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Saturday 11 May 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद - ९ (भाग -२)

परिच्छेद - ९ (भाग -२)
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"उसके कुछ दिवस बीत जाने पर, मेघनाद पत्रलेखा सहित आया और उसको अंतः-कक्ष अंदर लाया; और जगह दूर से ही नमस्कार कर चुकी, चंद्रापीड़ ने स्मित से प्रीति प्रकाशित की, और उठकर अतिशय दर्शित आदर सहित पत्रलेखा को आलिंगन-बद्ध कर लिया; क्योंकि यद्यपि स्वभाव से प्रिय थी, वह कादंबरी की उपस्थिति से लब्ध प्रसाद से सौभाग्यवती और भी वल्लभ हो गई थी। जैसे प्रणाम करने को मेघनाथ झुका, उसने उसकी पृष्ठ को स्पर्श किया और तब वहाँ बैठकर उसने कहा : 'पत्रलेखा, कहो कि क्या वहाँ मदालेखा सहित महाश्वेता और देवी कादंबरी कुशल हैं ? और तमालिका केयूरक सहित सकल परिजन कुशल हैं ? उसने उत्तर दिया : 'देव, जैसे आपने कहा, कल्याण है। देवी कादंबरी ने सखीजनों परिजनों सहित अपनी भ्रूओं हेतु एक माला में अपनी अंजुलियाँ उठाकर तुम्हारी अर्चना की है।" इन वचनों पर युवराज ने अपने राजन्य-परिजनों को विदाई दी, और पत्रलेखा को लेकर मंदिर-आभ्यांतर (भवन) में गया। तब एक हत-मानस से अति प्रीति से उसको सुनने के अपने कोतूहल को पार करने में अक्षम उसने अपने परिजनों को दूर भेज दिया और आगार में प्रवेश किया। अपने चरणविंद से कोमल स्थल-कमलनियों की नाल से आतपत्र (छत्र) बनाकर पत्र-मंडप के नीचे तल पर सुख से प्रसुप्त एक हंस-मिथुन को एक ओर सरका दिया। और जपाकुसुम (स्थल-कमलिनी) की एक नवीन शय्या के मध्य विश्राम करते वह वहाँ बैठ गया और पूछा : 'पत्रलेखा, बताओ कि तुम कैसी हो ? तुम वहाँ कितने दिवस थी ? देवी ने क्या प्रसाद तुम्हें दिखाऐं ? वहाँ पर क्या गोष्ठियाँ चल रही थी और क्या कथा उत्पन्न हुई थी ? कौन हमें अतिशय स्मरण करता है, और किसकी प्रीति महानतम है ? अतएव पूछने पर उसने उवाच किया : 'देव, अपना ध्यान दो और सब सुनो। जब तुम चले गए, मैं केयूरक सहित लौट गई, और उसकी कुसुमशयन के समीप बैठ गई; और वहाँ सुख से मैंने देवी के प्रसादों का नव-नव अनुभव प्राप्त किया। और अधिक क्या कहूँ ? उस सकल दिवस उसके चक्षु, उसकी वपु, उसके कर-पल्लव मुझ पर ही थे। अपराह्न में, मुझपर झुकते (मेरा अवलंबन लेते हुए) उसने हिमगृह त्याग दिया, और स्वेच्छा से भ्रमण करते हुए अपने परिजनों को पीछे निषिद्ध कर, वह प्रिय बालोद्यान में गई। वहाँ मरकत सोपानों (सीढ़ियों) की एक चढ़ाई द्वारा, जो संभवतया कालिंदी की जलतरंगों से बनी होंगी, वह एक धवल भवन में चढ़ गई और इसमें कुछ समय रही, एक मणिजड़ित स्तंभ पर झुकते, अपने हृदय से विचार करते, कुछ कहने की इच्छा रखते, और अपनी निश्चल पुतलियों निस्पंद पक्ष्मणों (पलकों) से मुझे देखती रही। जैसे उसने विलोचन किया, उसने निश्चय किया, और जैसे कि मदनाग्नि में प्रवेश की इच्छा किए हुए उसने स्वेद  में स्नान सा कर लिया; जिससे उसके ऊपर मूर्च्छा सी गई, जिससे प्रत्येक अंग में कंपित जैसे पतन (गिरने) से डरती हुई वह भी विषाद में भर गई।

