Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Wednesday 14 April 2021

प्रकृति-रहस्य प्रयत्न

  प्रकृति-रहस्य प्रयत्न

-----------------------

 कालानुसार हम भाव बदलते, विशेष प्रभाव होते हर नव दिन

उग्र-व्यग्र, रुष्ट-क्रोधित तो हम कभी सौम्य-विनीत प्रमुदित।

 

कभी किए एक प्रकार स्थिति, हर परिस्थिति फिर हावी रहती 

मनुज क्या करे तनु ही तो है, प्राकृतिक कारक प्रभाव छोड़ते। 

जग में सर्वद्रव्य-विघटन संभव, कभी कम कहीं महाबल जरूरी 

सब कुछ यहाँ हर समय चलता, कभी यह तो कभी वह हावी। 

 

मानव-मन ने भी बना ली शैली, झंझावतों से निपटने की सब 

गलत - उचित ढंग से हाथ-पैर मारता, बहुदा तैरना ज्ञात।  

नित्य नव-अवरोधों से सामना, शक्त अपने विष-फ़न उठाए 

काटने को तैयार यदि हो असावधान, सब निज मोर्चा संभाले। 

 

सहज जीवनार्थ नर को अति रण-कुशल, होना पड़ता निडर

इतना भी सरल बसर यहाँ, शक्तिमान अनेकानेक विखंड। 

क्यों उन्हें मानव से लड़ना पड़ता, कैसा युद्ध है किस कारणार्थ  

जीवन-सुरक्षा चक्र, प्रतियोगी वातावरण प्राकृतिक नियमन। 

 

क्या ये हैं प्राकृतिक कारण, कोई उन्हें चलाता या स्व-चालित 

क्यों सर्वत्र जड़-चेतन रूप बदलते, किस द्वारा यह कर्म दत्त। 

प्राकृतिक शक्तियाँ स्व में सबल, ऊष्मा-ऊर्जा उनसे विकिरित 

कुछ स्वस्थ जन प्रयासरत सुरक्षार्थ, निज को ढ़ालना अनुरूप। 

 

निद्रा-तंद्रा स्व-आगोश में लेना चाहती, प्रयासित लेखनी को बद्ध 

कैसे शरीर में ये स्थान बनाती है, हर एक को लेती अपने ढंग। 

क्या ये स्वाभाविक काया-क्रिया, विश्राम माँगती कुछ कार्य बाद 

मुर्दनी सी छा जाती, कार्य का मन , मूर्च्छागोश में जाते  आ। 

 

ये कारक सामान्य को रोकते, मैं लेखनरत, ये हाथ पकड़ते 

ये मन पर एक सुस्ती ले आऐं, शनै विकास-पथ का रथ रोकें। 

पथ-विहीनता इसका पूर्ण-यत्न, पाशित होता जीव-निर्जीव हर 

महानरों की भी अतिश्योक्ति, उन्हें भी बाधा पार जाना सब। 

 

यह महावीर क्या है, भौतिक-कारकों के प्रभाव करना कम

या जो ठाना वो करना या मन-प्राण से महत्तम प्रवृत्ति दोहन। 

या एक बुद्ध सम आत्म सहज कर, चेष्टा एक पूर्णानुभूति की 

पूर्ण सब निहारना, आदत कुछ सार्थक निकास-अपनाने की। 

 

क्या ये प्राकृतिक सर्वत्र कारक, क्यों सदा चलायमान रहते 

क्यों हर रोम सदा गतिमय, अति अपनी में कसर छोड़ते। 

क्या उनका ऊर्जा-स्रोत, मनोदशा या बदलाव-प्रक्रिया कहे 

भौतिक नियम सदा-चलित, सर्व ब्रह्मांड को आगोश में लेते। 

 

क्यों जड़-चेतन अल्पाधिक उद्विग्न, चाहे किञ्चित ही हलचल

पवन तो एक स्थल ठहरती, उड़ता रहता मृदा-रज कण। 

जल के विभिन्न रूप, कभी ओस-तरल, ठोस हिम या वाष्प 

सब पादप गतिमय निरत, कभी वसंत-शिशिर या पतझड़। 

 

यह जग चक्र  अति महद, पर प्रश्न  है कि क्यों हो रहा है सब 

अनेक विद्वानों के अपने दर्शन, कुछ धार्मिक या वैज्ञानिक। 

कितनी पल्ले जीवों को पड़ती, पर कारक-असर तो सबपर

प्रकृति-परिवेश उत्प्रेरण, पर धूर्त स्व कृपा बता बनाते मूर्ख। 

 

जो शांत दर्शित, शांत , मुर्द मात्र वह मुर्द , जग है अति स्पंदित 

सर्द-गर्मी, आर्द्रता-वर्षा, विभिन्न पवन-वेग, पादप, जननग-घनत्व। 

अनेक कारक एक समय सक्रिय, क्षुद्र बिंदु पर बरसते निज भाँति 

कोयला हीरा बनेवनस्पति तेल, मृदु मृदा कठोर पाषाण, आदि। 

 

खड़ा भवन शनै विघटित होने लगता, पड़ा दुग्ध दधि में बदलता 

कली पुष्प, फल आता, खाया जाता, बीज गुजरता है कई प्रक्रिया। 

जलपूरित पुष्कर ग्रीष्म में शुष्क, गहरी नदी तनु रेखा सी जाती रह

हरित द्रुम शुष्क ठूँठ बन जाता, कार्पास पुष्प दुकूल में परिवर्तित। 

 

सर्वत्र परिवेश-परिस्थिति विशेष में, भिन्न नर कई विद्याऐं अपनाते 

कोई कर्म-ज्ञान या मनोयोग में व्यस्त, निज भाँति दुनिया समझते। 

सब पर एक जैसे कारक प्रभाव करते, कहीं दाम तो साम कहीं

 कहीं दंड-भेद अपनाया, सब कूट-राज नीति की  पाराऐं अपनी। 

 

क्यों हैं ये प्राकृतिक नियम, हमारी प्रक्रिया भी उसी का प्रारूप 

विश्व हमारे सब क्षेत्रों को जाँचता, परखता है एक- कदम पर।  

पर क्या है यह प्रक्रिया-सत्य, स्वयं गतिमान या कोई चला रहा 

कितना योगदान निज कर्मों का, हमारा मन उद्योग है कितना ?

