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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday, 24 February 2018

कर्त्तव्य-परायणता

  कर्त्तव्य-परायणता 

कितने दिन का चुग्गा-पानी नर का, न कोई कथन-शक्यता 
अति-दूरी होंठ एवं प्याले मध्य, जो खा लिया वही है अपना। 

स्थल-विरक्तता, व्यक्ति-त्यक्ता, प्रायः सबसे निर्लेपता  भाव 
मानव छूटता जाता बंधनों से, या स्व-जिम्मेवारियों से दुराव। 
जगत के रासें इतने क्षीण भी नहीं, कि बैठे-२ हल  हो  जाऐं  
कहाँ के पाप कहाँ भोगने पड़ेंगे, न पिंड छूटे चाहे भाग जाए।

कुछ अनिकृष्ट हाथ पर हाथ धरे बैठते, पूर्व-चिंतित बुरा ही 
स्थिति ऐसी पैदा कि कलमुँही जुबान निज-प्रभाव लाएगी ही। 
 चेष्टा तंत्र पंगु करने की, न खुद करें औरों को भी करने देंगे न 
अवरों  पर पूर्ण-प्रभाव, वरिष्ठों की फटकार से भी अपरवाह। 

पलायनवादी प्रवृत्ति जग-कर्त्तव्यों से, पर स्वार्थों में न अल्पता 
दो दिवस भी विलंब यदि वेतन, गगन सिर पर सही उठाना। 
निज विभ्रम ज्ञान-अहंकार में विमूढ़, मनन एक हठी सा बस 
हम तो मरे तुम भी न बचोगे, ऐसों को बनाया प्रतिष्ठान-अंग। 

कर्त्तव्य-विमूढ़ता, शासन-विरोध, उत्तम अश्रव्य व स्व-मदांध 
न कोई परम का ज्ञान, स्व-अविश्वास और तर्क जैसे हैं सगर्व। 
घोर-नर्क स्थिति पर स्व-घोषित ज्ञानी, न किसी के योग्य-विश्वास
दुर्जन-मित्रता, सज्जन-दुराभाव, प्रकृति ऐसी कि अभी दे त्याग। 

यदि ज्ञान तो भी अकर्मण्य, कर्म वे जिनका फल नकारात्मक
बस निष्प्रयोजन कागज कृष्ण करते, समझते हम ही सक्षम। 
पर-दुरालाप न है उत्तम प्रवृत्ति, पर कष्ट होता जब आए बाधा 
क्या मात्र हो वेतन-ग्रहण माध्यम, संस्था-आदर क्यों न चिंता ? 

क्यों अपुण्य सोच सदा, क्यों ऐसी तुम्हारी तामसिक प्रवृत्ति  
क्यों न रचनात्मक, कुछ सुकर्म से छोड़ते निज-सुनाम ही ? 
क्या जीवन में सर्व-वंचना ही लेनी, या सुयशार्थ भी कुछ कर्म 
मत गँवा हीरक-जन्म को, जब जाँचा जाएगा तो बड़ा दुःख।  

निर्मोहीपन एक गुण, पर जहाँ से भृत्ति उस हेतु न चिंतन 
प्राथमिकता भय-वश की, पर रणछोड़ से तो कहाँ सिद्ध? 
हर समय शंका सब पर, माना सर्व-जग तेरे विरोध में ही  
कर्म-शील अधम, मन व्यस्त पर-निंदा काना-फूसी में भी। 

क्यों बुरा सोच सबका व निज-अहित, एक शैली सी गठन 
न तू आदर्श-प्रतीक, गजदंत खाने को और दर्शन के अन्य। 
बस यूँही जीवन-आयु बिता रहें, उस पार भी ठौर न मिलेगा 
संसार से सदा भागे फिरते हो, परलोक में भी पाओगे क्या ? 

 कुछ कर्मठता-प्रतीक बनो, सकारात्मकता का जीवन प्रवेश 
करो संचार अन्यों से जहाँ जरूरी, स्व-कर्त्तव्यों प्रति सचेत। 
क्यों अन्य कहें कार्य न करते, अपनी सुध तेरी  प्रतिबद्धता  
सम-स्थिति स्थापना तो  कर्म से ही, न कि से अकर्मण्यता। 

धीर-मन स्वामी बनो, किञ्चित अन्य आऐंगे श्लाघा हेतु तव
जग सत्य परिवर्तन चाहता, माना परोक्ष भी अनेक षडयंत्र।  
चुगली-स्वार्थ, सज्जन-विरोध, चलते कामों में रोड़े अटकाना 
सोचते हटाने हेतु, जबकि उचित वातावरण दायित्व उनका। 

