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Sunday 7 December 2014

निवृत्ति

निवृत्ति 
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कुछ करना चाहता हूँ पर हिम्मत नहीं होती  
अधूरा पड़ा है बहुत दिनों से काम, फिर भी मैं शिथिल हूँ। 

मन कुछ व्यथित है, यहाँ पिछले दिनों से 
किसी विषय में भी दिल लगता नहीं, चाहकर भी। 
मेरा 'निकमार अध्ययन' का 'लोंग पेपर', अधूरा पड़ा है सामने 
लेकिन चाह-चाह कर भी, मैं शिथिल ही रहता हूँ। 

क्यों नहीं शुरुआत करने की, इच्छा बहुत दृढ़ है 
कब तक जीवन के अमूल्य क्षण, सुस्ती में बिताता रहूँगा ?
जीवन तो चलता रहेगा, बगैर अपना साथ लिए भी 
पर असल में पछताना ही पड़ेगा। 

कल ही  Tuesday Lobsang Rampa की पुस्तक, 'The Third Eye' समाप्त की है 
हर एक पंक्ति, हर एक शब्द से, क्रियान्वयता की शिक्षा मिलती है। 
कभी-2 आजकल पातञ्जल योगदर्शन को पढता हूँ 
पर फिर क्रिया में बहुत सुधार दृष्टिगोचर नहीं होता। 

मैं क्या चीज़ हूँ, कुछ ज्यादा न समझ पाया हूँ 
शायद मन और कार्यवाहियों का, समन्वय नहीं कर पाया हूँ। 
फिर कैसा हूँ जो, निरुद्देश्य जिए जा रहा है 
प्राथमिकताओं को न पहचाना, और न काम ही किया जा रहा है। 

हर ऊँचाई तक पहुँचाने हेतु, तैयारी करनी पड़ती है 
वरन तो नीचे पड़े रहोगे, ज़माने की ठोकरें खाने के लिए। 
इतना आसान भी तो नहीं है, सफर का रास्ता 
सुस्त पड़े रहने वाले तो, बहुत मध्यम ही जिया करते हैं। 

क्यों नहीं गुणवत्ता में सुधार आ रहा 
कब मैं गर्वित हूँगा कि, तुम्हारा स्तर बढ़ गया है ? 
कब तुम्हारी निष्ठा को, और भी पहचानने लगेंगें 
कब तुम दुनिया के लिए, एक भरोसेमंद विषय होंगे ?   

मैंने तो शुरू किया था, सफ़र यह अकेला 
चाह में इसकी, कोई साथी मिल ही जाएगा। 
लेकिन बाहर आकर देखा तो, सब मेरी तरह ही हैं 
हर एक दूसरे से, आगे निकलने की होड़ में है। 

कुछ हैं साफ़  नीयत के मानव 
और कुछ तो अपना भाव तय करना चाहते हैं। 
 चाहे फिर कोई विषय ही ऐसा न हो 
फिर भी वे अपना महत्त्व जता ही देंगे। 

फिर मैं तो मूक-बधिर सा, देखता जाता हूँ 
अपने पर होने वाली खोजों को, दूसरों द्वारा। 
मैं तो बन गया हूँ guinea pig इनका 
फिर अपनी इच्छा, विचार, शक्ति कुछ भी नहीं है। 

मैं किस कदर चीखा था, पर सुनी किसने 
मुझे तो बाहर से ही चुप करा दिया गया। 
मैं तो अंदर से बस घुट सा रहा हूँ 
और अपनी ही नियति पर, आँसू बहा रहा हूँ। 

जीवन का क्षेत्र बड़ा विशाल है, सुना था 
पर आकर देखा तो, बहुत संकुचित सा पाया। 
हर एक का एक छोटा सा संसार है
उसमें ही वे बस जैसे-तैसे, जिए जा रहे हैं। 

मैं भी अपने को पाता हूँ, इस असमंजसता के चक्र-व्यूह में 
और घिरा पाता हूँ काली, घनी घटाओं द्वारा। 
कब मुक्ति होगी, कुछ नहीं है पता 
क्योंकि नियंत्रक तो, कोई और ही है। 

छोटा सा मन और चिल्लाना भी, औरों को सुनता नहीं 
वे तो शायद इसे, मजाक का विषय समझने लगे हैं। 
जानते हैं कि यह कार्य करने की मशीन है 
मशीन को उसका चालक, जैसा चाहता, वैसे चलाता है। 

पर समझ नहीं है उनको कि, यह भलमानसत ही है 
किसी की निष्ठा पर कटाक्ष करना नहीं चाहिए। 
अगर आदर नहीं कर सकते, तो अनादर न करो 
फिर बिना किसी रिश्ते के भी, अच्छा लगेगा। 

बहुत बार खुद को, घोर अकेला पाता हूँ 
क्योंकि मेरी बातें सबको अच्छी नहीं लगती। 
फिर किस को कहूँ, दिल की कहानी 
लगता है, लोग मज़े लेने के लिए बैठे हैं। 

