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Monday 27 July 2020

बरखा -बहार

बरखा -बहार 
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सुवासित सावन-शीतल समीर से उर है पुलकित, मेरा मन झूमे 
पर संग में  तो प्रियतमा नहीं है, दिल उमस कर ठहर जाता है। 

तरु शाखाऐं-पल्लव झूम रहें, कभी ऊपर-नीचे, कभी दाऐं या बाऐं 
एक अनुपम सी गति-प्रेरणा देते, देखो आओ बाहर स्व जड़त्व से। 
हम जग-अनिल से रूबरू, पूर्ण-ब्रह्मांड का आनंद निज में समाए 
निश्चित प्रकृति-सान्निध्य में वासित, संभव सुनिर्वाह में सहयोग करें। 

दिन-रैन, प्रातः-शाम-मध्याह्न के प्रयत्न-साक्षी, निहारते खुली कुदरत 
सर्वस्व झेलते देह  पर, सुख-ताप-शीत-चक्रवात का सीधा अनुभव। 
कोई घर तो न मनुज भाँति, अनेक छोटे-बड़े जीवों को देते बसेरा हाँ 
अनेक चिड़ियाँ-गिलहरी, कीड़े-मकोड़ों की शरण, नर्तन जीवों का।   

सावन में पवन की दिशा पूर्व से पश्चिम है, गर्मी-ताप से अति-राहत 
     आर्द्र-परिवेश से पर्णों को सुकून, उष्ण-कर्कशता से थे झुलसे वरन।     
ग्रीष्म से तो रक्त-द्रव ही शुष्क, अल्प भूजल, स्पष्ट क्षीणता-चिन्हित 
हाँ यथासंभव छाया-पुष्प-फल देते, निज ओर से न छोड़ते कसर। 

पावस-ऋतु तो अति-सुखकारी, अनेक बीजों को प्राण-दान लब्ध 
वरन पड़े बाँट जोहते, कब जमीं पर पनपने का मिलेगा अवसर। 
बहुतेरी मृत घास-फूस, खरपतवार आदि, वर्षा आते ही स्फुटित 
हरितिमा रुचिर, वरन निर्जन सूखे तरु, नग्न पहाड़ियाँ ही दर्शित। 

अब उदित मृदु-मलमली तीज, गिजाई-अग्निक, जो पूर्व में थे लुप्त 
अनेक कंदली - छतरियाँ दर्शित, जिनमें खुंभी भी कहलाते कुछ। 
जहाँ भूमध्य रेखा निकट सारे वर्ष वर्षा है, हरियाली की सदाबहार 
नीर-बाहुल्य से जीवन-विविधता समृद्ध, सूखे को हरा करता जल। 

वर्षा में ही वन-महोत्स्व, सिद्धता नन्हें पादपों के मूलों में निकट जल 
एक-२ कर चहक से उठते, ऊष्मा-पानी चाहिए बढ़ जाते एक दम। 
भू-लवण मात्रा वर्धित, एक से अन्य स्थल को खनिज बहने से गमन 
मृदा-गुणवत्ता पूरित, स्वच्छता होती, हर रोम खोलकर रिसाव जल। 

अति-ऊष्मा तप्त प्राणी-पादप को अति चैन, मन-आत्मा पुलकित 
शस्य-श्यामला वसुंधरा, समृद्धि-प्रतीक, हर रोम से तेज स्फुटित। 
लोगों की कई चाहें जुडी रहती, बरखा आई तो तीज, मेले-त्यौहार 
लोग एक-दूसरे को बधाई देंगे, मेल-जोल से तो बढ़ेगा प्रेम और। 

वर्षा एक जीवंत-ऋतु, सर्व स्वच्छता-प्रणाली को देती नव आयाम 
सारा कूड़ा-कचरा बह जाता, पहुँचने में सहयोग अंतिम मुकाम। 
सरिताऐं तो उफान पर होती, नहरों में भी पानी छोड़ दिया जाता 
धरा में जल-रिसाव, सरोवरों में एकत्र नीर पूरे साल काम आता। 

 प्रचुर खाद्य शाकाहारियों हेतु, दुधारू पशुओं में वर्धित दुग्ध-मात्रा 
घास-चारा खाओ न कमी, पहले  चरवाहे-पाली करते थे चराया। 
गड्डों में पानी-मिट्टी एकत्रित, लगता  समतल सी हो जाएगी पृथ्वी
सब भेद विस्मृत, कहीं-२ बाढ़ आने से लोग होते कठिनता में भी। 

कभी धूप -छाँव, बहुरूपी मेघ दर्शित, इंद्रधनुष छटा बिखेरता 
पक्षी-कलरव सुनाई देते, सतत हर्ष प्रकट कर ही देते अपना। 
धराधर मूसलाधार बरसते, प्रखर प्रहार, भागकर  होता बचना 
पथों में पानी प्रभृत, गड्डों का अंदाजा न, हो भी जाती दुर्घटना।  

सुदूर मेघ-यात्रा, वाष्प सोखते, ऊष्मा से नभ में अत्युच्च उठते 
वहाँ वे शीतल होते व अवसर मिलते ही बरस जाते, रिक्त होते। 
प्रकृति के खेल निराले हैं, यदा-कदा धूप में भी बारिश हो जाती 
मेघ देख वनिताओं को प्रिय-स्मरण, खिन्न हो मन मसोस लेती।  

कालिदास-कृति मेघदूत अनुपम, कथा-सुव्याख्यान  यक्ष-विरह 
उन्हीं के काव्य ऋतु-संहार में पावस का एक रमणीक विवरण। 
दादुर टर्राते, भ्रमर मधुर गुनगुनाते, जुगनूँ  अँधेरे में टिमटिमाते 
प्रफुल्लित मयूर नर्तन करते हैं, सरोवर  पूरित शुभ्र कुसुमों से। 

इस वेला में आनंद में झूमना हर प्राणी-मन की होती फितरत
कलम का भी एक निश्चित संग, माँ वाग्देवी-कृपा आवश्यक। 
रिक्त पलों में एक गुरु ब्रह्मांड-रूप वर्षा पद्य था चिर-इच्छित
कलम चले तो मृदु फूँटेगा, फिर यथासंभव दिया ही है लिख। 

पवन कुमार,
२७ जुलाई, २०२० सोमवार १०:१७ रात्रि 
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३ अगस्त, २०१७, वीरवार, ९:२० बजे प्रातः से )  
 

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