता, अग्र बढ़कर होता उस हेतु प्रयास आरंभ 
प्रगाढ़ इच्छा - बंद कपाट भी खुलें, लहरों से भीत तीर ही तिष्ठ। 

अपरिचित से तो सत्य-डर, शनै-२ आयाम सीख लो तो सौहार्द 
यह यथोचित प्रशिक्षिण, परिचय से पूर्ववत विस्मय लगे सहज। 
भय तो कुछ पलों का ही, उस पार ही तो खुलता विकास पथ 
प्रथम पग तो किंचित कष्टकारी, अभ्यस्तता से सुहानी पवन। 

अनेक व्यवधान, मन-अरुचि, आवश्यक कृत्य, और अन्य कभी 
शीघ्र निबट, मन सहज, कुछ विश्राम से गुणवत्ता-क्षमता वृद्धि। 
लक्ष्यार्थ जुट जाओ, थोड़ा-२ बढ़ने से ही है महद दूरी जाती पट
पूर्ण-स्पंदिन न अकस्मात, कई शनै-प्रक्रियाओं का ही है फल। 

सर्वपल न एक सम, मन जम जाता कभी चाहकर भी न प्रबल 
मन-देह नैसर्गिक प्रक्रिया, दैनंदिन क्षमताओं में वृद्धि-अपघट। 
फिर भी प्राण  चलित, अगर मन में प्रगाढ़ इच्छा है तो गतिमान 
जब दिशा लक्ष्य-इंगित तो क्यूँ डरना, पूरा न तो कुछ ही प्राप्त।  

चंद्र-मंगल आदि ग्रह चुंबन हेतु तो जरूरी फाँदना ही होगा गुरुत्व 
'निकास गति' से अधिक जरूरी, पुनः गुरुत्वाकर्षण से पतन वरन। 
कई विद्या-यंत्र-प्रक्रियाऐं सीखनी पड़ेगी, खगोलज्ञ करते अति-श्रम 
नासा, इसरो, रशियन स्पेस एजेंसी आदि, प्रयोगों से हैं होते सफल।

जन्म पर अदने से, पालन-पोषण-शिक्षण-स्वाध्याय से कुछ योग्य 
 परिष्करण एक सतत प्रक्रिया, जीवन संवारना है अपना दायित्व। 
लोहा तप्त रखना ही होगा, अवसर मिलते चोट, उपकरण फिर 
यंत्र सक्षम, पैदल से साईकिल, कार-वायुयान गतिमान अधिक। 

निश्चित ही भौतिक-मानसिक क्षमता-वर्धन से उच्च स्तर तक पहुँच 
जग में विशाल संख्या-प्रचलन, अल्प का ही उनसे आत्मसात पर। 
तन-कोशिका, मस्तिष्क-सूत्रयुग्म, केश-श्वास, प्रायः अगणित नक्षत्र 
पर सामान्य मन न सोचता, वह तो अल्प परिवेश में ही मस्त-व्यस्त।

पर महद-कर्मी दैनंदिन कार्यशैली में ही उद्देश्य हेतु पूर्ण समर्पित 
प्रेरणाओं का पीछे से सहारा, सुप्रबंधन प्रक्रियाओं का संग नित। 
कुछ शीघ्र ही अति-विकसित, जो असंख्य आजीवन भी असमर्थ 
कुछ तंत्र-विज्ञान जरूर इसके पीछे, किसी मंत्र से अग्र संवर्धित। 

अनेक चिंतक-प्रेरक-सज्जनों का प्रोत्साहन, पर सब श्रोता तो असम 
प्रवृत्ति 'खाया व मलरूप त्यागा', सुपाचन से न उपयोग हर अवयव। 
प्रचलित विचार-धाराओं व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ, नव-नियम स्थापन 
विश्व उनके पदचिन्ह चलता, उनका उद्देश्य मुख्यतया स्वहेतु ही पर। 

न्यूटन-आर्किमिडिज-एडिसन-आइंस्टीन-गैलीलियो-डार्विन से अनेक 
सुकरात-बुद्ध-कृष्ण-कबीर-हजरत-जीसस-लेनिन से हैं युग प्रवर्त्तक। 
व्यास-कालि, शेक्सपीयर- टेनीसन, टॉलस्टॉय-डांटे से  कवि-लेखक 
सिकंदर-चंगेज, अशोक-अकबर, सोलोमन-नेपोलियन से योद्धा-नृप।