तेरा क्षेत्र किञ्चित अल्प-संख्यित, वे डराते-धमकाते बाहुबल से 
हम जैसे चाहे तुमसे व्यवहार करे, हम स्वामी क्यों नहीं सुनते। 
घुड़कियों से भय-प्रसारण मंशा, अन्य भी तो सेवा करते हमारी 
क्यों शासन-नाम से हमारी बात न मानते, यह तो बड़ी हेंकड़ी। 

हम मारे भी तुम न चीखो, जैसे कहा जा रहा मौन जाओ सुने 
मेरा प्रांगण मेरी न मानोगे, तुमको छोड़कर अन्य को ले लेंगे। 
अन्य की सब विसंगतियाँ सहन, तुमको सिखा देंगे कार्य-निर्वाह 
    हम चाहे मिथ्या-कर्म करें, तुम बस रखो अपने काम से काम।     

कैसा विरोधाभास जनमात्र में, चरम स्वार्थपरता भारी आदर्श पर 
असत्य वचन न लज्जा, मुक्ति हेतु उल्टी-सीधी युक्ति लगाए बस। 
पर-लाँछन पर स्वयं न सुकरणीय दान, बंधु तेरा भी अहित होगा 
मानो अति-हानि उठानी पड़ेगी, स्वयं रोपित तो काटना पड़ेगा। 

पवन कुमार,
२४ फरवरी, २०१८ समय १७:२४ अपराह्न 
(मेरी डायरी ३ जुलाई, २०१५ समय ९:४८ प्रातः से)   

Saturday, 10 February 2018

सुवीर

सुवीर 
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कुछ लघु ही किन्तु अनुपम, अल्प-शब्दों में आह्वानित 
भाव अति सूक्ष्म, अर्थ गूढ़ व पावन सुंदर का एकत्रण। 

पूर्ण मन का स्वामी और त्याग त्यज्य को हुआ सजग 
कुछ बुद्ध-दर्शन ग्रहण-प्रेरणित, कुछ अवस्था सुमधुर। 
लुप्त हुआ स्वान्वेषण में, पवित्र-पुष्कर में किया स्नान 
मिटें जहाँ सब व्याधियाँ, उस समाधि से साक्षात्कार। 

कुछ उच्च-अवस्था ज्ञान, इस निर्जीवी को मिला ध्यान 
न करेगा व्यर्थ स्वयं को, निज-स्थिति को प्राप्त मान। 
आगामी प्रतिक्षण को वह, सदुपयोग में अग्र बिताएगा 
कितना बेहतर संभव इससे, इसकी क्षमता बताएगा। 

मनन विमल व चिंतन-व्यापक, निरंजन-आशुतोष सम  
न कोई चाह मोह-बंधन की, सिद्धार्थ सम स्वयं-साधन। 
संग लेगा विश्रुत-मनीषियों का, जिन्होंने निज को समझा 
नहीं बनेगा भार वह धरा पर, कुछ सार्थक कर दिखाना। 

नहीं रुकेगा कठिन-अवरोधों से, दिशा उसने बना ली  
पूर्ण-सत्य पाने के उद्देश्य की, उसने चित्त में है ठानी। 
बनेगा कृष्ण सम योगी, जिसको परम-दर्शन का ज्ञान  
न करेगा प्रगल्भ मन-तन में, क्योंकि अंतर का प्रज्ञान । 

चल दिया राह पर वह लघु नर, उन्नत उसका मस्तक 
अन्वेषण उसकी चित्त-प्रवृत्ति, उद्देश्य उसका पवित्र। 
वह समझेगा इस तंत्र को और कुछ करने को उद्यत 
जीवन-ऋण चुकाने का समय, और न गँवाना अब। 

सबल मन का प्रेरक, जरूरी-वाँछित पर देगा ध्यान 
कुछ भी करने से पहले वह, करेगा उस पर मनन। 
बना ली उसने प्रवृत्ति ऐसी, जिससे शुभ ही निष्पादित 
सुवीर चला पथ अविरल सतत, अपने पूर्व से विलग। 

और मंगलकामना उसके लिए। 

पवन कुमार,
१० फरवरी, २०१८ समय  ११:०७ बजे रात्रि  
(मेरी डायरी दि० १४ जून, २०१४ समय १२:२५ दोपहर से )

  

Tuesday, 30 January 2018

दूर यात्रा

 दूर यात्रा


एक शब्द-अन्वेषण प्रक्रिया से गुजर रहा, मिले तो कुछ बढ़े अग्र

जीवन यूँ ही बीत जाता, ठहरकर चिंतन से उठा सकता अनुपम।

 

चारों ओर ध्वनि-नाद गुंजायमान, मैं कर्ण होते भी न सकता सुन

अंतः से कुछ निकल न पा रहा है, मूढ़ सम बैठा प्रतीक्षा ही बस।

इतना विशाल जगत सब-दिशा से ध्वनित, पर मैं तो निस्पंद मात्र

कुछ तरंगें स्व से भी निकलती होगी, सुयोग से किंचित बने बात।

 

