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Saturday 18 August 2018

सुमति - दान

सुमति - दान
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 सुमति दीन्हों, विवेक अग्रसर, सयंमित साहसी अदमित
नीर - क्षीर विवेचन कौशल, वक -हंस पहचान विदित। 

अंतरतम दृश्य सक्षम, मेरे गुह्य रिपुओं को करो समक्ष 
सामना हो  स्व-दुर्बलताओं से, विजित हों सर्व-विधर्म। 
सत्य-आत्मसात, निर्मल  बुद्धि का परम-स्तर अनुभव 
पैमाना अनुसंधान यावत,  सब-सत्व का  सार संग्रह। 

मनुज दीर्घ काल से उच्च-स्वर्ग गमन  कामना में लीन 
वहाँ कल्पित ऐश्वर्य-सुख, युवा, क्षुधा-वृद्धि सदा नवीन। 
जग जीवन में व्यस्त, समस्त रोग-भोग अंग-अंग लिप्त 
मुक्ति कामना भी सीमा,  प्रलाक्षन आवागमन -रिक्त। 

ऊर्ध्व दीप-शिखा, विरल तेज बल, ऊर्जा-उष्मा विकिरित 
स्व-बल ही स्थिति-परिवर्तन सक्षम, सुगति सामर्थ्य-कृत। 
कौन उत्थित ब्रह्माण्ड स्पर्श को, विपुल दूरी पाटन प्रयास 
दिव्य-तेज़ अनुभव तन-मन, विश्राम   न किञ्चित विधान। 

सुख-साधन, सुविधाऐं अल्प-हितैषी,  मनस्वी-ध्येय अत्युच्च 
दीन-विश्व स्व-कृत विघ्न-चिंतित, लिप्त  आडंबर-आसक्त। 
सब विवरण, प्रयुक्त भाषा ज्ञात सर्वत्र, तथापि चरित्र मद्धम 
विकास सुधारार्थ संभव, जब मनुज विचारता अति-समृद्ध। 

क्या कल्पना का उच्च-स्तर, पग-पग श्रेष्ठ हेतु मनन गति 
समाधि-अवस्था तक कितने गम्य, या वह भी मति-कृति। 
किसका चरित्र इतना उज्ज्वल, श्रेष्ठतम मानव-रूप स्पर्श 
दिगंत विचरण, निष्कर्ष मर्म, जीव हितार्थ कृत सब कर्म। 

पातञ्जल-योगदर्शन में सूत्र समाधि हेतु यम,  नियम, आसन,
प्राणायाम-धृति, प्रत्याहार-धारणा, ध्यान चरण अति-दुष्कर। 
कितने तो प्रथम सोपान पर अटके, अंतिम छोर और दुर्लभ
  तथापि कुछ उच्च-प्रयास से  गमन-संभव  बनाते कई चरण।

हर धर्म संयम, कर्मकांड, आचरण बताता परम हेतु संभव 
पर दिक्दर्शक अल्प मात्र, प्रायः नर यत्र-तत्र आडंबर-लिप्त।
मूल आचरण न बदलाव है, अतः कदापि न सत्य से परिचय
  दूर लक्ष्य प्रयास अल्प, फिर भी सोचे मुझे मिले हिमालय।    

लेखन के सत्य-निरूपण का क्या मार्ग, सुभीते हेतु परिष्कार 
यह मात्र डायरी तक न सीमित, अपितु है सुधार का माध्यम। 
मनन उत्तम पर आचरण विकृत, बहु-कल्याण  न संभावना 
यदि रत होगे द्वि-सामंजस्य में, परम-यश साध्य है निकटता। 

वय-मन उभय पूर्ण यौवन  में, वयस्क सी स्थिति है किंचित 
काल बीतता द्रुत गति, कब कर से फिसले चलता पता न। 
 जीवन है क्षण-भंगुर व्युत्क्रम  में, समस्त प्रकृति में यह खेल 
आवागमन अवश्यंभावी, प्राप्त समय में ही करो कुछ मेल। 

भ्रमर अपना गीत गुनगुनाता, लीन अपनी धुन में ही बस 
डूबा  एक परम-स्थिति में, नशा फिर मतवालों का यह। 
लैला-प्रेम में मजनूँ बना एक काफिर, मारा-मारा फिरत  
यदि मर्म ज्ञान अनंत प्रेम का, न दूरी बस आत्म-निकट। 