 

कृष्णवचन तो सहज ही गीता में कि मैं ही सब कारकों का कारण 

पर यह संतुष्टि सहज मस्तिष्कों हेतु, मम बुद्धि में तो अनेक प्रश्न। 

यह तमाम विज्ञान गुत्थी सुलझाना  चाहती, क्यों हैं ये सब स्पंदन 

पर बहुत मनुज अपनी ही धुन में, कुछ भ्रम पाल लिए, हैं व्यस्त। 

 

गोड्स-पार्टिकल ब्रह्मांड-छेदन, समस्त गत में जाने का प्रयास 

 कैसे क्यूँ शुरू हुई वह प्रक्रिया, जिसने सबको किया गतिमान। 

एक परमाणु के भीतर भी तो, एक समय सौर-मंडल चल रहा 

इलेक्ट्रॉन-प्रोटोन सब सक्रिय, परमाणु मिल अणु, सृष्टि-निर्माण। 

 

महाकाय प्रयोगशाला Hedron Collider स्वीडन की सुरंग में

प्रकाश की गति से होगा, पदार्थ के कणों में भयंकर टकराव 

अति महद ऊर्जा निकलेगी, जो ब्रह्मांड भाँति सब ओर फैले। 

मॉडल ब्रह्मांड परिकल्पना साकार, प्रयत्न प्रकृति-रहस्य हल का 

मानव विभ्रमों से निर्गम हेतु, बहुकाल से हैं पाले हुए हैं आस।   

 

जो प्रशांत सा अभी दिख रहा, उसमें भी कई प्रयास वाँछित हैं 

सुख जैसा कुछ भी  दिखताजो भी कुछ है वर्तमान ही है। 

इन्हीं तत्क्षणों में हम प्राणी गुजरते, पर विभिन्न भाव हैं अति 

मन विद्वेषी , सहज प्रयास हो, निज बने सशक्त-प्रभावी। 

 

नित हमारा भी मूढ़ बदलता, कारक-प्रभाव कर्म पर दिखता 

बुरे से बुरा समय भी, कुछ समय पश्चात विस्मरित हो जाता। 

पर नवनीत तो  झझकोरता, प्रतिक्रिया हमारी सुरक्षा हेतु 

चाहे स्व आचरण भले सुधरे, पर-निंदा की आदत छोड़ते। 

 

क्या स्वयं 'बिन पैंदे का लोटा', जिधर लुढ़काया वही गए लुढ़क 

हर को टिपण्णी देते फिरते, माना उनपर होता विशेष असर। 

 वे बस सुन लेते  तुम्हारी व्यथा, किञ्चित फिर सांत्वना भी दे देते 

पर क्या कोई समाधान कर सकते, जग हँसते का साथ देता है। 

 

प्रतिदिन की प्रतिबद्धताऐं-प्राथमिकताऐं, नर को सहज बैठने देती 

हर कारक से प्रतिक्रिया भी, अनावश्यक को दूर रखना तथापि। 

हमारी शैली देखकर लोग, हमारे विषय में एक निश्चित राय बनाते 

वे भी सब प्रक्रियाओं से गुजरते, पर बुराई मुफ्त-टिपण्णी देने में। 

 

किंचित सजीव हो सब प्रभाव सहते, निर्जीव भी कारक-गिरफ़्त 

विवेक कुछ प्रतिक्रिया बढ़ाता, चेतना स्व को करती विव्हलित। 

कुछ प्रयास से शायद सबका कल्याण हो, अतएव जीवन हैं कर्म 

जीव समुच्चय बड़ा विचित्र खेल, कुछ करके जगाता है अस्तित्व। 

 

भाव तो मन की अवस्था के दर्पण, वह अपना रूप दिखा देता 

वे तो सदैव आते ही रहेंगे, तुम प्रयास सशक्त हेतु रखो अपना। 

माना अनेक कारण स्व-वश हैं, तो भी हीन भाव  देना आने 

खुले नेत्रों से परिवेश-अवलोकन, स्वच्छंदता अपने ही बल से। 

 

 शिव सम अपना तीसरा नेत्र खोलो, जो सर्व-परोक्ष को देख सके 

वैसे तो जग में बहु निज कष्ट, पर फिर क्यों अनावश्यक पालें। 

जितना जरूरी प्रथमतः वही प्राथमिकता, जाओ देखो पहलू हर 

अपना संपूर्ण स्थापित कर लो, समस्त छिद्र-पूर्ण उससे से संभव।  

 

सीखो स्व-समन्वय, दूसरों से सहयोग, प्रतिबद्धताऐं सुनिश्चित 

जीतो दुर्बलता, बनो महावीर चेतना-मित्र, अत्युत्तम का प्रयत्न।   

 

पवन कुमार,

१४ अप्रैल, २०२१, बुधवार समय १८:०१ बजे सायं   

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २६ मई, २०१५ समय :११ बजे प्रातः से) 

1 comment: