एक मुट्ठी आसमान
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एक मुट्ठी आसमान सबकी ख्वाहिश, जोड़ने को असीमित से
कोई वजूद अपना भी हो, कोई तो हो अपना कह सके।
हर कोई लगा है दायरा बढ़ाने, माना चाहे सफल नहीं
जाने-अनजाने दूजों से जुड़ना चाहता, पर बहुदा अपने जैसों से ही।
सम प्रकृति के न मिलने पर एकान्त ही चाहता, अचाहों का कोलाहल सहन नहीं
फिर एक प्रखर सोच बन जाती, जो अन्यों से मेल खाती नहीं।
क्या हैं मिलना, बातें, गुफ्तगू-गप्पें, कहानियाँ सुनना-सुनाना और मज़ाक
तर्क, स्व पक्ष प्रस्तुति, मनवाना, रखना दूसरों की मंशा का भी ध्यान।
बहुत विविध प्राणी जग में, कैसे उनसे संवाद-सम्पर्क करना
अन्य सभ्यताओं से रूबरू होना, भिन्नों से भी मेलजोल करना।
यह है स्वार्थ-अभिमान का त्याग, करने बृहत् जगत से साक्षात्कार
जब हम कुछ त्यागते, बनता अन्य नवीन हेतु अंदर स्थान।
अन्य यदि अनुचित भी हैं तो समस्त सगुण भी नहीं तुम्हारे पास
जैसे तुम वैसे अन्य भी, कुछ अच्छा और कुछ ख़राब।
कैसे तुम दायरा बढ़ा सकते, जब स्वयं में ही संकुचित होते
माना प्रखरता विशेषज्ञ बनाती, तुम सामान्य से बाहर निकलते।
तुम सोचते अन्य श्रेष्ठ या भिन्न हैं, अपने को अकेला करते
बहुत बार समकक्ष न पाते, अतः दायरा सीमित रखते।
पर आतंरिक ज्ञान क्यों न वृहद बनाता, अन्य भी हैं हम जैसे
क्यों न लोगों के पास जाकर, पक्ष जानने की करते कोशिशें।
हो सकता और भी पहुँचे हो, कुछ पारंगतता हासिल कर ली
वा हों किञ्चित आत्मोन्नति - मार्ग पर, श्रेष्ठ विधा ज्ञान की।
हमारा भिन्नों से सम्पर्क, बढ़ाता सोच का दायरा
और वृहद जीवन - मनुजता में, हमें सम्मिलित कराता।
हम सबका पक्ष समझते, भ्रान्तियाँ तोड़ते, और सामूहिक उचित में प्रवेश
ज्ञान ज्योति हर ओर पहुँचती, सुभग हो कि ज्ञान प्रसारण में परिवेश।
यह खुलना-खिलना, सुवास-महकना, लरजना-मटकना, चहकना-मुस्कुराना
यह प्रेमोन्मुक्त होना, मुदित-उन्मादित और हँसना-खिलखिलाना।
माना कमल सम रात्रि में बंद होना भी आवश्यक, स्व से सम्पर्क हेतु
तो भी अन्यों से जुड़ाव, सांझी सोच का विकास, प्रबोध कराता बाह्य सेतु ।
सम्पर्क से ही स्व-सत्यता ज्ञात होती, वरन हम रहते विभ्रम में
व्यर्थाभिमान प्रगति न होने देता, रखता सदा संकुचन में।
विश्व में समस्त बदलाव हुऐं सम्पर्क से, आदान-प्रदान हमारी प्रकृति
मानव एक सामाजिक जंतु है, बहुत पूर्व अरस्तु ने की उक्ति।
यह एक मुट्ठी आसमान क्या है, मेरा स्व, दायरा-अधिकार
सभी स्व को स्थापित करना चाहते, मज़बूत बनाना एक आधार।
मुझे मेरा चाँद चाहिए मैं विश्व-निवासी, प्रकृति पुत्र, सर्व-व्यापक
सब मेरा, सभी मेरे, मैं सबका, सब मुझमें, मैं सबमें हूँ प्रदीपक।
जब एक अंग पर ज़ोर देते, निस्संदेह लेखा तो खिंचेगी ही
कुछ भाव प्रखर होंगे, हो सकता दूसरों की कीमत पर ही।
विशेष ज्ञान आवश्यक प्रगति हेतु, पर सर्वांगीण विकास महत्तर
ध्यान हमारा सब ओर होना चाहिए, वृहद हेतु सम्पर्क।
आत्मा का परमात्मा या ब्रह्म से युग्म, है मानव जीवन का लक्ष्य
जो पार हुए लघु स्व से, हुऐं मुक्त-सार्वजनिक, और बाहर बेड़ियों से समस्त।
उनके लिए एक मुट्ठी है समस्त ब्रह्माण्ड या उससे भी बृहत्तर
और सिकुड़न में न रहते, उन्मुक्तता से जोड़ते जीवन।
पवन कुमार,
18 अप्रैल, 2015 समय 17:15 सायं
18 अप्रैल, 2015 समय 17:15 सायं
( मेरी डायरी दि० 12 मार्च, 2015 10:53 प्रातः से )
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