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Monday 1 October 2018

आत्म-परिष्कार

आत्म-परिष्कार
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कौन उत्कृष्ट रूप स्व से संभव, मार्ग निज-उज्ज्वल करें दर्शित
कैसे देह-मानस कायांतरित ही, क्या वृद्धि की सीमा किञ्चित? 

कैसे 'सुंदरतम मन' प्राप्ति, धरा भाँति सम-असम धारण सक्षम 
कैसे प्रमाद त्याग सुवृति हेतु, जीव  चेष्टा पराकाष्टा करें ग्रहण। 
कैसे मन निर्मल चिंतन कर सकता, अनुपम रूप संभव विचार 
किन उत्तम गुणों का हृदय प्रवेश, सहज बन सकें निज-धाम। 

कौन सिखा सकते, मात्र न समक्ष मन-देह अपितु दिव्य स्वरूप 
भिज्ञ न तो निज क्षीणता-दीनता से उठ, भव्य ओर करें प्रस्थान।  
कब वह समय निकलेगा स्वयं हेतु, होगा सर्वश्रेष्ठ से साक्षात्कार 
अप्रतिम कृति समक्ष जब निज से युग्म, उस क्षण का ही इंतजार। 

मानव की वे कौन सी श्रेणियाँ, जिनको कह सकते हम उत्तम 
उत्तम वर्ण-जन्म, रंग-रूप, रहन-सहन, उत्तम कर्म-विचार।  
उत्तम परिवेश, साध-संगति, खान-पान, गुणी-जन का सानिध्य 
उत्तम मनन-चिंतन, उत्तम व्यवहार-आजीविका व आचरण। 

इसी उत्तम पर चिंतन अद्य, क्या है प्रचलित 'उत्तम' व अन्यों का 
दस्यु हेतु चोरी व्यवसाय ही उत्तम, उससे ही चलती आजीविका। 
क्या मात्र सतही आदर्श - नाम उत्तम, या प्राणी निर्वाह करते भी 
जग में सब भाँति जीव, सर्वत्र जन्में, कार्य-सोच विचार करते ही। 

क्या जन्म हमारे निज-कर, अभिभावक चयन भी न अधिकार में  
पुनर्जन्म वाद छोड़ दें, कैसे जन्म विशेष परिवेश, रूप-काल में। 
चलो मान लो नर-नारी मिलन से, कुछ संतान  जन्म तो होंगे  ही 
लेकिन तुम कहाँ अवतरित है अज्ञात, बस एक में चेतना फलित। 

जग में कोटिशः योनियाँ, सतत प्राणी जन्म, किंचित काल में नष्ट भी 
स्वतः प्रक्रियाधीन अनवरत, प्रजातियाँ भिन्न कारणों से विलुप्त भी।  
कैसे जीव निर्माण, यहाँ नहीं तो वहाँ कहीं, पर कुछ तो बड़ा पचड़ा 
वैज्ञानिकों की भी अपूर्ण-व्याख्या, धार्मिकों में प्रचलित कई कल्पना। 

पौराणिक ग्रंथों में जीव-जंतु बातें करते, जैसे भाषा समझते परस्पर 
संवाद सम से स्तर का, कोई विभेद न, कमसकम विचार-स्तर पर।  
उसको छोड़ दें आज भी अनेक प्राणियों में परस्पर संवाद विद्यमान 
पालतु पशु-पक्षी  शब्द समझ लेते, हम भी हाव-भाव से लेते जान।  

वनचर-व्यवहार देख हमारी प्रतिक्रिया, प्रकृति में हैं वे अति-बुद्धिमान 
यह और बात भिन्न-प्रकटीकरण, पर किस स्तर पर उन्हें आँकते कम। 
माना नर में  गुरु-बुद्धिबल, संचय-सभ्यता-उपकरण से बदला परिवेश 
प्रक्रिया में बहु मानसिक-संरचनाऐं जनित, निज ढंग बजाते ढोल सब।  

विविधता प्रकृति-जातियों में, यहाँ तक कि एक-अभिभावक संतानों में  
सभी की रुचि में विविधता, क्यों न हो प्रकृति में तो रस -भाव है अनेक। 
सबकी दृष्टि अपनी, घर से बाहर निकलते ही मिलते प्राकृतिक रूप नव 
भाँति-२ अनुभव-संसर्ग, निज सम आँकन, प्रतिक्रिया के भी बहु रूप।  

