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Sunday 28 April 2024

अचेतनता

अचेतनता

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मस्तिष्क-शून्यता अब सही जा रही, समझ आता जीवित हूँ या मृत  

शायद इन्द्रियों में ज्ञान ही , मात्र कुछ देहस्थल-क्रियाऐं ही आभासित। 

 

इस घनघोर अँधियारी-रात्रि के निस्बधता-आलम में भी स्वानुभूति असमर्थ 

तो क्या कथन जरूरी कि जिंदा नहीं, फिर क्यों जीने का ढोंग कर रहा बस।

 

बहुत बहका दुनिया में, असर विपुल, जब चाहती तो हँसाती वरन रुलाती 

कठपुतली ज्यूँ इशारों पर चलाती, फिर कुछ निज अहमियत क्या मेरी भी।

 

इस दुनिया-पंक्ति में क्या स्व-स्थान, प्रश्न कठिन किंतु उत्तर और भी जटिल 

क्या खुद हेतु कोई पैमाना संभव, या क्या अन्य निज से मापना करेंगे पसन्द।

 

कुछ खोया-बेचैन, बेचारा, भटकता किसी मूढ़ सा, शायद खबर अपनी 

पर जग हेतु बड़ा करना सोचता, किंतु होता कुछ और, क्या वह मैं तो नहीं।

 

फिर मेरी परिभाषा ही क्या, केवल हाड़-माँस का पुतला या और भी कुछ 

या प्रकृति-प्रदत्त कुछ ज्ञानेन्द्रि-गृह बस, या आंधी द्वारा लाया झोंका सा एक।

 

या फिर केवल स्वप्न में ही जी रहा, या फिर कुछ बड़ा सोच पाने में समर्थ भी 

या अपनी कुछ जिम्मेवारी-अहसास भी है, या मात्र अपने आप में विरक्त ही।

 

अगर योगी तो आवरण फिर वैसा क्यों नहीं, सत्य कि मात्र भोगी भी तो नहीं 

पर यह भी नहीं कि इन्द्रियाँ सुनियंत्रित और केवल कोमल हृदयवासी हूँ ही।

 

फिर क्यों अपने प्रति ईमानदार ही , और क्यों निज कर्त्तव्यों का अहसास  

क्या मुझसे अपेक्षित और क्या सत्य करता ही, क्या इनमें अति अन्तर तो न।

 

क्यों नहीं ईर्ष्या विश्व-समर्थों को देखकर, क्या मैं भी दिशा जा सकता उस 

यदि कुछ वर्षो में वे बड़े मुकाम पहुँच सकते, तो तुम्हें रोकने में कौन समर्थ?

 

फिर सिद्धता स्व-परमाणवीय शक्ति-ज्ञान की, चेतनाभास करने की अंतः के

निज से प्रश्न हल ढूँढ़ने की, तब कुछ जीवंत कहलाने के पात्र हो जाओगे।

 


 पवन कुमार

२८ अप्रैल, २०२४ रविवार, समय ११ : ५ बजे पूर्वाह्न 

(मेरी शिलोंग डायरी ३१ जुलाई, २०००, समय १२:४५ मध्य रात्रि से )

 


2 comments:

  1. SP Jha : उत्कृष्ट सराहनीय सार्थक लेखन के लिए बधाई, सर जी!

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  2. Suresh Kumar : The poem you’ve shared dives deep into existential reflections and questions the essence of being and self-awareness. It speaks of the internal struggles one might face while trying to ascertain their true nature and purpose, contrasting external appearances with internal realizations.
    This evokes the philosophical inquiries into what it means to truly live versus merely existing. The speaker in your poem grapples with feelings of being lost, driven by external forces, and wonders about their own significance and autonomy. They ponder whether they are merely physical beings or if there's something more profound that defines their existence.
    The recurring theme seems to be the quest for authenticity and self-understanding in a world that often feels overwhelming and confusing. The speaker seems to be seeking a balance between external influences and internal desires, which is a universal human experience. They question the nature of their reality, their responsibilities, and their potential, striving for a realization that aligns with their true self.
    This struggle for identity and meaning, set against the backdrop of the world’s expectations and one's personal aspirations, is a poignant reflection of the human condition. Your poem beautifully articulates the complex interplay between self-awareness and societal roles, encouraging introspection and the pursuit of genuine self-realization.

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