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Wednesday, 12 October 2016

सहज शब्द-प्रवाह

 सहज शब्द-प्रवाह



बहु-भाँति लेख-संस्मरण, कथा-साहित्य, जन लिखते भिन्न रस-संयोग से

सबका निज ढ़ंग मनन-अभिव्यक्ति का, समग्र तो न सब कह ही सकते॥

 

लेखन-विधा है अति-निराली, यूँ न मिलती, कुछ तो चाहिए सहज रूचि ही

विशेष समय आवश्यक बतियाने को, वरन सुफियाने की घड़ी न मिलती।

फिर मन में क्या आता उन क्षण- विशेष में, कलम तो मात्र माध्यम बनती

शब्द-प्रवाह सहज ही तब निज-दिशा लेता, देखो मंजिल कहाँ है मिलती॥

 

ज्ञान-स्रोत समक्ष-पुस्तकें, विद्वद-प्रवचन, संगति या दैनंदिन कार्य-कलाप

या कुछ क्षण निज संग बिताना भी, जिससे निकले एक कमल-मुकुल सा।

मन-रमणीयता का भी अपना विश्व, कहाँ- कब बैठेगा किसी को न प्रज्ञान

कैसे सुसंवाद हो सके निज श्रेष्ठ से, कुछ एकत्रण से हो सके ही विकास॥

 

सुघड़, विचक्षण मनन- दृष्टान्त मनीषियों का, जितना निहारो उतना कम

अति-गह्वर उनका अवलोकन, यूँ न मात्र सतही अपितु जीवन-सार तत्व।

जितनी मात्रा- गुण पास एक, उतना दान- संभव, उपलब्धता पूँजी है यहाँ

यह बात और कि लोभी हो, बाँटन-अरुचि, स्व-संग ही खत्म हो जाएगा॥

 

क्या मेरी मनोदशा विशेष परिस्थितियों में है, मन-भाव यथैव ही उद्गीरित

कैसे निज-समीपता व संग जुड़न-अभिलाषा, स्वयं गति से लेकर कलम।

विल डुरांट ने तो लिखे हैं `सभ्यता एवं  दर्शन का इतिहास' से विस्तृत ग्रंथ

वह भी गुजरे दुःख-सुख परिस्थितियों से, तथापि सहज रच दिया अद्भुत॥

 

विभोर मन चेतन-शक्ति, आत्मिक-बल बढ़ाओ, जीवन हेतु महद उद्देश्य

ऐसे तो महद रचना न बने, उठ खड़े होवों लिख दो निज सर्वोत्तम लक्ष्य।

वाल्मीकि, व्यास, शैक्सपीयर, गोएथे, कालि ऐसे न, अल्पकाल जीव-भंगुर

समक्ष विपुल राशि तेरे अर्थ पड़ी, निम्न कामना से तो अति-लाभ होगा न॥

 

माना सबको निज जीवन ही जीना, पर दान भी जिम्मेवारी उत्तम विरासत

'यूँ ही आऐ न आऐ' उक्ति से ऊपर उठो, जग-आगमन को करो सार्थक।

कैसे चेतन क्षण बढ़ते जाऐं जीवन में, व उनमें संपूर्णता भरने का उत्साह

चल पड़ो किसी लम्बी यात्रा पर, कुछ जग देखो, अपनी भी कहो अथाह॥

 

वे मार्ग- अध्याय जान-सीख लो, जो उन्नति, परम-प्राप्ति का दिखाऐ मार्ग

बैठो विद्वद- जनों संग उत्तम संगोष्ठी में, कैसे किया है उनने पथ लो जान।

प्रदत्त कार्य निश्चित ही विशाल होगा, परियोजना- प्रबंधन भी चाहिए उत्तम

किंतु हर अध्याय पर पूर्ण ध्यान, नैपुण्य से देखो कुछ भी छूटना चाहिए न॥

 

