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Saturday, 29 August 2015

महाकविश्रीकालिदास विरचितम् कुमार संभवम् : उमा- उत्पत्ति

कुमार-सम्भव 
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प्रथम सर्ग : उमा- उत्पत्ति 
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उत्तर दिशा की देवभूमि में

पर्वताधिराज हिमालय है। 

पूर्व व पश्चिम के सागरों को चूमता,

किए स्थापित भू पर मानदण्ड है।१।

 

जिसको समझते सब शैलवत्स, 

मेरु पृथ्वी रूपी गो दुग्ध-दोहन में सक्षम।

पुरा-समय के पृथु-आदेश से ये सब करते

  हिमालय को रत्न-औषधि से आभूषित।२।

                                                                  

   अपरिमित रत्नों से सुसज्जित, एक हिम

नहीं सकती उसका सौभाग्य ही हर।

एक दोष गुणों में छिप जाता है जैसे

किरणों में इंदु पर दाग एक।३।

 

 शिखरों पर बहुमूल्य धातु धारण करे,

संध्या सी हो जगमग।

मेघ-खण्डों में जिसके वर्ण रंजित, व

       विलासिनी अप्सरा-गृह ओर ले जाए कदम।४।

 

पर्वत समीप मैदानों में शिखरों की

घन-छाया का लेकर आनंद जब।

प्रखर वृष्टि से पीड़ित, सूर्य से चमकती

       उसकी चोटियों पर करते विश्राम सिद्ध।५।

 

जहाँ किरात गज-हन्ता सिंहों के

नख-रंध्र से गिरते मुक्ता खोजते।

यद्यपि उनके रक्त-रंजित पद-चिन्ह देख पाते,

जो परिगलित हिम-नालियों में लुप्त हो जाते।६।

 

   भोज-पत्रों पर धातु-स्याही से लिखे अक्षर,

जहाँ कुञ्जर* रक्त-वर्ण से मेल खाते हैं।

विद्याधर-सुंदरियों के लिए ये लेख,

    कामुक सम्पर्क-साधन काम आते हैं।७।

 

कुञ्जर* : हस्ती

 

हर गुहा-मुख से आती समीर से,

वह हिमाद्र कीचक* से गान सुनाता।

किन्नर सुंदरियाँ उच्च-स्वरों में गाती

और देती संगीत को फैला।८।

 

कीचक* : बाँस

 

जहाँ भीषण गज देवदार द्रुमों को अपने

पीड़ित कर्णों को सुख देने हेतु रगड़ते।

अनुपम सुवास फैलती पवित्र पर्वत पर

सुगन्धित रिसते उन के गोंद से।९।

 

रात्रि में चमकती औषधियों से कंदराऐं दीप्त 

जहाँ प्रकाश हेतु ते की आवश्यकता होती न।

वनवासी अपनी सुंदर रमणियों संग

करते हैं काम क्रीड़ा जब।१०।

 

श्वमुखी कामिनी-कटि झुकीं पूरे उरोज-भार से

गृह-लक्षित अपने क़दमों की छोड़ती चाल न।

यद्यपि शिला सी बनी हिम पर चलने से उनकी

ड़ियाँ एवं उँगली पोर शीत से जातीं कट।११।

 

जो गुहाओं में आदित्य प्रकाश से भीत

निशाचर उलूकों की है रक्षा करता।

 शरण में पड़े क्षुद्र को भी, सज्जन हैं

कवच देते अपनी ममता का।१२।

 

चन्द्र-मरिचियों सी शुभ्रपुच्छल-चँवर हिलाकर

जहाँ याक उसका गिरिराज होना करते सिद्ध।

 वीजन गति से उनकी शोभा

 सब ओर है विस्तारित।१३।

 

जहाँ जलद* विभिन्न आकृतियों में

अकस्मात गुहा-गृह द्वार पर लटक जाते।

और निर्मित विलज्जित किन्नरियों हेतु चिलमन*,

जिनके अंशुक पुरुषों द्वारा जा रहे उतारे।१४।

 

जलद* : मेघ;  चिलमन* : परदा
    

जहाँ भागीरथी नदी की जलाच्छादित फुहारें

बारम्बार देवदार तरुओं को करती कम्पित।

और कटि-बंध मयूर-पंख घर्षण से पीड़ित

        मृगया-हानि से क्लांत किरीटों को आनंदित।१५।

 

उच्च शिखरों की ताल-कमलों को जिके 

राजीव नभ-सप्तर्षि नीचे उतर चुगते।

बचे अरविन्द भास्कर किरणों से

पुनः ऊर्ध्व-वृद्धि करते।१६।

 

जिसकी यज्ञ-साधन व धरित्री-धारण सक्षमता

देखकर प्रजापति स्वयं कल्पित यज्ञ-भाग से,

हिमालय को शैलाधिपति घोषित करते।१७।

 

इसके पश्चात कथा प्रस्तुत है :

 

उस मेरु-सखा ने अपनी कुल-निरंतरता हेतु

अनुरूप माननीय एवं मुनिजन सम्मानित।

पितरों द्वारा विधि-पूर्वक स्थिति जानकर

मानसी* कन्या से किया परिणीत*।१८।

 

मानसी* : मन से उपजी; परिणीत* : विवाह

 

  कालान्तर में जैसे कि वे हुए अपने

स्वरूप योग्य काम-प्रसंगों में प्रवृत।

मनोरम यौवन धारण किए भवत

      भूधरराज पत्नी ने किया धारण-गर्भ।१९।

 

 उस मेना ने मैनाक जन्मा, जिसने एक नागकन्या से

विवाह किया, निज  रक्षार्थ समुद्र से मित्रता की।

माना क्रुद्ध इंद्र के वज्र-प्रहार से सर्व पर्वत छेदित,

      पर मैनाक ने कदापि न अनुभव की पीड़ा ही। २०।

 

तब, पूर्वजन्म में दक्ष-कन्या व शिव-पूर्वपत्नी

पवित्र सती ने पुनः शैल-वधू से लिया जन्म।

जिसने पिता द्वारा पति-अपमान करने पर

योग से अपनी देह दी थी त्याग कर।२१।

 

उस सुभागिनी मेना से जन्मी उमा, सदा

समर्पित पर्वतराज द्वारा पवित्र कर्मों में।

क्योंकि समृद्धि पनपती है उत्साह व

सुनिर्देशित कर्मों के निर्वाह से।२२।

 

