Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
Kind Attention:
Sunday, 4 September 2016
Sunday, 14 August 2016
लक्ष्य-कटिबद्धता
क्यों अटके हो यत्र-तत्र,
दृष्टि-गाढ़ करो उत्तम लक्ष्य हेतु किंचित
यदि क्षुद्र में ही व्यस्त
रहोगे तो कैसे रचे जाऐंगे महाकाव्य-ग्रन्थ?
माना लघु ही जुड़ बृहद बनता,
लक्ष्य हेतु कटिबद्धता चाहिए पर
रामायण, महाभारत, बृहत्कथा
संभव, चूँकि लेखन था अबाधित।
एक लक्ष्य बना, स्व-चालित
हुए, कुछ प्रतिदिन किया अर्पित तब
एक विशाल चित्र मस्तिष्क में
बना, मध्य की कड़ी मनन-लेखन॥
मैं भी कागज-कलम उठा लेता,
किंतु अज्ञात कृति निर्माण- विधि
बस चल दिया यूँ ही, योजना तो
बनी न, क्रमबद्धता कहाँ से आती?
जीव- प्रतिबद्धता जब लक्षित
ही होगी, तभी तो बनेगा कुछ प्रारूप
कुछ लिख दूँगा एक मन-विचार
ही, पर समक्ष तो हो प्रेरणा-स्थूल॥
एक शब्द-लेखन हेतु भी
सामग्री चाहिए, यूँ ही तो नहीं ऊल-जलूल
बहु-नर प्रगति कर रहें हर
क्षण में, मुझ मूढ़ से रमणीय निकले न।
इन समकक्षों में से ही कुछ
महान बनेंगे, इतिहास में कमाऐंगे नाम
जो जितना डाले उतना ही
मिलेगा, बिना किए तो कुछ मिलता न॥
तब क्यों न प्रयास
योग्य-उच्चतम-उपयुक्त हेतु, यश तो चाहिए पर
वह भी न हो तो बस कुछ बेहतर
कर्म-इच्छा, प्राप्ति दैवाधीन सब।
पर युक्ति हो तो अवश्य
सुगम-पथ, पुरुष बाधाओं से पार हो जाते
यूँ ही समय नहीं गँवाते,
समर्पित हों पुनः-2 प्रविष्टि हैं जता जाते॥
चिंतन का भी चिंतन चाहिए,
पर्वत खोदने से ही मिलेगी कुछ धातु
अल्प-श्रम से कभी ही
सु-परिणाम, सर्व-औजार क्षमता वृद्धि हेतु।
महासार का मूल्य चुकाना
होगा, मुफ्त प्राप्ति से तो पाचन न होगा
निज बूते पर कुछ बन दिखाओ, अयोग्यों को ही
सुहाती अनुकंपा॥
मम जीवन का क्या सु-ध्येय
संभव, कलम से तो अभी नहीं है इंगित
बस यूँ ही स्व- संग बतला
लेती है, पर क्या काष्टा रहेगी ही सीमित?
पुरुष स्व-वृत्त बढ़ाते, मोदी
को देखो चाय-दुकान से विश्व-नेता स्वप्न
कितने ही नित होते
विज्ञ-समृद्ध, निज हेतु क्यों न बनाते हों सुपथ?
कुछ जाँचन अवश्य चाहिए,
अपेक्षा- संभावना उपलब्धि की किस
बस छटपटाने से काम न चले,
रोग क्या है व उपचार तुरंत प्रारंभ।
लक्ष्य-निर्माण चाहिए इस
अकिंचन को, चाहे प्रकृति ही या अंतर्यात्रा
कितना भी वीभत्स हो सब तम
निकाल बाहर फेंको, नहीं है चिंता॥
कलम-कागद हो सुप्रयोग,
चित्रकर्मी की बस न है कूची से पहचान
सामग्री-औजार से किसी को न
मतलब, पर क्या रचा है महत्त्वपूर्ण।
परिप्रेक्ष्य-निर्माण
निज-दायित्व ही, प्रक्रिया कुछ काल पश्चात नगण्य
अंततः परिणाम में ही रुचि
है, भोजन चाहिए, कैसे बना न मतलब॥
पर यह एक श्रम का विषय है,
जब निकेतन बनेगा तभी संभव वास
यदि कृषक खेती न करे, कहाँ
से खाना मिले, किसी को न है ज्ञात?
जीवन इतना तो नहीं सरल
निट्ठलेपन से चले, सुस्तों की देखो दीनता
देखकर विभिन्न प्रयोगों का
विस्तीर्ण, अपने मन को मैं सकूँ महका॥
क्या मुझसे भी कुछ उत्तम सम्भव
है, प्रशिक्षण योग्य संस्था में ले लो
नौसिखिए सम न करो आचरण, क्या
उचित विधि ही है अपना लो।
सामग्री क्षमता -गुणवत्ता
वर्धन हेतु है, शक्ति मात्र तुम तक न स्थित
यदि सहारा लो उपलब्ध
युक्तियों का, निस्संदेह कल्याण है सम्भव॥
निज शक्ति बढ़ाओ मित्र-बंधु
सहयोग से भी, यह सर्व-जग तेरा ही
मानो मूल्य देना ही होगा,
क्यों हो डरते, उत्तम वस्तुऐं महंगी होती।
जीव-कल्याण इतना भी न सुगम,
मन की मर्जी तो नहीं, होए स्वयं
प्राण-समर्पण तो करना ही
होगा, बिन मरे तो स्वर्ग-दर्शन असंभव॥
किंचित विशाल सोचो, लिखो
भित्ति पर तो, सदैव प्रेरणा रहे मिलती
पथ बहु सुगम हो जाता है, जब
चलोगे तो मंजिल जाएगी दिख ही।
मानव-धर्म है उच्च-प्रेरणा
हेतु, वर्धन हो निज तुच्छता से ऊर्ध्व-मन
स्व-उत्थान निज-दायित्व ही,
कोई आकर न शीर्ष पर करेगा तिष्ठ॥
मन सन्तोष में पढ़ेगा तो,
यकायक सफलता-कुञ्ज में ही प्रवेश होगा
शरीर-बुद्धि दोनों प्रसन्न
होंगे, वास्तविक उद्देश्य भी तब इंगित होगा।
