वृहद् -चिन्तन
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कैसे मैं सर्वस्व निचोड़ूँ, जिसको मैं जीवन कहूँ
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कैसे मैं सर्वस्व निचोड़ूँ, जिसको मैं जीवन कहूँ
क्या है कसौटी इस जन्म -अवतरण की, कैसे इसे पूर्ण करूँ?
कैसे इसे बढ़ाया जाए, जीवन की संभावनाओं से परे
कैसे लांघें जाए दुर्गम्य, असम, बीहड़ पर्वत, अरण्य, कहाँ से वह साहस भरे?
इसकी उत्पादकता का क्या है पैमाना, कैसे इसे विशाल करें
एक बड़ी प्रयोगशाला में इसे, कैसे परिवर्तित करें?
बहुत गहन शब्दों का प्रयोग, जग में मनीषियों ने किया है
सिद्ध, तथागत, मुमुक्षु, त्रिनेत्र, अरिहन्त, मूर्धन्य, निष्णात व अन्य।
व्यास ने दिए महाभारत में विष्णु के सहस्र नाम, जिनकी शंकर ने मीमांसा की है
अपने भारत में ही हर नाम स्व में पूर्ण-प्रेरक, यदि कोई पूर्ण जिए है।
कौन बनाता अमोघ शब्दावली, जो ध्रुव भाँति एकनिष्ठ होती
क्या इनका अर्थ है जीवन में, यूँ ही तो गुणवत्ता न होती?
मौलिक चिंतन, शब्दों का गठन, और निराकार परब्रह्म ज्ञान
सर्वज्ञ, धर्मज्ञ, ओम, निर्मल चितवन, समुद्र, रत्नाकर और हिमालय विशाल।
कैसे मर्मज्ञ जोड़ते गूढ़ अर्थ, बुनकर वर्णमाला के 44 स्वर एवं व्यञ्जन
कैसे बनती समृद्ध भाषा अपनी, सार जोड़ते कुछ नए शब्द?
तर्पण अपने गत पूर्वजों का, हमें उनसे यूँ जोड़े रखता
अब तक सब परिश्रम से घड़ित पर, हम भी कुछ अधिकार समझते।
सब यहाँ निम्न-उच्चतर मन-स्वामी, अपने स्वभावानुसार व्यव्हार करते
मण्डन मिश्र सम तत्वज्ञानी जन्मते, जो शंकर से भी तर्क करते।
भामती जैसी सहचरी मिले तो, अनुकूल वातावरण में सहायता मिलती
गोपीचन्द की माँ मैनावती, जो बेटे को भी जोग दिलावे।
वृहद उद्देश्य-स्वामी वर्तमान से परे देखते, और प्रलोभनों से दूर रहते
आदर्श जगत-क्रिया कैसे हो स्थापित, इसके लिए प्रयास करते।
भृतृहरि से चिन्तक हुए यहाँ, जिनकी अमृतफल ने दिशा बदल दी
छोड़ा रानी पिंगला और सिंहासन, स्व से श्रेष्ठतम निकालने को।
क्या बनाता जग से निर्मोही, जो वस्तुतः स्वार्थ से ऊपर उठना है
कैसे अविरामी रहते घोर तप में, दशानन भाँति शिव को मनाते।
पवित्र उद्देश्य सबका विकास, मेरा सर्वस्व जग को उपलब्ध
जीवन जोड़ता एक-दूजे से, बहुमूल्य निर्माण में होता सहायक।
बुद्ध ने छोड़ा, महावीर ने छोड़ा, स्व-परिवारों को यौवन-चरम पर
थी वह क्षुधा विचित्र, जो जगत-सुखों को न महत्त्व देती।
चेतना जीवन-समृद्धि और परमानन्द की, एक बड़ा प्रयोजन बनती
किञ्चित लेशमात्र लुब्ध न होता, वे यायावरी यात्रा निकल पड़ते।
पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, भाषा, व्याकरण को समझाया
संस्कृत भाषा है बहुत समृद्ध, हर शब्द में प्राण है भरती।