क्यूँ रिक्तता है मन-देह प्राण में, चाहकर भी न कुछ सोच पा रहा

क्यों कोई गति ही न है, कोलाहल में बिलकुल भी दिल न लगता।

उससे भी जुदा न कोई प्रयोजन, वर्तमान क्षण भी सीमित स्व तक

हर दुविधा निज हल लेकर आती, बहु-काल से मुझसे न बना पर।

 

क्या कुछ शून्यातीत होते हुए भी, अंदर से स्वर निकलने हैं संभव

खुद को समझा नहीं पाता, कैसे क्या घटित हो रहा पाता जान न।

यह क्या है स्व का क्षेत्र, इस मस्तिष्क-ग्रंथि की पहेली न सुलझती

स्वयं से निबट न पाता, अनेक जग-कवायद, पेंचों से होती कुश्ती।

 

कितना सिकुड़ गया, स्वयं से कोई अतिरिक्त संवाद न हो पा रहा

जग का ज्ञान न अभी, कैसे जन-संवाद हो, बस अकेला ही खड़ा।

दिवस में कुछ शब्द आदान-प्रदान करना जरूरी, जग-चलन को

कुछ निश्चित कर्त्तव्य-भृत्ति कुटुंबार्थ, निबाहना स्वतः आवश्यक तो।

 

उसमें न भी अधिक रूचि, करना मजबूरी, स्व में ही खोना चाहता

इस बावलेपन में इतना तल्लीन, बेचैन होते हुए भी तसल्ली पाता।

खोज में कि कब सान्निध्य होगा उस अज्ञात परम से, किंतु भटकता

विडंबना, न ध्येय-ज्ञान, भ्रमित, क्या, कैसे, कब, कहाँ कुछ न पता।

 

अजीब-स्थिति क्या ऐसा भी, इस चेतना में ही बीत जाय सर्व जीवन

मन-कार्यशाला में डूबे अनेक दिखते, न जाने प्रशांत क्या खोजत।

जग को लगता कि पागल है, वरना आगे बढ़कर यूँ संवाद न करते

सत्य अंतः-स्थिति तो वे ही जाने, अन्य मात्र कयास लगा हैं सकते।

 

यह क्या अवस्था स्व-तल्लीनता की, कुछ न सूझे फिर भी चाहता

न अभिलाषा बाह्य-दर्शन की, जितना सिकुड़ सके, प्रयत्न करता।

जीवन-चिंतन-विज्ञान में न रूचि, इस दशा में ही दिखता परमानंद

न ईश्वर-प्राप्ति की ही इच्छा, पूर्ण जी लूँ इन पलों को यही कवायद।

 

क्या इस स्थिति से कुछ निष्कर्ष संभव, या मात्र बहते रहो नदी सम

उद्गम-उद्भव-संगम निज जैसों से, या विपुल समुद्र में विलय निश्चित।

मैं भी किसी एक अवस्था में हूँ, पर कोई स्पंदन न है चल रहा सहज

कौन जीव-विकास प्रक्रिया के किस भाग से गुजर रहा, मुझे ज्ञात न।

 

कौन नियंत्रक इस मन-देह-प्राण का, क्यों स्थिति में ही चाहता इस

क्या उसकी अपेक्षाऐं न मालूम, प्रयोजन हितकारी या समय व्यर्थ।

बहु प्रकार के चेष्टाऐं संभव थी इन पलों में, मैं ही क्यों धकाया गया

क्यों रह-२ कर वैसे भाव उबरते, सदुपयोग हो तो कुछ काम बना।

 

अनेक विश्रुतों के ग्रंथ पढ़ता, अज्ञात कि वे भी ऐसा अनुभव करते

जग समक्ष लेखन-संवाद पृथक ही, ज्ञान विशेष लाभ हेतु औरों के।

पर न लगता कि गुण-ग्राहक हूँ, इस स्थिति से किसको क्या लाभ

नहीं कोई अन्य और स्वयमेव भ्रमित, बस इस चलने में ही आनंद।

 

अभी लेखन-अंत आवश्यक, पर सिलसिला मन में चलायमान सदा

इसे पूर्ण महका लें, शरद-पूर्णिमा निकट-गत, रात्रि में चंद्र चमकता।

उपवनों में पुष्प खिलने शुरू हो रहें, हाँ पतझड़ का भी आनंद निज

जब सर्व-पुरातन झड़ जाएगा, नव ही सर्जन, सृष्टि तो उससे उदित।

 

जैसा भी जहाँ हूँ पूर्णातिरेक रहना चाहिए, अपने में ही तो परमानंद

आत्मसात औरों को जानने में मदद करेगा, इसका ही लो सदुपयोग।

जीवन में सहज अग्र-स्थिति दैव-अधीन, बेतुके संवाद से दूरी सुभीता

ज्ञान-घड़ी कब आएगी नितांत अज्ञात, अभी रस में हूँ, रहना चाहता।

 

चलो चलते कहीं दूर यात्रा में, आत्म में क्षेत्र-विचित्रता भरी हुई महद

उससे परिचय हो जग भी देख लूँगा, प्रयास स्व-संवाद का है समस्त।

 

 

पवन कुमार,

२८.०१.२०१८ समय १८:१३ बजे सायं

(मेरी जयपुर डायरी १८ अक्तुबर, २०१६ समय ९:१२ बजे प्रातः से )



Monday, 22 January 2018

स्व-नियंता

स्व-नियंता 
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उच्चावस्था संभव प्रयोजनों में, आत्म-मुग्ध या विद्वद-स्वीकृत 
संस्तुति वाँछित मनीषियों द्वारा, पर मात्र उसके न कर कष्ट। 

कोई नहीं है तव प्रतिद्वंद्वी यहाँ, समस्त कवायद स्वोत्थानार्थ 
निज-भाँति सब विकसित होते, न कोई उच्च है अथवा क्षुद्र। 
स्व-निष्कर्षण ही सत्य पैमाना, स्व-संभव अधोगति से-उद्धार  
सब करपाश पुरुषार्थ से, मुष्टि खोलो करो दर्शन-चमत्कार। 

निज भय ही है महद रोधक-शत्रु, शंका निकट कारण-स्थित 
बलात उत्तिष्ठावस्था उन्नति अवरोधक, प्रयास ही पार-सक्षम। 
कौन रोक सकता निज-परिश्रम से, पूर्व युक्ति एवं मन-दृढ़ता 
विजय-सक्षम, गुण-ग्राहक परम का, न उपालंभ या दिखावा। 

अजातशत्रु, जितेन्द्रिय, सकारात्मक, सुमधुर स्वर निज-गूँज 
क्यों जन स्व-विरोधी दर्शित, वे तव मनोदशा ही प्रतिबिम्ब। 
ढूँढ़न चला शत्रु बाहर, आत्म-अवलोकन से पाया स्व-स्थित 
वही विरोधी, पग-२  रोके, आत्म-विश्वास को करे विव्हलित।  

क्यों हीन-भावना निकट ही, ज्ञात है स्व-साधन परम सहायक 
अणु-२ महद-जीवन स्फुटित, विपुल ऊर्जा-भंडार व भट्टारक। 
स्व-शक्ति जाँचन भी आवश्यक, वही उपाय सुझाए सुधारार्थ 
कहाँ अवस्थित, किम गंतव्य, कितनी दूरी -प्रयास आवश्यक। 

अन्तर्द्रष्टा, उच्च-मनोनायक, उत्तम विवेचना व रमणीय चिंतन 
आयाम अवलोकन-समर्थ, मंथन सुधार्थ, सतत महद हेतु रत। 
सुजय सर्वहितार्थ, चिंतन मात्र वसुधैव परम व कर्मयोग स्थित 
स्व-विकास सर्व-निहित, कोई विद्वान मिले, सिखाऐ कर्त्तव्य। 

गागर में सागर, रज में विश्व-दर्शन, अल्प-वचन में निहित अर्थ 
वाणी संयमित, अनुशासित कर्म, वृहत-संपर्क से आत्मसात। 
स्व-दोष ज्ञात-प्रतारण, निदान-अन्वेषण, निर्माता भवन अदभुत
परछिद्र-अनाकर्षण, जग अति-भ्रामक, सत्य-रूप अवलोकन। 

गंभीर-व्यक्तित्व, स्व-कथन में सक्षम, न मात्र श्लाघार्थ प्रयास 
सदा-विद्यार्थी, महात्मा-आदर, सर्वहित हेतु जीवन न्यौछावर। 
उच्च-शिखा दर्शनाभिलाषी-विवेक, विश्वरूप सर्व ही स्व-स्थित 
सकल ब्रह्माण्ड निज-प्रारूप, न कोई विजातीय सब ही निकट। 

सत्य-प्रणेता, अरि-विजेता, परंतप, शांत स्थल में शीलमनन 
  प्रत्येक शब्द शेफालिका-माणिक्य, बहुमूल्य व अति-दुर्लभ। 
कांति-दर्शन, सर्व-सिद्धार्थ, उद्योगी, द्रवितमन वृहत-कल्याण 
कालपरे-दर्शी, महद-व्यक्तित्व, सर्व-समीकरण व सद्भाव। 

विश्व-क्रिया ज्ञान में सक्षम वह, परम श्लाघ्यों का सदैव ऋणी 
  माँ प्रकृति दात्री समस्त ऐश्वर्य, तन-मन उसका की रूप ही। 
प्रदत्त समय निर्वाह अति सघन, हर क्षण है अति-मूल्यवान 
विचित्र अध्याय दाता अवलोकनार्थ, हर विधा तो कल्याण। 

मम जीवन, स्व जैसा छोड़ूँ,  न युक्ति मन में व परम-निर्मोही 
हर कण समर्पित मनुजता के, सर्व स्थावर-जंगम निज-संगी। 
नमित, गुण-सक्षम, सर्वत्र-स्थित, मान-भाव सुघड़ हर प्रयास  
निष्णात जीवन-अध्याय, ज्ञान मार्ग में मन सदा चलायमान। 

किंचित संतुष्ट यदि निरंतर गुण-वृद्धि पर नहीं विरोध अन्य से 
स्व-नियंता निज-प्रयोजनों का, उच्च-मनोरथ निज कार्य-क्षेत्र। 
परित्यक्ता  दोष-अधमता-पापों का, जीवन को करे सुज्ज्वल 
पावस नीर  मेघ प्रदत्त प्रलाक्षन, स्नान और विभोर अंतर्चित्त। 

किंचित मृदु-संगी हैं आत्म-वृत्त में, संपर्क करे उत्थान-विकास 
कुछ विद्वान यदि गुरु बने, कबीर उक्ति संभव सम कुंभकार। 
काढ़े अन्तर्दोष, सहारे बहिर, चोट भी स्वीकृत, बनूँ योग्य शिष्य
सर्व-जग योग्यों की ही खोज में, मिले तो भाग्यशाली भी तुम। 

माना न  निज-श्लाघार्थी, पर हर प्रयास करो उत्तम सर्वहित
  करेंगे अन्य प्रशंसा सुनिष्ठा की, व्यवहार संतुलित गति तव।  
ज्ञान-समर्पण, विनीत आचरण, अन्य को न रुष्ट अकारणार्थ  
सुचेष्टा, सुहृदय, शांत चित्रकार, शिखर उन्नयन विकासार्थ। 

पवन कुमार,
२२ जनवरी, २०१८ समय 00:४२ मध्य-रात्रि 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २८ जुलाई, २०१५ समय ८:४६ प्रातः से )

Sunday, 7 January 2018

स्वयं-सिद्धा

 स्वयं-सिद्धा
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मिश्रित कोलाहल-ध्वनि सा यह जहाँ, गूँज है चहुँ ओर से 
मानव मन एकाकी चाहता, बाह्य कारक प्रभाव डालते।

मैं एक गाथा लिखना चाहता, जो हो एक बिंदु पर केंद्रित
पर आ जाते इतर-तितर से अवयव, होते अभिमुख सतत। 
कैसे चले एक सत्य पथ पर ही, वह भी तो सीधा नहीं जब 
कितनी भूलभलैया, चतुष्पथ, मोड़ और दिशाऐं हैं भ्रामक। 

मानव तो बस अभिमन्यु सा नन्हा शिशु,अँधेरे में तीर चलाता 
चक्रव्यूह में प्रवेशित,अज्ञात कहाँ गम्य, बस उद्विग्न सी चेष्टा।  
उद्वेलित है, कुछ अनुमान-सक्षम हुआ, पर है घना अँधियारा  
आगे कुआँ पीछे खाई सी स्थिति, देखो अपना समय बिताना। 

कितना भविष्य ज्ञात, हाँ अन्य देख निज को सकते रख व्यस्त   
सब निकृष्ट-आम व स्तुत्य यहाँ आऐं, उनके आयाम जग समक्ष। 
सब निज ढंग से समय बिताते, और कृत्यों अनुसार मिला फल  
माना कुछ में एकरूपता है, निजी अनुभव तो स्व के ही हैं पर। 

माना यहाँ कुछ शाश्वत सत्य यथा जन्म, मृत्यु व मध्य अवस्थाऐं 
मानव व अन्य जीव उनसे गुजरते, सब अभिमान धरे रहे जाते। 
पर विशेष मानव-मन में क्या चल रहा, दूसरा कैसे महसूस करे 
अनुमान लगा ले भले, समस्त युद्ध तो खुद को झेलना पड़ता है। 

तुम यहाँ बैठे कार्य करते, तुम्हारा लेखा-जोखा कोई लिख रहा  
कितने गुह्य कारक नजर गड़ाए, तुमको एकटक देख रहे सदा। 
फिसले तो रगड़े - कुछ की मंशा, कुछ सराहते तेरे सुप्रयासों को 
अनेकों को न कोई गर्ज, जीवन तेरा जैसे चाहो वैसा व्यतीत करो।

कुछ नियम बन गए हैं प्रकृति में, स्वार्थ में जिओ व जीने दो के 
कुछ सुव्यवस्थित होना पड़ेगा और निर्वाह करना जिम्मेवारी से। 
मुझे भी आवश्यकता है औरों की, मैं स्वतंत्र नहीं इस कवायद में 
बंधन से यूँ चिपक जाते, मानव बस बेड़ियों में केंद्रित हो जाता है। 

माना यह आचरण-पक्ष, पर क्या मन भी तो नहीं होता प्रशिक्षित 
सत्यतः कुछ भिन्नता है पर उसने भी सोच-ढर्रा बना लिया एक। 
कमतर हुई उसकी क्षमता, जबकि मस्तिष्क सक्षम बहु-चमत्कार 
निकलना होगा उसे पूर्वाग्रहों से, तभी तो होगा निज-जग विकास। 

वह अन्वेषी प्रवृति हमें उपलब्ध से आगे बढ़ने को करती प्रेरित 
विवेक से निज-संभावनाऐं टटोलते, कुछ पर कार्य शुरू देते कर। 
यह एकीकरण स्वयं का कूर्म सम, आत्म को खुद में सिकोड़ लेना 
नहीं तो हो ऊर्जा-अपव्यय, वही आयाम तो विकास-पथ खोलता। 

कुतूहली-लुभावनी गूँजें तो सुन ली बहुत, अब शांतचित्त का काल 
अनेक अवस्था यूँ भ्रामक रहा, अब समय वयस्क-मनस्वी निर्माण।  
 जग तो सब प्रकार के प्रभावों को, यूँ सदा हम पर प्रक्षेपित करेगा 
लेकिन तुम स्व को कर कवच-बद्ध, वचन अविचलन का कर लो। 

मेरा क्या मन-संसार है, इसी पर निर्भर बाह्य व आंतरिक आचरण 
जप-तप करो अपने को योग्य बनाओ, नई ऊर्जा का करो संचार। 
खो जाओ  जब भी मिलता समय, स्वयं-सिद्धा सम कुछ करो कर्म
जग में रहते भी जग से निर्मोही, मन में करो असाधारण चिंतन। 

कर्म व्यवस्थित, अल्प-संसार अनुकूलित, निज-प्रति ईमानदार 
जग को मत दो होने हावी, पर अपने कर्त्तव्यों में न करो प्रमाद। 
उठा लेखनी, उकेरो कुछ बेहतर, वाणी का करो मधुर उपयोग 
जब आवश्यकता तो करो  अंतः मनन-शक्ति करो विकसित। 

धन्यवाद। कुछ बेहतर करो। बहुत आशाऐं हैं। 

पवन कुमार,
७ जनवरी, २०१८ समय १८:१९ सायं  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २७ नवंबर, २०१४ समय १०:०१ प्रातः से )

Monday, 25 December 2017

ललकार

ललकार 
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समय यूँ परीक्षा लेता, अनेक कष्ट देकर बनाता सशक्त
न बीतता चैन से जीवन, मानव बनने में है बहुत माँग। 

अब नहीं बालक, जब सब माता-पिता से मिलता पोषण 
युवा-शिक्षित हो बन्धु, एक पद मिला करने को निर्वाह। 
विभाग एक जैसों का कुल्य, सबके करने से ही तो प्रगति  
न प्रमादता निज-दायित्वों में, तुम्हें कुछ आश्वासन देती। 

भृति न सुलभ निठल्लेपन से, कार्य करने को करता बाध्य 
देश का नाम हो दीप्त, प्रजा को मिले गुणवत्ता-आश्वासन। 
वर्तमान माहौल यहाँ कार्यक्षेत्र का, झझकोरता अंतः से पूर्ण
कैसे निकलूँ पार इस चक्रव्यूह से, प्रश्न इस समय है महद। 

कुछ की लापरवाही-अकर्मण्यता अन्यों को भी देती है कष्ट  
पर प्रकृति-नियम कुछ ऐसा है, झेलना पड़ता जो है समक्ष। 
मेरे विवेक मद्धम हुआ जाता जो प्रायः देता  समरसता दर्शन
क्यूँ न निरत अंतः कर्म-योद्धा, अभी तक हुआ है युद्ध-रत। 

जो नियति से मिली है जिम्मेवारी, करो कार्य उसके अनुरूप 
वरन भागी औरों की त्रुटियों में, समय से यदि न किया काज। 
स्पष्ट-संदेश एक ही पर्याय लब्ध - कार्य करो वा जाओ चले 
अन्यथा समय का दाँव अति-मारक, चैन से न देगा बैठने। 

