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Monday 4 November 2019

ऊर्ध्व-जिजीविषा

ऊर्ध्व-जिजीविषा 
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अजीब सी हैं ये सुबहें भी, ख़ामोशी से बैठने ही देती न 
कुछ पढ़ो, प्रेरक लोगों में बाँटो, बैठो जैसा हो दो लिख। 

यह निज संग सिलसिला पाने-बाँटने का, कुछ करने का 
अन्य साधु उपयोग थे संभव, पर अभी वैसा जैसा भी बने।
बकौल रोबिन शर्मा प्रातः ५ बजे वाले क्लब में होवों शामिल
अभी तो खास न हो सका, तथापि जैसा बनता करता निर्वाह
कभी अवसर मिला तो शायद वह भी या और उत्तम होगा। 

न एकलक्षित, कुछ पूर्व सोचा सीधा लेखन पर आ जाओ 
मन बोला कुछ प्रेरक पढ़ो, व्हाट्सएप्प आत्मीयों में बाँटो। 
अवश्य कि पढ़कर ही अग्रेसित, बिन समझे तो है अनुचित
ट्विट्टर जोड़ता कुछ अनूठे व्यक्तियों से, छापते उत्तम नित्य। 

अनेक भली चीजें बिखरी सर्वत्र, वाँछित उठाने का इच्छा-बल 
माना लब्ध सीमित समय-ऊर्जा, तो भी सोचकर कुछ चयन। 
अनेक सहयोगों से ही सार्थक परिवर्तन, अन्यों हेतु भी उद्देश्य 
जीवन निजोपरि होना चाहिए, जब नहीं रहूँगा मेरे होंगे शब्द। 

कैसा दिग्गजों का जीवंतता प्रयास, बाद भी देह-प्राण गमन
क्या सहज पथ या व्यक्तित्व शैली, बलात तो बड़ा न संभव। 
न कोई होड़ आगे निकलने की, जिसकी जो समझ रहा कर
तथापि शक्ति अनुरूप क्रियान्वित, समयाधीन तो परिणाम।

विटप से अंकुर -पादप, फिर सुरक्षित-स्वस्थ  पूर्ण वृक्ष रूप
कई अवस्था, नित-संघर्ष, अनेक आत्मसात, निर्वाह कठिन। 
प्राकृतिक साधन, भला परिवेश है तो गति संभावना अधिक 
अन्यथा अनेक स्व ही हट रहें या हटाए जाते, निर्बल बेबस। 

कली-पुष्पन, सूर्योदय संग विकसन, साँझ ढ़ले पँखुड़ी निमील 
प्रकृति सुगंधि, परिवेश सुरुचिर-प्रयास, स्व ओर से न कसर।
नैसर्गिक या अदम्य प्राण-शक्ति, पूर्ण झोंकूँ हेतु जग-निखरण
यह हर अंतः-गुह्य, वे भली जाने अभी  स्वयं की करता बात। 

अवश्य सब निज भाँति कुछ कहते, ख़ामोशी-मस्ती मशगूल 
क्या उससे अच्छा था संभव या उनके व्यक्तित्व का प्रयत्न।  
कमतर प्रयास भी न, उपलब्ध ऊर्जा से  कर सकते अधिक 
जिजीविषा है ऊर्ध्व की, अनुपम-मिलान का प्रयास किञ्चित। 

कोई यत्र मस्त, कोई तत्र उसमें, निज प्रयास पूर्ण निखरण का 
प्रयास भी एक बड़ा शब्द, मन से जुड़ स्व से जूझना सिखाता।
जैसी स्थिति भी उत्तम करना, ऊर्जा सहेज कर जाना अनुपम
दिल से जुड़न निखरण-प्रक्रियाओं से, खुलें विकास के पथ। 

प्रथम अंतः-प्रेरणा ही, तभी प्रातः जल्द जग अन्न -जल प्रबंधन 
स्वजनों का ध्यान, तन को गतिमान रखने को उचित व्यायाम। 
पड़ोसियों-समाज से हो सहयोग, मेरा सा व्यवहार वे भी करेंगे
फिर बाँटूँगा तभी मिलेगा, स्व सहेजा  सबके काम का बनते। 

अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संग जुड़े, अपने में धुरंधर मान लो तुम 
यदि न करूँ तो भी भले-चंगे, किसके जाने से रुका यह जग। 
पर जीवन कैसे फलीभूत, अकर्मण्य रहकर यूँ बीत गया यदि  
औचित्य प्रमाण प्रथम आत्म से, अन्य भी आँकेंगे किसी भाँति। 

जग के सहज-चलन में सहायतार्थ, हृदय-गति समझनी होगी 
उचित संवेदन-उकेरन-व्यायाम से स्वयं प्रतिपादित यत्न-गति। 
ये चेष्टाऐं सक्षम स्व-निर्माण हेतु, नियम-कायदे तो सीखने होंगे 
कैसे महक सकती जग-बगिया, माली-पुष्प बन सहयोग करें। 

चलो मानते निज नितांत भी न चिंता, हूँ पूर्णतया जग-समर्पित 
जो भी हूँ इससे ही, इस हेतु व गणतंत्र भाँति इसका ही अंश। 
कोई न एक विशेष इकाई, स्वस्थित होते भी कण विश्व-ब्रह्मांड 
संभव योगदान सुनिर्वाह में, न झिझकूंगा, मेरी भी सीमाऐं हाँ। 

इस  कार्यशैली से ही पथ अग्रेसित, कालजयी न सही तो कुछ 
सब कालों में था, हूँ, हूँगा, पर अभी है बात चेतना आधार पर। 
इस संज्ञा-रूप जन्म का महद काल विसरण व हेतु ही प्रयास 
सब पूर्वज, अद्य सखा-सहयोगी, भविष्य के कर्मठ भी स्वरूप। 

एक वृहद में सब लुप्त, सागर में जल-कण क्या श्रेष्ठ या निम्न 
सर्व-मिलन से अनुपम जलराशि, सार्थकता में स्वयमेव निज। 
प्रति वाष्पकण सहयोग, वही पुनः-२ भिन्न रूपों में लौट आता 
जग-सुनिर्वाह में पूर्ण न्यौछावर, सार्थकता है अस्तित्व हमारा। 

कैसे हो सुबुद्धि-विसरण, यदि दक्ष तो क्या औरों में  सकता बाँट 
एक आयाम-योग से अन्य प्रभावित, पर सीमा में ही संभव काम। 
प्रयास से है सीमा वर्धन, जब चलोगे तो कुछ अन्य हो ही लेंगे संग 
अन्यथा भी भला आरोग्य हेतु, ज्ञान-प्रवाह ही तुम्हे बनाएगा उत्तम। 

सहज ही ये अनूठे शब्द उदित, मस्तिष्क में कुछ तो महाप्रयाण 
यह विपश्यना कैसे संभव, सुघड़-विचरण स्वतः ही है प्रस्फुटित। 
बुद्ध, सुकरात, महावीर की चेतना में भी रहे होंगे प्रयोग अनेक
कुछ असहज क्षण ही पकड़े होंगे, समेकित कर अनुपम बाहर। 

मेरा लेखन भी स्व से ही झूझना, चित्त हो निर्मल तो सब द्वेष बाहर
प्रयास जग हो मधुर-सुंदर, जितना बन सकेगा,  जान दूँगा लगा। 
दायित्व बहु-आयामों का इर्द-गिर्द, पूरा करने में न कोई हिचक 
कैसे हो गण-जीवन सुभीता, न मात्र  रुदन, संभावनाऐं तलाश। 

सेवी दिल से समझो अबलों प्रति दायित्व, सबकी अवस्थाऐं विभिन्न
वे भी कल्पतरु बनेंगे, शुभ्र सौंदर्य, सबकी मनोकामना पूर्ण समर्थ। 
पर तभी संभव जब निज का ही उभरन-प्रयास, फिर न कोई बवाल
तब स्वयमेव परस्पर संगी-प्रेरक, जग-आगमन होगा कुछ सार्थक। 


पवन कुमार,
४ नवंबर, २०१९  ७:४० सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २९ दिसंबर, २०१६ समय ८:२६ प्रातः से)  


2 comments:

  1. सतीश सक्सेना: नमन

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  2. मंगता राम जैन: Bhut khub.

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