चलो सखी उस देश

इस आवास-निकट रेलगाड़ी की दीर्घ सायरन-ध्वनि, शंख सी पुन: हुंकार भरती
निज दीर्घसूत्री-उपस्थिति दर्शित करती है, यात्री-फेरीवालों को सावधान करती।
'डॉपलर इफ्फेक्ट' से उसकी दूरी-अंदाजा होता, समय जान लेते निकट निवासी
उनका सोना-जागना ट्रेन आवागमन से प्रभावित, नींद जगा देता कोलाहल अति।
यह मालगाड़ी पैसेंजर या एक्सप्रेस, गाड़ी 5 बजे वाली या 6 वाली, आज लेट है
अरे आज बड़ी धुंध है, धीमे चल रही, वहाँ पीछे दो गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त बची होते।
मेरे पिता सोनीपत से रोज दिल्ली आते थे, प्रथम नौकरी-वर्षों मे दिल्ली भी रहें
परंतु अपने बाल्यकाल से मुझे याद है, निरंतर वे रोज गाँव से ही आते-जाते थे।
सुबह 6 बजे वाली गाड़ी लेते, अत: घर से कमसकम 1-1/4 घंटे पहले चलते थे
पहले साइकिल वाहन था, कभी पैदल, और बाद में कोई छोड़ता था हममें से।
सायं को स्वयं आ जाते, कभी ऑटो, कभी किसी से लिफ्ट लेकर या पैदल ही
यह दैहिक-कार्य शक्तिवान बनाता, प्रत्येक अंग कार्यान्वित है रहता क्योंकि।
किञ्चित सुबह सर्दी में अधिक गर्म पानी से नहाने से, उनको खाँसी हो जाती
सिक्का कॉलोनी के डॉ० इंद्रजीत गाँधी से उपचार कराते, कहते है जरूरी।
उनको धूम्रपान की आदत थी, दवाई भी एक निश्चित असर ही कर पाती अतः
हालाँकि कमोबेश स्वस्थ थे, सर्दी में कभी-2 खाँसी या बुखार हो जाता था पर।
अपनी युवा-दिनों में वे एक बेहतर गवैये थे, और उचित गुरु से दीक्षा भी ली थी
बाद में कंठ-अस्वस्थता के चलते अधिक न गाते, किंचित इसका था दुःख भी।
हमारा गाँव नगर रेलवे स्टेशन से 5 कि.मी. दूर, ट्रेन-ध्वनि अधिक न सकती पहुँच
किंतु समयानुमान ECE व एटलस फैक्ट्री के हूटर से हो जाता, निश्चित था समय।
अंतराल व विविध ध्वनियों से पता रहता, यह हूटर 7, 7.30, 8 या 8.30 बजे का है
सुबह-2 ज्यादा बजते थे, शायद कर्मियों को संदेश देने हेतु प्रयोजन था समय से।
5 वर्ष सोनीपत से दिल्ली डेली-पैसेंजर रहा, सुबह 7.30 बजे वाली ट्रेन से आता
इसके समय का अनुमान होता, यदि छूट जाती तो अगली ट्रेन में जाना पड़ता।
हम छटी कक्षा से सोनीपत में पढ़े, अति सुबह जल्दी पहुँचना होता था विद्यालय
सायरन ही मार्ग-दर्शक थे घड़ी तो न थी, अधिकाधिक किसी से पूछ लेते समय।
स्कूल में हर पीरियड बाद घंटानाद, मध्यावकाश का ज्ञान भी घण्टी द्वारा ही होता
उसका तो सबको खूब इन्तजार रहता, तब आराम मिलेगा, खेलेंगे व खाऐंगे खाना।
स्कूल बंद होने की घंटी बड़ा सुकून देती, कमसकम आज के काम से मुक्ति मिली
घर पहुँचने की जल्दी पर भारी बस्ता, ट्रैक्टर-साईकिल-ट्रक-ऑटो या पैदल कभी।
यह घड़ी की टिक-2, अलार्म का बजना, हमारी चेतना को जगाने हेतु ही समय से
जब कभी सुबह जल्दी जगना होता तो अलार्म लगा देते, मानते हैं कि उठ जाऐंगे।
अवचेतन मस्तिष्क उसके बजने की प्रतीक्षा करता, हम सुप्तावस्था में ही हों भले
मनुष्य-मन सदा प्रयोजन में लगा रहता, जागरण-विश्राम-शयन वपु-अवस्थाऐं है।
पर जिनका आवास रेल-पथ के साथ ही, उनका जीवन ध्वनियों मध्य होता कैसा
बताते कि रात्रि में बार-2 जाग जाते, अति-कोलाहल में शयन-आदी हो जाते या।
पर अति-चीत्कार से कर्ण-तन्तुओं पर असर पड़ता, जैसे फैक्ट्रियों में करना काम
निश्चिततया हर निकट वस्तु निज असर छोड़ती, हम माने या न माने और है बात।
विभिन्न वातावरणों का प्रभाव, जीव-जन्तु-पादपों पर स्पष्ट पहचाना जा है सकता
विभिन्न जलवायु-सृष्टि भी, उनका स्वरूप देख स्पष्ट अनुमान निवासी है कहाँ का।
सबकी निज बोली, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज़ हैं, हर पर परिवेश-असर
तब कैसे हम अप्रभावित रह सकते हैं, यहीं का चुग्गा-पानी शरीर को मिलें जब।
हमारा परिवेश एक बहुत निकट लघु साँचा-नीड़ है, जिसमें हम प्रतिदिवस ढ़लते
अनेक हाथ सतत हम हेतु मृदा कूट रहें, पानी दे रहें, नर्म बना, चाक पर रख रहें।
फालतू को उतार रहें, ऊँगालियों से सहारते, स्व अनुरूप आकार-आकृति दे रहें
सुखा-पका-रंग रहें, भंडार में रखते, बेच रहें, विक्रेता प्रयोग करता निज शैली से।
पर क्या हमारी भी कोई इच्छा या प्रभाव भी, इस निकटस्थ को बनाने में अनुरूप
क्या हम अनुभूत या विवेचन कर सकते हैं, कि यह बेहतर या सुधार आवश्यक।
या छोड़कर इस दुनियादारी के झंझट, अपनी एक छोटी सी दुनिया ही बना ली
सभी घोंसले, स्कूल-अस्पताल, गृह-आवास, उपवन, सुधारार्थ हैं परिवेश में ही।
हम जंगलवासी, अन्य जीव-जंतुओं संग रहें, वर्तमान में गाँव-शहर-बेड़ें लिए बना
पुराने पेड़, पक्षी-जीवों से संपर्क छूटता, फिर भी प्रकृति में कुछ दिख ही जाता।
वे भी प्रभावित हो रहें हमारे क्रिया-कलापों से, प्रभावित करते सभी परस्पर को
पर जिसमें अधिक शक्ति है वही अधिक प्रभाव जमाता, सहना पड़ता अन्यों को।
सम-परिवेश में भी पृथक जन-व्यवहार दर्शित, कोई आवश्यक नहीं हों मशगूल
वे अपनी प्रतिक्रिया स्व-अनुरूप ही देते, अन्यों को चाहे आऐ या न आए पसन्द।
अपनी छलाँगें लगाना स्वयमेव सीखते हैं, गृह-वातावरण से ही तो चलता न काम
चलो सखी उस देश जहाँ कृष्ण का वास, जल भरें दर्शन करें, पूर्ण हों सब आस।
सूक्ति हैं घर का जोगी-जोगणा, बाहर का सिद्ध हो, या घर की मुर्गी दाल बराबर
अपनी माँ को छोड़कर देवी-आराधना, निज असहायों को छोड़ दानी बनें अन्यत्र।
निज भाषा छोड़ अन्यों की सुश्रुषा, या अपना विकास न कर, रुचि लें अन्यों में ही
या अपने परिवेश का उचितीकरण न, अनेक अनावश्यक वस्तुओं पर ध्यान ही।
मैं मानता कि यह विश्व मेरा परिवेश ही, जहाँ भी विसंगति है वहाँ मेरी जिम्मेवारी
देखिए मैं कैसे अछूता रह सकता, जब सर्वस्व मेरा ही, व अंग अस्वस्थ है कोई।
यह सारा ब्रह्माण्ड मेरा ही स्वरूप तो, क्या इसके बहु दुःख मुझे न करेंगे विव्हल
मेरी भी अनेक व्यथाऐं जग ने शमित की, और पाल-पोसकर किया इस निपुण।
किंतु परिवेश तो निश्चिततेव सुधारो, व आवश्यकता है इसके महद विकास की
अपने कार्य-कलाप तो जाँचने ही चाहिए, अपने बहु-घावों को भी होगा देखना ही।
तन-मन का पूर्ण स्वास्थ्य तभी संभव है, जब इसका प्रत्येक अवयव पूर्ण हो स्वस्थ
समय पर रुग्ण अंग का उपचार विधिवत कराना, व चेतना-विस्तार हेतु सर्वहित।
अनेक निकट विश्व-वस्तुऐं सुरुचिर, खूब मनन-भोग करो, आत्मसात करो सकल
जितना अधिक स्नेह इस कायनात से कर सकता, निज वृहदता-विकास ही वह।
मीरा दीवानी कृष्ण-प्रेम में का मतलब है, आत्म परम-रूप का सान्निध्य पाना इस
पर कृष्ण विश्वरूप-प्रतिबिंब ही, वह भी विव्हलित उसके अवयव अस्वस्थ हैं जब।
तुम भी दो आहूति श्रम की इस विश्व-यज्ञ में, एक बेहतर परिवेश बनाओ लोकार्थ
फिर दीर्घ निनाद होने दो इस सुकृत शंख का, आयुर्विद्या-यशोबलम होंगे विस्तृत।
पवन कुमार,
२० अप्रैल, २०२४ ब्रह्मपुर, शनिवार, समय प्रातः ९:२० बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी डायरी १३ जनवरी, २०१६, बुधवार समय प्रातः ६:१६ बजे से )