मैं यहाँ, महबूब वहाँ, जबरदस्ती संग घट रही इस मनुज 
मैं तड़पूँ यहाँ, वह तड़पे वहाँ और नींद मुझको आए न। 
आत्मा-मिलन तो सदा ही संभव, शरीर की दूरी है बेशक 
सर्व चेष्टा अंतरतम-मिलन की, मधुरता वहीं से निकसित। 

कैसे आए सलीका जीवन में क्षमतार्थ, गुणवत्ता-वृद्धि सतत 
आचार-संहिता बने, कर्म में ध्यान सदा, संगी हों सम्मिलित। 
एक-2 पूर्ण कार्य हेतु प्रेरणा जब अपने मन से आगे बढ़े सब 
क्या कोई दूजे पर प्रभाव जमाऐ, ज्ञात निज-जिम्मेवारी जब।  

मन चंगा तो कठौती में गंगा, क्यों न हो पाते पाक-साफ हम 
सदैव व्यस्त पर-छिद्रान्वेषण में, निज को हैं न करते स्वच्छ। 
क्यों मन का बाह्य में ही पतन, निज अंतः के अनेक व्यवधान 
सौरभ, सुरमय, द्रष्टा, सर्व-प्रेम  अविरोध, समुचित विकास। 

सब अपने को उत्तम  कहते, जिम्मेवारी कोई न  चाहता पर  
बड़ी सहजता से दूसरों पर  डाल देता, मैं तो लाचार हूँ बस। 
जहाँ कथन बनता वहाँ भी न साहस, अपना क्या जो मर्जी हो 
अपनी सेहत पर न  आँच आनी चाहिए, जो होता वह सो हो। 

कौन दायित्व ले जग चलाने की, निज-क्षेत्र स्वामी हर जन  
    क्यों इतना  आराम-पस्त, जब अनिच्छुक है घटित समक्ष।    
  चेतना  आवश्यक  है मन-प्राण में, जीवंतता स्व-क्षेत्र की हो 
क्यों अन्य तेरे ऊपर  करें  टिपण्णी, जब सुधार समय हो। 

उच्च लक्ष्य  निज-जिम्मेवारी, करो संगठित तन-मन ऊर्जा 
नभ-तारक चुंबन उत्कंठा, विशालोर हो मधुर प्रेरणा सदा। 
न कभी हो हीन-भावना ग्रसित, स्व अति-पवित्र रखो सहेज 
यही  तो सदा तुम संग जिए, मान करो इसका, करो प्रेम। 

निज आत्मा-उन्नति कितनी संभव, पराकाष्टा वृद्धि ही होगी 
प्रथम बनो अपने संग सहज, खोलेगी परिष्कार द्वार वही। 
स्वच्छ रखना, कलुषित न हो पाए, अधिकार में बहुत कुछ  
हल्का रखो उत्तम-ग्राह्य हेतु, दुनिया निज ध्यान लेगी रख। 

मन-कर्ता समस्त कर्मों का, अतः मनन अत्युत्तम - पवित्र हो 
हर भाव -कर्म पर एक नज़र हो, सावधानी से भ्रम से बचो। 
कैसे  नियंत्रण हो  सहज भटकावों पर, कैसे दृष्टि हो एकाग्र 
मनसा-वचसा-कर्मणा  श्रेयसार्थ, किञ्चित स्वयं से न दूषण। 

भाषा सयंमित, वेश  शालीन, चाल-ढाल में एक सुघड़ता 
जग इतना तो बुद्धिमान  है, अच्छे-बुरे में अंतर समझता। 
पर आचरण न मात्र बाह्य  मुखौटा, अपितु आदर निर्मित 
मानव-पहचान उसके  चरित्र से, यत्न से करो मर्यादित। 

आत्मा शरणागत, बनो सशक्त, सर्वोत्तम ग्रहण की चेष्टा 
चलो सकारात्मक दिशा में, चिंतन निर्मल रहे ही सदा। 
हर अवयव  प्रयोग, ढंग-आयामों से हो विकास सुमधुर 
गुणी-संगति शक्ति-निमित्त, उच्च दृष्टि ही बढ़ाएगी अग्र। 

धन्यवाद। और कोशिश करो परम से संपर्क की। 

पवन कुमार,
१८ अगस्त, २०१८ समय २३:३४ म० रात्रि 
(मेरी डायरी दि० ०१.०८.२०१५ समय १०:३५ प्रातः से )

   
  

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