कहानियों का दौर सुना था, आज स्वयं एक कहानी बन गया हूँ 
पर मूर्ख हूँ इतना कि, लिख भी नहीं पा रहा हूँ। 
औरों की टिप्पणियों से शायद, खुद को जाँचने लगा हूँ 
कभी अपनी ओर तो गौर से, झाँककर नहीं देखा। 

ज़िगर भी था सीने में, पर अब गया वो कहाँ 
इसकी धड़कनें तो अब, कभी-2 ही सुनाई देती हैं। 
पर इसका मतलब तो कुछ और ही होता है 
पर यह उस तरह से बोलता क्यों नहीं है? 

इसको अपनी बात तो कहने का, पूरा अधिकार है 
पर यह इतना बुजदिल क्यों हो गया ?
अपने से गुत्थम-गुत्था करो, कुछ निष्कर्ष निकालो 
फिर जीवन यूँ ही बस, शिकायत करने का नाम नहीं। 

निश्चलता छोड़कर कमान सम्भालो, चल पड़ो रण को  
   और अर्जुन की भाँति डटे रहो, अपने लक्ष्य के लिए। 
यह मत सोचो फिर कभी, निराशा का दौर नहीं आएगा 
पर फिर तुम्हे अपने अंदर से, कृष्ण पैदा करना होगा। 

युद्ध होगा तो विनाश होगा, कुछ अच्छी- बुरी चीजें जाऐंगी 
पर जीवन तो नाम है फिर खोने का, पाने का। 
किसको कितना समय है कि, औरों के लिए सोचें 
यहाँ तो तुम स्वयं अर्जुन हो और दुर्योधन, दोनों ही। 

अतः लड़ाई नहीं किसी और से 
यह द्वन्द्व तो अपने ही साथ है। 
इस हार में तुम्हारी ही जीत होगी 
और फिर जीतते हो तो, जीत है ही। 

सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी अपना, तुम ही तो हो 
सबसे बड़ी आपत्ति तुम्हें, अपने से ही तो है। 
क्योंकि तुम्हारे अंदर तो, तमाम वे शत्रु छुपे बैठे हैं 
जिन्हें लोग प्रायः, दूसरों में ढूँढा करते हैं। 

पर कब तक मैं तुम्हें, यूँ समझाता रहूँगा 
कभी क्या विश्राम भी दोगे इस कार्य से? 
क्यों नहीं अपने पैरों पर, सीधा खड़ा होकर दिखाते 
और अपने सम्बल से, सीधा चलना शुरू कर देते।  

देखो सब तुम्हारे जितने, पर-आसरा-दर्शी नहीं हैं 
छोटी से छोटी चींटी भी, अपने सहारे जी लेती है। 
फिर तुम तो पूरे, हट्टे-कट्टे मानव हो 
अपनी दुर्बलताओं को छोड़कर, सबलता को पहचानो। 

तब सोचूँगा  तू अच्छा इन्सान है भाई 
जब बैठकर शांति से, अपना कार्य करना शुरू कर दोगे। 
विश्वास करो, तुम्हारे साथ अच्छा ही होगा 
क्योंकि तुमने किसी के साथ बुरा नहीं किया है। 

अपने ऊपर विश्वास करोगे, सारी दुनिया विश्वास करेगी 
खुद तो धोखा देना, पूरी मानवता के साथ विश्वासघात है। 
यह भी न भूलो कि, कोई ऊपर बैठा है निर्देशक 
वह तुम्हारी सारी गतिविधियाँ नोट कर रहा है। 

प्रयासों को मत छोड़ों, यह सलाह है मेरी 
अपनी बात ढंग से, समझदारी से और ठोस तरीके से कहो। 
यहाँ पर समझ लो, पाप नहीं यह कोई 
फिर तुम्हारे ऊपर, और भी तो जिम्मेवारी है। 

आज का मानव है तू, कमजोर न समझ खुद को 
समस्त शक्तियों का कुँज है तू, अपाहिज नहीं। 
डरना है तो, एक उस ऊपर वाले से डर 
या फिर अपनी ही बुराईयों, कुटिल चालों से। 

ये फिर मानव तो हैं, बहुत तेरे ही जैसे 
वे स्वयं से ही परेशान हैं, तुम्हारा क्या बिगाड़ेंगें ?
अगर वे मानव हैं तो, अवश्य समझेंगे तुम्हारा दृष्टिकोण 
फिर तुम्हें सहारा देने के लिए, अवश्य हाथ बढ़ाऐंगें। 

धन्यवाद।  अच्छे विचार रखो। खुद पर विश्वास करो।  
आशावादी बनो, तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा। 

पवन कुमार,
07 दिसम्बर, 2014 समय 20:48 रात्रि
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 19 अगस्त, 2001 समय 01:55 अपराह्न से )

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