पेले-ध्यानचंद, तेंदुलकर-फ्लेप्स, मुहम्मद अली-बोल्ट सी प्रतिभा-खेल 
विदुर-चाणक्य, मैकियावली, 'आर्ट ऑफ़ वॉर' के सुन तजू कूटनीतिज्ञ। 
ब्रूसली से स्फूर्त, बीरबल-चार्ली चैपलिन से विदूषक, निपुण जैफरसन  
प्लेटो-सिसिरो, अंबेडकर से विधिज्ञ, अर्थशास्त्री मार्क्स-आडम स्मिथ। 

अनेको-अनेक नाम उज्ज्वलित हैं विश्व में, जितने चाहो उतने लो खोज 
महामानव इस धरा पर सब ओर छितरित, आदर्शों की कोई कमी न। 
बिल गेट्स-वारेन बुफे-अंबानी, इलोन-मस्क, जुकेरबर्ग व स्टीव जॉब्स  
कैसे अल्प से इतने अधिक अग्र-वर्धित, कल्पना से ही खड़े जाते रोम। 

आज चिंतन-विषय स्व-वृद्धि, सब उन भाँति न तो स्व-रूचि अनुसार ही 
जीवन न मिलगा दुबारा, जो पूर्ण-उपयोग, कुछ ऊँचाई चूमो तुम भी। 

पवन कुमार,
२१ नवंबर, २०१९ समय १८:३५ सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ नवंबर, २०१६ समय १२:३० अपराह्न से)   

Monday, 4 November 2019

ऊर्ध्व-जिजीविषा

ऊर्ध्व-जिजीविषा 
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अजीब सी हैं ये सुबहें भी, ख़ामोशी से बैठने ही देती न 
कुछ पढ़ो, प्रेरक लोगों में बाँटो, बैठो जैसा हो दो लिख। 

यह निज संग सिलसिला पाने-बाँटने का, कुछ करने का 
अन्य साधु उपयोग थे संभव, पर अभी वैसा जैसा भी बने।
बकौल रोबिन शर्मा प्रातः ५ बजे वाले क्लब में होवों शामिल
अभी तो खास न हो सका, तथापि जैसा बनता करता निर्वाह
कभी अवसर मिला तो शायद वह भी या और उत्तम होगा। 

न एकलक्षित, कुछ पूर्व सोचा सीधा लेखन पर आ जाओ 
मन बोला कुछ प्रेरक पढ़ो, व्हाट्सएप्प आत्मीयों में बाँटो। 
अवश्य कि पढ़कर ही अग्रेसित, बिन समझे तो है अनुचित
ट्विट्टर जोड़ता कुछ अनूठे व्यक्तियों से, छापते उत्तम नित्य। 

अनेक भली चीजें बिखरी सर्वत्र, वाँछित उठाने का इच्छा-बल 
माना लब्ध सीमित समय-ऊर्जा, तो भी सोचकर कुछ चयन। 
अनेक सहयोगों से ही सार्थक परिवर्तन, अन्यों हेतु भी उद्देश्य 
जीवन निजोपरि होना चाहिए, जब नहीं रहूँगा मेरे होंगे शब्द। 

कैसा दिग्गजों का जीवंतता प्रयास, बाद भी देह-प्राण गमन
क्या सहज पथ या व्यक्तित्व शैली, बलात तो बड़ा न संभव। 
न कोई होड़ आगे निकलने की, जिसकी जो समझ रहा कर
तथापि शक्ति अनुरूप क्रियान्वित, समयाधीन तो परिणाम।

विटप से अंकुर -पादप, फिर सुरक्षित-स्वस्थ  पूर्ण वृक्ष रूप
कई अवस्था, नित-संघर्ष, अनेक आत्मसात, निर्वाह कठिन। 
प्राकृतिक साधन, भला परिवेश है तो गति संभावना अधिक 
अन्यथा अनेक स्व ही हट रहें या हटाए जाते, निर्बल बेबस। 

कली-पुष्पन, सूर्योदय संग विकसन, साँझ ढ़ले पँखुड़ी निमील 
प्रकृति सुगंधि, परिवेश सुरुचिर-प्रयास, स्व ओर से न कसर।
नैसर्गिक या अदम्य प्राण-शक्ति, पूर्ण झोंकूँ हेतु जग-निखरण
यह हर अंतः-गुह्य, वे भली जाने अभी  स्वयं की करता बात। 