जीवन-विज्ञान एक बड़ा विषय है, ज्ञात हो चाहिए उचित कार्यान्वयन विधि

कौन तत्व कहाँ कैसे प्रभावित करता, सुप्रबंधन से झलके उत्तमता अति।

जीवन- उपलब्धि निज स्वेद-रक्त की आहुति से, प्रयास से न कभी घबरा

श्रम-सुस्ती से थकना न इतनी शीघ्र, जब कर्त्तव्य अधिक तो विश्राम कहाँ॥

 

फिर बिंदु तो इंगित करने होंगे, जो अन्तः घोर-तम से प्रकाश में आगमन

कुछ स्वप्न लूँ समर्थ- विवेकियों संग, ज्ञान प्रवाह रोम-कूप में हो प्रकटन।

जीवन फिर पूर्ण खिल सकेगा, सब पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेल से

सर्व- अवस्था ही आस्वादन लेना, न घुटकर मरना जब इतना सम्भव है॥

 

मेरी मनोवृत्ति उचित कर देना ओ परमपिता, तार सीधे तुमसे जुड़ जाऐं

हटा कर सब मेरे प्रमाद, अपुण्य तन-मन के ज्ञान-वृत्ति में चित्त हो जाए।

मूल-प्राथमिकताओं से करा तुम परिचय, न इतने अल्प-निर्वाह से सन्तुष्ट

क्यूँ न करूँ मैं सर्वोत्तम हेतु ही चेष्टा, जब ज्ञात है संभव व समक्ष मंजिल॥



पवन कुमार,
१२ अक्टूबर, २०१६ समय १३:३७ अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० २६.०६.२०१६ समय प्रातः १०:२२ से) 

Sunday, 2 October 2016

उत्प्रेरण-विधा

 उत्प्रेरण-विधा 


वर्तमान अनूठे असमंजसता-पाश में, अबूझ हूँ जानकर भी

कैसे अकेला खेऊँ नैया, पार दूर, कभी हिम्मत खंडित सी॥

 

सकारात्मक मन-मस्तिष्क धारक, तथापि अनिश्चितता है घेरे

विवेक प्रगाढ़ न हो रहा, नकारात्मक आकर बहु-झिझकोरे।

वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद-उन्मुक्तता का

सब ऊल-जुलूल बोलते, मानो जीव की यही परिणति है यहाँ॥

 

प्रेषित था कुछ इस आशा से, विभाग के नाम में होगा लाभ

स्व कर्म, विचार-शैली से, परियोजना को बढ़ाऊँगा ही अग्र।

सभी महारथी- ज्ञानी बनते यहाँ, कुछ तो हैं नितांत दयनीय

कुछ तव मुख ताकते हैं, माना सब शक्ति तुममें समाहित॥

 

उद्वेलित हूँ क्षुद्र- घटनाओं से, माना बाह्य न अति-प्रतिक्रिया

मनन सतत संचालित रहता, विभिन्न पहलुओं को है देखता।

निर्णय लेने में समर्थ होते भी, अपने को असहाय सा है पाता

 कुछ के शंकालु होने से भी, अवश्यम्भावी है कुप्रभाव पड़ना॥

 

माना कोई योगदान नहीं है, अब तक कृत कार्य-कलापों में

तथापि अब मैं प्रथम ही, अतः सहभागी होता जा रहा हूँ शनै।

करो आत्म- मूल्य सशक्त यहाँ, त्रुटि न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में

मात्र उत्तम कार्य ही सम्बल देंगे, वही अपेक्षित भी है तुमसे॥

 

सभी से एक स्नेह- रिश्ता बनाओ, जिम्मेवारी और आदर का

बनें सब एक दूजे के सहयोगी-संगी, व परस्पर अनुभूति का।

नहीं हों मात्र पर- छिद्रान्वेषी ही तुम, सुधार में सबका विश्वास

यदि आवश्यक हो कुछ सख़्ती भी, ध्यान में ला करो स्थापित॥

 

अनंत-शक्ति पुञ्ज तो हो यहाँ, क्षीणता कदापि न करो स्वीकार

निज-शौर्य अंश-दान अन्यों को भी हो, व प्रबल रक्त-संचार।

जीवन जीने का नाम व कला समझना, इसकी भली-प्रकार से

हर कर्त्तव्य पर पैनी नज़र हो, और कहीं कुछ छूटा न जाए॥

 

