Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Tuesday, 13 September 2022

ककहरा-आलाप

ककहरा-आलाप 

--------------------

 

ज़िंदगी गले लगा, वक़्त के ककहरे सिखा, अभी बहता सा मात्र 

जग-रेलमपेल में व्यस्त, नितांत अजान, मुस्कान के दे कुछ पल।  

 

यह लेखन ऐसे दौर से विलगाव हेतु ही, बुद्धि प्रयोग से ज्ञानार्जन 

एक स्वयंभू सी आत्म-सृष्टि, इस गुप्त सामग्री  कर रहा प्रकट। 

अमूल्य निधि भवन में दबी, स्वामी कंगाल, दयनीय-असहनीय  

कैसे होऊँ उऋण, बड़ी मार खा ली, बल लगा परिवर्तन -यत्न। 

 

दशा कस्तूरी-मृग सी, सब स्रोत अंतर्लुप्त, बाह्य गवेषण विभ्रमित 

संपूर्ण बुद्धि-अनुभूति, वेदादि वाणी से रंजन हेतु गा लोरियाँ कुछ। 

अंतर्तान सुना, भाव बाहर ला, कुछ मृदुल गूंज दे जो बिखेरे पूर्णता

गुरु-संपर्कसौम्यता से परिचय, अंतर्विरोध हटा, क्रांत-द्रष्टा बना। 

 

उत्साह-निर्भयता मनवासित, कर्त्तव्यमुखी, कुछ गायन विधा सिखा 

उन्नत-पथ, ज्ञान-गुहा प्रकाशन, शुचिता अभिमुखदीक्षित योगविद्या। 

तंद्रा तज चेतना-संसर्ग, निरुद्देश्यी प्रतिद्वंद्विता हटा सुचिंतन प्रतिष्ठित 

दिव्यदृष्टि सी सिद्धि, एकाग्रता की रिद्धि,  मन से हटा अवसाद सर्व।

 

सर्व भू प्राणी - कृतार्थ प्रेरित, स्मृति - पटल प्रखर, कर बुद्धि निर्मल 

तन-मन शिथिलता-रुग्णता-कलुषता हटा, धन की स्वच्छता पवित्र। 

प्रजा-वत्सल, सकल विज्ञान-ज्ञाता, विश्व -कल्याण का तू प्रणेता बना 

मूढ़-दूरी हो श्रेष्ठ शिक्षार्थी मित्र, विचक्षण से संपर्क, अविश्वास निवार।

 

शंकराचार्य सा अद्वैत दर्शन, राम-मर्यादा, बुद्ध-ध्यानगांधी सी समझ

महावीर-तप, शिव-सत्यप्राणी-स्नेह पूरितत्रुटि-त्राण, दूर-दृष्टि प्रखर।

 सिद्धि-पथ समझ, अनुशासित जीवनप्राणी-स्नेह, यम-नियम में ध्यान 

 स्वाहा सब प्रपंचभ्रांति ध्वस्त, प्रतिबद्धता-कर्तव्य, कर्म-ज्ञान निपुण। 

 

श्रेयस आयाम अपनाने से तरूँ, कबीर सम नाम जपने लग जाऊँ 

स्वगान लीन हो, बावरी मीरा सा कृष्ण-रंग में पूर्ण बिखर जाऊँ। 

कतरनें जुड़ें सब, एक पुत्तिका सा करूँ नर्तनबहले सबका मन 

 हो सब पुरुषार्थ मनन, दे शुद्ध अन्न, बुद्धि प्रखर-उज्ज्वल दे कर। 

 

एक उत्सव-मुदित भाव, गन्तव्य लाभ, नियुक्तियाँ-साकार बना 

६४ कला -कृष्ण, अनुकृति पूर्ण पुरुष, कर्म-निर्वाह निपुणता। 

विश्व- रहस्य समझ, शांति-कर्म दक्ष, सुयोग्य योजनाकार सम 

कला -कौशल ज्ञान, वाग्देवी-वर लाभ, लेखनी-भाव निष्णात। 

 

अंतर्वाक्य - स्वर, आदि से अनादि भ्रमण, पूर्ण भूगोल घूर्णन 

विभिन्न संस्कृति -दर्शन, विद्वान-वार्ता में सम्मिलन का हुनर। 

ब्रह्मांड ज्ञान कर-हथेली, सब विरोध-क्लेश-कोलाहल-भय तज 

सब  मूर्खता त्याग हो शुचिता-मित्रता, विषमता फिर  समतल।

 

प्रज्ञावान बना, सुरुचिर वाद्य-नाद मन, विरक्ति संवादों से व्यर्थ 

वार्तालाप - सफल, श्रेष्ठ व्यक्तित्व समृद्ध, भोर में उषा-दर्शन। 

अभिभावक-शैली में सम्मिलित, सज्जन-बंधु सहायता में प्रेरित 

मित्रों की आस, शत्रु मुख उदास, अंततः शत्रुता कर दे रिक्त। 

 

 निर्मूल विकार सबउचित निकट समझ, हितार्थ अभिरुचि सर्वत्र 

सुसाहित्य प्रस्तुति, कालजयी कृति, विश्रुत सम्मान, निवार दुर्जन। 

एक मनस्वी-कर्मयोगी सी शैली, पूर्ण ज्ञान एक अकाल पुरुख सा 

अहिंसक-करुणावान, सर्व-स्नेही परिचय, सुसंस्कार निकट बसा। 

 

वैज्ञानिक-अन्वेषणरहस्य उद्घाटन, तकनीक-संयंत्र अनुसंधान 

चरमतम स्तर का ज्ञान-वर्धन साहस, पूर्णतया विरक्ति- अभिमान। 

विनयशील, प्राणपथ प्रशस्त, पूर्ण कर्म-समर्पण से श्रेयस उदाहरण  

सहक्रिया-सुपरिवेश निर्माण, सर्वांगीण विकास हो सब चेष्टा-उभार। 

 

सुशब्द उदय, व्यवस्थित सुंदर भाव, कुण्डिलिनी सी शक्ति-जागृत 

 बहु अवसर-संभावनाऐं अनंत, दुष्चेष्टा निरोध हो प्रशांत सा चित। 

एक पुण्यी -चेतनासुयत्न-कर्मठता, समृद्धि-प्रणेता, व्याधि -त्राता 

सुयुक्ति-अभिनव, सहायक-दिवस, सौम्य-वाणी, सर्वजन हों संग। 

 

यही एक आशा है। 

 

पवन कुमार,

१३ सितंबर, २०२२ समय ०७:४७ बजे प्रातः 

(मेरी डायरी अगस्त, २०२१ मंगलवार, :४३ बजे प्रातः से )


Monday, 5 September 2022

मन - उड्डयन

मन - उड्डयन 

-----------------


चलो देखते कितनी उड़ान हो सकती, कहते हैं मनन की सीमा कोई  

अनेक बाह्य आवरणों से यह पूर्वाच्छादित, गुह्य स्वरूप दर्शन सरल। 

 

उड़ान तो नभ में ही है संभव, विस्तृत गगन समक्ष मात्र पक्षों को है संभालना 

वक्ष में बल,  पूर्ण साहस दृष्टि पैनी, दूर-विचक्षण की मन में प्रबल लालसा। 

एकान्त-प्रेम, लक्ष्य प्रखर, परत-दर-परत रहस्योद्घाटन, उन्मादी सा मानस 

मंजिल-स्पर्श बललग्नशील, अभीक, पूर्ण व्यक्तित्व, मानस से तट पर वास। 

 

निगूढ़ शून्यता, मात्र आत्म ही, किसी बाह्य से किंचित द्वेष-कुत्सा या भय

निज कार्यक्षेत्र, पूर्ण शक्ति-प्रयोग, जितनी अधिक गति वर्धित तथैव उत्तम। 

अनेक बाधाऐं मध्य में, निबटना भी कला, हर क्षुद्र विचार पर देना ध्यान 

समय-ऊर्जा महत्त्वपूर्ण, सदुपयोग से सुरम्य राह खुले अनुपम से मिलनार्थ। 

 

मेरी सीमाऐं क्या मात्र मनन-लेखन तक ही हैं, या कहीं अग्रिम भी संभावना 

क्यूँ अटके आकस्मिक आयामों में, या स्वयं ही अवाँछित विषय उठा लेता। 

सतत प्रवाह बाधित, किसी रमणीय-लक्ष्य में लगती ऊर्जा यूँ बाहर छितरित 

पर अभी प्रण मात्र स्व में लोपन का ही, कुछ श्रेष्ठ अंतः से हो जाए निकसित। 

 

यह उड़ना क्या है बस एक संकुचन सा, साँप ने है स्वयं को केंचुली में लपेट रखा 

कूर्म बाह्य खोल में लिपटा, झाऊ मूसा अंतः-अंगों को कांटे सम बालों में समेटता। 

घोंघे ने शंख-कोकला पहन रखा, पंछी तो लघु बस पंख उसको बड़ा सा दिखते  

विशाल महल में नृप एक लघु कक्ष के पलंग पर सोता, बड़ा फटाटोप ऊपर से। 

 