उस पार्वती के जन्मदिवस पर

सब दिशाऐं रज-रहित पवन।

शंख-ध्वनि व पुष्प-वृष्टि से प्रमुदित जो सब

   जंगम-स्थावर देहों में सुख हेतु संचारित।२३।

 

नव-मेघ स्वर से वैदूर्य*-पर्वतिकाओं से सटे

जैसे भू-भाग भी रत्न-किरण से हैं चमकते।

वैसे ही माता भी कान्तिमान होती है

पुत्री के प्रभा-मण्डल से।२४।

 

वैदूर्य* : रत्न-जड़ित

 

बालचंद्र नव-कला प्रस्तुत करता,

जैसे बढ़ता जाता है प्रतिदिन।

वैसे ही उस उमा में कालांतर में

विशेष लावण्य हुआ संचारित।२५।

 

बन्धु-अभिजन उसे पार्वती नाम से पुकारते, पर

तप द्वारा माता अत्यंत सावधानी से रही पाल।

उसे उ (हे पुत्री) मा (मत कर) निषिद्ध-शब्दों से पुकारती,

अतः उसे मिला उमा नया नाम।२६।

 

यद्यपि पुत्र होते हुए महीभृत* की नजरें

अपनी इस बाला को देखते न होती तृप्त।

जैसे वसंत में अनेक प्रकार के पुष्प होते भी भ्रमर,

 आम्र-अंकुर ओर ही पूर्ण प्रेम से होते आकर्षित।२७।

 

महीभृत* : हिमाद्र

 

उसे पाकर पर्वतराज को अपर* महत्ता-कीर्ति,

जैसे दीप को मिले शिखा प्रभायुक्त अति।

या त्रिमार्गी गंगा से स्वर्ग-पथ या जैसे

         शुद्ध वाणी से विभूषित होता मनीषी।२८।

 

अपर* : अतिरिक्त

 

बालपन में वह पार्वती

 क्रीड़ारस प्रवेशित सखियों से घिरी।

प्रायः गेंद व खिलौनों से खेलती और

       मंदाकिनी तीर रेत पर वेदिका बनाती।२९।

 

उसके पूर्वजन्म-संस्कार, विद्या-ग्रहण समय प्रकट

हो जाते, जैसे पूर्व के स्थिर प्रभाव होते चिरस्थायी।

शरद में हंस-पंक्तियाँ गंगा ओर लौट आती व रात्रि में

 निज रोशनी से जगमग करती जैसे महौषधि।३०।

 

वह बालपन पार कर उस आयु में पहुँच गई,

अब जो स्वयं में एक अकृत्रिम शरीर-सौंदर्य है।

मदिरा से भी अधिक मधुर आनंद का कारण व

  काम भी कुसुम-बाण का शस्त्र लिए हुए है।३१।

 

जैसे चित्रकार-तूलिका से चित्र शनै-२ बढ़ता जाता

या अरविन्द सूर्य-किरण प्रभाव से खिलता जाता है।

वैसे ही उसकी शोभित सुडौल काया

    नूतन यौवन से खिलती जाती है।३२।

 

 गतिमान उसके चरण पृथ्वी को सदा-चलित 

स्थल-राजीवों की सौजन्यता प्रदान करते।

क्योंकि वे अति-उन्नत अंगुष्ठ और

     बढ़े नख के रक्त-वर्ण से चमक रहे।३३।

 

उरोज-भार से झुकी हुई सी, कदमों द्वारा दर्शित,

और मोहक चंचल अदाओं द्वारा वह विभूषित ।

पदगति विषय में राजहंसों द्वारा शिक्षित, जो बाद में 

स्वयं ही उसकी नूपुर-संगीत शिक्षा को हैं उत्सुक।३४।

 

उसकी अति-सुंदर, न अति लम्बी, गोल,

मांसल-सुडौल जंघा ली बना विधाता ने जब।

उनको अनन्य लावण्यमयी शेष अंग-निर्माण में

बहुत ही प्रयास करना पड़ा तब।३५।

 

ऐरावत हस्ती की सख़्त त्वचा की सूँड और

अत्यंत शीत जलवायु की विशेष कदलीफल।

जो हालाँकि सुडौल व गोलाकार, पर उसकी

जंघाओं की उपमा के मानदंड में मद्धम।३६।

 

अतिशोभित सम्पूर्ण काञ्ची गुण यानि नितम्ब आदि

स्थलों की सुंदरता इस तथ्य से जानी जा सकती।

कि कौमार्य पश्चात् वह गिरीश-अंक बैठने को सक्षम हुई

जो अन्य किसी नारी हेतु सम्भव न था किंचित भी।३७।

 

उसकी कटि-वस्त्र ग्रन्थि नवल में प्रवेश करके

मेखला-मध्य एक सूक्ष्म सुंदर नीली लेखा बना लेती।

जो एक नीलम रत्न से निकलती

चमक सी सुंदर है दिखती।३८।

 

वेदी-मध्य कुश भाँति उस पार्वती की सुंदर

तनु कटि, चारु माँस की तीन वलियाँ सी बना लेती।

जो नवयौवन में काम-सोपान सी प्रयुक्त होती।३९।

 

उस कुमुदिनी सी अँखियों वाली के

परस्पर पीड़ित करते गौरांग स्तन।

 हैं इतने गोल-सुडौल व प्रवृद्ध कि एक कमल-पत्र

भी कष्ट से ही स्थान पा सकता उनके मध्य।४०।

 

उसकी बाहु कोमल हैं

शिरीष-पुष्पों से भी अधिक।

पूर्व से ही पराजित मकरध्वज* द्वारा

जो पहनाए गए हैं हर* के कण्ठ।४१।

 

मकरध्वज* : कामदेव; हर* : शिवजी

 

उसके स्तन-बंधु ऊपर कंठ में

मोती-माला है सुशोभित।

इस स्थिति में भूषण एवं भूष्य* हैं

शोभा प्रदान करते परस्पर अभिन्न।४२।

 

भूषण एवं भूष्य* : सजाया गया व सजाने वाला

 

सौंदर्य-देवी जब शशि देखती, तो कमल-चारुता में आनंद न

जब वह अरविन्द देखती, तो सुधांशु में नहीं दिखता रस।

 लेकिन वह उमा-आनन को निहारती, तो तब

     दोनों लालित्य मिल जाते एक स्थल पर।४३।

 

 चाहे अति सुंदर पुष्प अति-शुभ्र शैवाल पर क्यों न हो खिला,

चाहे अभी बहु समृद्ध शैल से ही मोती क्यों न हो निकला?

वे मात्र रमणीय दिखते हैं, उस उमा के

        गुलाबी ओष्टों से निकली मोहक मुस्कान जैसे।४४।

 

जिसकी संगीतमयी वाणी है,

स्वर से हो रही जैसे अमृत-वर्षा।

अन्य कोयलादि के गीत भी श्रोताओं को न हैं सुहाते,

ऐसा प्रतीत कि जब बाजा बजाया, तो सुर से चला गया।४५।

 

 उसकी चकित भीत नजरें, अति-तीव्र

पवन में अस्थिर नीलकमलों से न भिन्न।

मृगिणियाँ भी ऐसे लोचन,

      उमा से माँग सकती हैं उधार।४६।

 

अञ्जन से श्लाका - चित्रित सी

भौहों की कान्ति देखकर।

लज्जित हो लीला-चतुर मनोज त्याग देता,

अपने प्रेम-धनुष की भव्यता का गर्व।४७।

 

पर्वतराज पुत्री उमा के भव्य केश देखकर, होगा

चमरी* को भी निज लम्बे केश-विषय में सोचना।

यदि पशुओं के चित्त में कुछ लज्जा है, तो

      सुंदरता-विषय में वह शिथिल पड़ जाएगा।४८।

 

चमरी* : मादा याक

 

संक्षेप में विश्व-सृजा ने सर्व उपमाओं का

समुच्चय करके, उचित स्थान पर रखा उनको।

और उस उमा को बड़े यत्न से बनाया, जैसे इच्छा

एक ढाँचे में ही सर्व-सौंदर्य को देखने की हो।४९।

 

इच्छागामी नारद ने पार्वती को

तात समीप देखकर उद्घोषणा की।

यह कन्या शिव-वधू भवानी बनेगी

और प्रेम से उसकी अर्धांगिनी।५०।

 

यह सुनकर पिता भी अपनी युवती

 पुत्री हेतु वर-अभिलाषा से हुए निवृत्त

जब आहुति मंत्रों द्वारा पवित्रित हो, तो अग्नि के अलावा

किसी अन्य चमकती वस्तु के विषय में सोचा जाता न।५१।

 

 स्वयं से दुहिता का देवाधिदेव महादेव संग

पाणिग्रह करने का साहस अक्षम थे हिमाद्र।

ऐसे विषयों में प्रार्थना अस्वीकार के भय से

मध्यस्थ का सहारा लेते हैं सज्जन।५२।

 

जबसे इस सुदंती* ने पूर्वजन्म में,

तात दक्ष विरोध में किया था स्व-देह विसर्जन।

पशुपतिनाथ* ने सब आकर्षण-संग त्याग दिए, 

और एकाकी रहते हैं अपत्नीक।५३।

 

सुदंती* : सुंदर दंतों वाली, पार्वती; पशुपतिनाथ* : शिव

 

शम्भु मृगछाला पहन तपस्वी, जितात्मा, ध्यान-मग्न,

ऐसे हिमालय के किसी शिखर पर निवासित हैं वह।

देवदार तरु गंगाजल-प्रवाह से सिंचित होते, कस्तूरी-गंध

जहाँ सुवासित करती व किन्नर करते हैं मधुर गायन।५४।

 

 नमेरु-पुष्पों की कर्ण-बालियाँ पहने, गण भोजवृक्ष छाल के

सुखदायक वस्त्र पहने, योगिराज इच्छा का करते हैं पालन

वे शिला-कंदराओं में रहते, जहाँ शिलाजित धातु

प्राप्त होती और निकलती है एक विशेष गंध।५५।

 

का वाहक नंदी वृषभ मधुर-ध्वनि निकालता हुआ,

गर्व में खुरों से उखाड़ता संघनित हिम-शिला को।

 पर्वत में सिंह-दहाड़ सुन वह, उच्च नाद करता

मृग बड़े भय से देखते हैं जिसको।५६।

 

वहाँ अष्टमूर्ति, जो स्वयं तप-फलदायक

और अग्नि, जिसका अपना एक रूप है।

यज्ञाग्नि में सब समिधाओं की आहुति देते,

      किसी अज्ञात कामना संग करते तप हैं।५७।

 

अद्रिनाथ* ने की अमूल्य सामग्रियों से शिव-पूजा,

जिका स्वर्ग-देवता करते हैं सम्मान एवं अर्चना।

और निज सुता उमा को उसकी दो सखियों* संग

ईश्वर की आराधना हेतु दी आज्ञा।५८।

 

अद्रिनाथ* : हिमवान; सखियाँ* : जया व विजया

 

गिरीश ने पार्वती को उसकी इच्छानुसार शुश्रूषा करने की

अनुमति दे दी, यद्यपि यह उसकी समाधि में एक बाधा है।

पर वे ही धीर, जिनके चित्त प्रतिभूतों की उपस्थिति में भी

विकार-रहित रहते हैं।५९।

 

पूजा हेतु पुष्प चुगकर, वेदी-सुचिता में दक्ष,

पवित्र मंत्रोच्चार हेतु नियमित जल व कुश लाती।

अतएव सुकेशी* गिरीश की नियमित सेवा में व जब परिखेदित, 

तो शिव के भाल-चन्द्र किरणों से पुनः तरोताजा हो जाती।६०।

 

सुकेशी* : सुंदर केशों वाली, पार्वती; परिखेद* : थकी

 

 । इति उमा-उत्पत्ति।

 

(महाकवि कालिदास के मूल प्रथम सर्ग : उमा- उत्पत्ति नाम

का हिन्दी रूपान्तरण-प्रयास)


पवन कुमार,

२९ अगस्त, २०१५ समय १८:५१ सायं

  (लेखन ९ से १६ अगस्त, २०१५)  

Saturday, 8 August 2015

विकास-सिद्धांत

विकास-सिद्धांत  





गणना-पत्रक है समक्ष, तब क्यूँ सशंकित परिणाम उपलब्ध से

जीवन-स्पंदन एक शनै प्रक्रिया, लेकिन माप तो होगा कर्म से॥

 

कर्म-विज्ञान पर बहु-चिंतन हुआ, हर जीव का भाग्य करते तय

ज्योतिष-बात छोड़ भी दी जाए, तो क्या मंथन हो सकते विषय?

कहते सब कर्मों का ही फल होता, हम जो भी हैं प्रारब्ध-स्वरूप

कैसे अन्य- भविष्य जाँचन सक्षम हैं, जब अपने में ही न सक्षम?

 

भिन्न भौतिक-मानसिक स्थिति हैं, प्राणी-जग में कौन निर्धारक

कितने हम स्व-भागी वर्तमान में, परोक्ष परिस्थिति या परिवेश?

कितना चिंतन वाँछित स्व-स्थिति हेतु, कितना सुधार संभावित

कितने जन-समूह परिवर्तन में सक्षम, अतिश्योक्ति अन्य रीत॥

 

उदाहरण किसी विशेष नर का ही लें, मानो है अशिक्षित-निर्धन

ऊपर से अपाहिज़, भिक्षुक सम, मन में नहीं कोई विशेष उमंग।

सदैव भाग्य कोसता, परम-असंतुष्ट, पाता अपने को बड़ा विवश

कौन कारक उत्तरदायी अवस्था हेतु या स्वयं में ही बस दोषित॥

 

एक पशु-प्रवृत्ति ने भंग की मर्यादा, हुआ तब अवाँछनीय-जन्म

यदि स्वभाविक वैवाहिक बंधन से है, इसे कहा जाता सामान्य।

एक मनुज का अनेक से संपर्क संभव, माना सत्य में है सीमित

कितनी ही बार नस्ल-समन्वय, गुणों का बहुत होता है विस्तार॥

 

'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा'-विश्व सत्य-रूप

कहीं कोई मिल गया व बनी सृष्टि, या फिर विधाता का है व्यूह।

मानव समूह कहाँ से कहाँ विस्थापित हैं, भिन्नों से हुआ सम्पर्क

जीव-जंतु स्थान परिवर्तन करते हैं, बहुत तरह का होता मिलन॥

 

कितनी प्राकृतिक-कृत्रिम दुर्घटना- व्याधि करती हैं बहु- हटाव

कितनी ही अकाल-मृत्यु हैं होती, कितने ही असमय गर्भपात?

कितने जन्में शिशु काल-गर्त समा जाते, अण्डें लिए जाते ही खा

फल कच्चे तोड़े जाते, बीज़ न बनता, रुद्ध है अग्रिम संभावना॥

 

यहाँ तो इसके अनेक कारण हैं, नहीं तो और भी परोक्ष प्रभाव

जो भी है क्या वह भाग्य-प्रदत्त या सकारात्मक कारक-समन्वय।

विश्व में अनेक रूप उपलब्ध हैं, क्या वे सफलों का ही जमावड़ा

जो नहीं वे प्रतिभागी न बनें, किंचित क्या वर्तमान ने है पछाड़ा?

 

यहाँ सतत युद्ध है, कुछ पिछड़-बाहर हो गए, नए आए मैदान में

उन्हें सहयोगी परिस्थिति मिली, तभी तो अति-सफ़ल हो निकले।

यह क्या खेल स्वतः ही चालित, या अन्य-संचालित सोचा-समझा

प्रजा का क्या मान लेती ही सिद्धांत, जो विद्वानों ने दिए हैं बता॥

 

सूक्ष्म दृष्टि से ज्ञात है डार्विन का 'सतत प्राकृतिक चयन' सिद्धांत

अब बहु- कारक प्रभाव हैं, जैसे जलवायु-विकिरण-काल-स्थल।

शनै स्वरूप भी बदलते रहते, जीव प्रारंभ से बहु-विकसित भिन्न

 किंतु सब हैं एक निरंतरता के मिश्रण ही, जुड़े आपस में अभिन्न॥

 

मेरा प्रश्न है जो अभी लिख रहा हूँ, अपने से या दैवी प्रेरणा कुछ

परिस्थिति ने ऐसी प्रेरणा दी है, या अन्य कारक बहु-महत्त्वपूर्ण?

क्या अन्य आइंस्टीन शक्य है, यदि न होता अमुक संयोग-जनक

या विलोम कारण होते, अपढ़ रखते, परिवेश निखरण में अक्षम॥

 

क्या कोई अन्य स्थान ले सकता, ब्रूसली की जगह और आ पाता

या उसका दैवी चुनाव, परिस्थितियाँ स्वयमेव करती मिलाप या।

अनेक तरह के मिलन संभव हैं, यह कारक हटा तो आ गया दूजा

हर मसाले का एक विशेष स्वाद है, यह खाने पर ही चलता पता॥

 

इतना बड़ा जीवन रण-स्थल, जीवित प्राणी तो ही हैं सौभाग्यशाली

परिस्थितियाँ भी विचित्र हैं, उसकी परवरिश पूर्णतया बदल जाती।

नृप का लड़का राजा बनता, प्रजा को सिखाए ही सेवक-धर्म पाठ

धनी बहु-माया बटोरें, समृद्धि न सांझी, अन्यों का छीने अधिकार॥

 

निर्धन-लाचार निश्चितेव बाधित, पर उसे बनना होगा मन-साहसी

रुग्ण-अपंग-हतोत्साहितों के प्रति, जग का कर्त्तव्य है सहानुभूति।

जीवन अनमोल है, सब आदर करें, व करें चेतना अति-विकसित

अमर फल है तुम्हारे संग, करो प्रयोग, स्वयं का ही बहु- दायित्व॥



पवन कुमार,
8 अगस्त, 2015 समय 16:31 अपराह्न  
( मेरी डायरी दि० 13.05.2015 समय 8:40 प्रातः से )

Tuesday, 28 July 2015

मेरा सामान

मेरा सामान 


मेरा बहुत कुछ कीमती सामान तुम्हारे पड़ा है निकट

कृपया सूची तो उवाच करो, और रखने का उद्देश्य॥

 

बस थोड़ा सा सामान देकर, तूने इस जगत में भेजा

बहुत कुछ अनिवार्य तो, अपने पास ही रख है लिया

इसमें क्या तेरी मन-मंशा है, क्यों न परिचय कराता?

मेरा अपना कुछ नहीं, जो दत्त है वह भी तो पास तेरे

तू ही जानता कितना महद, अभी मेरी योग्यता में है?

 

देगा किंचित देखकर सामर्थ्य, व प्रगाढ़ मन-आकांक्षा

किंतु अभी तो मात्र खिलौने से ही, जा रहा हूँ बहलाया।

कितना योग्य और ग्राह्य, और कितने हेतु ही हूँ सुपात्र

तूने आँका तो है उचित ही, पर नहीं विदित परिणाम?

 

तू रहस्यमयी, मैं बुद्धि-शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा-अंध

सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, व प्रकाश भी है अदर्शित।

क्या वज़ूद-कैसे हो प्रयोग, नियम तो तूने बताए हैं नहीं

मारा धक्का बिन योग्य किए, यह तो कोई न्याय नहीं॥

 

माना किंचित प्रयास से, किया है स्व को अल्प-शिक्षित

पर महद पूर्ण ज्ञान व अनुभव, मुझसे तो दूर है बहुत।

माना सभी प्रारंभ स्थिति से ही, शुरुआत करते हैं निम्न

तो क्या अमुक का स्तर बढ़ाने का नहीं होता है नियम?

 

योग्य गुरु नज़र न, कोई बताता तो भी समझ अपूर्ण

बस समय बिता लिया, शिष्य को अनाड़ी दिया तज।

शिष्य अज्ञानी-मूढ़, धरा पर बोझ सा, अपने में मस्त

न अधो-स्थिति ज्ञान ही, निज को ढ़ोए जा रहा बस॥

 

कितनी संभावनाऐं ही भरी हैं, तूने इस मानव-शिशु में

कम से कम मुझे उनका, कुछ सुपरिचय तो करा दे।

बहुत दार्शनिकों को मैं विचारता हूँ, पल्ले तो पड़ता न

क्या यह क्रमबद्ध ज्ञानार्जन-पथ है, व सोच-फलीभूत?

 

बहुत प्रबुद्ध तूने भेजे फिर यहाँ, जिन्होंने छाप है छोड़ी

मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकंपा नहीं।

न ज्ञात वह विश्व स्व-संचालित है या तेरी रहमत-प्रेरणा

पर कुछ तो समझते हैं ये काल-चक्र व भूल-भलैया॥

 

माना बहुत विविधताऐं हैं, सबके मनन-मंतव्यों में उन

तथापि तो उन्होंने सुपरिभाषित करने का किया प्रयत्न।

परन्तु वह भी तो नहीं है, एक संपूर्ण ही ब्रह्म का चिंतन

तो भी पार जाने की जगी एक इच्छा, देती है सामर्थ्य॥

 

स्वार्थ-वृत्ति आरूढ़ है, पर कारक हैं भू-लौकिक स्थिति

नर चाहे मनन-स्थिति में हो, नहीं दूर होती है कुप्रवृत्ति।

रत निज हित साधन को, सर्व-विकास को है तिलांजलि

नियम-कानून अनुरूप हैं, शक्ति-सम्पन्न-प्रभावशाली॥

 

कुछ तो मनीषियों का दर्शन ऐसा है, व अनुचर सहयोग

ऐसी जग-व्यवस्था निर्मित है, जो उनके ही हो अनुरूप।

फिर भी हैं बहुत निःस्वार्थी जन, चिंतन सर्वलोक हिताय

समाहित हैं जिनमें, सबको आगे बढ़ाने के निर्मल भाव॥

 

विश्व में दर्शन की बहु-धाराऐं हैं, परिभाषित निज ढ़ंग से

बना दिए अनेक समूह इन्होंने, कड़ी स्पर्धा अनुचरों में।

हरेक मनुष्य उतावला ही है, मनवाने अपने को सर्वश्रेष्ठ

सत्य आचरण तो देखा नहीं है, व्यर्थ अभिमान-ग्रसित॥

 

क्या यह विश्व संचालित, स्व-चलित या कुछ योग्य-युक्ति

कौन से हैं वे नियम, जो इस जग को नियम-कानून देते

फिर कोई चाहता हो या नहीं, सब चराचर वहीं पर बहें।

पर कितने आदर्श- प्रवाहक, सर्व विश्व-व्यवस्था हेतु यत्न

माना पाशित जकड़नों में, शुद्ध जानते भी रहते भीक॥

 

पर स्व-यश व बस प्रभु-समर्थन से, प्रजा को नहीं लाभ

हम ही योग्य-गर्वित व नृप-भूप हैं, प्रयत्न स्व-हित साधन

अन्य क्षुद्र-तथैव ठीक, जबकि प्रकृति-साधन हैं सर्वहित।

यहाँ `अपनी ढ़फ़ली अपना राग', सब मुग्ध हैं अपनी धुन

चाहे मालूम हो या नहीं, वे जीवन धकाने में हैं पूरे व्यस्त॥

 

पर कुछ नर तो बस निज समूह-उन्नति में ही प्रयासरत

उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन।

क्यों मानूँ वह चिंतक-लेखन, जब वह न है सार्वभौमिक

सारे कायदे जब अपने हित ही में, स्तुति है नाम-निज॥

 

क्या उन जैसा बनना चाहता हूँ या उद्देश्य और महत्तर

या मैं बन सकता सर्व-हितकारी, व आम-जन सेवक।

पर कौन ये दार्शनिक-साध्य हैं, क्या कुछ गुणवत्ता भी

या रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति बहुदा ही॥

 

कितने सुयत्न ही करते, इस जग को सुंदरतर घड़ने में

और परिश्रम से समुचित आत्म-ज्ञान को ही बखानते।

न इच्छा फिर श्लाघा की, न ही अनेक शिष्य बनाने की

जिसे उचित लगे साथ हो ले, फिर सूफियाना तो है यही॥

 

किंतु मैं किस श्रेणी का जन्तु, प्रभु जरा परिचय करा दो

निकाल बाह्य बवाल दिखा सब, मेरी साधना पूर्ण करो।

 क्या- कितना है सम्भव, अनुपम जीवन-स्तर व परमार्थ

 तब क्या वह उच्चतम-स्थिति, जिसके ऊपर नहीं पार॥

 

फिर सीखूँ वे पाठ जो हैं, वर्तमान स्थिति से अग्र-समर्थ

अतः उलाहना प्रथम आरंभ से है, इस रचना में इंगित।

मेरा सब सामान व वस्तु-संभावना तो है, तेरे पड़ी पास

फिर यदि मुझमें कुछ छिपा भी तो, इससे मैं अंजान॥

 

अतः तुमसे अनुनय है, कि मेरा वह सामान लौटा ही दो

माना सब कुछ तेरा ही, कुछ प्रयोग चाहता मैं भी तो।

क्या हदें हैं मेरी, मैं भी तो जानूँ, व कितना तू सकता दे

एक बावरा बना रख दिया, यह तो अन्याय संतान से॥

 

विचरूँ यहाँ-वहाँ एक विमूढ़ सम, न कभी ध्यान लगा

करता है कड़ी मदद-प्रतीक्षा, पर तुम्हें समय न मिला।

मेरा अध्ययन कुछ बताता है, परंतु चिंतन तो अलग ही

अधिकांश समझ न आता है, अतः विस्तार सीमित ही॥

 

अति-फैलाव पर मेरा आँचल-लघु व सामंजस्य-अभाव

फिर कैसे विकास हो, इस परम तत्व को दो प्रयास?

समय सीमा है व ऊर्जा परिमाणित, उसपर चेष्टाभाव

कैसे बदलाव हो सार्थक दिशा, इसकी कोई दृष्टि न॥

 

चाहता बढ़ूँ एक चिंतन-मार्ग प्रभु, बुद्धि निर्मल दे बना

न बनने देना बस स्वार्थी, यह जगत और सम बनाना।

कर्त्तव्य-चिंतन व श्रम-आहुति, हर मानव को दक्ष बना

तज सब विरोध, हो सर्व-विकास, श्रेष्ठ सहयोगी बना॥

 

मेरे विवेक भी हो कुछ उपयोग यहाँ, ऐसा शख़्स बना

न रुकूँ पथ में मौला, इस भौतिक तन से आगे है जाना।

तपा दूँ यह तन-मन, बना राहुल सांकृत्यायन सा यात्री

वृतांत इंगित एक महद प्रयास, वह स्तुत्य है निश्चय ही॥

 

 

न बस अनुभव किंतु मृदु-चिंतन, व आलोचना अभय

नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी है, बाँटा विस्तृत-अर्जित।

क्या है उचित चिंतन-प्रेरणा, कुछ निर्भीक हो सकूँगा

होगा प्रयास कुछ में तो, जीवन में महत्तर फूँकने का?

 

माना पूर्व ही समर्थों को, न हो खास आवश्यकता तव

तो भी क्षीण नर बहुतेरे, विकास का ताक रहे हैं मुख॥

  

पवन कुमार,
28 जुलाई, 2015 समय 23:54 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से )

Saturday, 18 July 2015

परस्परता

परस्परता 


विघ्नेश्वर, दुःख-भंजक, कष्ट-हर्ता, दीनदयाला, गुरु, मसीहा

पालक, उत्प्रेरक, अवतार, सहायक, मित्र व संबल-दीना॥

 

कष्ट हमारे नित के अनुभव, दुःख होता जब क्षीण है शक्ति

आकस्मिक कुछ बवाल आ जाता है, अज्ञात कैसे हो मुक्ति?

माना सदैव तो सब पहलूओं हेतु तैयारी नहीं की जा सकती

पर आवश्यकता होने पर, सचेतता-आशा की जा सकती॥

 

समस्या महद है, स्व-बल अल्प, परमुखापेक्षी बन हल ढूँढ़े

विशेषज्ञ बैठे सहायतार्थ, बस सम्पर्क और शुल्क ही सूझे।

सभी कहीं न कहीं बाधित हैं, बहुदा अन्य ही बनते सहाय

बड़ा कारक-निदान, बुद्धि माँगे हैं समय-ऊर्जा व उपाय॥

 

दिन-प्रतिदिन रोधक लेते हैं परीक्षा, झझकोरते कि हो क्या

न अतिश्योक्ति या आत्म-मुग्धता, जग चैन न लेने है देता।

तमाम झँझट ऊर्जा माँगते, बली होना है आवश्यक कदम

एक-२ श्वास शक्ति पर निर्भर है, अतः चेष्टा ही अत्युत्तम॥

 

हम कितने दूजों पर निर्भर, समय आने पर ही ज्ञात होता

हर समस्या का पेंच, निदान उचित दिशा -निर्देश माँगता।

लोगों के पास जाओ, पक्ष बताओ तो किञ्चित बात बनेगी

जग न माने मात्र पैरवी, वहाँ आपकी प्रतिबद्धता दिखेगी॥

 

उलझ जाते, राह न दिखे, चेष्टा खोखली, बली भी बने क्षीण

बन्द द्वार, अंध-कक्ष, भय आक्रान्ता का, जन्म-मरण प्रश्न।

ऐसे में कोई ईश्वर-सहायक को ध्याऐ, इसमें क्या आश्चर्य है

मान लो एक-दूजे की आवश्यकता है, कभी तुम्हें या हमें॥

 

क्या अस्तित्व, स्व-अवलोकन व पर-सहायता आवश्यक

बड़ी शक्ति, निदान कठिन, बस स्व-बल से नहीं सम्भव।

बहुदा नरों से याचना न संभव, या उनके बस में न लगता

क्यों न माँगे बड़े दाता से, जो सब सुने या हम देते सुना॥

 

वह तो हम मूक आत्मा की गूँज, रो लेते हैं कम से कम

उससे जी हल्का हो जाता, होश आने लगता रोष -बाद।

चिंतक-मन संभावना समक्ष लाता, प्रस्तुत हो विमल-यश

बुद्धि सब दिशा हाथ-पैर मारे, समाधानार्थ प्रयास करत॥

 

ईश्वर तो स्व-अबलता प्रतीक न, माना चाहे जब हैं कष्ट में

देखते उस तरफ मुँह उठाकर, क्षीणता को समक्ष रखते।

ज्ञात तो न कितना है समाधान, स्व-चेष्टा ही लाती कुछ रंग

जीवन दाँव पर कुछ करना पड़ेगा, साँस सस्ते में न छूटत॥

 

दिगंबर सब दिशा-त्राटक है, स्व-अनुभूति समस्त से युग्म

न संकुचित वह मात्र स्वार्थों में, वृहत से आत्मसात-संगम।

सब उपाय उपलब्ध हैं निकट, जरूरत जाँचने- साधने की

विश्व तो परमानुभूति में ही व्यस्त, समस्या है तो निदान भी॥

 

'एक बीमारी की दारू दो बतलाई, दो की चार हैं दवाई,

दोनों हाथ पकड़ लिए कसकर, कुछ भी न पार बसाई'

विपत्ति हर जीव पर आती, श्रद्धा से कुछ समाधान-सच्चाई।

राम पर विपत्ति लक्ष्मण मूर्छित है, हनुमान सहाय लाए बूटी

पांडव-दुर्दिन, कृष्ण सुहृद, अर्जुन को गीता त्राणार्थ सुनाई॥

 

हम बन्दें पहचानते शनै, रंग बद होने पर भी करते विश्वास

कुछ असाधु लेते विवशता-लाभ, हम रह जाते लोक-लाज।

जगत विश्वास बल पर चलता, कुछ तो निस्संदेह हैं समझते

 हम अंतः से कितने पवित्र हैं, पैमाना इसका व्यवहार ही है॥

 

सुख में समझते स्व को श्रेष्ठ, किंचित ईश्वर को भी ललकार

माना वह भी एक कल्पना है, समाधान तो सदा आस-पास।

चित्रांकन होता नेत्र खुलने से ही, प्रेरणा लेना दूर-विस्तृत से

दिग्गज विस्मित करते बल से, छोड़ो-निकलो झंझावतों से॥

 

बनो सबल, वाणी- नियंता, संपर्क साधो, कोई काम आएगा

आज उन्हें, कल तुम्हें, सबको ही औकात होनी चाहिए पता।

परस्पर-हितैषी, समय-सहाय, मैं तुम्हें बीज़, वह देती फसल

अपेक्षा-मान, कभी सामना दुर्भावना से, पलायन तो शुभ न॥



पवन कुमार,
18 जुलाई, 2015 सायं 18:19  
(मेरी डायरी 21 मई, 2015 समय 8:44 प्रातः से)


Wednesday, 1 July 2015

शब्द-रचनावली

शब्द-रचनावली 
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एक शब्द पकड़ लो, जीवन भर लो, तब ब्रह्मांड समाना संभव

फिर ज्ञान-चेष्टा तो होनी ही चाहिए, अनुपम तो निकला स्वयं॥

 

एक शब्द दिया, मन्त्र बता दिया, उसमें संभव व्याख्या कर लो

एक नाम सुमर, ध्यान में लो, जीवन की काया- कल्प कर लो।

एक बिंदु दिया, नज़र गड़ाओ, सकल समक्ष ऊर्जा वहाँ समा दो

संपूर्णता भी दिख सकती है वहाँ, यदि ज्ञान-बिंदु इंगित कर लो॥

 

योग, कुंग-फू, टाइको-वेण्डो, मार्शल-आर्ट, सिखाए शक्ति-केंद्र

जब सारा बल एक जगह होगा, निश्चित ही निपीड होगा अधिक।

दबाव से वस्तुऐं हिला करती, बदलती स्वरूप-अंदर तक कंपन

भू-गर्भ की ऊष्मा, लावा बहिर्गम, रूप दिखाता स्व का प्रचण्ड॥

 

बहुत सुसुप्त अवस्था में हो, किसी को क्या पड़ी बल आजमाऐ

तुम कुंभकर्ण- निद्रा शयनित, वहाँ कर्मठ कलाकर्मी कृति रचें।

जिन्होंने सुसंचित किया है आत्म, उनका निखरा मानस सुभीता

यह ऊर्जा-संग्रह एवं उचित प्रयोग, निश्चित ही देता उपयोगिता॥

 

किया मस्तिष्क एकाग्र तो, चिन्तन की सुरमयी लड़ियाँ फूटेंगी

निकलेगा उन पलों से सर्वोत्तम, समस्त जीवन की जो कसौटी।

हमें याद रहते सुघड़ता से बिताए पल, वे ही अपनी जमा-पूँजी

इस विवेक से प्रज्ञा पनपेगी, सुचित्र बनेगा अनुपम, विरल ही॥

 

एक शब्द से पुराण-ग्रंथ लिख दिए, ज्ञानीजन निकाले अनेक अर्थ

सब अपनी तरह से करे हैं परिभाषित, बहु-गूढ़ लिए हुए भावार्थ।

इतना तो उस शब्द-कर्ता ने भी न सोचा था, महद बनेंगे अध्याय

मेलकॉम ग्लैडवेल की 'द टिप्पिंग प्वायंट' सा, जब चीजें होती हैं वायरल॥

 

ईश्वर-ब्रह्म, अल्लाह-जीसस, बुद्ध-नानक-कबीर सब विचारोत्पत्ति

आज सबको ज्ञात, सर्व-प्रचलित हैं, वे अंग बन गए हमारी जिंदगी।

ये मंदिर-मस्जिद, किले विद्यालय, भवन-संसद, बस सोच की देन

वह न होता तो ये भी न होते, हो सकता बदले में कुछ अन्य लेन॥

 

जितने अविष्कार-अन्वेषण हुऐं, सबका आदि एक अल्प विचार

जुड़ाव होता गया मस्तिष्क-बिंदुओं का, प्रगति हुई पूर्ण आदाय।

कहाँ से बनते सब महाकाव्य-ग्रन्थ, आकाश- पाताल छेदन यन्त्र

कौन समर्थ उन्हें व्यापक सोच पाता, बढ़ाता है प्रयास अनवरत?

 

कैसे ये विचार सार्वजनिक हो जाते हैं, व चलते दीर्घ-समय तक

कैसे नव-तकनीक आती रहती हैं, व सदा बदलती रहें पुरातन?

कैसे सूक्ष्म रूप बरमट-बीज़, बन जाता है विशालकाय वट-वृक्ष

कितनी प्रक्रिया- सामग्री विकास हेतु, महत्त्वपूर्ण है आत्म पक्ष॥

 

ये कौन चमत्कारी बदलाव के, जो किंचित प्राकृतिक से पृथक

विचार-मंथन से नर समृद्ध हुआ, उसने ही प्रयोग किए हैं सब।

माना प्रकृति में जीव-जन्तु, वनस्पति, निर्जीव सब ही हैं सक्रिय

वे भी कारक जगत-स्वरूप बदलाव में, और भूमिका है महद॥

 

हम जानते मानवेतर जीव-जगत को भी, प्रकृति-प्रदत्त मस्तिष्क

वे करते प्रयोग स्व-योग्यता अनुरूप, सब भाँति क्रियाऐं उपलब्ध।

जंगल जाओ, देखो जीव-जंतु समन्वय, भोजन-श्रृंखला हेतु संघर्ष

आपसी क्रीड़ा-दुलार-परिवार बनाते हैं, दूजों से एक खास संबंध॥

 

औजार-यंत्र, बिल-गुफ़ा-खोखर, कोटर-नीड़ निर्माण है समझदारी

तुम्हें  कोई जीव तुच्छ न लगेगा, यदि उसकी पूर्ण क्रिया निहार ली।

एक वृक्ष का भोजन- तंत्र समझने में ही, पूर्ण जीवन बीत है सकता

नर स्व-देह तंत्र तो पूर्ण समझ न पाया, खुद को है धीमान कहता॥

 

प्रकृति में निर्जीव भी जो अचर दिखता, इतना तो निश्चल न होता

समस्त प्रक्रिया उस पर चलती रहती, सूक्ष्म रूप से बदले सदा।

नर समझता अजीव है, पर उनके अंतः-बहिः कितने जीव पनपते

समझो- देखो नृत्य पर्वत-नदी, मेघ-भूमि, वायुमंडल व भूगर्भ के॥

 

कथित १०००० वर्ष मानव-सभ्यता युग, पूर्व भी जगत रहा था चल

बहु बड़े जीव-वनस्पति, जलवायु, गुजरें काल-धरा के वक्ष-स्थल।

सर्वदा युक्ति-बुद्धि का खेल धरा पर, इसके जन्म-काल से चलन

नर जुड़ा अति पश्चात सब तंत्र में, प्रकृति से किए हैं प्रयोग पृथक॥

 

क्या कहें वर्तमान-स्वरूप को, स्वतः या विशेष कारक-प्रयोग

अगर वे तब भिन्न होते, तो क्या जुदा होता वर्तमान ही स्वरूप?

क्या कारक बनने-बनाने की प्रक्रिया विचारित, या स्व-चालित

क्या अन्य संभावना थी भिन्नता की, व फिर कैसा होता प्रारूप?

 

नर ने कुछ बुद्धि-युक्ति लगाकर, निज संख्या तो वृद्धि कर ली

सर्व प्राकृत-संसाधन अधिकृत, मानो और कोई न सुत-पृथ्वी।

सागर-पहाड़, सरिता-ताल, अरण्य-बीहड़ हटाने का है प्रयत्न

अनेकानेक बदलाव भू पर मौलिक स्वरूप से, इस दौर मध्य॥

 

प्राकृतिक परिवेश- शैली त्याग, किंचित नूतन समृद्धि कर ली

नर लुब्ध-प्रवृत्ति अति- मारक, अन्य-जीवन का प्रगमन सोची।

माना मुख से न भी कहता है, पर क्या वर्तमान परिवर्तन-दिशा

मैं प्रज्ञ-सबल-समृद्ध- कालजयी, जैसे चाहूँ-करूँ, मूढ़-धृष्टता॥

 

कुछ औजार, अस्त्र-शस्त्र पकड़ें, चढ़ बैठा माँ को करने रंजित

यदि माता अपढ़ व पुत्र शिक्षित, तो भी क्या बर्ताव सर्व-सम्मत।

हम नितांत कृतघ्न, जीव-विरोधी, खाऐं-गुर्राऐं व करें महा-विनाश

न कुछ सत्य ज्ञान सृष्टि-जनक का, फिर कुबुद्धि से जन्मे संताप॥

 

मानना तो पड़ेगा कि मानव चतुर, समस्त चेष्टा में स्वार्थ-पूरित

खेत, घर-ऑफिस, सड़क-फैक्ट्री बनाऐं, सबका छीना है हक़।

अब भी प्रयास है पूर्ण शेष-अतिक्रमण, विकास तरह से अपनी

तरु-पादप, जीव-जंतु विलुप्त नित, पर किसे चिंता है इनकी?

 

यदि यह न तो वह भी न होता, उसके बदले में कुछ और होता

पर इतना अवश्य वर्तमान तब आज जैसा बिल्कुल भी न होता।

यदि मनुष्य बुद्धि निर्मल कर ले, अनेक जीवों का निर्वाह संभव

उसके शिक्षित-समृद्ध होने का आशय, अन्यों का न है पराभव॥

 

आरंभिक मनन 'एक शब्द' से शुरू था, जो एक विचारोत्पत्ति

उसकी जगह कुछ और विषय होता, अद्य-बोध होता अन्य ही।

क्या संभावना थी जो आज लिखा है, फिर कभी फलीभूत होता

ऐसे ही कितने प्रयोग संभव, नर सोचता कुछ था कर सकता॥

 

मम प्रस्तुत भी कुछ विशेष पल-एकत्रण, लेखनी माध्यम-इंगित

सब विद्वद्जन निज को अपूर्ण कहते, ज्ञात है न पूर्ण-विकसित।

काल-रूप कैसे उजागर ही करेगा, कुछ भी कहा न जा सकता

पर किंचित हमारा न्यूनतम मनन-प्रयास, भरता एक संभावना॥

 

यह शब्द-मनन क्यों कैसे जन्मता, सत्य या मात्र मन-कल्पना

जितने डूबें, उतने ही उलझें, कोई प्रहेलिका- निदान न मिला।

क्या अंकुर भू-क्षिप्त करते समय, वृक्ष की है स्व-रूप कामना

या फल-संतति नैसर्गिक प्रक्रिया, किसका क्या होगा- न पता॥

 

जीव का धरा-आगमन व सुचारू जीवन, है अति- संघर्ष विषय

उस अमुक जीव से क्या-२ उपजेगा, और भी जटिल है जिरह।

अन्यों की क्या कहें आत्म अंतः भी, बुद्धि सक्षम है विविध रंग

फिर अंदर-बाहर सब एक से, पर संभावनाएँ निश्चित ही अनंत॥

 

हम भी हैं एक शब्द के स्वर-व्यंजन-अनुस्वार, विसर्ग-उपसर्ग

कितनी शक्यता महद रचने की, ज्ञान असाध्य न तो ही दुर्लभ।

विश्रुत इस मनन-यज्ञ में आहूति, चेष्टा उत्कृष्ट निर्माण हेतु करें

प्राण-गति निज प्रकार से, कुछ हटकर समझने का प्रयत्न करें॥

 

एक शब्द नहीं है तोता-रट्टा, अपितु संवाद महद व सदा संग

ज्ञान ज्योति और प्रखर हो जाती, चीर डालती अन्तःकक्ष तम।

गुरु मंत्र तो कुछ भी नहीं है पर, मनन युक्ति बढ़ाए संभावना

जब तक न बैठो अमृत न निर्गम, सब मिश्रित सा है अन्यथा॥

 

चाह नहीं किसी विशेष शब्द की, पर हों प्रयोग विवेक से सब

जितना भी मनन-लेखन जीवन में संभव, हों सब चेष्टा एकत्र॥



पवन कुमार,
1 जुलाई, 2015 समय 18:56 सायं
(मेरी डायरी दि० 12 अप्रैल, 2015 समय 12:58 अपराह्न से)