अवश्य सब निज भाँति कुछ कहते, ख़ामोशी-मस्ती मशगूल 
क्या उससे अच्छा था संभव या उनके व्यक्तित्व का प्रयत्न।  
कमतर प्रयास भी न, उपलब्ध ऊर्जा से  कर सकते अधिक 
जिजीविषा है ऊर्ध्व की, अनुपम-मिलान का प्रयास किञ्चित। 

कोई यत्र मस्त, कोई तत्र उसमें, निज प्रयास पूर्ण निखरण का 
प्रयास भी एक बड़ा शब्द, मन से जुड़ स्व से जूझना सिखाता।
जैसी स्थिति भी उत्तम करना, ऊर्जा सहेज कर जाना अनुपम
दिल से जुड़न निखरण-प्रक्रियाओं से, खुलें विकास के पथ। 

प्रथम अंतः-प्रेरणा ही, तभी प्रातः जल्द जग अन्न -जल प्रबंधन 
स्वजनों का ध्यान, तन को गतिमान रखने को उचित व्यायाम। 
पड़ोसियों-समाज से हो सहयोग, मेरा सा व्यवहार वे भी करेंगे
फिर बाँटूँगा तभी मिलेगा, स्व सहेजा  सबके काम का बनते। 

अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संग जुड़े, अपने में धुरंधर मान लो तुम 
यदि न करूँ तो भी भले-चंगे, किसके जाने से रुका यह जग। 
पर जीवन कैसे फलीभूत, अकर्मण्य रहकर यूँ बीत गया यदि  
औचित्य प्रमाण प्रथम आत्म से, अन्य भी आँकेंगे किसी भाँति। 

जग के सहज-चलन में सहायतार्थ, हृदय-गति समझनी होगी 
उचित संवेदन-उकेरन-व्यायाम से स्वयं प्रतिपादित यत्न-गति। 
ये चेष्टाऐं सक्षम स्व-निर्माण हेतु, नियम-कायदे तो सीखने होंगे 
कैसे महक सकती जग-बगिया, माली-पुष्प बन सहयोग करें। 

चलो मानते निज नितांत भी न चिंता, हूँ पूर्णतया जग-समर्पित 
जो भी हूँ इससे ही, इस हेतु व गणतंत्र भाँति इसका ही अंश। 
कोई न एक विशेष इकाई, स्वस्थित होते भी कण विश्व-ब्रह्मांड 
संभव योगदान सुनिर्वाह में, न झिझकूंगा, मेरी भी सीमाऐं हाँ। 

इस  कार्यशैली से ही पथ अग्रेसित, कालजयी न सही तो कुछ 
सब कालों में था, हूँ, हूँगा, पर अभी है बात चेतना आधार पर। 
इस संज्ञा-रूप जन्म का महद काल विसरण व हेतु ही प्रयास 
सब पूर्वज, अद्य सखा-सहयोगी, भविष्य के कर्मठ भी स्वरूप। 

एक वृहद में सब लुप्त, सागर में जल-कण क्या श्रेष्ठ या निम्न 
सर्व-मिलन से अनुपम जलराशि, सार्थकता में स्वयमेव निज। 
प्रति वाष्पकण सहयोग, वही पुनः-२ भिन्न रूपों में लौट आता 
जग-सुनिर्वाह में पूर्ण न्यौछावर, सार्थकता है अस्तित्व हमारा। 

कैसे हो सुबुद्धि-विसरण, यदि दक्ष तो क्या औरों में  सकता बाँट 
एक आयाम-योग से अन्य प्रभावित, पर सीमा में ही संभव काम। 
प्रयास से है सीमा वर्धन, जब चलोगे तो कुछ अन्य हो ही लेंगे संग 
अन्यथा भी भला आरोग्य हेतु, ज्ञान-प्रवाह ही तुम्हे बनाएगा उत्तम। 

सहज ही ये अनूठे शब्द उदित, मस्तिष्क में कुछ तो महाप्रयाण 
यह विपश्यना कैसे संभव, सुघड़-विचरण स्वतः ही है प्रस्फुटित। 
बुद्ध, सुकरात, महावीर की चेतना में भी रहे होंगे प्रयोग अनेक
कुछ असहज क्षण ही पकड़े होंगे, समेकित कर अनुपम बाहर। 

मेरा लेखन भी स्व से ही झूझना, चित्त हो निर्मल तो सब द्वेष बाहर
प्रयास जग हो मधुर-सुंदर, जितना बन सकेगा,  जान दूँगा लगा। 
दायित्व बहु-आयामों का इर्द-गिर्द, पूरा करने में न कोई हिचक 
कैसे हो गण-जीवन सुभीता, न मात्र  रुदन, संभावनाऐं तलाश। 