"परंतु जब मैंने, जो उसकी अभिप्राय से विदित थी उस पर अपना मन स्थित किया और अपनी चक्षु उसके मुख पर निष्कासित कर उसको कथन का अनुरोध किया, वह अपने कंपित अंगों द्वारा जकड़ी प्रतीत हो रही थी। एक चरण अंगुष्ठ द्वारा मणि-कुट्टिम (फर्श) पर जैसे शरण लिया हो, चिन्ह बनाती वह लज्जा से अपनी प्रतिमा को हटाती प्रतीत हो रही थी कहीं वह उसके रहस्य सुन ले; अपने चरण-अरविंद से कुट्टिम पर चलने द्वारा अपने नूपुर झंकृत करते - उसने भवन के कलहंसों को एक ओर हटा दिया; मलमल के एक अंशुक पल्लू को एक व्यजन (पंखा) बनाकर उसने अपने ऊष्म मुख हेतु कर्णोत्पलों पर ऊपर बैठी मधुकरों को हटाया; अपने दंत से खंडित एक तांबूल का एक अंश एक उत्कोच (घूस) सम शिखंडी (मयूर) को दिया; और प्रत्येक दिशा बार-बार (मुहर्मुह) विलोक (देख) कर कहीं वनदेवता श्रवण कर लें; शंकित हो वह किंचित लज्जा द्वारा ग्रसित वाणी में सक्षम हो रही थी और प्रयत्न करने पर भी उसकी वाणी मदन-अग्नि द्वारा पूर्णतया दग्ध हो चुकी थी, अनवरत नयन-उदकों (अश्रु) बहने से उत्पन्न हुई, आक्रमण करते दुःखों द्वारा विव्हलित, कुसुम-शरों द्वारा हत, आक्रमण करती आहों द्वारा विवाह निष्कासित, उसके हृदय में निवासित शतों- चिंताओं निग्रहित, और मधुकरों द्वारा पिबित जो उसके निश्वास का रस लेते हैं, जिससे कि उसकी वाणी बाहर ना आए। संक्षेप में, उसने अपने सहस्र दुखों की गणना हेतु कपोलों को बिना स्पर्श किए एक मुक्ता-माला बना रखी थी।चमकीले अश्रुओं से, जैसे अधोमुखी वह एक दुर्दिन की भाँति  प्रतीत हो रही थी। तब उसकी लज्जा से भी लज्जाशीलता सीख ली; विनय से भी विनयशीलता; मुग्धता से भी मुग्धता; कुशलता से भी कुशलता; भय से भी भीरुता; विनम्र से भी विभ्रमता; विषाद से भी विषादता और विलास से भी विलासता। और अतएव, जब मैंने उससे पूछा, "देवी, इसका क्या अभिप्राय है?" उसने अपने लोहित नयन पौंछें, और, मृणाल सम कोमल बाहुलता से दीवेदिका की कुसुमपालि से ग्रथित एक कुसुम उसे अवलंबन दिए प्रतीत होती थी, उसने एक भ्रूलता उठाई, और जैसे की मृत्यु-मार्ग को देख रही हो, और एक दीर्घ-उष्ण आह ली। और उसके पीड़ा का कारण जानने की इच्छा में, मैंने पुनः-पुनः उसे बताने हेतु बाध्य किया; वह केतकी-पल्लवों पर अपनी लज्जा से नवमुख से लिखती प्रतीत होती थी और अतएव अपना वक्तव्य प्रेषित किया। उसने अपना अधर बोलने की उत्सुकता में स्फुरित किया, और वह मधुकरों से फुसफुसाहट करती प्रतीत होती थी जो उसके निश्वास का पान करती थी, और अतएव कुछ देर क्षिति (पृथ्वी) तल पर निश्चल नयनों को स्थिर करके रही।