निर्माण-विविधता सदा अवश्य ही, चाहे एक ही अभिभावक-युग्म द्वारा  
कालक्रम में खानपान, सोच-विचार व मानसिक-शारीरिक परिस्थितियाँ
इसके अतिरिक्त गर्भाधान में भिन्न वंशाणु-प्रकटीकरण व भ्रूण-विकास। 
एक अभिभावक-युग्म में निश्चित जीन-पूल, पर संतानों में विलग स्थापित 
यही भेद रूप-गुणों में, अन्य-अभिभावकों, भिन्न प्रजातियों में अधिक ही।  

मेरा प्रश्न कि सब निज में पूर्ण, यहाँ यह वहाँ वह, इसमें कैसा उत्तम-निम्न 
जन्म पर तो न अधिकार, हाँ कुछ संपन्न जगह जन्में तो समझ लेते सुभग।  
इसमें भी न अपुण्य, क्योंकि कुछ जीवन तो अपेक्षाकृत सरलता से चलते 
जब बहु जीव अति-संघर्ष में, यदि बेहतर परिवेश तो  उत्तम कह सकते। 

क्या मानें प्राणी-मङ्गल या पूर्व-जन्म फल, या मात्र पेरमुटेशन-कंबीनेशन 
प्रोबेबिलिटी (अनुमान)  सिद्धांत सर्वत्र लागू, पर जन्म-श्रृंखला पृथक न। 
न मानता वहाँ स्वर्ग में जीवन हेतु, एक लंबी पंक्ति लगी देहों में प्रवेशार्थ 
तथापि विशेष देह कैसे प्रवेशित, पहेली अद्भुत, हल किसी के पास न। 

चलो मान लेते हैं विज्ञान का सिद्धांत, चेतना भी जन्म का ही एक पर्याय 
जब जन्म मिलता है, उसी संग जुड़ जाता यथोचित मस्तिष्क विचारार्थ।  
मस्तिष्क हमारा देह-नियंत्रक, सोच-विचार अनुभव का रखता विवरण 
इस बिन हम अप्राण, इसके अवसान पर ही तो हो जाता हमारा मरण। 

मान लें देह-प्राण-चेतना ही पूर्ण-जीवन प्रारूप, हम इन सबसे ही पूर्ण 
एक बिन दूजा अधूरा है, सब मिलकर ही बनाते हमारा पृथक वजूद।  
हम एक व्यक्तित्व  बन जाते हैं, स्व-संप्रभुता बनाते पृथक नाम लेकर 
सबमें निज भाँति धातु पृथक रूप से जुड़ी, विविधता में न निम्न-उत्तम।  

प्रकृति में अति-विचारित आचार न दर्शित, योजना क्रम ही सर्व-गति पर  
यह नैसर्गिक गुण-प्राधिक्य, निज वंशाणुक्रमानुसार करते सब आचरण।  
माना एक प्रजाति विशेष में किंचित भेद भी, पर सब अपने में आनंदित  
हाँ दैनंदिन जीवनार्थ पेट-भरण सतत संघर्ष, पर तारतम्य सा भी निर्मित। 

मात्र आवश्यक ही लेना, अनावश्यक न मारा-मारी अन्यथा विश्व-ध्वंस 
'जियो और जीने दो' सिद्धांत स्वतः प्रचलित, प्रकृति में यहीं रहते सब।  
प्रकृति वक्ष-स्थल से ही सबको भोजन-प्राप्ति, सबकी ही यह बड़ी मातृ 
चाहे न समझे इस व्यवहार को, सबको देती, संततियों से न विगलाव।  

जब प्रकृति माँ से ही सब भरण-पोषण, मनुज ही क्यों स्व -घोषित श्रेष्ठ 
हाँ यदा-कदा पशु-शील से क्षुब्ध, प्रज्ञा-निर्मित  किए सब भाँति नियम। 
पर यदि हम पशु-योनि में होते तो क्या चरित, क्या संभव था उनसे श्रेष्ठ 
स्वयं में तो हिंस्र सब जंतुओं को मार रहें, व कहते  सबसे धीमान हम।  