शरीर तो विशालाकार पर मन-बुद्धि तो मस्तिष्क-ललाट पर ही समक्ष बसती 

मन भासित चेतन-अवचेतन में व्यस्त सा, विचक्षण रूप भी दिखा जाता कभी। 

यह दिव्यात्मा भी देह में  कहीं छुपी सी रहती, नाद करती मैं यहाँ चिहुककर  

नीली व्हेल की प्राणियों में महदतम देह, सोचती तो सूक्ष्म मन से ही होगी पर। 

 

सब निज मनन-स्तर पर विकसित, पर अनिवार्य  प्रत्येक पकड़ ले कलम 

सभी जीव स्व भाँति विकसित, मानसिक श्रेणी पर वे एक स्तर है संभव। 

बौद्धिक उपलब्धियों की तुलना यहाँ , पर मानव- में अनेक विविधताऐं 

जब किञ्चित भी मति प्रयोग शुरूज्ञान-वैभव की अविरल धारा लगे बहने। 

 

एक महाकाय दानव लेकिन जान तोते में, इसी तरह हम सबका है हाल कुछ 

ऊपर से अति रुक्ष-कर्कश-वीभत्स प्रतीत, अंतः अतीव मृदु संवेदनशील पर। 

पहलवान एक विशाल डील-डौल बना लेता, पर दिल तो उसकी नन्हीं बच्ची में  

यह जग सब गुड़ियों का खेल सा, चाहे-अचाहे व्यस्त रहते छोटी-बड़ी चीजों में। 

 

एक बड़ी हथिनी से नन्हा शावक जन्मता, बड़े जतन-प्रेम से सहेज-पालन करती 

निज बच्चे की देह आकार का ध्यान है, तथापि बछड़े को भी चतुर समझती। 

प्रेम-स्नेह-वात्सल्य-दुलार-आत्मीयता ऐसे भाव हैं, तुलना करते बस जुड़ जाते 

आपसी मृदुल-संबंध अहसास से जीवंतता आती, स्वार्थ तज हम निर्मल बनते। 

 

माँ नन्हे-मुन्ने में ही खोई रहती, उसका ही ध्यान ही किञ्चित काम एक बस 

पवित्र-स्नेहिल दृष्टि उसे आत्म-रूप ही तो मानती, माना कि एक छोटी रूह।

चंचलता मन में रहती बस काम से मतलब, मन-निकटता में ही प्रमुदित 

बूढ़े माँ-बाप देख एक जैसे होने का अहसास होता, कोई भी दूरी समक्ष। 

 

तब स्वार्थ तजना आना चाहिए, अपनी औलाद प्रति यदा-कदा क्यूँ विरोध  

कर्कश सा हो संतति से विद्वेष की सोचते, जैसे वे हैं तुम्हारा एक भाग। 

नर-हृदय इतना विपुल तो होना ही चाहिए, संतानों का करें भले से पालन  

माना सबका निज कमाई से भरण-पोषण हो, पर कुछ तो कर्त्तव्य-तात। 

 

संबंधी, बंधु-मित्रों पर ध्यान देना चाहिए, उनके जीवन में भी हो कुछ  प्रगति 

जो भी आर्थिक-सामाजिक-नैतिक संबल दान संभव, उदार हो खोल दो मुष्टि। 

एक की उन्नति का निकटस्थों को लाभ मिलना चाहिए, आखिर वे जाऐं कहाँ 

उन्हें सक्षम-निर्माण में सहयोग-आवश्यता, श्लाघ्य क्षीण-पक्ष प्रति नेत्र मीचना। 

 

तुम अपना विराट स्वरूप पहचानो, बिना प्रमाद भयरहित होकर काम करो 

लोक की तुमसे बड़ी आशा, अपना प्रेम तो बिखेरो, संग सुयोग्य करो उनको। 

वे भी योग्य बन निज पैरों पर खड़े हों, जीवन प्रति बनाए सकारात्मक रुख  

सर्व नियम जन-स्वावलंबन के, अवरोध हटा राह सुगम कर चलो अवरुद्ध। 

 

आओ बड़ा सोचें परिवेश सुधारे, हर किसी को पनपने का प्रदान हो अवसर 

नीति-निर्माण में सहयोग हो, अमल भी जरूरी, सुनिश्चित करो जो श्रेष्ठ संभव। 

 

 

पवन कुमार,

सितंबर, २०२२ सोमवार, समय :१५ बजे प्रातः  

     (मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ११ सितंबर, २०१८ मंगलवार प्रातः :५३ बजे से