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Monday 13 July 2020

घर-बाहर

घर-बाहर 
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मेरी दुनिया क्या है, परिवार जहाँ जन्मा या वह जहाँ वर्तमान में रह रहा 
अनेक शिक्षण-कार्य स्थलों में दीर्घकाल, घर के अलावा भी कई आयाम। 

देखना चाहूँ  कितना घर या बाहर, क्या प्रतिबद्धता काल -अनुपात में माप 
या कुछ पक्ष औरों से महत्त्वपूर्ण, गुणवत्ता का  मात्रा से कहीं अधिक भार। 
सब पक्षों का स्व प्रभाव, मानव सुस्त तो भी दुनिया निज कर्म करती रहती 
हर निवेश का स्वभाव अतः कुछ  न गौण, सहयोग से ही दुनिया बनती।  
 
क्या सोचूँ जितना मनन करूँ, दायरा बढ़ता या  सिकुड़ता जाऐ आत्म तक 
माता-गर्भ में अकेला था पर कुछ  परिपक्व हो, बाह्य -ध्वनियाँ लगा श्रवण। 
जन्म-पश्चात तो सब तरह का कोलाहल, शांत मन पर निरत हथौड़े बरसते 
परिजन-संबंधी, पड़ौसी-गाँव वाले, मामा-चाचा, बुआ, चचेरे-फुफेरे-ममेरे। 

 नर की निज तो न मौलिकता, यहीं से अन्न -जल-शिक्षा ले प्रभावित रहता 
कुछ तंतु तो पृथक मनों में, स्वभाव-गुण, विविध तौर-तरीक़े लेते अपना। 
बाह्य नज़र में तो सब एक जैसे  होते, पर  अनेक विरोध पाले रखते अंतः 
विविधता एक जीव पहलू, स्वीकृति में न दोष, पर अभी दायरे पर मनन। 

कह न सकता पूरे गाँव को जानता, असंभव भी, जाने गए संपर्क वाले ही 
मुझे भी अनेक जानते होंगे, कुछ  ऐसे  होंगे जिनसे कभी बात ही न हुई। 
कुछों को पसंद या नापसंद करते,  लेकिन कुछ रिश्ता तो बना ही रहता 
रिश्तेदार आते या मैं जाता, निकटस्थ गली-सड़क का कुछ प्रभाव होगा। 

स्कूल शुरू तो नया  परिवेश, बाहरी शिक्षिकाऐं, छात्रों का निज परिवेश 
पर सब बैठ शिक्षिका की बात सुनते, अंतः प्रवेश करता कुछ सम रस। 
वही पाठ्य- पुस्तकें व माहौल, विविधता  में एकता-सूत्र पिरोने का यत्न 
परीक्षा-प्रश्न,  प्रार्थना-खेल, डाँट-डपट, गपशप, बाह्य भी माहौल एक।  

घर आगमन बाद वही माँ-बाप, सहोदर-पड़ोसी, स्कूल को भूलने लगते 
पशु-पेड़, घर - बगड़, घेर-गंडासा, मार्ग-तालाब, सदैव प्रभावित करते। 
खाली हुए तो मित्रों संग खेलने लगते, घर के पास या कभी गाँव के गोरे 
वर्षा में मस्ती, भैंस की पूँछ पकड़ जोहड़ में, गिल्ली-डंडा, पिट्ठो खेलते। 

स्कूल से अलग  गृह परिवेश, छुट्टियों में मज़े होते, कई दोस्त बन जाते 
पेड़ों पर चढ़ते, बड़ की बरमट नमक लगाकर खाते, कभी कच्चे आम,
बेर-जामुन-अमरूद-लसोडा-शहतूतों की खोज में कभी यूँ घूमते रहते। 
साइकिल चलाना सीखते, कैंची से डण्डा फिर काठी और पीछे कैरियर
सब मिल महद रोमांच भरते, सीखते जाते, दुनिया होती रहती विस्तृत। 

गाँव से नगर के बड़े स्कूल गए, कई पृष्ठभूमियों के स्टाफ़, छात्र-शिक्षक  
कोई इस या अन्य गाँव का, शहर या निकट क़स्बे का, धनी  या निर्धन। 
कोई पैदल या  साइकिल से आए, बस-ट्रेन तो कोई ऑटो-स्कूटर से ही 
 कोई समीप या  दूर से, छात्रावासित, अधिकांश आते- जाते घर से ही।   

लघु-बड़ी कक्षाऐं स्कूल में, सबको न जान सकते, धीरे-२ प्रवासी वरिष्ठ 
हम भी बड़ी कक्षाओं में बढ़ते, खंड बदलते, नव मित्रों से प्रेम-परिचय। 
कोई जरूरी न सब पसंद ही, अनेकों से उदासीन या नापसंद भी करते 
शिक्षकों का भी अतएव व्यवहार, उनके विषय में निश्चित राय बना लेते। 

बचपन में कितने ही मित्र संपर्क में आते, सारे कहाँ याद रह पाते हैं पर 
जिनके संग खेलें-पढ़ें, एक व्यवहार था, आज स्मृति-पटल से हैं विस्मृत। 
कह सकते हैं मानव के वृहद भाग के साथ रहकर भी, पराए से ही रहते 
अन्यों के ज्ञान विषय में सीमित ऊर्जा, असमर्थ अनेक संपर्क निर्माण में।  

कॉलेज गए विलग ही परिवेश, अनेक स्थानों के छात्र-छात्राऐं व शिक्षक 
 कोई परिचित भी मिल जाता, अन्यथा खुद से ही बनाने पड़ते कुछ मित्र। 
फिर पहुँचने हेतु किसी वाहन का प्रबंध, पुस्तकें-कॉपी-पैन  व जेबखर्ची 
दोस्तों संग सिनेमाघरों में फिल्म की लत पड़ जाती, पढ़ाई गौण हो गई।  

फिर जैसे-तैसे कुछ पढ़े, जैसा भी परिणाम आया फिर नए संस्थान गए 
वहाँ माहौल और बड़ा विचित्र, कई वहम टूटते, पर संपर्क बनता शनै। 
सीनियर-जूनियर मिलते, जिंदगी में एक छवि बनाते लोग लेते उसी सम 
शनै अनेकों से लगाव-गुफ़्तगू, खेलते-गाते व पढ़ते, पूरा हो जाता समय। 

अतएव कार्यस्थलों पर अनेकों से भी मिलन, व्यक्तित्व में लाभ है रहता 
घर के अलावा  भी निज जग, सब अपने हैं बस संजोना आवश्यकता। 


पवन कुमार,
१३ जुलाई, २०२० समय ८:१४ बजे सायं
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी  दि० १२.०६.२०१९ समय ८:५१ प्रातः से )  

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