निडर बनूँ प्रबल-मन संचालक, सदा महीन-दृढ़ता से हो बात

निज-कार्य निपुण हो, औरों को सुनने-समझाने का हो हुनर।

माना अन्य भी पारंगत होंगे, पर तुम स्व-विद्या में बनो प्रवीण

इस अपरिपक्व जग-ज्ञान को आलोक दो, ताकि राह सुगम॥

 

निज निष्ठा व कर्मठता से तुम, जग में छोड़ो एक उत्तम छाप

माना सब कुछ तो न स्व-हाथ में, पर इतने भी नहीं असहाय।

प्रयत्नों से स्वयं को बनाओ सबल, व दुर्बलता-भाव ही न आए

किञ्चित स्वस्थ तन- मन स्वामी बनो, निज-गुण जोड़ते जाए॥

 

परम-युक्तियों में ध्यान नित हो, निस्संदेह बनो संकट-मोचक

अभय दो सह-कर्मियों को तब, गतिविधियाँ करो उचित-दक्ष।

निज श्रेष्ठता को सबमें ही बाँटो, तभी तो होगा उनमें भी वर्धन

संपूर्णता में और अधिक चाशनी तब, चहुँ ओर हो प्रकाशित॥

 

माना यश-गान नहीं अभिलाषा, जग-पार गमन महद है लक्ष्य

कटे सब फंदे निम्नता के यहाँ, नर के काले-कलाप व असत्य।

निज-दुर्बलताओं से उठ प्राणी, सर्व-प्रगति का हो समुद्र-मंथन

प्रक्रियाऐं-साधन सब ही उचित हों, स्वयं-सुधार एक उत्प्रेरण॥

 

ओ मेरे मन के प्राण- पखेरू, लगा उत्तुंग उड़ान एक दूर गगन

देख अतिदूर-अद्भुत दृश्य यहाँ, विकास तो फिर है ही संभव।

ले संग उचित-मनन व कार्य-शैली का, क्षमताओं में सतत वृद्धि

यही जीवन-उन्मुक्तता संदेश जीवियों को, बृहत कल्याण दृष्टि॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
२ अक्टूबर, २०१६ समय १९:०३ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०. ०९. २०१४ समय ८:४० प्रातः से) 

Sunday, 18 September 2016

आत्मानुभूति - संज्ञान

आत्मानुभूति - संज्ञान 


मन बिसरत, काल बहत है जात, बन्दे के कुछ न निज हाथ

विस्मित यूँ वह देखता रहता है, कैसे क्या हो रहा नहीं ज्ञात॥

 

हर क्षण घटनाऐं घटित, अनेक तो हमारे प्रत्यक्ष साक्षात्कार

पर यह इतनी सहज घटित है, मानो हमारा न हो सरोकार।

हम निज एक अल्प- स्व में व्यस्त हैं, व जीवन यूँ जाता बीत

निर्मित-नीड़, संगिनी-बच्चें, कुछ सहचर, यही जिंदगी बस॥

 

लघु-कोटर में है अंडा-फूटन, माता सेती, कराया दाना-चुग्गा

अबल से सक्षम बनाकर, डाँट-फटकार घर से बाहर किया।

फिर पंखों को मिली कुछ शक्ति, संगियों ने उड़ना सिखाया

इस डाल से उस वृत्त बनाया, उसे ही पूर्ण-जग समझ लिया॥

 

अभिभावक- स्नेह, बंधु-सुहृद सान्निध्य, पड़ोसियों से मेल कुछ

बहुदा बाह्य-मिलन, आपसी जरुरत, पखेरू अब सामाजिक।

दाना-दुनका इर्द-गिर्द चुगता, जरूरत पर दूर भी जाते कभी

और विश्व-दर्शन मौका मिलता, पर वह भी होता अत्यल्प ही॥

 

कितना समझते हैं विश्व-दृश्यों को, सब भिन्न पहलू ज्ञात तो न

प्रायः तो न सीधा सरोकार, फिर क्यों नज़र दौड़ती उस ओर?

माना मन में अति विवेक-संभावना, तथापि उसको रखते कैद

बाँध लिया छोटे से कुप्पे में, मुर्गे ने उसको नियति ली समझ॥

 

सभी शरीरियों के अपने घेरे, उसी में जमाते अपना अधिकार

अन्य विदेशियों को न प्रवेश-स्वतंत्रता, धृष्टता पर हो प्रतिकार।

राज्य हमारा तू क्यों आया, समूह मरने- मारने को तैयार सब

अजनबियों से मेल असहज, आँखों सदा में किरकिरी- शक॥

 

माना बहु-स्थान परिवर्तन विश्व में, अनेक जीव इधर से उधर

सबने ग्राम-नगर बसा लिए, पड़ोस समकक्षों से किए संबंध।

अपना कुटुंब, जाति-समाज, संस्कृति-शैली व प्रक्रिया-जीवन

उनमें ही सदा व्यस्त, आनंदित, जीना-मरना, अतः समर्पित॥

 

माना जीवन-स्रोत एक सबका, पर अपने-२ घटक बना लिए

निज को दूजों से पृथक माने, अकारण प्रतिद्वंद्वी समझ लेते।

अन्यों से बहु मेल न होने से, उनकी कारवाईयाँ होती अज्ञात

इधर-उधर से खबर भी हो तो, सम्बंध न होने से न है ध्यान॥

 

विशाल जग, हम लघु-कोटर में, बहुत दूर द्रष्टुम न हैं सक्षम

कैसे विस्तृत हो यह मस्तिष्क ही, संभावनाओं का प्रयोग न।

स्वयं को कोई न कष्ट देना चाहता, मानो ह्रास होगी सर्व-ऊर्जा

ज्ञानी कहते अभ्यास से सब वर्धित, क्यूँ न बढ़ाऐं अपनी चेष्टा॥

 

भोर हुई पर द्वार-बंद, भानु-प्रकाश न पहुँचता हम सुप्तों तक

इतने ढ़ीठ हैं आराम को ले, किंचित खलबली न करते सहन।

कुछ जानते भला कहाँ, फिर भी अनाड़ी रहते हैं जान-बूझकर

कितना कोई समझाऐ मूढ़ों को, निज-चेष्टा ही उत्तम शिक्षक॥

 

कितना ज्ञान-अनुभव शख़्स कर सकता, जीवन-प्रवाह में इस

क्या काष्टा संभव शिक्षा की, कितना प्रयोग हो सकता लाभार्थ?

पर आज सीखा कल भुला दिया, जीवन किसे हुआ याद सकल

बस मोटे पाठ याद रह जाते, वर्तमान में तो प्रतीत वही जीवन॥

 

पल-क्षण-घड़ी, घंटे-प्रहर, अह्न-रात्रि, सप्ताह-माह, यूँ बीतते वर्ष

जिसे जितनी घड़ियाँ दी प्रकृति ने, कमोबेश बिताते वही समय।

बिताना जीवन सामर्थ्यानुसार ही, उसका वृतांत इतिहास बनता

हा दैव! कुछ अधिक न किया, निम्न-श्रेणी में ही खुद को पाया॥

 

कौन से वे उत्प्रेरक घटना-अनुभव, अग्र-गमन प्रोत्साहन करें जो

कौन वह सक्षम गुरु है, सर्व- क्षुद्रता ललकारता, फटकारता यों?

कौन से वे संपर्क-विमर्श, वर्तमान व अल्प -उपयोग पाते हैं जान

भविष्य-गर्त लुप्त संभावनाऐं, जो स्व-प्रयास बिन नहीं दृष्टिगोचर॥

 

माना देखा-समझा, पढ़ा, बोला-सुना अति, पर कितना है स्मरण

पता न चला कब स्मृति ही चली गई, अनाड़ी के अनाड़ी रहें हम।

इसे पकड़ा, वह छूटा, आगे दौड़-पीछे छोड़'' का बचपना है खेल

पूर्ववत को ठीक समझा ही न, वर्तमान में भी न सुधार, वही हाल॥

 

माना श्लाघ्य तव चेष्टाऐं बृहत् हेतु, पर प्रत्येक को दो कुछ समय

वरन दीन-दुनिया को स्व-राह से, आपकी आवश्यकता न बहुत।

तुम्हारी सार्थकता भी कुछ जीवन में, या बस खा-पीकर दिए चल

जब आने-जाने का न हुआ है लाभ, क्या आवश्यक था लेना जन्म?

 

माना कुछ मेहनत-मजदूरी कर, खाने-कमाने का लिया प्रबंध कर

पर क्या जीवन के यही भिन्न रंग थे, अनुपम चित्र बना सकते तुम?

निज-संभावनाओं को न समय दिया, बस सुस्त-मंद रहें, गया बीत

एक दिन बुलावा अवश्यंभावी तो जितना बचा, कर लो सदुपयोग॥

 

नहीं राहें सीखी प्रयत्न से, बस काम-चलाऊ कर लिया कुछ जुगाड़

अनेक विद्याऐं-तकनीक, विशेष ज्ञान निकट, पर संपर्क नहीं प्रयास।

बेबस बना दिया स्वयं को, अन्यों के रहमो-करम पर रहने का यन्त्र

जग प्रगतिरत, मैं अबूझ-भ्रमित, कभी आत्म-मुग्ध पर अविकसित॥

 

यह लघु-विश्व अपने सों से व्यवहार, तुम भी अनाड़ी हम भी गँवार

बस जूता- पैजारी, बहु जानते -समृद्ध, शीर्ष-तिष्ठ मूर्ख अभिमान।

ज्ञानी से ज्ञानी मिले तो सुज्ञान-वार्ता, मूर्ख से मूर्ख तो व्यर्थ- विवाद

जब चेष्टा निम्न, कैसे मनभावन-सुखद फलक हो सबको उपलब्ध॥

 

मात्र जग-निर्वाह से अग्रवर्धन, स्व का भिन्नों से भी होने दो संपर्क

बना आदान- प्रदान का सिलसिला, संज्ञान आत्मानुभूति का कुछ।

दृष्टि प्रखर बना, दुनिया बड़ी विशाल, गतिविधियों की रखो खबर

बृहद दृष्टिकोण निकल कूप-मंडूकता से, संपूर्णता जीव-समर्पित॥

 

निज स्मृति-सीमाऐं, अतः याद करो उत्तम अध्याय संभव जब भी

कर्म-गति रहे सदा, आत्मिक विकास जीवन की हो परमानुभूति।

सकल जग लगे निज ही स्वरूप, करें सहयोग परस्पर-विकास में

जितना संभव है विस्तृत करो स्व को, सब लघुता पाटो विवेक से॥

 

और निर्मल चिंतन करो। जीवन अमूल्य है॥


पवन कुमार,
१८ सितम्बर, २०१६ समय २१:२४ सायं 
(मेरी डायरी ५ अप्रैल, २०१५ समय १०:३० प्रातः से) 

Sunday, 14 August 2016

लक्ष्य-कटिबद्धता

लक्ष्य-कटिबद्धता


क्यों अटके हो यत्र-तत्र, दृष्टि-गाढ़ करो उत्तम लक्ष्य हेतु किंचित

यदि क्षुद्र में ही व्यस्त रहोगे तो कैसे रचे जाऐंगे महाकाव्य-ग्रन्थ?

 

माना लघु ही जुड़ बृहद बनता, लक्ष्य हेतु कटिबद्धता चाहिए पर

रामायण, महाभारत, बृहत्कथा संभव, चूँकि लेखन था अबाधित।

एक लक्ष्य बना, स्व-चालित हुए, कुछ प्रतिदिन किया अर्पित तब

एक विशाल चित्र मस्तिष्क में बना, मध्य की कड़ी मनन-लेखन॥

 

मैं भी कागज-कलम उठा लेता, किंतु अज्ञात कृति निर्माण- विधि

बस चल दिया यूँ ही, योजना तो बनी न, क्रमबद्धता कहाँ से आती?