"क्रम में पुनः पुनः अपने लोचन मेरे मुख पर मोड़कर, वह अपनी वाष्पीजल-बिंदुओं से भरी नयनों से गिरते अश्रुओं सहित, वाणी जिसको मदन-अनल के धूम्र ने धूसरित कर रखा था, अपने को पवित्र करती प्रतीत हो रही थी। और, अश्रुओं के स्वांग में, एक बाधित स्मित में चमकते अपने दंतों की किरणों द्वारा वह समर्पित थी, विचित्र अक्षर थे जो मैं कहना चाह रही थी परंतु अपने भय में भूल गई, और महद कष्ट से उवाच करने हेतु आत्म-अभिमुख हुई। "पत्रलेखा", उसने मुझसे कहा, "तुम्हारे प्रति अपने अनुग्रह के कारण जब से तुमको देखा है, तो पिता, माता, महाश्वेता, मदालेखा, ही जीवन भी मुझे प्रिय है। मैं नहीं जानती हूँ क्यों मेरे हृदय ने सकल सखीजनों को एक ओर कर दिया है और मात्र तुममें ही हृदय से विश्वास करता है। किस अन्य को मैं उलाहना दूँ, किस अन्य से अपना परिभव (निरादर) कहूँ, अथवा किसके साथ मैं दुःखों को साधारणीकरण करूँ ? जब यह अपना असह्य दुःखभार तुमको दिखा चुकी हूँ, मैं जीवित रहूँगी। अपने जीवन द्वारा मैं तुमको वचन देती हूँ कि यहाँ तक कि अपनी कथा के अपने हृदय के ज्ञान द्वारा मैं लज्जा में रखी जाती हूँ; किसी अन्य के द्वारा कितना ? मुझ जैसी एक कैसे अपना रजनीकर (चंद्र) किरणों सम पावन के दोष बता सकती हूँ, और अपनी लज्जा परित्याग करूँ जो मुझे कुलक्रम (वंश) से मिली है, और अपने विचार अकौमार्य की लघुता पर मोड़ूँ। अतएव मैं अपने पिता के संकल्प, माता का दान, बिना किसी संदेश के गुरुओं के आशीर्वाद, बिना पारितोषिक प्रेषित किए अथवा चित्र दिखाए अनाथ सम कातर, क्या मैं उस कुमार चंद्रापीड़ द्वारा अति-विचार करने से अपने अभिभावकों का दोष बलात लेने जा रही हूँ? कहो, क्या यह आचार आचार महाजनों का है ? क्या यह हमारे इस परिचय का फल है कि किसलय तंतु सम सुकुमार द्वारा अपमान नहीं की जानी चाहिए; मदन-अनल प्रथम उनकी लज्जा दहन करती है और तब उनके हृदय को; कामदेव के कुसुमशर पहले उनका विनय लेते हैं और तब उनका जीवन। अतएव मैं तुमसे विदा लेती हूँ जब तक कि पुनर्जन्म में हमारा मिलन हो, क्योंकि मुझे तुमसे प्रिय कुछ अन्य नहीं है। प्राण-परित्याग के प्रायश्चित द्वारा, मैं अपना कलंक प्रलाक्षन करूँगी।" ऐसा कहकर वह मौन हो गई।

"उसकी कथा का सत्य जानते हुए, मैंने दुःख से जैसे कि लज्जा से हो, भीत से, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से संज्ञान (चेतना) शून्यता से यह कहते हुए उससे विदा ली : "देवी, मैं श्रवण की इच्छा लिए हूँ।" मुझे बताओ देव चन्द्रापीड़ ने क्या किया है ? क्या अपराध किए गए हैं ? किस अविनय द्वारा उसने देवी के कोमल कुमुद मन को खेद दिया है ? प्रथम जब मैं इसे सुन लूँगी, उसके पश्चात तुम मेरी निर्जीव देह पर मर जाना।" अतएव आवेदन पर, उसने पुनः प्रारम्भ किया : 'ध्यान से सुनना, मैं तुम्हें बताती हूँ। मेरे स्वप्नों में वह निपुण धूर्त प्रतिदिवस आता है और पञ्जर-बद्ध शुक-सारिका को रहस्य-सन्देशों में दूती करता है। मोहित मन में व्यर्थ मनोरथ से पूरित मन वह मेरे स्वप्नों में श्रवण-दंतों (कर्णाभूषण) पर संकेत-स्थान हेतु लिखता है। वह स्वेद बहने से धुले अक्षरों सहित मदन-लेख (प्रेम-पत्र) भेजता है, मूढ़-आशाओं से भरे हुए, अति-मधुर, और अश्रु-बिंदु पंक्तियों द्वारा अपनी स्वयं की अवस्था दिखाते हुए  उनपर अंजन सहित पड़ती है। अपने अनुराग से वह मेरी इच्छा विपरीत मेरे चरण-रंजित करता है। अपने निश्चित अविनय में वह अनधिकृत साहस से अपना प्रतिबिम्ब मेरे नखों में करके गर्व करता है। अपने मिथ्या प्रगल्भ में वह मेरी इच्छा विपरीत उपवनों में जब मैं एकाकी होती हूँ, मुझे आलिंगन करता है, और पकड़े जाने के भय से लगभग मृत सी, जैसे कि पल्लवों में मेरे अंशुकों का उलझना, मेरे गमन को रोकता है, और मेरी सखी लताओं को पकड़ती है और मुझको उसे अर्पित कर देती है। प्रकृति से कुटिल, वह स्वभाव से मुग्ध-मन को लाँछन द्वारा मेरे वक्ष-स्थल पर पत्र-लता लिखते हुए शिक्षा देता है। चाटुकारिता से पूर्ण, वह  शीतल श्वास द्वारा मेरे हृदय की चाह की तरंगों द्वारा आर्द्र चमकते मेरे कपोलों को वात करता है। वह बलात यवांकुर सम अपने नख-किरणों द्वारा मेरे कर्ण पर पूरित (रख) देता है, क्योंकि इसका उत्पल स्वेद-सलिल के श्रांत से शिथिलित हुआ उसके ग्रहण करने से यद्यपि उसका हस्त-शून्य है, गिर गया है। वह निर्भीकता से मुझे केशों द्वारा पकड़ अपने श्वासों की मधु-सुरा पान कराने हेतु, जो उस द्वारा तब श्वास ली गई थी जब उसने अपने वल्लभतर बाल-बकुल कुसुमों को जल दिया था। अपनी स्वयं की दुर्बुद्धि द्वारा विडम्बित (खिल्ली उड़ाता) वह अपने सिर पर मेरा पाद-स्पर्श की प्रतीच्छा (आशा) करता है जबकि वे भवन की अशोक-कलियों हेतु निश्चित है। अपने मन्मथ में वह कहता है : 'मुझे बताओ, पत्रलेखा, कैसे एक मूढ़मान को निषिद्ध किया जा सकता है? क्योंकि वह निषेध को ईर्ष्या का संकेत विचार करता है, परिहास को आक्रोश आकलन करता है; असम्भाषण (मौन) को तुच्छता मानता है, अपने दोषों के संकीर्तन (बड़ाई) को भी वह स्मरण का उपाय मानता है, वह अवज्ञान (अपमान) को भी प्रणय-अंतरंगता देखता है; वह लोकापवाद यशगान गणना करता है।

"उसके यह वादन सुनकर एक प्रहर्ष-रस मुझमें भर गया, और मैंने मन में विचार किया, "निश्चय ही चन्द्रापीड़ को उद्देश्य करके मकरकेतु (कामदेव) द्वारा उसे सुदूर आकृष्ट किया गया है। यदि यह सत्य ही है, कादम्बरी के छद्म रूप में देव के प्रति प्रसन्न साक्षात् मनोभव चित्तवृत्ति दिखाता है, और वह देव के सहज-जनित एवं सावधानी से प्रशिक्षित गुणों द्वारा सम्बंध होता है। दिशाऐं उसके यश से ध्वलित हैं; यौवन से रति-रस सागर तरंगों द्वारा रत्न-वृष्टि पतित होती है; यौवन-विलासों द्वारा उसका नाम शशि पर लिखित है; सौभाग्य द्वारा उसकी निज-श्री प्रकाशित होती है; और इंदु-कलाओं सम उसके लावण्य से अमृत-वर्षा होती है।

"तथा इसके अतिरिक्त मलय-अनिल का चिर-प्राप्त काल है; चन्द्रोदय द्वारा समस्त अवसर उदित हुआ है; मधुमास कुसुम-समृद्धि ने एक अनुरूप फल प्राप्त किया है; मदिरा का सदोष इसके पूर्ण गुण में मधुर हुआ है; और मन्मथ युग-अवतरण अब पृथ्वी-मुख पर प्रदर्शित है।"

"उसके बाद मैं मुस्कुराई, और उच्च-स्वर में बोली : "देवी यदि ऐसा है तो अपना कोप त्याग दो, प्रसन्न होवों। तुम काम के अपराध के लिए देव को दण्डित नहीं कर सकती। ये निश्चित ही शठ कुसुमचाप (कामदेव) के चापल (खेल) हैं, कि देव के।"

"जैसे कि मैंने ऐसा कहा, उसने कुतूहल से पूछा : "जैसे कि इस काम के लिए, अथवा वह कोई भी है, मुझे बताओ वह क्या रूप धारण करता है।"

"देवी, कहाँ उसका रूप है ?" मैंने उत्तर दिया, "वह अतनु हुताशन (अग्नि) है; अनिश्चित ही बिना वह ज्वाला-अवली (पंक्ति) दिखाते हुए वह सन्ताप-जनित करता है; बिना धूम्र के वह अश्रु-पात कराता है; भस्म-रज दर्शित किए बिना वह पाण्डुता (श्वेतिमा) आविर्भाव करता है। और इस त्रिभुवन में ऐसा प्राणी है जो  शरों का पीड़ित नहीं है अथवा नहीं था, अथवा नहीं होगा। कौन ऐसा है जो उससे भयभीत नहीं होता ? यहाँ तक कि एक बलवान व्यक्ति भी भेदा जाता है जब वह अपना कुसुम कार्मुक (बाण) हाथ में ग्रहण करता है।

"और इसके अतिरिक्त, जब कामिनियाँ पाशित होती हैं, वे देखती हैं, और अम्बर-तल उनके प्रियों के सहस्र चन्द्र-मुखों से पूरित हो जाता है। दयित (प्रिय) आकार चित्रित करती हैं; महीमण्डल भी उतना विस्तृत नहीं है। वे अपने वल्लभ के गुणों की गणना करती हैं; संख्या अपने में उनके हेतु अल्प पड़ती है। वे प्रियतम की कथा सुनती हैं; स्वयं सरस्वती अबहुभाषिणी हो जाती है। प्राणसम संग समागम सुखों पर वे ध्यान देती हैं; और काल स्वयं में उनके हृदय हेतु अत्यल्प है।

"और उसने यह सुनकर एक क्षण चिंतित कर प्रत्युत्तर दिया : "पत्रलेखा, जैसा कि तुम कहती हो, कामदेव ने पक्षपात करके कुमार हेतु मुझे इस दयनीयता में अग्रसर कर दिया है। क्योंकि वे सभी चिन्ह और अतिरिक्त मुझमें पाए जाते हैं। तुम मेरे स्वयं के हृदय के संग हो, और मैं तुमसे मुझे उपदेश हेतु पूछती हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए ? मैं ऐसी विधाओं में, वृतांतों में अनभिज्ञ हूँ। और भी, यदि मैं अपने गुरुजनों (अभिभावकों) को बताने में बाधित होती हूँ, मैं इतनी लज्जित होऊँगी कि मेरा हृदय जीवन की अपेक्षा मरण का ही विश्वास (श्रेय) करेगा।"                    

"तब पुनः मैंने उत्तर दिया : " देवी, यह बहुत हो चुका ! क्यों यह अकारण-मरण अनुबन्ध की वार्ता है? निश्चित ही यद्यपि तुमने उसको प्रसन्न करने हेतु नहीं चाहा है, कुसुमशर भगवान (कामदेव) ने तुम्हे यह वर दिया है। क्यों अपने अभिभावकों को व्यक्त करती हो? पञ्चशर (कामदेव) स्वयं एक गुरु भाँति कन्या का संकल्प करता है; माता भाँति तुम्हारा अनुमोदन करता है; पिता सम वह तुम्हें देता है; सखी सम उत्कंठा जनित करता है; धात्री सम वह तुम्हारी तरुणाई में रति-उपचार शिक्षित करता है; मुझे तुमको उनके विषय में क्यों बताना चाहिए जिन्होंने स्वयं अपने पति चयन किए हैं? क्योंकि ऐसा नहीं होता तो धर्म-शास्त्रों में उपदिष्ट स्वयंवर-विधि अनर्थक होती। तब देवी, प्रसन्न होवों। यह ऐसी मृत्यु-वार्ता बहुत हो चुकी। मैं तुम्हारे पंकज-पाद स्पर्श द्वारा अपने को भेजने हेतु निवेदन करती हूँ। मैं गमन हेतु तत्पर हूँ। देवी, मैं तुम्हारे हृदय-दयित (प्रिय) को तुम्हारे पास पुनः लाऊँगी।"

"जब मैं अतएव उवाच कर चुकी तो प्रीति-द्रव से आर्द्र (विमूढ़) देखकर वह ऐसे प्रतीत हुई जैसे कि मुझे पान कर लेगी; यद्यपि निरुद्ध थी तथापि एक पथ पा लिया, और मकरकेतु (मदन) के शरों से जर्जरित पथ को भेदकर बाहर निकल गई। मेरे वचन सुनकर प्रीति से, उसने अपना बाह्य उत्तरीय अंशुक उतार फेंका जो उसके क्लांत द्वारा उससे चिपका हुआ था, और अपनी प्रमुदित भुजाओं पर लटका दिया। उसने अपने कण्ठ पर निहित शशि-किरणमय हार को उन्मुक्त किया, और मकरकेतु द्वारा एक मरणपाश की भाँति उसकी लटकती कर्ण-बाली के मीन-आभूषण में उलझ गया। तथापि यद्यपि उसका अन्तःकरण प्रहर्ष-विव्हल था, उसने कन्याओं की सहज लज्जा द्वारा अपने को आलम्बन दिया था, और कहा : "मैं  तुम्हारी श्रेष्ठ प्रीति को जानती हूँ। लेकिन कैसे एक शिरीष पुष्प सम मृदु प्रकृति की एक नारी ऐसी कठोरता दिखा सकती है, विशेषतया एक जो मेरे सम बालभाव लिए हुए है ? निश्चित ही वे साहसी हैं जो स्वयं सन्देश भेजते हैं अथवा किसी के हाथ सन्देश भिजवाते हैं। एक बाला होने के कारण मैं स्वयं एक साहसी सन्देश प्रेषित करने में लज्जित हूँ। मैं क्या संदेश भेजूँ ? 'तुम अति-प्रिय हो', उक्ति निरर्थक है। 'क्या तुम्हें मैं प्रिय हूँ', एक जड़ प्रश्न है। 'बिना तुम्हारे मैं जीवित रह सकती', अनुभव का विरोध है। 'मुझको अनङ्ग (काम) ने परिभव कर लिया है', मेरे स्वयं के दोषों का उपालम्भ (बहाना) है। 'मनोभव (काम) द्वारा मुझको तुम्हें दिया गया है' अपने स्वयं का एक साहसी समर्पण है। 'तुम मेरे बंधक हो', धृष्टता है। 'तुम्हें अवश्य आना चाहिए', सौभाग्य का गर्व है। 'मैं स्वयं जाती हूँ', स्त्री-चापल्य होगा। 'मैं पूर्णतया तुमपर समर्पित (अनन्य परिजन) हूँ', बलात थोपी गई स्वभक्ति-निवेदन (अनुराग) की लघुता होगी। 'मैं अस्वीकार की शंका से कोई सन्देश नहीं भेजती हूँ', एक सुप्त-सिंह को जगाना है। 'मुझे अनपेक्षित दुःख-दारुणों की सेवा की चेतावनी बनना चाहिए', प्रणयिता (प्रणय) की अति होगी। 'तुम मेरी प्रीति मेरे मरण तक स्मरण रखोगे', एक सम्भावना है जो मेरे मस्तिष्क में अभी तक नहीं आया।

इति पूर्व भाग।

(पूर्वभाग तक ही अधूरी कथा बाणभट्ट द्वारा लिखी गई है। उसके बाद उनका देहावसान हो गया था और शेष कथा उनके पुत्र भूषण भट्ट द्वारा पूर्ण की गई जो उत्तरभाग द्वारा व्याख्यायित है। )

......क्रमशः   

हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(११ मई, २०१९ समय १७:०८ अपराह्न)


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