सेवी दिल से समझो अबलों प्रति दायित्व, सबकी अवस्थाऐं विभिन्न
वे भी कल्पतरु बनेंगे, शुभ्र सौंदर्य, सबकी मनोकामना पूर्ण समर्थ। 
पर तभी संभव जब निज का ही उभरन-प्रयास, फिर न कोई बवाल
तब स्वयमेव परस्पर संगी-प्रेरक, जग-आगमन होगा कुछ सार्थक। 


पवन कुमार,
४ नवंबर, २०१९  ७:४० सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २९ दिसंबर, २०१६ समय ८:२६ प्रातः से)  


Saturday, 19 October 2019

जननी-कार्य

जननी-कार्य
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 प्रकृति से एक मूर्त मिली, सब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि से युक्त 
खिलौना तो है सुनिर्मित, पर अज्ञात कैसे हो रहा है प्रयोगित। 

विधाता-बुद्धि है सशक्त, एक अच्छा कलाकार इतनी सामग्री 
अपनी ओर से न कसर, सब चर-चराचर उसी की कलाकृति। 
माना पूर्ण-निर्माण हर विधा में, यहाँ-कहाँ विसंगतियाँ भी कुछ 
कमोबेश सब हैं पूर्ण स्वतंत्र, चाहे तो आराम से जीवन व्यापन। 

विज्ञान भाषा में मानव व अन्य जीव-वनस्पति विकसित यहीं 
प्रक्रिया अति जटिल, विकास पर आज एक धारणा है बनी। 
विधाता या ईश्वर का न कोई स्थान, सर्व समय-परिवर्तन देन 
शनै-२ युगों बाद अद्यतन  स्वरूप, अग्र भी ढंग से ही निज।

कुछ कहो ईश या प्राकृतिक कारण, रचना हेतु जीव-मनुज
हम न मात्र उपकरण, सच वृहद चेतना का ही विपुल अंश।
स्वतंत्र मनन-विचरण हेतु, चाहे तो निज-स्थिति सकते बदल
जरूरी न बस एक जगह पड़े रहो, जग-भूमि तव  ही सब।

संघर्षशील बाह्य-वातावरण, वर्चस्व बचाने हेतु मारे फिरते
हमीं सर्व धन-संसाधन घेर लें, और कहाँ जाते न पता हमें।
व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत, पाटन-प्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष
मन में तो हूक चाहे न सक्षम, महत्त्वाकाँक्षा गुण नैसर्गिक।

कुछ जीव हैं तन-बली, दुर्बल-जीव भी युक्ति से हराते पर
खाली बैठा तो भूखा ही रहेगा, या अन्य द्वारा होगा भक्षित।
एक होड़ सी है श्रेष्ठता-सिद्धि की, येन-केन प्रकारेण सफल
सब तीस-मार ख़ाँ, पर बहुदा पराजय देख कम करते यत्न।

जग-चर्या की क्या कहूँ, प्रायः घुटती उदासीनता ही दर्शित
कुछ नर तो अति-त्वरित, पर अनेक तंद्रा से न बहिर्गमित।
देह-मन थकन एक शुल्क लेती, कथन से ही न सब संभव
नेत्र बंद तो कलम भी कंपित, कैसे भला ऐसे उम्दा उदित।

एक उत्तम उपकरण मुझे भी मिला, पर कैसे प्रयोग हो रहा
यह मैं हूँ या प्राकृतिक-चेतना, जो स्वयमेव रखे चलायमान।
क्या हूँ जो स्व ही चाहूँ, जब निर्माण-लक्ष्य बहुदा सार्वजनिक
यहाँ स्थिति भिन्न, बना तो लोकहित हेतु पर मैं मात्र स्वार्थरत।

किसका श्रमिक, किसको कार्यकलाप का लेखा-जोखा देना है
 मन चंगा पर कौन डंडा हाँकता, निज ढंग काम स्वछंद क्षण में।
निज-विश्व स्वयमेव निर्मित, समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले खड़े किए
अभी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा, सदा प्रेरित ही चेष्टा से।

किसके प्रभाव से अद्य-परिस्थिति में, उसमें मेरा कितना अंश
क्या यत्न, हाँ कोई न अपना कहेगा यदि समय कठिन घटित।
तथापि कुछ तो सराहनीय प्रयास, यदि सकारात्मक परिवर्तन
हर ईंट-जोड़ से ही गृह-निर्माण, निर्माता-निर्मित दोनों ही मैं।

विराट प्रश्न पूर्वैव-इंगित, क्या हूँ पूर्ण-स्वतंत्र, परतंत्र या मध्यम
दर्शनों के भिन्न निज-तर्क, पर सक्षम को कर्म के कई अवसर।
माना बहुत जग टाँग-खिंचाई, सत्य में लोगों पर होते भी जुल्म
तथापि नर में अदम्य-शक्ति, चाहे तो विश्व-भाग्य पलट सक्षम।

तो क्या स्वयमेव भाग्य-विधाता, अमूल्य उपकरण मुझे प्राप्त
कुछ मूरतें विश्व-हित चिन्हित, निज न कुछ बस वेला-व्यापन।
पर जितना है समय-ऊर्जा, सार्वजनिक हित में होउपयोग-पूर्ण
कई भाग्य बदले यहाँ तुम भी सकते, चेतन हो लो कर्मठ-पथ।

माता-पिता पाल-पोस पाँव पर खड़ाकर गमित परम-धाम
क्या लक्ष्य था निर्माण का, या सब जैसे बस संतान उत्पन्न।
एकदा हास में माँ से कहा, स्वाद में पैदा किए इतने बालक
युवा-सुख में गर्भधारण, पर प्रमुख उद्देश्य रूप निज सम।

यही निरंतरता की अदम्य-इच्छा, जग-रचित अनेक प्रपंच
विवाह, यौन-संबंध, संतति-पोषण उसी प्रक्रिया में चरण।
अभिभावकों का संतान-मोह, यत्न से पाल-पोस बनाते अर्हत
हम कुछ दिवस के प्रहरी, भविष्य इनका ही व भी दायित्व।

सबको समय क्रीड़ा-मस्ती का, लड़ना-भिड़ना, लेने को पंगा
तुम्हें भी मिला ढंग से जीतो, न शिकायत सब प्रकृति समक्ष।
पर इसी स्वतंत्रता में है तव दायित्व भी, अपने हेतु ही न मात्र
जीव-निर्माण एक महद उद्देश्य हेतु, पर अपना मूल्य तो जान।

जिन वस्तुओं में तव है जीवंतता, शायद वही जीवन-मापदंड
सीमा महद करो अद्य लघु-कोटर से आगे, जग ही कार्य-क्षेत्र।
जहाँ जाओ अमिट छाप छोड़ दो, निज दृष्टि में ही कमसकम
जितना मुझसे संभव उतना तो किया, चेष्टा करूँ और उत्तम।

परियोजना की भी योजना, सर्व भाँति का वाँछित ऊर्जा-साहस
यदि वर्तमान से अग्र दर्शन-शक्ति, निश्चिततया परम-यश लब्ध।
लोगों को मिलाना प्रयासों में, उनका बल-संबल अति महत्त्वपूर्ण
पर पूर्ण-जागृति आत्म-जाग से ही, अन्यों का तो मात्र सहयोग।

पर नर-योग्यता में तुम श्रद्धा करना सीखो, वे कर देंगे अचंभित
मुस्करा कर श्लाघा-प्रेरणा-प्रोत्साहन से, काम निकलवा सीख।
वे तुमको सुपर्द काम लेना तेरा हुनर, माना सबमें कुछ तो कमी
बस ठीक कर पथ बनाते चलो, मंजिल निकट शीघ्र ही मिलेगी।

यह जीवन मेरा ही, स्वयं हेतु निर्मित, मैं संचालक, प्रकृति-दूत
बड़ी अपेक्षा, जननी-कार्यों में प्रयास-सहयोग हो, करो सार्थक।
देश-समाज-विभाग कर्मियों से विदित, दो एक उत्तम वातावरण
जब अन्यों को आदर  देना शुरू कर दोगे, बनोगे कुछ सार्थक।

एक उत्तम-स्थल रखा प्रकृति ने किंचित, पर अपेक्षित अति-महद
हर दिन महत्त्वपूर्ण त्वरित प्रक्रिया हेतु, कसौटी समय-सदुपयोग।
जिससे बात करनी हो करो, संसाधन-विकास, पूर्ण-उत्पादक स्थल
कर्मयोगी बन सब संगी-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम करो उन्नत।


पवन कुमार,
१९ अक्टूबर, २०१९ समय ५:५१ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० ३०.०३.२०१७ समय ९:०७ सुबह से)