 नर रूप में अन्य प्राणियों प्रति क्रूरता, अन्य  ओर धर्म-विज्ञान प्रवचन  
अनेक उपासना-ढंग, सृष्टि-माता पूजन, पर भिन्न रूपों का असम्मान। 
लोगों ने गोष्टी से कुछ आदर्श बना दिए,  जिससे सुलभ सबका निर्वाह 
लेकिन दबंग निज भाँति ही आँकते, जो   ठीक लगता वैसा आचरण।  

कथित उच्चों के निज-नियम, खाने के और दिखाने के और हाथी-दंत  
पर आदर्श तो सर्व-हितैषी, यदि सुचिता से प्रयोग तो बड़ा भला संभव। 
यह भी मनुजों का चलन, कुछ दबंग अन्यों पर प्रभुत्व हेतु बनाते नियम 
हम श्रेष्ठों का ऐसा ही चलन, निम्न हो, दबकर रहो, जो कहें करों पालन।  

'दमन आदेश' उनका उत्तम, चूँकि दबंग - मजे लेते, अनाचार भी श्रेष्ठ 
तुम बौद्धिक दृष्टि से अति  पीछे हो, मान लिया करो  जो हम कह रहें।
अनुकरण  न करो तुम हमारी श्रेष्ठता का, जो नियम बनाऐं, मौन  सहो
   तुम सम न हमसे किसी भी श्रेणी में, बेहतर होगा स्व-औकात में रहो।  

हम हैं समस्त ब्रह्मण्ड-स्वामी, ईश -अवतार, तुम अधम-जन्म चर 
हम पूर्वेव विद्वान, इतिहास-गौरव, तुम अपढ़-गँवार व गर्त-काल।
हम सुयोग्य, तुमको न चिंतन-आलोचना-प्रतिकार का अधिकार। 

सब आदेश जग-निर्वाह में हैं, निर्बल को चोट भी अधिक ही लगती 
ऊपर से उत्तम-निम्न विशेषण, जीव करें भी तो क्या, कैसे हो प्रगति। 
जब कुछ दमित रखे जाऐंगे, कैसे होगा विकास उनका पूर्ण देह-मन 
वाँछित उचित परिवेश पूर्ण-पनपन को, दुत्कार तो रखेगी अल्पतर। 

तथापि प्रकृति प्रदत्त सब श्रेणियों को निज भाँति विकास कर्तुम मार्ग  
अपनी  रुचियों से वे प्रगति कर सकते, क्षीणताओं से पा सकते पार।  
माना  संघर्ष है  यहाँ जानमाल का, पर और भी तो आगे बढ़े हैं बहुत 
फिर क्यों अटके अपने ही दाँव-पेंचों में, उठ खड़े हो प्रगति लो कर।  

यह जग विशेषकर मानव अति-स्वार्थी, तुम भी आत्म-परिष्कार  करो 
अति-ज्ञान प्रस्तुत आम नर हेतु भी, हाथ-पैर मारकर सीमाऐं बढ़ा लो।  
ज्ञान ऐसे न, 'बहुत कठिन है डगर पनघट की', चेष्टा से निश्चय ही वृद्धि
पनपन संभव, उत्तमता से योग तब कह सकोगे प्राण को परिभाषा दी।  

सब समय बिताकर जा रहें, पर कुछ पद-चिन्ह दीर्घ-काल हेतु छोड़ते  
सीखो उन महाजनों से चेष्टा-वृद्धि, अनेक निर्मल-जन सहायतार्थ हैं बैठे। 
उत्तमता तो निस्संदेह प्रवेश जब निर्मल-चिंतन शुरू,  सर्व-हित में नीयत
तव सानिध्य से यदि कुछ जीवन सकारात्मक संभव, फिर तुम भी धन्य।  

उत्तम-मस्तिष्क सबके विषय में सोचे, विशाल-अंश सब हेतु काम करता 
सबसे जुड़ा अपृथक भाव से, परम-जीव-प्रकृति-ब्रह्माण्ड का नित-वासी।  
सबके लाभ में उसका हित, प्रेरणामय मार्ग, कुछ  जीवन निश्चय ही मृदुल 
बस चल पड़ो बहु-उद्देश्यार्थ पथ में, उत्तम-चिंतन भी जाओगे ही विदित।  


पवन कुमार,
१ अक्टूबर, २०१८ समय २२:२९ रात्रि  
(मेरी डायरी १२ दिसंबर, २०१६ समय ११:४५ प्रातः से)

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