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Thursday, 16 April 2020

कवि-उदय

कवि-उदय 
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कैसे नर-उपजित कलाकार-कवि रूप में, प्रायः तो सामान्य ही 
देव-दानव वही, एक स्वीकार दूजे से भीत हो कोशिश दूरी की। 

यह क्या है जो अंतः पिंजर-पाशित, छटपटाता मुक्ति हेतु सतत 
मुक्ति स्व-घोषित सीमाऐं लाँघन से, कितनी दूर तक दृष्टि संभव? 
दूरियों से डरे, किनारे खड़े रहें, लोग आगे बढ़ते गए व दूर-गमन
आत्मसात की प्रबल आकांक्षा, मन को प्राप्ति हेतु करना तत्पर। 

एक महा-स्वोन्नति लक्ष्य, भौतिक-आध्यत्मिक एवं निज-व्याख्या 
उदधि-पार द्वीप-वृक्षों का दर्शन, पतवार चढ़ चक्कर लगा आना। 
वहाँ  स्थित वे प्रतीक्षा कर रहें, उठो तो प्रकृति-संसाधन दर्शनार्थ 
विपुल-साम्राज्य तव हेतु ही, घुमक्कड़ी-बेड़ा तैयार कर लो बस। 

कुलबुलाहट-क्षोभित, क्या व्यथा-कारण सुलगते अग्नि बनने हेतु 
अति ऊष्मा-ईंधन आवश्यकता, ज्वाला बन भी क्या लक्ष्य होगा? 
क्या महज स्व-हित ही चाहते, या पूर्ण-विश्व को भी दिखाना दिप्त 
त्रस्त-तमोमयी आत्मा बस जी रहीं, व्यर्थ प्रपंच फँस प्राण-व्यर्थ। 

पर प्रथम कर्त्तव्य तो स्व-त्राण, व्यवधानों से न हुआ व्यक्त निर्मल
जब दीप्त-कक्ष के कपाट बंद हों , कौन कुञ्जी  दिलाएगी प्रवेश?
अति-सूक्ष्म  द्रष्टा तो न हूँ माना, पर प्रयास कि हो एक कवि-जन्म 
बाल्मीकि तो क्रोञ्च-विरह अनुभूति से ही, निर्मल श्लोक उद्गीरत। 

कैसे व्यास सम नर, कहाँ छुपा अपरिमित ज्ञान व सामर्थ्य-कथन  
किस परिवेश-सान्निध्य से गणेश-गुहा प्रवेश, बैठ लिखे जाते ग्रंथ?  
जो सहायक पूर्णतार्थ, ललकारते भी, मूलतः निज ही अभिव्यक्ति 
बाह्य-निनाद  परे एकांत कारक-सामंजस्य, कामायनी सम कृति। 

विशेष प्रेरणा संग विटप प्रति आवश्यक, अंकुर-निर्माण तभी संभव 
प्रक्रिया उपनयनित शिक्षार्थ, कालोपरांत प्रबुद्ध भाव भी हो उत्पन्न।  
कुछ नित चयन-प्रक्रिया त्याज्य-त्याग, ग्रहणीयों के लब्धार्थ  प्रयास 
गुण-संकलित तो अभूतपूर्व ऊर्जा उदय, अनेक संग हित -सक्षम। 

जीवन प्राप्त भाग्य से ही, कुछ पदार्थ संग्रह करो मननार्थ चित्त-दान 
पर कितना प्रयुक्त सत्य-सार्थक, या व्यर्थ-अनर्गल ही गल्प-प्रलाप। 
विद्वद-उक्ति अथाह संभावना पुण्य-कृत्यों हेतु व सर्व-लोक कल्याण 
प्रवीणता इस अदने शख्स में भी, पर आवश्यक है अन्वेषण-उपाय। 

संसाधन यदि संयोजित, निपुण रचनात्मकता स्वतः ही अग्रचरणित 
ज्ञानी तो नित-अतंद्रित, विदित जीवन ही व्यापकता हेतु समर्पित। 
निर्मल-चित्त, विश्व-व्यापी, सबके प्रति न्याय-प्रेम व भाव प्रगति-पथ 
समय व्यर्थ एक मरण सी स्थिति, स्व को ललकारना लगता उत्तम। 

एक कवि आत्म-क्रांत दर्शन में समर्थ, सर्व-सौंदर्य मुखरण-त्वरित 
निष्पक्ष विश्व-दर्शन में सक्षम, अत्याचारों-कष्टों प्रति दयालु-नरम। 
एक उज्ज्वल सदा मन-देह में, विवेकी नीर-क्षीर भेदन में है सक्षम 
सरस्वती वाणी-निवासित, न्यून सम न नकार, अति अंतः-समृद्ध। 
  
इस चित्त-बुद्धि में सर्वस्व समा सकता, वृहद-वक्ष किधर से उत्पन्न 
अनेक विश्व-रहस्य विदित, गुह्य-जटिल तथ्य सुलभ हो होते समक्ष। 
वह है श्रेष्ठ नियम-धर्ता, पालन-कर्ता, करुणा-दृष्टि में सब एक सम 
पर बाह्य विश्व में कई भाट भी, जिनकी कवि-कृति मात्र निर्वाहार्थ। 

रचनात्मकता है आयामों में मनन-सामर्थ्य, निज ही से कुछ रचना 
 जब कृति विश्व-धरोहर तो कह सकोगे, मैं भी कुछ भागी-विपुलता। 
निज तो न कुछ सब प्रकृति-पूंजी, मात्र उपयोग करना सीख लिया 
तन-मन-धन सब उसी का उपहार, विजयी-गर्वशून्यता ही थाती। 

वह कवि तो अति-महान चरित्र घड़ लेता, अनेक गुणों का समावेश 
एक कथानक बुनने में समर्थ, कुछ प्रेरणा-मनन सदैव रहती साथ। 
निज-विस्मृति समर्थ चाहे कुछ काल ही, मात्र प्रयोजनों में ही लुप्त 
विद्या-निवासिनी संग, हर शब्द परीक्षित, वाक्यांशों पर और बल। 

मन-कवि कहाँ बसता, न निकसित, इस कलम का ही सत्य-संघर्ष 
उत्तम रचनार्थ तो सदा प्रयासी, पर कब संभव विधि को ही विदित? 
अवश्यमेव संकीर्णता-मुक्ति, क्रांतदर्शी मन करे शुरू बहुल दर्शन 
       निर्मल भाव अंततः होगा पर तावत प्रतीक्षा, जैसा संभव रहो चलित।       

कोई साहित्य-प्रशिक्षण तो न, स्व से ही कुछ ली शब्द-संकलन शिक्षा 
निस्संदेह कालि-व्यास-सूर-कबीर-शैक्सपीयर-प्रसाद सी तो न गूढ़ता। 
पर किञ्चित यह कुछ जीव उदितमान, अल्पाधिक निर्मल देगा ही रच 
सतत-अभ्यास इसकी भी सीढ़ी, कला-पारंगतता असीम धैर्य का नाम। 

माना आम मनुज न गूढ़ साहित्य-रसिक, पर दूरात तो स्तुति कर देता 
पर सत्य-कवि न यशाकांक्षी, वह स्व-विकार ही मर्दन करना चाहता। 
दूरगामी दृष्टि से नक्षत्रों के पार चरम ब्रह्माण्ड-छोर तक गंतुम-समर्थ 
एक अति-विशालता से सतत परिचय, प्रत्येक अंश से लगाव महद। 

एक आह सी मुख से निकलती, उत्तम न ज्ञात कैसे हो दुर्गम पथ पार 
संपूर्ण शक्ति इसी पर, सदा व्यक्त रहें निर्मल-सर्वकल्याणक उद्गार। 
कुछ परिवेश-स्वच्छता जिम्मा भी लेता, हर क्षण का प्रयोग समुचित 
सर्व दंभ निर्मूलित, साहसी भी कि सत्य-कथन में न तनिक झिझक। 

जिस दिवस हो यह अंतर्भय अंत, सर्व-मानवता हेतु उपजेगा करुण 
एक  कालखंड वासी को अमरत्व, पर न अतिश्योक्ति-आत्ममुग्ध। 
ऐसा साहित्य विश्व निजता-गर्व कर सके, क्या इस लेखनी से संभव 
संवेदनशील, समय-परीक्षा से परे, गागर में सागर समाना साहस। 

कुछ  निर्मल-हृदय योग हो इस वृहद अभियान में, कुछ हो सहायता 
प्रशंसा तो आ ही जाती, पर कोई उर से कृति स्वीकारे तो आए मज़ा। 
कुछ विवेचना हो, दोष भी निकाले जाऐं, ताकि व्यक्तित्व हो परिपक्व 
एक कवि-दार्शनिक  भाव मन में आए, तो जग-आगमन हो सार्थक। 

अद्य-प्रयास  स्वयं से परिचित होना, जिससे कुछ कवित्व हो प्रदर्शित 
  मम लेखन यदि  विस्तृत बन सके, मृदुल-भाव रचना हो  पाए रचित।  


पवन कुमार,
१६ अप्रैल, २०२० वीरवार, समय  ६:०१ बजे सुप्रभात 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० १७ मई, २०१९, शुक्रवार, समय ७:५५ बजे प्रातः से)   


  

Tuesday, 7 April 2020

तरंग-उत्पत्ति

तरंग-उत्पत्ति
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इस वृहद जग-सागर में मेरी भी एक लहर, क्या परिणति होगी देखें  
हर ऊर्मि को वापस लौटना ही होता, लीन-विलीन प्रशांत उदधि में।  

क्या है यह तरंग-अभिलाषा, कुछ तो अति-सुंदर दृश्य प्रस्तुत  करती 
कुछ अति-विध्वंशकारी, अन्य निज जैसों से मिल जन-हानि कर देती। 
सबका निज ऊर्जा-स्वभाव है, पर सागर की है किंचित न्यून-प्रक्रिया  
सब उसकी अंतः-ऊर्जा का ही रूप, अंततः उसी में समाना परिणति। 

मेरी क्यूँ उत्पत्ति है कैसा रूप, चेतना भी या एक वृहद प्रक्रिया का अंश 
ऐसी क्या आवश्यकता थी जग को मेरी, अनेकानेक तो पूर्वेव थे स्थित? 
फिर कौन द्योतक था निर्माण में, कलपुर्जों, माँस-मज्जों से बनाया किन  
क्या माता-पिता ही कर्ता थे, या वे भी किसी महद लक्ष्य हेतु थे मध्यस्थ? 

मम हेतु अभिभावक अति-महत्त्वपूर्ण, जग विचारे सामान्य जीव ही पर  
उनका जीवन भी साधारण सा, संतान-उत्पत्ति था एक सामान्य कर्त्तव्य। 
पर मैं उनसे ही क्यूँ हूँ, माना सहोदर भी, यदि वे न जन्मते तो क्या होता 
या जन्म और द्वारा भी संभव था, अगर हाँ भी तो कैसा परिवेश मिलता? 

तो कौन सत्य माता-पितु या थे मात्र जन्म-वाहक, अब दिवंगत भी हुए 
क्या कोई उद्देश्य इस उत्पत्ति का, या मात्र समय पूरा कर जाना चले? 
क्या मेरी कोई व्यक्तिगत पहचान भी, या मात्र इसी जन्म का रेला-पेला 
भिन्न दर्शन निज ढंग से अलापते, खुद से ही समझ गुह्य से पार आना। 

ईश्वर-परमात्मा शब्द वृहद अर्थपूर्ण, कई मनीषियों का विचार-दर्शन 
माना 'आत्मा' कल्पना मानव-कृत ही, तथापि हुआ है गहन अध्ययन। 
कोई आवश्यक न हम सदैव उचित हों, तथापि कयास तो लगा सकते 
स्व को परम-ज्ञाता मानना भी उद्देश्य न, पर एक ज्ञान-पथ ध्यान भी। 

इतना तो अवश्य  सब निज में ही  विचरते, जीना तो होता इसी में 
चाहे जीवन से संतुष्ट हों या असंतुष्ट, हम अपने शत्रु-मित्र भी होते। 
अपने पर कई बार कर्कश रहते, कुछ आत्म-हत्या तक भी लेते कर
असंतुष्टि चलते खुद को मारा, इसी स्वयं पर आज का विचार गठन। 

सुभग को एक कार्य-क्षेत्र मिला है, व्यक्तिगत प्रतिभा भी दिखा सकते 
माना सफलता अन्य-सहयोग से ही, पर वे भी तव अभिव्यक्ति देखते। 
यह देह-भाषा भी एक विचित्र आयाम, लोग यथारूप प्रभावित हैं होते 
मेरी भी निश्चित परिधि, इसी में उलझ निज व अन्यों को जोड़े रखते।  

कुछ पेंच तो अवश्य है इस जीवन में, तभी तो चेतना-निरंतरता दर्शन 
माना सदा भूलते भी, जन्म-पूर्व व ४-५ वर्ष वय तक न विशेष स्मरण। 
पर इसका अर्थ यह न जो याद न है घटित ही न, ये दोनों पृथक विषय 
सबकी तो न एक सम स्मृति होती, पर जीवन फिर भी चलता है रहता। 

यदि कीट-सरीसृप-मत्स्यों को छोड़ दें, जीवों में संतति-वात्सल्य स्वतः ही 
स्तनधारी व कुछ पक्षी तो अति धीमान, वैसे सबमें होती कुछ सम-प्रवृति। 
क्या हैं ये प्राण व कर्म-बल, स्थूल दर्शन से तो जन्म-मरण मध्य ही अवधि 
कई पूर्व-जन्म सिद्धांत विश्व-प्रतिपादित, पर समझना किंचित कठिन ही। 

आओ कुछ स्व को ही समझ लें, तो संभवतया सर्व विश्व-प्रक्रिया भी ज्ञान 
इस देह में जन्म से अब तक, एक सतत चेतना संग ही रहें है आवासित।  
माना है एक निश्चित आकार-रूप में, पर एक परिस्थिति विशेष से युजित 
लेकिन मान तो चेतना-संगति से ही होता, देह भी तभी रहती सम्मानित। 

कौन प्रधान देह या यह चेतना /आत्मा, एक दूजे बिन तो दोनों निरर्थक 
मृत्यु पर देह स्वतः विनष्ट होकर, पंचतत्व में हो जाती पूर्णतया विलीन। 
कथन-मनन सक्षम चेतन अब लुप्त, संपर्क न संभव चाहे हों जितने यत्न 
प्राण-बात थी दोनों के समन्वय से ही, एक उड़ा तो दूजा हुआ निस्तेज।   

फिर देह मृत हुई चेतना न रही,  जीवन होने से ही तो कहलाता जीव 
फिर स्व-अधिकार न रहता,  अशक्त अन्यों द्वारा किए जाते विसर्ग। 
फिर 'स्व' भी कहाँ गया नितांत  अज्ञात, माना भिन्न धारणाऐं प्रचलित 
फिर ज्ञान तो मरे बाद ही होगा या न भी, विज्ञान भी इस बारे में चुप। 

आत्मा कुछ मस्तिष्क-प्रक्रिया ही, सोच-समझ-आदेश ले-दे सकती 
यह भी देह का एक अवयव ही, ऊर्जा हटी तो यह भी निष्प्राण हुई।
देह के ऊर्जा-स्वास्थ्य से ही तो, यह मस्तिष्क भी सक्रिय-विज्ञ रहता 
जब समुचित भोजन-पोषण न,  आत्मा क्षीण हो दुर्बल-भाव करती। 

फिर यात्रा जन्म से मरण अवधि ही, यह तो कोई अधिक बात हुई न 
  जब सब सिलसिला यहीं निबट जाना, एक श्रेष्ठ जिंदगी जी लें क्यूँ न। 
देह-मन संगम निर्माण एक पवित्र कर्त्तव्य, विकास परियोजना विपुल 
यह जीवन ही मंदिर-शिवालय, प्रतिष्ठा-स्थापन भी  जिम्मेवारी निज। 

यह तो कुछ ऐसा कुछ ही घंटे मिलें, और अनेक काम किए जाने हैं 
विश्राम की तो न कोई बात, गाड़ी छूटने जा रही तुम शीघ्र चलना। 
पर यह शेष क्या है जो इतने उतावले, जग तो तुम बिन भी चले था 
जब सब निज भाँति कर रहें हैं, तो तुम भी संजीदा हो जग देख लो। 

जब सब कूक रहें तुम क्यूँ न, रंग-ऊर्जा व प्रतिभा विसरण होने दो 
जग में अनेक परीक्षण-प्रयोग  सतत, कुछ उतावले तुम भी हो लो।


पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०२०, बुधवार, समय १०:११ बजे प्रातः  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २९ जून, २०१७ समय ८:३७ प्रातः से)

Sunday, 29 March 2020

अंकुश

अंकुश
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'अंकुश' शब्द अभी मन में आया, सोचा कि इस पर हो कुछ मनन 
जिंदगी में बहु-विक्षोभ, रोध जरूरी, मनुज उन्नति हेतु हो संयमित। 

अनुशिष्ट, संयम, अंकुश, पूर्वापाय, प्रशिक्षण, डाँट-फटकार, साधना
ये शब्द पर्यायवाची से, प्रयोग हर  दिन, पर सत्य परिवर्तन ही सार। 
मन में हैं अनेक तरंगें उठती, पर  बह जाना समझदार कदम क्या 
जीवनोत्थान चेतना-साधन से ही, स्वरूप सँवरे, सर्व - प्राथमिकता। 

 'अंकुश' शब्द आशय को थोड़ी गहराई से समझने का चलें करें यत्न 
यदि बच्चे कुपथ पर अग्रसर तो समझा-बुझा, डाँटकर लाए मार्ग पर। 
शिक्षक कर्त्तव्य शिष्य का विद्या-ग्राहीकरण, मन-देह समर्पित ज्ञान में 
कार्यालयाधीश कर्त्तव्य ऑफिस ठीक नियमानुसार-गुणवत्ता से चले। 

शासन-पुलिस कर्त्तव्य प्रजा को शांतिपूर्ण-उन्नत प्राण हेतु देना परिवेश 
यदि उपद्रवी सामंजस्यता भंग करें, रोध कभी दंड-प्रयोग भी उचित। 
पर क्या सर्वोत्तम युक्ति सुशासन की, सर्वलोक की हो गरिमा सुरक्षित 
समता भाव, बृहत-दृष्टिकोण, जग-सूक्ष्मताऐं समझ हो व्यवहार-शील। 

एक सीमा बंधन ही है है अंकुश, मर्यादा पालन  अपना क्षेत्र बताए 
स्व-विचार परीक्षण भी आवश्यक, जरूरी न  लोग सर्व स्वीकारेंगे। 
नर भिन्न कुल-समाज-स्थलों में सदैव, सुविधा  से संविधान निर्माण 
नियम-भिन्नता स्वतः ही, कुछ सक्षम भी हैं समेकित-दर्शन सक्षम। 

एक की अनुचित प्रवृत्ति, पर दंड या कुल-प्रतिष्ठा बढ़ने से करें रुद्ध 
लोगों को माँ-बाप याद, अपमानजनक स्थिति पैदा न हो करते यत्न। 
 अपने घर में भी तो बहन-बेटी हैं, सबके आदर से अपना बना रहेगा 
परस्पर सम्मान, पड़ोसी से संयमित रिश्ता, कई कष्टों से है बचाता। 

अंकुश-अनुशासन का अर्थ न कोई बलात, अपितु मन से सुप्रतिबद्ध 
आदि-प्रशिक्षण चाहे ही कष्टमय, फिर शनै सामान्य होने लगता सब। 
विवाह-पूर्व अत्युद्दंड युवा भी पाणिग्रहण पाश बाद जिम्मेवार हो लिए 
उम्र संग लोग गंभीर हो जाते, जीवन व्यर्थ ही न  बीतने देना चाहिए। 

मनीषी तो सदा हुए, होते रहेंगे, आदर्श  जीवन-संहिता करें प्रस्तुत 
चाहे हों अनेक विसंगतियाँ, पर लोकमत  कि प्रयोग से तो ही सुख। 
कुछ न्यूनतम निर्मल भाव तो विश्वव्यापी,  माना परिवर्तन भी शाश्वत 
पर लोग प्रचलित रूढ़ि-पाशित, उन्हीं में  जीवन के करते हैं प्रयोग। 

यदि एक उदरपिशाच हो स्थूलकायी बना, ऊपर से व्यायाम न कुछ 
परिणाम सर्व-विदित रुग्णता ही, कई नकारात्मक प्रभाव देंगे कष्ट। 
यदि कुछ अंकुश है उचित जीवनशैली का, निश्चित ही सुभीता भव 
 न्यूनतम समन्वय वाँछित सु निर्वाहार्थ, कंटक हैं पसरे, चलो संभल।  

मौन-व्रत कि मुख से न अनर्गल, श्रवण सीखूँ, ज्ञात हो मूकों का भी दर्द
मुस्लिम लोग एक मास रोजा रखते, गरीबों की भूख की आती समझ। 
दरिद्र-नारायण एक वृहद आयाम, असहाय - सहायक को कहते ईश्वर 
स्वार्थ त्याग अनेक हितकार्य में व्यस्त-समर्पित, मन को मिलता शुकून। 

शहर में दंगा, प्रशासन ने समय से रोक दिया, बहु-जानमाल हानि से रक्षा 
यदि उत्तम संस्कारित तो अधिक जिम्मेवार, सर्वहित में निज भी दर्शना। 
कोई इस जग से विलग  नितांत भी न, सब  सुखी तो मुझे स्वतः ही लाभ 
निजी स्वार्थों से ऊपर उठो, सबकी पीड़ा कम हो ऐसा करो सब प्रयास। 

लोक-समाज-सभ्यता-देशों पर  अंकुश, सीमा में रहो वरन हानि अधिक 
  मनुज न पूर्ण स्वछंद-स्वतंत्र, कुचक्रों से सर्व-विनाश सोच सकता किंचित। 
पर ज्ञान कि मारा जाऊँगा, सचेत कि अधिक बुरा न हो, लोग लेंगे पकड़ 
परस्पर सहन बड़ी बात, एक-दूजे से गुँथे, समर्पण से हो व्यवहार उत्तम। 

अनुशासित हो नर व्याधियों से बचा रहता, पुरस्कार में  लोक-सम्मान 
स्व का वृहद-चिंतन पथ ज्ञान, स्वशासन काष्टाओं को देता अग्रचरण। 
जीवन में अनेक कष्ट हैं आते, पर व्रत-परहेज से बीमारियाँ रहती  दूर 
योग भी एक शैली, संपर्क-दृष्टि-यापन-दर्शन-व्यवहार सिद्धांत - बुद्ध। 

जीवन में निर्मल-स्पंदन चाहिए, उन्नति हेतु व्यर्थ-व्यवधानों से बचना 
  सीमित ऊर्जा सुप्रयोग, उत्तम नियम वरण, अन्य-अंकुश न हो वर्जना। 


पवन कुमार,
२९ मार्च, २०२० शनिवार, समय ७:३१ बजे सांय 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १० अप्रैल, २०१८ समय ८:२४ बजे प्रातः)     
   
   

Sunday, 15 March 2020

नर-प्रगति

नर-प्रगति 
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कर्मठों को व्याज न जँचते, स्वानुरूप काम की वस्तु कर ही लेते अन्वेषण 
प्रखर-ऋतु से भी न अति प्रभावित, कुछ उपाय ढूँढ़ लेते, निरंतरता न भंग। 

बाह्य-दृश्य अति-प्रिय, चहुँ ओर घने श्वेत कुहरे की चादर से नभ-भू आवरित  
स्पष्ट दृष्टि तो कुछ दूर तक ही, तथापि प्रकृति-सौंदर्य मन किए जाता मुदित। 
घोर सर्द, तन ढाँपन जरूरी रक्षार्थ, पर अनेकों का अल्प-साधनों में ही यापन 
निर्धन-यतीम बेघरों का भीषण सर्द में आग जला या कुछ चीथड़ों में ही गुजर।

चलो कुछ मंथन कि दृश्यमान विश्व में संसाधन-अल्पता बाह्य या मात्र कृत्रिम 
धनी की अलमारी-बेड गरम वस्त्रों से पूरित, कईयों का तो न आता भी क्रम। 
स्वामिनी भूली कि वो स्वेटर या कोट-पेण्ट कहाँ  रखा, चलो अब पहनो दूजा 
पहनने वालों के भी नखरे उत्तम न जँचे, दीन बस बोरी लपेट  गुजर करता। 

खाने का अभाव देखा जाता, लोग कहते कि खाने हेतु ही तो नौकरी करते 
अन्न-दाल-शक़्कर-घी के भंडार भरे, रसना-अतृप्ति से उदरपिशाच बनते। 
कब्ज-डकार-सिरदर्द-स्थूलता, कृश-टाँगें, हृदयरोग, मधुमेह व्याधियाँ हैं घेरें
मनुज सोचे ऐसा क्यूँ, आदतें तो अनियंत्रित, दुःख ही भोगना पड़ेगा बाद में। 

माना प्रकृति में क्षेत्र-विविधता चलते, कुछ स्थलों पर है अधिक संपन्नता दर्शित
कुछ रेगिस्तान, शीत-पहाड़ी क्षेत्र, पठार, सघन-वन क्षेत्रों में जनसंख्या अल्प।  
एक न्यूनतम समन्वय तो चाहिए  जिससे मानव-जीवन सुघड़ता से गुजर सके 
 माना निद्रा-तंद्रा आत्मिक-आर्थिक उन्नति-बाधक, तथापि सब प्राण-साधन चाहें। 

धनिकों पास कई-२ निवास, खेत-फैक्टरी, ऑफिस-व्यवसायिक केंद्र नाम निज  
खरबों की संपत्ति, कई जायदाद अज्ञात, कोई रहते खेती-बाड़ी से रहा गुजर कर। 
किसी भी वस्तु की कोई कमी ही न पर फिर भी धन-लोलुपता से अंतः को तपन 
निज व्यवहार तो कभी न जाँचा, अनेक निरीह हो जाते एक ही मोटे के पालनार्थ। 

माना समय-चक्र नित, निर्धन भी कल संपन्न बन सकता, धनी भी हो जाता कंगाल 
तथापि वर्तमान दमन-चक्र पर हो कुछ अंकुश, सबकी मूलभूत जरूरतें हों पूर्ण। 
दुर्गति निर्मूलनार्थ जीव को हाथ-पैर मारने पड़ते, पर खड़े होने की सामर्थ्य भी हो
माँ को बच्चा पाल-पोस बड़ा करना होता, सामाजिक काम का बनता योग्य हो। 

यह तो न कि सब आबादी एक सघन क्षेत्र ही आवासित हो, हर स्थल की विशिष्टता 
लोगों ने श्रम-पसीने से भीषण वन काट खेत बनाए, दुर्गम पर्वत चीरकर पथ बना। 
नदी से नहर खींचकर मरुभूमि में हर घर जल पहुँचाया, दूर स्थल विद्युत् पहुँची  
समुद्री खारा जल अलवणीकृत होकर पेय-योग्य बना, असंख्य नरों की तृषा बुझी। 

पूर्व में संसाधन अत्यल्प थे, अभी निकट कृषि से प्रचुर मात्रा में पैदा अन्न-कपास
अनेक उदर क्षुधा-शमित हुए, जनसंख्या-वृद्धि तथापि  लोग घोर भूख से  रक्षा। 
यातायात-साधनों से वस्तु, खाद्य-सामग्री अन्य स्थल पहुँची, दाम दो भूखे न मरोगे
इसके बदले वह ले, मेरे यहाँ यह वस्तु अधिक तेरे  वह, दोनों सुखी हो सकते। 

रुई से वस्त्र बहुतायत-निर्मित तो क्रय-विक्रय भी जरूरी, अनेक तन ढ़के जाने लगे 
पहले कम के पैर में जूते थे कुछ कष्टदायी भी, उद्योग-उत्पाद  से हर पाँव  पहुँचे।   
संख्या कम तथापि घोर गरीबी थी, औद्योगिकरण से सबकी जरूरत लगी होने पूर्ण
अब आबादी निस्संदेह अधिक पर पोषण हेतु साधन भी हैं, किञ्चित परस्पर पूरक। 

नर ने बुद्धि से ऊर्जा-उपलब्धता के अर्थ ही बदले, प्रचलित साधनों के कई विकल्प आए
चूल्हों में खाना बनाने हेतु ईंधन-गोसा-काष्ट की जगह रसोई-गैस, बिजली-स्टोव आ गए। 
पहले प्रकाश हेतु तेल के दिए की जरूरत थी, अब विद्युत्-कनेक्शन से दिवस-अनुभव
रात्रि में नर को इतनी स्वतंत्रता मिली कि बहुत काम होना संभव, प्रगति हुई है निस्संदेह। 

पहले क्षुद्र रोग से भी मृत्यु-ग्रस्त होते थे अब उपचार उपलब्ध, कम ही मौत असामयिक 
खाना-पीना, देखरेख बढ़ी, अगर कुछ पैसा हो तो अनेक सुख-सुविधाऐं सकता खरीद। 
माना मनुज ने अनेक अन्य जीवों को हासिए पर ला दिया, पर निज जीवन तो सुधरा ही 
काल संग पर्यावरण विद-प्रेमी भी हो गया, निज संग सब सहेजकर रखना चाहता भी। 

पर प्रगति की इस कसमकस में या कुछ ने श्रम-युक्ति से अति संपदा इकट्ठी कर ली 
माना देर-सवेर सब बँटेगा ही पर यदि आज कुछ के कष्ट मिट सकें तो भला होगा ही। 
हम भविष्य के लिए संग्रह करते हैं कुछ गलत भी नहीं, पर अति संग्रह पर हो अंकुश 
निज प्रयास से अधिकाधिक जीव सुखी होऐं उत्तम है, तुमपर भी अनुकंपाऐं हैं अनेक। 

समृद्धि-वर्धन हेतु धन का प्रयोग आवश्यक, बाजार में स्पर्धा हो तो सस्ती होंगी वस्तुऐं
आशय है हरेक का जीवन पूर्णता लब्ध हो, प्रत्येक व्यवस्था में कुछ लाभ कमा सके। 
माना मनुज-प्रकृति संग्रह की है, पर संसार-चक्र में सर्वस्व करपाश तो न उसके बस  
कितना ही धन चोरी हो जाता, छीना जाता, ठगा जाता, मृत्यु बाद हो जाता निष्क्रिय। 

हम सब मात्र लोभी ही नहीं हैं, कुछ करुणा-स्नेह-कल्याण भावना से द्रवित होते भी 
तभी परस्पर वस्तुऐं बाँटते बिना किसी स्वार्थ के, प्राणी-सहायता करनी चाहिए ही। 
यही भाव तो हमें देवत्व समीप ले जाता, एकरूप हो विश्व के कुछ मृदु-दायित्व लेते 
जितना संभव जग-परिवेश सँवार ले, लोग जब मृदु चरित्र देखेंगे तो सहिष्णु भी होंगे। 


पवन कुमार,
१५ मार्च, २०२० रविवार, समय ६:२६ बजे सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ दिसंबर, २०१९ समय ८:३४ प्रातः से)  

Sunday, 9 February 2020

कालिदास परिचय

कालिदास परिचय 
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चलो कालिदास विषय में कुछ चिंतन, स्रोत कुछ पूर्वलिखित से ही संभव
उनका समकक्ष तो न कि देखा सुना हो, हाँ अध्ययन से कुछ ज्ञानार्जन। 

मेरे द्वारा कालिदास परिचय जैसे किसी महानर का मूढ़ द्वारा व्याख्यान 
या अंधों समक्ष गज खड़ा कर दिया, उनसे विवेचना हेतु किया हो उवाच। 
उनके मस्तिष्क का अथाह ज्ञान व पूर्ण-व्यक्तित्व समझना ही अति दुधर्ष 
माना वे भी पढ़-सुन ही विद्वान, पर कुछ अद्वितीय सर्जनात्मकों में एक।  

कवि भी मनुज ही, ज्ञान बाहर से ही, पर समझने-परखने की शक्ति प्रखर
कथानकों-दृश्यों का अंग सा बना, व्याख्या कि माना पात्र बोल रहे स्वयं। 
साधारण नर व्यवसाय-कार्यालय-गृह कार्यों में ही व्यस्त, मूढ़ सा है जीवन 
क्रांतदर्शी प्राप्त काल का उचित निर्वाह जानता, अनुपम रचना है सतत। 

सितंबर २०१८ में नागपुर यात्रा थी, ७० कि०मी० दूर रामटेक के भी दर्शन 
कहते हैं प्रभु श्रीराम ने वनवास अंतराल कुछ काल यहाँ किया था आवास।
निकट अगस्त्य मुनि आश्रम भी, पुराणों अनुसार समुद्र पीकर किया रिक्त
राम ने ऋषि-मुनियों के तप-भंगक दैत्यों से पृथ्वी रहित का लिया था प्रण। 

यहीं कालि-स्थानक भी, मान्यता है रामटेक पर्वतिका पर ही मेघदूत रचना 
कालि इसी रामगिरि से अलकापुरी तक का यात्रा-वृतांत मेघदूत में करता। 
यहीं खड़े यक्ष को एक विपुल कृष्ण मेघशावक देख निज भार्या होती स्मरण 
और उसे अपनी सजनी हेतु संदेश देता, कि तुम ऐसे करना व ऐसा कथन। 

कवि-भाव अति मनोहारी, भिन्न भागों से विचरते सौंदर्य-दृश्य दर्शनार्थ प्रेरणा 
विभिन्न स्थल-लघुकथाऐं काव्य-रोपित, पाठक अंग बने बिन न रह सकता। 
यह निस्संदेह कि मेघदूत यक्ष स्वयं कालिदास, अलका प्रिय नगरी उज्जैयिनी 
रामटेक पर कालि की अति भाव-विभोर हो विनती कि रो देगा मेघ स्वयं भी। 

रामटेक पर कालिदास ने  अश्रुओं को स्याही बनाया, नयन  बनें मषिकूपी 
प्रेम-वेदना से हृदय-विदारण गाथा रची, यहाँ की पर्वतिका जिसकी साक्षी। 
स्मारक में भित्ति पर कालिदास के नाटकों के कई दृश्य अंकित किए गए 
शंकुतला अपने हरिण संग व मेघ-दर्शन करते यक्ष सहज पहचाने जाते। 

संस्कृत महाकवि-नाटककार ने पौराणिक कथा-दर्शन को  आधार कृत 
रचनाओं में भारतीय जीवन-दर्शन के भिन्न रूप व मूलतत्त्व  निरूपित। 
अभिज्ञान-शाकुंतलम उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना, व मेघदूत सर्वश्रेष्ठ 
प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत परिचय, खंडकाव्यों में है ओतप्रोत। 

कालि वैदर्भी रीति कवि, अलंकार युक्त किंतु सरल-मधुर भाषा हेतु प्रसिद्ध 
अद्वितीय प्रकृति वर्णन, विशेषरूप से निज उपमाओं के लिए हैं विख्यात। 
अपने अनुपम साहित्य में औदार्य प्रति कालिदास का है विशेष प्रेम-अनुग्रह
    श्रृंगार रस प्रधान साहित्य में भी निहित आदर्शवादी परंपरा व नैतिक मूल्य।   

उनके नाटक हैं अभिज्ञान शाकुंतलम, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्रम
दो महाकाव्य रघुवंशम व कुमारसंभव, दो खंडकाव्य मेघदूत-ऋतुसंहार। 
कुमारसंभव में शिव-पार्वती की प्रेमकथा व कार्तिकेय जन्मकथा है वर्णित 
गीतिकाव्य मेघदूत में मेघ से संदेश-विनती व प्रिया पास भेजने का वर्णन 
ऋतु-संहार में ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का है ललित निरूपण। 

पवन कुमार,
९ फरवरी २०२० समय ११:५८ म० रा० 
(मेरी डायरी दि० २४ जनवरी, २०२० समय ९:०६ प्रातः से )  


Tuesday, 28 January 2020

प्रजा खुशहाल

प्रजा खुशहाल 
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एक गहन चिंतन वर्ग-उद्भव का, दमित भावना कुछ कर सी गई घर 
समाज में अन्यों प्रति अविश्वास दर्शित, सत्य में वे परस्पर-सशंकित। 

व्यक्तिगत स्तर पर नर विकास मननता, कुछ श्रम कर अग्र भी वर्धित 
सामाजिक तो न एकसम वृद्धि, अनेक विकास के निचले पायदान पर। 
माना अनेकों ने एक ही पीढ़ी में, निम्न से मध्य वर्ग मेंन बना लिया स्थल 
जहाँ शासन की निर्बल प्रति सद्भावना, प्रगति वहाँ तनिक भी संदेह न। 

देखिए प्रतिभा तो चहुँ ओर बिखरी, अब कैसे वर्धन हो एक मूर्धन्य प्रश्न 
जब सक्षम ही निर्धन-असहाय बंधुओं को न सहेजेंगे, बाह्य आएगा कौन?
माना सर्व गृहों के खर्चें-आवश्यकताऐं, अन्यों हेतु न अति निकलता शेष 
तथापि सदनीयत से कुछ प्रगति, हर के बढ़ने से आगे बढ़ जाएगा देश। 

देखिए विकास-जरूरत तो प्रत्येक जन को, चाहे उसका कोई भी वर्ग 
किंतु संसाधन-नौकरियाँ तो हैं सीमित, सबको चाहिए तो होगा संघर्ष। 
सब काल तो प्रतियोगिता-युत, जो मेहनत-चतुराई न करते पीछे धकते 
सर्व उर वश में तो कोई न सक्षम, जीवन संभव ही परस्पर विश्वास से। 

कुछ लोग सशंकित कि भारत में नई सरकार आई, संविधान बदल देगी 
अल्प-संख्यक, दलित-पिछड़े एक हासिए पर होंगे, मनुस्मृति लागू होगी। 
नूतन विद्या होगी अप्रोत्साहित, बस पुरा धर्म-आधारित होगा हावी ज्ञान 
प्राचीन अस्मिता नाम पर दबंग एकत्र हो, सारे संसाधन लेंगे निज कर। 

आजकल पूर्व रिज़र्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की पुस्तक पढ़ रहा, नाम है
'The Third Pillar- How Markets & State Leave Community Behind' 
वे समुदायों की प्रगति चर्चा करते कि कैसे संघर्ष से निज दशा बदल ली। 
शासन विवश हुए बात मानी गई, प्रतिनिधियों को सरकार में बने भागी
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निजों की सहायता, नियम-नीतियाँ हक़ में बनवा ली। 

 क्यूँ स्वार्थी बन मात्र अपनी ही बात हो, और भी जग में अनेक सहचर 
जब सबकी वृद्धि में स्वयं स्वतः शामिल, पृथक-प्रतिनिधित्व क्यूँ फिर?
पर देखो कुछ समूह तो अन्यों से अधिक हस्तक्षेप शासन में बलात  
निज अमुक प्रभावी व सुवेतन-परक पदासीन हों, करते हैं पूर्ण यत्न। 

मनुस्मृति काल तो अर्वाचीन, जाति-असमता हावी उत्तम होते भी कुछ
जन्म आधार पर कुछ श्रेष्ठ बन गए, अन्य मध्यम या निम्न सोपान पर। 
अब कुछ तो व्यवस्था से लाभी, बिन कुछ किए कथित श्रेयस घोषित 
अन्यों को हड़काने-जबराने का अधिकार, तो कैसे सर्व-कल्याणक? 

अब धर्मादेश से समाज में नियम रोपित हुए, विरोधी होंगे दंड के भागी 
जब सुघड़ दर्शन अवसर अप्राप्त, तो शनै मनुज की मद्धम शैली भी। 
निज को हीन मानने लगे, कर्म-सिद्धांत द्वारा और अधिक प्रतिपादित 
यहाँ कर्म अर्थ निज जातिगत धंधे, न कि परिश्रम से जीवन प्रगतिमुख। 

हर काल में प्रखर-बुद्धि अवतरित, सक्षम व्यवस्था पर प्रश्न-चिन्हन में 
आसानी से जर्जर अमानवीय व्यवस्था को साहस से ललकारने लगते। 
अब कितने ऐसों के साथ होंगे और बात, जन भीरु व स्वार्थी अधिकतर 
भय बड़ा शस्त्र शासन व दबंगों के कर, मंसूबे मनवाते रहते जबरन। 

सत्य कि जब ये व्यवस्थाऐं बनी होंगी, तब देश-आबादी थी बड़ी कम 
कुछ को छोड़ अधिकतर अपढ़, राजाओं को भी था ब्रह्म-कोप भय। 
ज्ञान व शक्ति ने मिल स्वार्थ साधनार्थ, निर्धन-भोलों को बनाया आहार
अनेक नृप-युवराज बंदी, विद्रोही जाति-निकास, भेदभावपूर्ण आचार। 

पर १८ वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति से, विरोध-तर्क दर्शन ही परिवर्तित 
प्रजा अधिकार-नियतियों पर चर्चा शुरू, सुधार शनै आने लगें समक्ष। 
कुछ उदारचित्त भी सब काल, जग की कर्कशता-अमानवता सुहाती न 
गरीब-पीड़ितों का साथ चाहे स्वयं कष्ट, नर-हितैषी होना एक साहस।  

करीब सारे विश्व शनै लोकतंत्रमय, शासक-भविष्य अब प्रजा-हस्त 
प्रजा द्वारा नृप-चुनाव, उन्हें भी होना पड़ेगा लोगों प्रति सहिष्णु अब। 
भारतवर्ष भी इसका अपवाद न, सरकार का पिछड़ों को आश्वासन 
शासन-तंत्र सर्व हितार्थ करना ही होगा, प्रधानमंत्री पूर्व से ताकतवर। 

माना शासन के नियम बदल रहे, प्रजा पूर्व से हुई अधिक जागरूक 
शिक्षा-प्रसार हर वर्ग में हुआ, भला-बुरा समझने में मानव हैं सक्षम। 
 शासन-बल दाम-साम-दंड-भेद से, पर प्रजा भांपकर निष्ठा देती बदल
 फिर सब नेता स्वार्थी, परछिद्रान्वेषण न चूकते, लोक को बताते सब। 

निर्धनों पास संख्या-शक्ति पर न श्रेष्ठ संघ, हक में बोलने वाले भी कम 
नेता दिखावा, लोगों में अच्छे मुखर न पनप रहें, सबको ले सके संग।
अतः निर्धन-हित कूर्म-गति सम ही, पर अति प्रगति साधन-संपन्न की
सुनिश्चितता सत्ता-भागीदारी से ही, समृद्ध तो निज-विकास तल्लीन। 

पुरा-युग तो कदापि वापस न क्योंकि शिक्षाप्रसार-जागरूकता काफी है 
फिर वर्तमान में विश्व पूर्व से अति-युजित, नर परस्पर हित साँझा करते। 
लोकतंत्र जहाँ भी दमित, सहिष्णु पसंद न कर रहें, अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी 
प्रजा भावना अनुरूप कर्म शासक-विवशता, मूल नीति बदलना कठिन। 

तथापि मन यदा-कदा सशंकित, कई देशों में आज भी सत्ता मध्य-युग सी 
अफ्रीकी यमन-सोमालिया-मिश्र-सूडान, सीरिया-इराक आदि ग्रस्त हिंसा-अति। 
उत्तरी कोरिया, म्यांमार यहॉँ तक कि रूस-चीन मानवाधिकार दोषी हनन 
फिर शिक्षा से असत्य निश्चित मूल्य रोपित, जो शनै जिंदगी का होते अंश। 

विश्व में दीर्घकाल सहिष्णु शासक-दल सत्ता में थे, दक्षिणपंथ शनै हावी अब 
वे कुछ वर्गों की वास्तविक हितैषी, क्योंकि उनके पोषक पूंजीपति-दबंग। 
निज प्रभुत्व वृद्धि ही मुख्य उद्देश्य, औरों को मात्र लॉलीपॉप दिखाया जाता 
 प्रजा-दुविधा में कहाँ जाऐं, दूसरी ओर भी न दिखे कोई अति-विश्वसनीयता। 

पर समुदाय भविष्य प्रति जागरूकता चाहिए, ताकि प्रजा खुशहाल रहे 
भारत में अब भी जाति-धर्म-स्थान, भाषा-गौरव नाम पर काफी विभेद है। 
आए दिन हिंसा-अत्याचार-बलात्कार की घटनाऐं समक्ष आती ही रहती 
व्यक्ति-विषमता के अतिरिक्त वर्गों में भी परस्पर अविश्वास है काफी। 

मानव के अद्यतन यात्रा में अनेक पड़ाव, अच्छे-बुरे सब कालों से गुजरा 
आदि मानव रूप में भी उसने हिंस्र भेड़िये, शेर-चीते, आदि से की रक्षा। 
तब कोई न शंका होनी चाहिए कि हर वक्त से सफलतापूर्वक लेंगे जूझ 
      फिर बुद्धि सबके पास प्रयोग सीखों, मात्र नकारात्मकता न करेगी कर्म।     

रघुराम राजन अनुसार उत्तम शिक्षा-भृत्ति प्राप्त सहिष्णु हो रहे अधिक 
क्षुद्र भेदों पर न ध्यान, वंचित-अल्पसंख्यक-शरणार्थी भी अवसर प्राप्त।  
जनसंख्या वृद्धि से नगर अधिक गति से स्थापित, निर्धन को पर्याप्त भृत्ति  
जब आमदनी होने लगती, बच्चे पढ़ते, अग्रिम पीढ़ी भविष्य सुधरता ही। 

कई आंदोलन संयुक्त राष्ट्र द्वारा, बुद्धिजीवी-स्वयंसेवी आवाज उठा रहें
लोगों को जागरूकता-प्रेरणा, शासन अवहेलना न करे विवश करते। 
माना शासकों में हेंकड़ी होती, पर उनमें भी कुछ हितैषी-निर्मलचित्त 
समता-व्यवहार संविधान-मूलमंत्र, यही दुआ कि रहे नित प्रतिपादित। 

समुदाय-नेतृत्व पैदा करना होगा, संगठित हो करें वास्तविक हितकार्य 
सरकारों से अनुनय वार्ता शिक्षा-सेहत-मार्ग,समृद्धि-सुरक्षा की हो बात। 
बिन रोए तो माँ भी दूध न देती, अतः स्व अधिकारों की करते रहें बात 
पर अंतः से हर को बली होना आवश्यक, जिससे स्वयं पर हो विश्वास। 

सर्वप्रथम बाल-भविष्य सुधरना चाहिए, शिक्षा-स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान 
सामाजिक कुरीतियाँ-अन्धविश्वास दूर, सहिष्णु साहित्य का सान्निध्य। 
सदस्य एकजुट हो यदि निज पक्ष कह सकें तो ऐक्य-बल होगा दर्शित 
शासनार्थ उदारों को ही भेजे, जो सत्य-जरूरत समझकर ही करें कर्म। 

अतः निराशा की न कोई बात, विश्व-नागरिक हो किंचित जुड़कर रहो 
निर्मल-मूल्यों में विश्वासियों की संख्या बढ़ाओ, लोगों के मन से जुड़ो। 
जब उचित व्याख्या जग को देने लग जाओगे, तुम प्रति संवेदना बढ़ेगी 
जब पड़ोसी तुम्हारी सुरक्षार्थ खड़ा होगा, कोई न दे सकेगा तुम्हें हानि। 

मैं भी निज स्तर पर भी वंचितों को बली-सक्षम निर्माण का करूँ यत्न 
उनकी भय-शंका निर्मूल हो, पर हेतु समस्त वातावरण करूँ संयत। 


पवन कुमार,
२८ जनवरी, २०२० समय १२:२० म० रा० 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी ७ जून, २०१९ समय ८:५० बजे प्रातः)       

Sunday, 5 January 2020

जीवन-कोष्टक

जीवन-कोष्टक
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एक वृहद दृश्यमान समक्ष हो, मन के बंद कपाट सके पूर्ण खुल 
अनावश्यक बाधाओं से न ऊर्जा-क्षय, निपुणता अंततः प्राण-लक्ष्य। 

व्यवसायी-मन में अनेक गुत्थी स्थित, एक-२ कर कुरेदती रहती सब  
मन तो सदैव चलायमान, पर आवश्यक तो न सब बाधा हों विजित। 
एक स्तर है, परेशान-चिड़चिड़ा, भीक या प्रसन्न-सकारात्मक, निडर 
सब समाधान तो किसी को न, हाँ काल संग जीव धीमान ही अवश्य। 

जिंदगी परियोजना, किसी कर्म को सिरे चढ़ाना एक उपलब्धि-कला
सुचारु रूप से समस्या-समाधान हो, वे आऐंगी ही वाँछित सुदृढ़ता। 
कार्यसूची प्रतिदिन बने, प्राथमिकता भी सैट हो फिर हो कार्यान्वयन 
पर स्वयं न संभव, नदी में गिरे हो, हाथ-पैर मारकर ही बचेंगे प्राण।  

इस जीवन के कई कोष्टक हैं - कार्यालय, कुटुंब, कुछ मित्र-स्वजन  
इन्हीं में निज विचरे, कभी कुछ बात, लघु बाधा या विसंगति महद। 
मेरी विरक्ति दोराहों में विभक्त रहती, हर विषय लेता  विराट समय
क्षमतानुसार ही कार्य मिले, निबटान-सामर्थ्य, बनना चाहिए सक्षम। 

 लेखन-उद्देश्य मन के बंद गवाक्ष खोलना, जग के बड़े ढ़ोल भी देखूँ 
अतः इतना सुदृढ़ होना चाहिए, सौंदर्य देखकर यह विभोर हो सकूँ। 
समस्त अंग पुलकित होने चाहिए, सदा स्मित से हर हृदय हो विजय
हर जान को परखने की कला हो, आत्म-मुग्धता से तो होवे न कुछ। 

चक्षुओं को दूर-दृष्टि दे मौला, प्रकृति-सौंदर्य दर्शन से हों पुलकित 
प्राथमिकता जग का वृहत-हित चाहिए, उसी में लगे ऊर्जा सब। 
समाज-परिवार-देश प्रति पुनीत कर्त्तव्य है, बगिया महके, समझे 
सबके सुख में मैं भी, जग एक श्रेष्ठ जीवन-योग्य स्थल बन सके। 

जो भी कार्य-क्षेत्र है उसमें पूर्ण झोंक खुश होकर कर्म करते  रहे 
सब सर्वत्र को हो सकारात्मकता से लाभ, ऐसी प्रक्रिया जारी रहे। 
जीवन सार्थक बने, सोच-समझ इसकी राहें समझ बढ़ते रहो अग्र 
अनेक आशा से मुख देखते, खरे उतरो सफलता मिलेगी अवश्य। 


पवन कुमार,
५ जनवरी, २०२० समय ०१:०३ बजे म० रात्रि 
    ( मेरी डायरी दि० ३० अक्टूबर, २०१८ समय ९:२० बजे प्रातः से)