यह एक विडम्बना है, एक कदम
बढ़ाने पर ही अग्र का पता चलता
एक उपाधि मिली तो अन्यों में
उत्सुकता बढ़ती, विवरण है मिलता॥
प्रथम दिवस ही किन उपाधियों
का संचय होगा, ऐसा तो सदा अज्ञात
हाँ कड़ियाँ जुड़ती जाती, एवं
कदम बढ़ते, महद दूरी तय हो है जात।
जीवन में मात्र यही दीर्घ
इच्छा है, उस परम-लक्ष्य का रहे नित चिंतन
पूर्व भी इसी अन्वेषण में
बीत रहा है, जल्द ही उपलब्धि मिलेगी पर॥
श्वास बढ़ता इस आशा के साथ
ही, कुछ योग्य करने में हूँगा सक्षम
पर जीव-विकास नित स्वतः
प्रक्रिया, अति-शीघ्रता से भी न सुफल।
किंतु इस स्व- मन का क्या
करूँ, निज-अपेक्षाओं में ही है उलझता
बहुत कर्म अधूरे, इस नन्हीं
जान को सुबह-शाम रोना-पीटना लगा॥
गति परम में हो परिवर्तन
इसका, कुछ महात्माओं में लगे उपस्थिति
क्या प्रबुद्ध होगा यह भी,
शंकित सा, पर निराश हो नहीं बैठूँगा कभी।
ओ जिंदगी, जरा पास तो आओ, व
स्पंदन मेरे मन-देह रोमों में कर दे
सदा मुस्कुराना-चलना सिखा दे
मुझे, व्यर्थ तर्क-बकवादों से हटा दे॥
हो सार्थक-संवाद, प्रेरणामय
शब्द-प्रयोग, इस अकिंचन की हो शैली
उच्चतम शिखर-इंगन हो सम्भव,
गतिमानता तो सदा श्रम में है मेरी।
ओ सखा, अमूमन लिखो गागर में
सागर तुम, पर सत्यमेव गहन-मंथन
तभी तो मोती-माणिक्य, रत्न
निकलेंगे, अतः रखो निज लेखनी-चलन॥
Saturday, 30 July 2016
विहंग-दर्शन
निरत निनाद विहंग-वृन्द ध्वनित है प्रातः, प्रेरित करें बनो शाश्वत
अन्य भी चहकते लघु चेष्टाओं
में, प्रमुदित हों करें दिवस आरंभ॥
ये हैं साम-गीतिका के ऋषि,
प्रातः नीड़ों से निकल गुंजन करते
आशय तो निज मन ही समझें,
हमें तो प्रायः अनुशासित दिखते।
पंख-फड़फड़ाहट, शाखाओं पर
फुदकें, अदाऐं सदा मन-मोही
भाँति-भाँति के गीत गा रहें,
सुनता हुआ मैं मनन-लेख में सोही॥
ये मित्र प्रातः ६ बजे ही
जगा देते हैं, क्यों सोऐ हो बाहर तो आओ
हमारे लिए भी तो समय
निकालों, निज मृदुल-काव्य में समाओ।
हम भी तुम्हारा ही जीवन-
भाग, मधुर गायन से वातावरण सुंदर
संग ही निवास द्रुमों के
पर्ण-नीड़, आनंद-संतोष हैं स्व- धरोहर॥
न किसी से ही है याचना,
दिवस-परिश्रम, पंख फैलाते सुदूर तक
नन्हें चूजों हेतु चुग्गा
लाते हैं, मानव सम तो रखते नहीं उपकरण।
जीवन लघु पर हम उसमें
आनंदित, जितना हो सके करते प्रयास
प्रत्येक क्षण मधुर-यापन में
प्रयोगित, व्यर्थ चेष्टाओं में नहीं स्वार्थ॥
मानव तो बड़ा बन बैठा, छोड़
प्रकृति-चिंतन, सबको किया तीर
अरे भाई हम भी आऐं धरा पर
पूर्व, अग्रज हैं कुछ सको तो सीख।
बहुत कुछ देखा है प्राचीन
समय से, वसुंधरा- रूप बनते-बिगड़ते
पर काल संग अठखेलियाँ, समस्त
कायनात में अनुकूल विचरते॥
भोर में सूरज के उगने से
पूर्वेव, हम तत्पर सहज जीवन यात्रा हेतु
प्रातः नर्तन-गायन हमारी
शैली, बिना मनन-प्रार्थना करते न शुरू।
देखो सुबह के मधुर-राग, गीत
का महत्व हमारे जीवन में तो बहुत
लघु तन में कंठ-फेफड़ें सुदृढ़, उर-धड़कन,
आरोग्य-क्रिया सरल॥
देखो न हमारी आदतें, अल्प
-संतुष्ट, पर जीवन का है पूर्ण-आनंद
व्यर्थ की न मारा-मारी,
प्रकृति विशाल, प्रयास से ही लेते पेट भर।
समन्वय सीखा है हमने जीवन में, अज्ञात या विदित
भी न देते कष्ट
हम नभचर पंख प्रयोग जानते हैं, न कोई कयास साँसत
में व्यर्थ॥
बैठते हैं वृक्ष-शाखों,
भवन-कगूरों, बिजली-तारों व छत-मुँडेरों पर
जहाँ आसरा वहीं स्व-क्षेत्र,
पिंजर-बद्धता न सुहाती, हम उन्मुक्त।
झूलती उच्च शाखाओं पर
दूर-दृष्टि, किंतु हमें अपने काम से काम
दूजों के मामले में
हस्तक्षेप न, हाँ परोक्ष रुप से देते अनेक लाभ॥
सामान्यतया यूँ सहज रहते, एक
वातावरण निर्माण हेतु दीर्घ वय
धीमान तुमसे पर समझते स्वयं
को, सत्य अर्थ बताऐ कोई समर्थ।
आत्म-अतिश्योक्ति न करते,
आंदोलन-यत्न हेतु निज सहज-यापन
प्राप्त पर्याप्त उदर-पूर्ति
हेतु, उपलब्ध समय आनंद ही निकेतन॥
मानव लुब्ध प्रकृति में,
अन्यथा अन्य लेते हो परमावश्यक जितना
जब सब कुछ यहीं ही है रहना,
किराए के मकान से मोह कैसा?
यह हमारी पूर्वज- संपदा,
इसकी पवित्रता सहेजना निज कर्त्तव्य
खाऐंगे-पियेंगे,
जिऐंगे-मरेंगे यहीं, आगामी हेतु भी छोड़ना सत्व॥
किसके हैं ये नन्हें पाँव,
किसके पंखों की है छाँव, किसकी हैं ये-
नीली आँखें, शीश निराला
किसका है, बतलाओ जी किसका है
मधुरतम कंठ किसका, कौन द्रुत
उड़ान से दूरी पाटन-समर्थ है।
किसकी अपने निकट-पड़ोस में
ही रुचि, कौन ध्रुवों के पार जाते
कैसे दिशा-स्थलों के
परीक्षक, एक समय बाद पुनः लौट आते॥
कैसी योगी-मुद्रा उनकी, सब
जानते-देखते हुए शांत-मुस्काते हैं
वृक्ष पर बैठे जैसे
चिंतन-रत, क्या चलता है उस लघु तन-मन में?
बीजों का स्थान-परिवर्तन
करते, प्रकृति उपज में होती सहायता
जितना आवश्यक उतना करें, जो
बचा निज ही कहीं न जाएगा॥
माना विविधता बहु
कार्य-कलापों में, तो भी है ढ़ंग-संदेश निराला
प्रेरणामय नर सतत मनन हेतु
की, फुर्सत में बैठ स्व को जाँचता।
क्यों असक्षम हो उन योगी सम
अंत: संभालो बहि: को त्याग कर
यह अंतः -मंथन पैमाना स्थिति
का, उत्थित होवो सब समय तुम॥
इन नन्हें पँछियों ने मुझ
निष्प्राण-नीरस में, प्राण-प्रवाह चेष्ठा है की
आभारी हूँ मैं इस नव- स्वरूप
से, संचेतना का क्षेत्र तो बढ़ेगा ही।
पर कैसे प्रतिस्थापित करूँ
पर्याप्त, निज उत्तम अग्र-स्थिति में भी
महद-आनंद हेतु रूपांतरण
आवश्यक है, प्राण-पूर्णता अनुभूति॥
प्रकृति ने मुझे गढ़ा है मनुज
रूप में, पर अन्य रूप भी हैं मेरे ही
अंतिम प्राकृतिक विकास-क्रम
के, सब जीव-अवस्थाऐं पूर्व की।
क्या विवेचन है सक्षम
सोपानों का, जिन पर चढ़ पहुँचा यहाँ तक
असल-आनंद तो गति-अवस्था में
है, स्मरण पूर्व मूल से जोड़ें पर॥
विकास-क्रम तो नित्य-सतत,
कहाँ ले ही जाएगा नितांत अविदित
मनन-कर्म प्रक्रिया, वर्तमान
अवस्था में नव-दिशा करेगी इंगित।
सतत यात्रा असंख्य चेतन-देह
स्वरुपों में, मैं भी भागी खेल में इस
मम विकास की यह जन्म-सीमा,
पर वंशानुगत जींस करेंगे अग्र॥
पर सोच-कथन-श्रवण, पठन-पाठन,
तर्क-विमर्श-दर्शन भी वाहक
मनीषी-प्रबुद्धों ने
सदा-चिंतन से ही किया है परिवेश सद्प्रभावित।
अनेक ही परोक्ष कारक-संवादों
की प्रक्रिया है, होगा संगति-असर
ज्ञानी-सुजन संपर्क अनुपम वर
है, अमूल्य समय उपकार हम पर॥
कीर्ति-अपयश की न चिंता है,
सर्वोत्तम मम हेतु क्षणों में उपलब्ध
क्या मुझसे कुछ निर्माण
संभव, जो जगत-सुगति में हो सहायक?
प्रकृति दत्त एक मंच-समय,
दिखाओ तो अपना अभिनय अनुपम
टूटने दो भ्रम अन्यों के तव
विषय में, वीतरागी हो रहो अनवरत॥
बी.के.एस आयंगार की 'Tree of Life' पढ़ रहा,
बताते मुद्रा-ध्यान
न मात्र अन्यों की नकल पर,
अंदर से नया निकसित करो विचार।
योगीजन ढ़ंग से प्रभावित
करें, क्या मुझमें भी सकारात्मक रूचि
मम जीवन भी अन्यों सम ही,
उचित सुधार से बना दो तेजोमयी॥
कैसे निकलूँगा अधो-स्थिति से
इस, यम-नियम तो बतलाने होंगे
न विराम लेने दूँगा सहज, गहन
मुक्ति-आकांक्षा है इसी जन्म में।
जीवन मिला तो घड़ सुकृति में,
किंचित आत्म- संतोष ही निवृत्ति
कह सकूँ बुद्ध सम 'सत्य
मिल गया', निर्वाण देह-मन सहज ही॥
इन मित्र-पंछियों से कुछ
सीखो, वसंत है अति-मधुर गुनगुना रहें
सुनता हूँ उन्हें निकट ही,
रह-रह कर उपस्थिति आभास जताते।
तुम प्रबुद्ध जगाओ
तम-सुप्तावस्था से, अनंत-यात्रा राही बनाओ
एक ज्ञान-पथिक मैं बनूँ सतत,
प्रमदता त्याग अपूर्व से संपर्क हो॥
Sunday, 17 July 2016
सुपथ-मनन
कौन ज्ञान कहाँ-उदित, जब
सामान्यतया तो हम होते निस्पंद
विशेष परिस्थिति में विद्वान
बनें मनुज, भावमय होते हैं शब्द॥
कहाँ से व्याख्यान- शक्ति
मिलती, कौन जोड़ता तंतु-अवयव
कैसे भिन्न पहलू होते हैं
समन्वित, संचित होता कुछ अनुभव?
स्मृति पटल से बहु-तथ्य हैं
समक्ष, मस्तिष्क करता फिर योग
कर्म-ज्ञान इंद्रियाँ होती
संचालित, वाणी-प्रवाह करता उद्योग॥
प्रतिदिन बहु
जीवन-परिस्थितियों में, वक्ता है दर्शित ज्ञान-पुँज
सदा तो सामान्य ही दिखता, बन
कैसे जाता है सरस्वती-कुञ्ज?
विभिन्न विषयों या
स्व-क्षेत्र में, मूढ़ भी कई बार दर्शित है प्रवीण
‘अंधों में काना
राजा बनता', प्रत्येक समूह विशेष में हैं सर्वांगीण॥
सत्य ही श्रेणी है
अल्पज्ञ-सुविज्ञों की, यदि उपलब्ध ज्ञान हो वर्णन
पर आवश्यक न कोई हर जगह
पारंगत, सदा सर्वत्र हो धुरंधर।
सामान्यतया नर स्व-क्षेत्र
में श्रेष्ठ, तुलना करना है मात्र हास्यस्पद
विद्या कराती संपर्क
बहु-कलाओं से, जीव में सक्रियता-उत्तंग॥
कौन प्रेरणा सुप्तावस्था से
जागृत करा, सामान्य से निकाले पार
उद्योग मन-वाणी-कर्म से,
स्वछंद खग की सुदूर गगन-उड़ान।
मनुज मन-उद्विग्नता
निम्नावस्था की, हर उद्योग स्व-स्थिति सुधार
अप्रमुदित तम-रज वृत्ति-आचरण
में, सत्त्व में ही हो आविष्कार॥
कैसे मन के लवें बदलते,
परिष्कृत मनोभाव-आचरण-व्यवहार
संस्कृतिकरण या
उच्चावस्था-संपर्क प्रयास, बनता जीवन-भाग।
प्राणी श्रेष्ठता
ग्रहण-अधिकारी, विस्तृत विश्व प्रदत्त करे कर्म-क्षेत्र
जितना चाहो - चूम लो, फैलाओ
झोली होवों स्व-सीमा से अग्र॥
बहु-दोष प्राणी-तत्व में,
महत्वाकांक्षा कराऐ आदर्श-साक्षात्कार
एक गुण- संपर्क स्थापन
चरित्र में, अन्य प्रदोष शनै होते बाहर।
उत्तरोत्तर वृद्धि
विस्तृतता-दिशा में, मनुज बन सकता ब्रह्म-अंश
यह एक उच्च मन-भाव से
संपर्क, सर्व-युक्ति कराती निज-यत्न॥
कैसे मनन होता उच्चतम भाव
में, सर्व-प्रेरणा कराए अग्रसरित
मनुज देखता संभव श्रेष्ठ-तल
को, प्रयासरत सतत स्व-स्फुरित।
न आकांक्षा कर्म-कांड हो
जड़ित, बनूँ कुछ प्रज्ञान-विज्ञान भिक्षु
बुद्ध सम किंचित
स्पष्ट-द्रष्टा, सर्व-कल्याण को ही खोले हैं चक्षु॥
शिव सी निमील- अम्बकम
गहन-ध्यान मुद्रा, क्या अध्याय-चिंतन
क्या मात्र मनन-सुधार हर
ग्रंथि का, या सर्व-स्रष्टि हेतु है निमंत्रण?
बहु-अवरोध हैं आम जन को
निर्वाह में, शृंखला-निर्मूल हेतु प्रयास
हर कली विकसित पूर्ण पुष्प
में, प्रमुदित-समर्पण से फैले सुवास॥
कैसे ज्ञात हो परम-लक्ष्य मन
में, अति-पीड़ा अल्प-निम्नावस्था में
जप-तप, स्वाध्याय-प्राणायाम
साधना हेतु, दुर्लभ कर-बद्धता में।
मनुज तन मिला हैं अल्पकाल
हेतु, कितना हो सकता स्तर-वर्धन
रत्नाकर से वाल्मीकि बना है,
भंड से बाणभट्ट या सिद्धार्थ से बुद्ध॥
किस परमोचित के अन्वेषण से,
मन विव्हलित होता दिवस-निशा
न मात्र वाकपटुता-रुचि,
अपितु मौन-धैर्य-सहनीयता ही हैं दिशा।
निज श्रेष्ठ स्वरुप दृश्य भी
है अति-निम्नाकांक्षा, हाँ गुण प्रसार गति
आवश्यक न नित प्रमुदित भाव
हों, स्तर-ऊर्ध्व संघर्ष-घर्षण से ही॥
अनेक चिंतक हैं सर्वोत्तम
झलक को, सात्विक-भाव से मृदुल चिंतन
देव के विभिन्न नाम दिए जाते
हैं, गुण-दर्शन एवं आचरण में मंथन।
परम में लय तो बदला स्व-सकल,
दीन परिष्कृत है सर्वाधिक समृद्धि
आशीर्वाद श्रेष्ठ का तो
उन्नति निकट, चिंता न है किसी अवरोध की॥
इस अल्प को भी सुपथ दिखा,
दीर्घ-काल बीता है बेतुके संवादों में
जग के अन-सुलझे प्रपंचों से
बहिर्गमन, शक्ति निज-बात कहने में।
व्यवहार-निपुण बना
कर्त्तव्य-सुनिर्वाह को, स्थिति होगी सुसम्मानित
कार्य प्रदत्त तो पूर्ण
करेंगे ही, भागना न लक्ष्य, दर्शाना साहस-निज॥
कुछ अनुपम क्षण अतएव भी दो,
संपर्क पाकर तुमसे हो आत्मसात
सीमित मात्र मनन तक न रखना,
व्यवहार में भी अवश्यमेव सुभाव॥
१७ जुलाई, २०१६ समय ४:00 बजे अपराह्न
(मेरी डायरी दि० ११ फरवरी, 2016 समय ९:२८ बजे प्रातः से)
Monday, 27 June 2016
श्रीकालिदासप्रणीत :मेघ-सन्देश (उत्तर-संदेश)
श्रीकालिदासप्रणीत
----------------------
मेघ-सन्देश : उत्तर-संदेश
-----------------------------
जहाँ प्रासाद करते मेघ-स्पर्श, तेरी महत्ता सम ऊँचे होते,
जिसके मणिमय तल-चमक, करे स्पर्धा तेरे जल-बिन्दुओं से।
जहाँ सुन्दर भित्ति चित्र, तेरे इन्द्रधनुषी वर्ण को मात देते,
ललित वनिताओं के चारु कदम, नीलांजना* से
तुलना करते।
संगीत* हेतु मृदंग*-थाप, तेरे गर्जन सम स्निग्ध* प्रतीत होते,
और जहाँ हर विशेष में तुमसे अधिक ही तुलना करते।१/६६।
नीलांजना* : बिजली; संगीत* : नृत्य, वाद्य, गीत; मृदंग*
: ढोल; स्निग्ध* : मृदु
जहाँ लीला-कमल कर में लिए तरुणियाँ, बालकुंदों* से केश सजाती,
लोध्र प्रसवरज* आच्छादित उनकी मुख-आभा पाण्डु* सा चमकती।
नव कुरवुक* उनके केश-बंधों में लगतें व एक चारु शिरीष कर्णों में,
माँग में कदम्ब कुमुद सुशोभित, जो तेरे यहाँ आगमन से जन्में।२/६७।
बालकुंद* : चमेली नव-कुसुम; प्रसवरज* : पुष्प-पराग;
पाण्डु* : पीत-सुवर्ण; कुरवुक*
: चोलाई-पुष्प
जिसके यक्ष उत्तम कुल यौवनाओं को संग लिए भ्रमण करते
स्फटिक मणिमय प्रासाद-कूचों पर रात्रि की ज्योति-छाया में।
रतिफल* कल्पवृक्ष प्रसूत* की मधु का
पान करते, मृदुता से
वाद्य-भांड* तेरी गंभीर-ध्वनि सम संगीत स्पंदन
करते।३/६८।
रतिफल* : कामोत्तेजक; प्रसूत* कुसुम; वाद्य-भांड* : ढोल
सूर्योदय पर मार्ग सब संकेत स्पष्ट कर देते, मध्य-रात्रि बहके
त्वरित चपल कदम जहाँ, गुप्त-मिलन हेतु मन्दाकिनियों* के।
चारु अलकों से पतित मंदर-पुष्प व कर्ण-आभूषण हेम* कमल
जो शिथिल मोतियों संग
भूमि पर बिखरे पड़े, चोली-सूत्र
झपट लिए, जो उनके वक्षों को जकड़ते हैं तंग।४/६९।
मन्दाकिनी* : मादक-यौवना; हेम* : स्वर्ण
जहाँ अनुरागी हटाते राग-ग्रसित अश्लील कम्पित करों से नीवी-बंधन
बिम्ब-फल सम अधर वाली प्रियाओं के,
हटा देते शिथिल कौशेय* वसन।
वे भी लज्जा से चूर्ण-मुष्टि* रत्नों पर डालने को तत्पर, जैसे वे चमक उठेंगे
तेरी दामिनी* भाँति, निश्चिततया मूढ़-प्रयत्न विफल प्रेरणा ही होते।५/७०।
कौशेय* : रेशमी; दामिनी* : बिजली; चूर्ण-मुष्टि* : सुगन्धित
जहाँ विशाल प्रासादों पर निज नायक सतत-गति* से,
निज सलिल-कण दोष से तुम रंग-भित्तियों को नष्ट करते।
फिर शंका-स्पर्श से जलमुच* सदृश धूम्र अनुकृति* में निपुण
शीघ्र ही जर्जर हों, यन्त्रजालों* से हो जाते निर्गम।६/७१।
सतत-गति* : पवन; जलमुच* : मेघ; यन्त्रजाल* : जाली; अनुकृति*
: नकल
जहाँ मध्य रात्रि जैसे ही तुम कुछ हटे, तन्तु-जाल से लटके
चन्द्र- कान्त* विशद* शशि-चरण स्पर्श से चमकने लगेंगे।
प्रियतम के दृढ़-आलिंगन से सुरत-क्रिया से जनित ग्लानि से
किञ्चित मुक्त वनिताओं को स्फुट जल-बिंदुओं से हिमता देंगे।७/७२।
तन्तु-जाल* : मकड़जाल; चन्द्र-कान्त* : मूँगा; विशद*
: शोभित
जानकर कि धनपति*-सखा सर्वश्रेष्ठ यहाँ साक्षात् रहते कामदेव हैं,
तुमको देख भी भय से निज मधुप-रोपित कुसुम-बाण नहीं चलाते।
उनका काम चतुर रमणियाँ करती, तेरी प्रवृत्ति से मोहक अदा जिनकी,
व अमोघ नयन भ्रू-धनुष से चमकती दृष्टि, निःसन्देह प्रेमी को भेदती।८/७३।
धनपति* : कुबेर
वहीं कुबेर-प्रासाद के उत्तर में मिलेगा हमारा आगार*, जिसको
दूरेव-लक्षित इंद्र-धनुष सम चारु तोरण* द्वारा लेना पहचान।
समीप ही एक बाल मंदार*, मेरी कान्ता ने तनय* सम पाला,
अब वह उसके हस्त-प्राप्य, स्तबक* भार से झुक है गया सा।९/७४।
आगार* : आवास; तोरण* : द्वार; मंदार* : कल्प;
तनय* : पुत्र; स्तबक*
: कुसुम
और तुम्हें ले जाऐंगे इसके मरकत* शिलाबद्ध सोपान* पथ
दीर्घ वैदूर्य* नाल पर, कमल-मुकुल शोभित एक गुरु शीतल सर।
जल को आवास कृत इसके हंस करते शांत होकर जल-क्रीड़ा,
तुम्हें देख भी निकट मानस ताल की न होती
उत्कण्ठा।१०/७५।
मरकत* : पन्ना; सोपान* : सीढ़ी; वैदूर्य* : लहसुनिया (रत्न)
इसके तीर-विहित* चारु इन्द्रनील* जड़ित क्रीड़ा-शैल* शिखर
जिसके चारों ओर दर्शनीय कनक-कदली* वृक्षों की है वेष्टन*।
ऐ सखा! तेरी स्फुरित तड़ित उपांत* देख, स्मरण से मेरा तमस
सम कातर हृदय काँपता, जब मेरी प्रिया को है अत्यधिक पसंद।११/७६।
विहित* : सटी; इन्द्रनील* : नीलम; क्रीड़ा-शैल* : लघु-पर्वतिका;
कनक-कदली* : सुवर्ण-केला;
वेष्टन* : घेराव; उपांत : निकट
और यहाँ इस पर एक कुरवक*-वृत्त में सुवासित माधवी* मंडप में
किसलयों से लहरता एक रक्त-अशोक व निकट खड़ा कान्त केसर है।
एक तेरे सखा का प्रिय वामपद स्पर्श-अभिलाषी व आकांक्षा करता अन्य
उसकी वदन-मदिरा की, जैसे यह दोहल* कुसुम का है रूप-छद्म।१२/७७।
कुरवक* : मेंहदी; माधवी* : चमेली; दोहल*: एक प्रकार का कुसुम
और उसके मध्य हरिताश्म मणि-चबूतरे के मूल से एक,
कञ्चन-यष्टि* निकला, जो तरुण बाँस-पादप से अधिक प्रकाशित।
वहाँ रखी एक स्फटिक फलक* पर बैठता तेरा यह सुभग सुहृद
नीलकंठ विगतदिवस* है, वह नाचने लगता जब प्रिया
ताली
बजाती, खनक से उसके भुज-बंध नूपुरों की
।१३/७८।
कञ्चन-यष्टि* : सुवर्ण-दण्ड; फलक* : पादुका; विगतदिवस*
: संध्या
ओ बुद्धिमान! इन लक्षणों को उर निहित कर अपने,
और पहचान लेना द्वार निकट लगे सुन्दर शंख-पद्म से।
जिसकी शोभा निश्चय ही मद्धम हुई होगी
मेरे वियोग में,
जैसे सूर्य-अपाय* में कमल भी निज पूर्ण-रूप में न खिलते।१४/७९।
अपाय* : ह्रास
तुम शीघ्रता से बन उतरना एक तनु कलभ*, उस
रत्नप्रभा निष्ठ क्रीड़ा-शैल* तीर पर, यथा है प्रथम कथित।
अर्ह-अंत* में सहज सौदामिनी-चमक की अल्पाल्प प्रभा संग
भवन में पतित हो जाना, जो प्रतीत खेलती खद्योत*-पंक्ति सम।१५/८०।
कलभ* : गज-शावक; क्रीड़ा-शैल* : लघु-पर्वतिका;
अर्ह-अंत*: सूर्य-अंत, संध्या ;
खद्योत* : जुगनु
वहाँ देखोगे तन्वी*, यौवन-वसन्त में श्याम-वर्णा, चमेली-कलियों जैसे दंत, ओष्ट
जैसे पके बिम्ब-फल, क्षीण कटि*, निम्न* नाभि व चकित हिरणी सी दृष्टि-कातर।
नितम्ब-भार से अलसाया सा गमन, कटि किंचित नम्र है स्तन वहन से,
आह! उसको नारियों में आद्या* कृति ही बनाई वहाँ ब्रह्मा ने।१६/८१।
तन्वी*: तनु युवती; कटि* : कमर; निम्न* : गहरी; आद्या*
: प्रथम
चक्रवाकी सम एकाकी सुबकती, सहचर* दूरस्थ है जिसका।
ये दीर्घ-दिवस बीतने साथ, गाढ़-उत्कंठा लिए वह बाला इतनी
परिवर्तित मिलेगी, जैसे शिशिर से अन्य
रूप हो जाती पद्मिनी*।१७/८२।
प्राण* : जीवन; सहचर* : सखा; पद्मिनी* : कमल
निश्चित ही प्रबल रुदन से उसके नेत्र गए होंगे सूज
व शिशिर में ज्वलन्त आह से अधर-ओष्ट हों गए फट।
उसका मुख अंजलि में होगा, मात्र लटकी खुली अलकों* से स्पष्ट
तेरी छाया से पाण्डु हुए इंदु सम निश्चित ही लगेगी अति-दैन्य*।१८/८३।
अलक* : केश; दैन्य* : दयनीय
तुमको वह दिखाई देगी दिवस के पूजा- बलियों* में अदृश्य,
या विरह से तनु* यादों में डूबी या अन्यभाव से मेरी रूचि अंकन।
या फिर पिंजर-बद्ध सारिका* से मधुर-वचनों से पूछती, 'हे गिरिके*!
क्या स्वामी स्मरण करती हो, तुम तो उसकी बहुत थी प्रिये'?१९/८४।
बली* : कृत्य; तनु* : क्षीण; सारिका* : मैना;
गिरिका* : बिल्ली (से बचाव हेतु पिंजर-बद्ध पक्षी)
या मलिन* अनाकर्षित परिधान में ओ सौम्य
!
निज अंक वीणा लिए, कामना रचने
मधुर मेरी नाम-धुन।
अपने नयनसलिल* से आर्द्र तंत्री* को लयबद्ध करते कुछ,
चाहे स्व-अधिकृत धुन हो, मूर्छा से बार-२ जाती विस्मर।२०/८५।
मलिन* : अनाकर्षित; नयनसलिल* अश्रु; तंत्री* : तार
या विरह-दिवस से लेकर, शेष मास-अवधि गिनती होगी,
दहलीज़ पर रखे पुष्पों को फर्श पर क्रम से हुई बिछाती।
या हृदयनिहित संयोग-क्षणों की आनंद-कल्पना संजोती,
ऐसे ही प्रिय-विरह में सुबकती नारियों की नाना दशा होती।२१/८६।
दिवस में तो व्यापार से एकाकीपन इतना पीड़ित न करता,
पर निर्विनोद* में रात्रि तेरे मित्र को भारी गुजरती, हूँ डरता।
मध्य-रात्रि मिलना वातायन* समीप, सन्देश संग साध्वी से उस,
जहाँ विरह से फर्श पर उन्निद्र* होगी, अतः विनती देना सांत्वन।२२/८७।
निर्विनोद* : दुःख; वातायन* : खिड़की; उन्निद्र* : उनींदी
या विरह-वेदना ग्रसित शयन में करवट लिए, सिकुड़ी स्वयं में
लेटी मिलेगी, तनु जैसे हिमांशु*-शेषकला मात्र प्राची-मूल* में।
जब मेरे संग रात्रि-क्षणों में पूर्ण-आनन्द के पंख लगे होते थे,
अब महद विरह अश्रुओं से भारी, अस्वीकार खिंचे जाते हैं।२३/८८।
हिमांशु* : चन्द्र; प्राची-मूल* : पूर्व-दिशा
एक निःश्वास* से क्लेशित किसलय* से ओष्ट फट गए होंगे, देखोगे
जल्द-२ अनुष्ठान-स्नानों से शुष्क कपोलों पर लम्बित अलकें* हटाते।
नींद आकांक्षा करती, अंत में स्वप्नों में कैसे करेगी समागम मेरे संग,
लेकिन यकायक नयनसलिल* उत्पीड़न आशा देगा प्लुत
कर।२४/८९।
निःश्वास* : गहरी आह; किसलय* : पंखुड़ी; अलक* : केश;
नयनसलिल* : आंसू
प्रथम विरह-दिवस, उसके एक शिखा पुष्प-जूड़े में सँवरे केश
जो दुःख में हट गए होंगे, मैं ही खोलूँगा इस शाप-समाप्ति पर।
देखोगे लम्बे बढ़े नख, जो स्पर्श से उलझे बालों को पीड़ा देते
बार-२ गण्डों* से एक वेणी* में करने हेतु कष्ट से हटाए जाते।२५/९०।
गण्ड* : कपोल; वेणी* : माँग
पूर्व प्रीति को स्मरण करके उसके नयन,
झँझरियों से दर्शित शीतल, होंगे सुधामयी चन्द्र-किरणों पर।
और दुःख में एकदम अश्कों से भारी पलकों से नेत्र छिपाकर
वह, जैसे घटा-दिवस कुमुदिनी सम ही, न प्रबुद्ध है न ही सुप्त।२६/८९।
अपने समस्त आभरण* तजकर वह अबला दुःख में गहन,
मृदु काया जिलाए रखेगी, बारम्बार शय्या पर लेटेगी व्यर्थ।
वह दृश्य निश्चित ही तुम्हें रुला देगा, कुछ नवसलिल देना छिड़क,
क्योंकि सभी आर्द्र-अंतरात्मा* करुणा-वृत्ति होते हैं प्रायः।२७/९२।
आभरण* : आभूषण; आर्द्र-अंतरात्मा* : मृदु-हृदय
जानता हूँ तेरा हृदय मेरे हेतु प्रेम से पूरित, अतः मुझे विश्वास
हमारे इस प्रथम-वियोग में ही वह लाई गई है दशा में दारुण।
निश्चय ही अनन्य भाव से प्रतीत होता वाचाल न हूँ, ओ सुभग!
शीघ्र ही भ्राता की यह सकल उक्ति देख लोगे प्रत्यक्ष
स्वयं।२८/९३।
अञ्जन-स्नेह शून्य, फैली अलकों* से अब रुद्ध नेत्रान्त, व
अब
विस्मृत नयन भ्रू-विलास न करते होंगें, मधुपान भी निषेध।
पर मानता, उस मृगाक्ष्या* का वाम नेत्र तेरी निकटता से होगा स्पंदित,
एवं नीलकमल-श्री* से तुलना करेगी, मीन हिलाती होंगी जब
सलिल।२९/९४।
अलका* : केश; मृगाक्ष्या* : मृगनयनी; श्री* : सौंदर्य
बाँई जाँघ पर मेरे पद-नख चिन्ह होंगे, व चिर विरचित
मोती-माला दैव बदलने कारण हटा ली होगी
ओर एक।
समागम -अंत में मेरे समुचित हाथों के मृदु मर्दन से वह
मृदु सरस कदली* तने सी रही होगी पीली स्फुरित।३०/९५।
कदली* : केला
हे जलद* ! विनती है, यदि उस काल वह निद्रा में पाए सुख,
तुम निकट प्रतीक्षा करना, मात्र एक रात्रि रोक गर्जना निज।
प्रेम-स्वप्न में प्रियतम ढूँढ़न-यत्न करती, हटने न देना उसकी
भुजलताओं के
मेरे कण्ठ-बंधन को, जो गाढ़-आलिंगन से हो जाते पतित कदाचित।३१/९६।
जलद* : वर्षा-दायक मेघ
स्व-जलकणिका की शीतल अनिल से उसको जगाकर,
जब यकायक आश्वस्त होगी मालती कलियों से अभिनव।
तेरी उपस्थिति से शोभित गवाक्ष* से स्तिमित* नयनों से निहारेगी जब,
दामिनी-गर्भस्थ कर मानिनी को विनीत-गर्जना से कहना आरम्भ।३२/९७।
गवाक्ष* : खिड़की; स्तिमित* : आर्द्र
ओ अविधवे*! जान, तेरे भर्ता का प्रिय मित्र अम्बुवाह*,
मैं उसका सन्देश मन में निहित कर तेरे समीप हूँ आया।
गंभीर पर सुखकारी वाणी से श्रांत* प्रोषित* पथिकों की घर आने की-
अनेक त्वरित-कुतूहलें सुनाता हूँ, सुलझाने अबलाओं की उलझी वेणी*।३३/९८।
अविधवा* : सधवा; अम्बुवाह* : पावस मेघ; प्रोषित* : विदेश गए;
श्रांत* : क्लान्त, दुःखी;
वेणी* : केश
इस आख्यान से, मैथिली* सम पवनतनय*-उन्मुख व तेरी उत्कण्ठा-प्रेरित
उसका हृदय पुष्प सम खिल उठेगा, सम्भावना संग वैसे ही देखेगी वह।
बड़े सम्मान से तुरंत स्वागत करेगी, ओ सौम्य! सुनेगी तुम्हें बड़े ध्यान से,
सुहृद द्वारा लाया कान्त-उदन्त*, क्या सीमंतिनिओं* हेतु पुनर्मिलन की
हीन वस्तु है?।३४/९९।
मैथिली* : सीता; पवनतनय* : हनुमान; कान्त-उदन्त* : पति-समाचार;
सीमंतिनी* : सुहागिन
ओ आयुष्मान*! मेरे वचन व निज सम्मानार्थ उसको यूँ बोलना -
तुमसे वियुक्त* तेरा सहचर रामगिरि के तपो-आश्रम में रहता।
उसने पूछा है, ओ अबला
! तेरा सब ठीक है, ऐसे अनिंद्य* शब्द
सुलभविपदा* प्राणियों को बोले जाने चाहिए हैं पूर्व।३५/१००।
आयुष्मान* : चिरंजीवी; वियुक्त* : विभाजित; अनिंद्य* : सांत्वना;
सुलभविपदा* : दुःखित
दूरवर्ती विधि के एक वैरी आदेश से उसके मार्ग रुद्ध हैं
पर संकल्प से उसके अंग तेरे अंग के साथ ही एक है।
तनु से तनु, गाढ़ तप्त से तप्त, आँसुओं से और द्रुत अश्रुपूर्ण, विरत-उत्कण्ठा*-
से और अधिक उत्कंठा, उष्ण आह से और अधिक प्रखर उष्ण आह।३६/१०१।
विरत-उत्कण्ठा : निराशा
कौन सखियों से पूर्व तेरे कर्ण में फुसफुसाते प्रेम करेगा,
निश्चित ही अब
क्या कथन संभव भला उच्च स्वर में, क्योंकि लोभ से चाहता मुख-स्पर्श?
अतः अतिक्रांत* है तेरे श्रवण से, लोचनों में अदृष्ट, मेरे मुख के माध्यम से,
एक गहरी चाह लिए, तेरी उत्कंठा हेतु बोलता
ये विरचित पद है।३७/१०२।
अतिक्रांत* : विगत
श्याम-लताओं में अंग, दृष्टिपात चकित हरिणी-चक्षुओं में,
तेरी शीतल मुख-छाया शशि में, केश सुन्दर मयूर-पंखों में।
तेरी भ्रू-पताका* नदी की लघु-वीचियों* में, पर अहोभाग्य!
हे चण्डी*
! विषाद में तुम्हें सम्पूर्ण दर्शन न वस्तु में एक।३८/१०३।
पताका* : वक्र; वीची* : घुमाव; चण्डी* : अत्यन्त-कोपिनी
ओ प्रिया! वर्षा-नीर पड़ी ऊष्म-भूमि की नव सुवास, तेरी है मुख-सुगंध,
काम के पाँच मद-बाणों से पूर्वेव व्यर्थ-सुबकते, दूरस्थ को और किए व्यर्थ।
कृपया करुणार्थ सोचो, इस ग्रीष्मांत दिन कैसे गुजरेंगें, जब भारी पावस मेघ
दिवस-कांति अल्प करते, लघु अंशों में छिटक प्रेमवश सर्व
नभ-दिशा जाते फैल।३९/१०४।
क्रोध कल्पना में धातुराग* से तुम्हें शैल पर कर
उकेरित
पर जब तक चाहता तुम्हारे चरणों में स्वयं को अंकित।
तब तक चित्त द्वारा मेरी रूप-दृष्टि सतत अश्रुओं से मंदित,
आह! कितना क्रूर है कृतान्त*, यहाँ भी संगम न संभव।४०/१०५।
धातुराग* : अञ्जन आदि द्रव्य; कृतान्त*
: भाग्य
बहुत प्रयास कर तुम्हें स्वप्न-संदर्शन* में पाता हूँ, कैसे मैं
नभ में भुजाऐं फैला देता, निर्दयता से आश्लेष* हेतु तुम्हें।
क्या वे स्थूल* मुक्ता* सी बूंदें, तनय किसलयों पर न एकत्रित,
निश्चित ही क्या मेरे अति-कष्ट देख वन-देव बहाऐंगे अश्रु न?४१/१०६।
संदर्शन* : दर्शन; आश्लेष*
: गले लगाना; स्थूल* : मोटे; मुक्ता* : मोती
अचानक उस क्षीर-श्रुति हिमालय की समीर देवदार-
द्रुम-किसलय पुट* खोलती,
सुरभि है दक्षिण-प्रवृत।
तुषार आर्द्र वात को आलिंगन में लेता, पूर्व-स्पष्ट* कि
ऐ गुणवती! उसने तेरे अंग किए होंगे स्पर्श।४२/१०७।
किसलय-पुट* : बंद-पत्र की नव-कलियाँ; पूर्व-स्पष्ट*
: कल्पना करते
यदि ये लम्बी रातें केवल एक क्षण में हो जाऐं समाहित,
तीक्ष्ण ग्रीष्म-दिन मद्धम ऊष्मा से मात्र चमकता रहे नित।
ऐसी दुर्लभ प्रार्थनाओं से हृदय एक अशरण ही तो बनता है,
ओ चेतसचटुल-नयिनी*! तेरे वियोग की क्रूर वेदना से।४३/१०८।
चेतसचटुल-नयिनी* : दीप्त-नेत्री
किन्तु गहन चिंतन में आत्म-बल से, इसे सह हूँ जाता
ओ कल्याणी! तुम भी स्वयं को घोर पतन से रोकना।
किसके संग रहते सदा अति सुख या एकांत कातरत्व*?,
धरा पर नर-दशा एक चक्र-क्रम सम, पुनः-२ गति निम्न-ऊपर।४४/१०९।
कातरत्व* : कष्ट
जब शेषशायी शारंगपाणि* जागेंगे योग-निद्रा से, अंत होगा शाप,
अब लोचन* बंद करो और ये शेष चार मास भी जाने दो लाँघ।
पश्चात इस विरह-गणित हम दोनों, शरद-चन्द्रिका क्षपाओं* में,
परिणत* सुख लेंगें, जिसकी अभिलाषा की थी हमने।४५/११०।
शारंगपाणि* विष्णु; लोचन* : आँख; क्षपा* : रात; परिणत*
: सुख
और आगे कहा- एक बार शयन में तुम मेरे कण्ठ से थी लिपटी
निद्रा त्याग विप्रबुद्ध* हो अचानक सस्वर भी रुदन करने लगी?
और जब बारम्बार पूछने पर अंत में हँसकर यूँ कहा, तुम कितव*!
मैंने स्वप्न में तुम्हें अन्य रमणी से भी करते
देखा प्रणय ।४६/१११।
विप्रबुद्ध : जागृत; कितव* : धूर्त
अब इस मेरे हमारे अभिज्ञान* दान से जानना कि हूँ कुशल,
ओ असित-नयिनी* ! कौलीन* से अविश्वास न करना मुझ पर।
अकारण कहती विरह में स्नेह-ह्रास होता, अभोग से निश्चित ही
श्रृंगार-रसों में इच्छा गहन बढ़ती, व विपुल प्रेम-राशि बन जाती।४७/११२।
अभिज्ञान* पहचान; असित-नयिनी* : कृष्ण-नयिनी; कौलीन*
: प्रवाद, अफवाह
विश्वास है कि अब तेरे द्वारा मेरा यह व्यवस्थित बन्धु-कृत्य होगा सम्पूर्ण,
ऐ सौम्य! निश्चितेव तेरी गंभीर मुद्रा की प्रवचन*-कल्पना न सकता कर।
निःशब्द तुम इंगित विनतियों में चातकों को जल देते, सत्य ही सद-पुरुष
अन्यों की प्रार्थनाओं में प्रयोजन समझ कर देते हैं क्रिया सम्पादन।४८/११३।
प्रवचन* : इन्कार
ऐ प्रिय ! उर की ऐसी अति-प्रिय इच्छा लिए, जो किंचित लगे अद्भुत,
सौहार्द अर्थ अथवा प्रेम-आतुर जानकर, मुझ पर ऐसी अनुक्रोश* कर।
विचरण करो सब इष्ट-भूमियों में इस पावस में लिए शौर्य महिमा-यश,
हे मेघ ! तुम भी भूदेव को दामिनी से कदापि दूर न
रखोगे मात्र क्षण।४९/११४।
अनुक्रोश* : करुणा
इति मेघसन्देश प्रदीप हिन्दी रूपान्तर समाप्त।
पवन कुमार,
१८ जून, २०१६ समय १७:०० अपराह्न