पर जीवन नाम तक न सीमित, वह तुमसे सर्वस्व माँगता
कैसे न्याय हो यही विडम्बना, इस क्षुद्र मन को व्यथित किए हैं।
कौन हैं वाणी-प्रवाह के पथिक, जो हर शब्द को निचोड़ डालते
चिंतक वे हैं अंतः-प्रवृत्तियों के, जो हर पहलू में सार हैं भरते।
कोई सुने तो अच्छा, नहीं तो कलम से, अपने उद्गारों को उकेर देते
कुछ निर्मल मन उनका आदर करते, काल-खण्ड याद करते।
उद्गीत फुँटें कण्ठ-स्वर से, खलील जिब्रान भाँति अनुपम रच जाते
वे बनते चैतन्य के सम, जो कृष्ण-धुन में खोए रहते।
जीवन को धन्य करने का, कुछ मनुजों ने ध्येय है बनाया
तभी तो कोई नरेन्द्र विवेकानंद बनता, चाह रामकृष्ण को ढूँढ ही लेती।
वह कवि नागार्जुन सा फक्कड़पन, चित्त ज्योतिर्मय कबीर सम वाणी देता
वह रत्नाकर को वाल्मीकि बनाता और अनुपम रामायण रचित कराता।
रत्नावली का रसिक तुलसी, पत्नी- फटकार से उत्तम-उद्देश्य अग्रसित होता।
विद्योत्तमा ने कालिदास को दुत्कारा, कुछ योग्य बनकर भार्या-सुख लेना।
कौन हैं वे शुभ-चिन्तक, जो हमें खड़ा करने में सहायक बनते
वे आलोचक हमारे मित्र, जो क्षुद्रताओं को समक्ष करते।
कौन देखता अनुपम संभावनाऐं, बाल चन्द्रगुप्त में नन्द को उखाड़ने की
कितने चाणक्य यहाँ हैं मौजूद, आवश्यकता बस स्व को ललकारने की।
पुरा-समय में चिन्तकों ने, समाधि से अनुपम कृतियाँ निर्मित की
वे बस बैठ जाते ध्यान में, कागज़-कलम सदा साथ देतें।
वृहत्कथा सम अनुपम ग्रन्थ-रचयिता, गुणाढ्य भी यहाँ हुए हैं
दण्डी ने अपनी दृष्टि-चिंतन से, दश-कुमार चरित्र जैसे ग्रन्थ दिए हैं।
हुवेन्त्साङ्ग जैसे विचक्षण यात्री, ज्ञान-सुधा तृप्त करने को वृहद-भ्रमण करते
वे बैठते सक्षमों के चरण, ग्राह्यी-स्वभाव होने से लाभान्वित होते।
कितने अपने जीवन दाँव लगाते, एक विलक्षण अनुभूति पाने की
इस मरने में भी मज़ा है, वही तो सचमुच जीवन है।
अनन्त, विशाल, भूगर्भ, ब्रह्माण्ड, आकाश-गंगा, महा-कृष्ण छेद व अन्य
आकाश-ऊँचाई, महासागर-गहराई, दिशा-अनन्तता, छोर के पार।
शिव-ताण्डव, विश्वकर्मा सृष्टि का, विप्लव-उत्तुंग तरंगें भवंडर
चक्रवात, विश्व-वृतान्त, जीवनी-संग्रह, इतिहास और अनेक अन्य विषय।
चक्रवात, विश्व-वृतान्त, जीवनी-संग्रह, इतिहास और अनेक अन्य विषय।
क्या है मानव ज्ञान गुत्थी, जो उसे न शान्त बैठने देती
कैसे बनाते पथ वे अपने लिए, जो औरों का भी सहायक होता।
साहसी अपने कर्त्तव्यों को समझते, दूजों को उलाहने को न अवसर देते
वह जीवन ही क्या प्रमाद-मूर्खता में बिताया, अतः आवश्यकता अनुपम करने की।
पवन कुमार,
17 दिसम्बर, 2014 समय म० रात्रि 22:45 बजे
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 11 नवम्बर, 2014 प्रातः 9:22 से )
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