न चंचल अवस्था यह, अपितु विवेक-युक्ति बैठाने का समय 
रोगी स्थिति, दवा कटु अवश्य है देती नीरोगता है अन्ततः। 
बहुत आशा से विभाग ने भेजा, उसको तुम न बुझने देना 
देखो सफल होकर दिखलाओ, जन कन्धों पर लेंगे बैठा। 

प्रत्येक क्षण में जीवन-संचरण, ढीलता करो पूर्ण-विव्हलित  
न स्वयं विराम, न सहचरों को, विश्राम-स्थिति न बिल्कुल।  
जीवन का यदि है अग्र-प्रसरण, परिश्रम तो दुर्धर अवश्य ही
नहीं तो तुम सड़ जाओगे, वृद्ध सरोवर में ठहरे जल भाँति। 

यह ललकार सुधार-आग्रह, संग्राम है तुम्हारा स्वयं संग 
निज को करो तत्पर, समस्त सामग्री जुटाओ हेतु संघर्ष। 
जग मात्र वीरों को ही पथ देता, जिनमें चीरने की शक्ति 
मात्र संवाद-सीमा से तो, वास्तविक हल न सुलभ कभी।  

क्या है यह व्यग्रता, मन-पथिक को न विश्राम किञ्चित 
तरंगें उदित अति उत्तुंग, बल-दृढ़ता से करती विव्हलित। 
मुझपर असंवेदनशीलता-आरोप, नितान्त भी नहीं सत्य 
स्व-कर्त्तव्य पूर्ण-निष्ठ, मन-काया में नहीं कोई प्रमाद। 

न होने दूँ स्वयं को व्यथित, पर लक्ष्य उससे महत्तर  
न रुद्ध प्रदत्त कर्त्तव्य, हो अति शीघ्र प्रबन्धन में स्थित।  
अनेक बाधाऐं आती पथ पर, यह भी आई तो होगी उचित 
लोग मानेंगे प्रयासों को, लेकिन तो लगेगा कुछ समय। 

तुम भई अच्छे, कुछ किया ही नहीं, मुफ़्त श्लाघा-मत्सर  
वृक्ष उगाया नहीं फल की इच्छा, खाने को टपकती लार। 
माना कुछ भाग्यशाली होते, जिन्हें दूसरों द्वारा कृत मिला 
मूल आनन्द करके खाने में, वही आत्म-सम्मान है सच्चा। 

निकलो दुविधा से, होवो गतिमान, हानि हो यथा-संभव अल्प
जिनसे आवश्यक करो संपर्क, उसी में सबका कल्याण। 
उत्तम कर्म परिलक्षित होने चाहिए, विश्व देखना है माँगता 
करते रहो कृत्यों का ज़िक्र, जिससे झलके कार्यशीलता। 

धन्यवाद। चले चलो, अच्छा करके की दम लो। अवश्य सफल होओगे। 

पवन कुमार,
२५ दिसंबर, २०१७ समय रात्रि २३:४३ बजे  
( मेरी डायरी दि० २० नवम्बर, २०१४ समय ९ :१८ प्रातः से ) 
  

Sunday, 10 December 2017

मन-दृढ़ता

मन-दृढ़ता
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कौन हैं वे चेष्टाओं में प्रेरक, मूढ़ को भी प्रोत्साहन से बढाते अग्र 
निश्चितेव कर्मठ-सचेत, वृहद-दृष्टिकोण, तभी विश्व में नाम कुछ। 

क्या होती महापुरुष-दिनचर्या, एक दिन में कर लेते काम महद 
प्रत्येक पल सकारात्मक क्रियान्वित, तभी तो कर जाते अनुपम।
 किया निज ऊर्जाओं को संग्रहण, मात्र वार्तालाप में न व्यर्थ समय 
श्रम-कर्त्तव्य संग ही समय-व्यापन, शनै योग से निर्माण बेहतर। 

महाजन-परियोजना भी विपुल, एक साथ ही अनेक विषय-मनन 
जटिल विषयों पर भी विशेषज्ञों संग, विचार बना निर्णय में समर्थ। 
सशक्त बहु-आयामी निवेशों से, व्यक्ति-अस्मिता का स्पष्ट-दर्शन 
 स्व की  कर्मों से सार्थक-रचना, लोगों को हैं काम, करते सम्पर्क। 

क्या स्व-प्रति पूर्ण-समर्पण, निज से  ही महायुद्ध - कुप्रवृत्ति-विजय 
स्व देह-मन ही कुरुक्षेत्र, पक्ष-विपक्ष सेना भी स्वतः ही रही जनित। 
एक हूँक सी उठती स्व-जयश्री की, कैसे महत्तम निज ही से उदित 
पूर्ण समावेश मन-आँचल में, कंदर्प (कूर्म) सम स्व में ही सिकुड़न। 

प्रथम बनो निज- कार्यक्षेत्र, जब  अंतः-शक्त होंगे तो बाह्य भी सरल 
बाह्य भी अंतः से न अति-विलग, संवेदनशील चेष्टा को लेंगे पहचान। 
जग-पथ सुगम जब निज-संतुष्टि, वरन पर-छिद्रान्वेषण में ही व्यस्त  
बाह्य युद्ध-प्रहार तो सहन शक्य, अंदर से तेजस्विता अत्यावश्यक। 

कोई महद-उद्देश्य पकड़ लिया मन ने, समस्त-चेष्टाऐं वहीं समर्पित 
लोगों ने जीवन-विचार की धाराऐं बदल दी, मन की दृढ़ता थी महद। 
उनको निज व्रत-दर्शन पर श्रद्धा, मन बनाकर जोर कार्यान्वयन पर 
उपदेश की भी वाँछित शैली, एक नर ने ही रच दिया गुरु राज-धर्म। 

एक मनुज में अति-बल संभव, जब और बढ़े क्या न कर सकते तुम 
 स्तुति-ग्रंथ बाद या जीवन-काल में लिखित, जीते-जी दिया काज कर। 
पुरुष में जीवनी-शक्ति चाहिए, एक अदम्य साहस-चेष्टा का प्रार्दुभाव 
मानव-संकल्प एक प्रबल उपकरण, ऊर्जा समेकन से सर्वस्व संभव। 

कैसे परियोजनाऐं प्राप्त हैं निष्ठावानों को, लोग कर सकते विश्वास 
कार्यान्वयन  में सफल भी हो जाते, लघु-२ जोड़  बना लेते महान। 
अवसर हाथ से न जाने देते, जरूरत होती तो जाकर बात कह देते 
स्वीकारोक्ति भी एक गुण, संजीदा देख तो लोग प्रतिक्रिया ही देते। 

जीवन-दर्शन विवेचन अति-कठिन, निज-पथ गठन और भी दुष्कर 
पर जो समर्पित  परमोद्देश्य में, किञ्चित हो जाएगा ध्रुव के भी पार। 
लेखन-भाषण-ज्ञान-कर्म व प्रत्यक्ष व्यवहार, श्रद्धा-संभरण में समर्थ 
पार्थिव-सुविधा में अल्प-रूचि, उचित जग-परिणति ही चेष्टा-समस्त। 

बहु-रूढ़िवादिताऐं जग-व्याप्त, प्राण परम-सत्य जान सकते ही कम 
अल्पतर जो पुरा-भ्रामक रूढ़ियों पर, निष्पक्ष  टिप्पण-कर्तुम समर्थ। 
लोगों को निज-सोच का अंग बनाना हुनर, जुड़े तो ही बलयुत बनेगा 
इतिहास हटा नव-नियम निर्माण-साहस, बीज में वृक्ष-दर्शन-कला। 

चाणक्य सी प्रतिज्ञा कर ली कि नंद-वंश को मिटाकर ही हूँगा प्रसन्न 
बुद्ध का समाज-धर्म कुरीतियों पर घात, रचा एक निर्मल-मानव धर्म। 
मुहम्मद ने देख अनेकों की दुर्दशा, पहुँचाया वसुधैव-कुटुंबकम नियम 
सर्व-नर सम भू-संसाधन सबके, क्यूँ कुछ ही कर लें अधिकार-पूर्ण।  

डा० अंबेडकर ने जाति-मूलक समाज-अपुण्यों को किया जग समक्ष 
एक नूतन मानवता-दर्शन, विधि-सहायता से किया आमूल परिवर्तन। 
सर्व हेतु सम मूल-अधिकार, धर्म-जाति-स्थान नाम से कोई भेदभाव न 
अति साहस कि दबंग-तंत्र से भी संघर्ष, अंतः-शक्त थे सब गए सहन। 

उत्तम  परिवेश दान वर्तमान-भावी संतानों को, व्यक्तित्व की कसौटी  
मात्र खाने-सोने से मनुज-प्राण क्षय, श्रम से ही संभव श्रेयस-परिणति।  
क्रांतिकारी आऐ धरा पर, धारा ही बदल दी, निज-हेतु भी सोचो नाम
जब सोच की नर-जीवन में स्थली, अमर होवोगे, यही है जीवन-पाठ। 

लोगों ने हर काल में श्रम किया, महत्तम हेतु होवों समर्पित लगा मन
     जीवन-आविष्कार को मूर्त रूप दो, प्रयास से आते परिणाम महान।    


पवन कुमार,
१० दिसंबर, २०१७ समय १९:५५ सायं  
   (मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २८ मार्च, २०१७ समय ८:२२ प्रातः से )