जीव- प्रतिबद्धता जब लक्षित ही होगी, तभी तो बनेगा कुछ प्रारूप

कुछ लिख दूँगा एक मन-विचार ही, पर समक्ष तो हो प्रेरणा-स्थूल॥

 

एक शब्द-लेखन हेतु भी सामग्री चाहिए, यूँ ही तो नहीं ऊल-जलूल

बहु-नर प्रगति कर रहें हर क्षण में, मुझ मूढ़ से रमणीय  निकले न।

इन समकक्षों में से ही कुछ महान बनेंगे, इतिहास में कमाऐंगे नाम

जो जितना डाले उतना ही मिलेगा, बिना किए तो कुछ मिलता न॥

 

तब क्यों न प्रयास योग्य-उच्चतम-उपयुक्त हेतु, यश तो चाहिए पर

वह भी न हो तो बस कुछ बेहतर कर्म-इच्छा, प्राप्ति दैवाधीन सब।

पर युक्ति हो तो अवश्य सुगम-पथ, पुरुष बाधाओं से पार हो जाते

यूँ ही समय नहीं गँवाते, समर्पित हों पुनः-2 प्रविष्टि हैं जता जाते॥

 

चिंतन का भी चिंतन चाहिए, पर्वत खोदने से ही मिलेगी कुछ धातु

अल्प-श्रम से कभी ही सु-परिणाम, सर्व-औजार क्षमता वृद्धि हेतु।

महासार का मूल्य चुकाना होगा, मुफ्त प्राप्ति से तो पाचन न होगा

 निज बूते पर कुछ बन दिखाओ, अयोग्यों को ही सुहाती अनुकंपा॥

 

मम जीवन का क्या सु-ध्येय संभव, कलम से तो अभी नहीं है इंगित

बस यूँ ही स्व- संग बतला लेती है, पर क्या काष्टा रहेगी ही सीमित?

पुरुष स्व-वृत्त बढ़ाते, मोदी को देखो चाय-दुकान से विश्व-नेता स्वप्न

कितने ही नित होते विज्ञ-समृद्ध, निज हेतु क्यों न बनाते हों सुपथ?

 

कुछ जाँचन अवश्य चाहिए, अपेक्षा- संभावना उपलब्धि की किस

बस छटपटाने से काम न चले, रोग क्या है व उपचार तुरंत प्रारंभ।

लक्ष्य-निर्माण चाहिए इस अकिंचन को, चाहे प्रकृति ही या अंतर्यात्रा

कितना भी वीभत्स हो सब तम निकाल बाहर फेंको, नहीं है चिंता॥

 

कलम-कागद हो सुप्रयोग, चित्रकर्मी की बस न है कूची से पहचान

सामग्री-औजार से किसी को न मतलब, पर क्या रचा है महत्त्वपूर्ण।

परिप्रेक्ष्य-निर्माण निज-दायित्व ही, प्रक्रिया कुछ काल पश्चात नगण्य

अंततः परिणाम में ही रुचि है, भोजन चाहिए, कैसे बना न मतलब॥

 

पर यह एक श्रम का विषय है, जब निकेतन बनेगा तभी संभव वास

यदि कृषक खेती न करे, कहाँ से खाना मिले, किसी को न है ज्ञात?

जीवन इतना तो नहीं सरल निट्ठलेपन से चले, सुस्तों की देखो दीनता

देखकर विभिन्न प्रयोगों का विस्तीर्ण, अपने मन को मैं सकूँ महका॥

 

क्या मुझसे भी कुछ उत्तम सम्भव है, प्रशिक्षण योग्य संस्था में ले लो

नौसिखिए सम न करो आचरण, क्या उचित विधि ही है अपना लो।

सामग्री क्षमता -गुणवत्ता वर्धन हेतु है, शक्ति मात्र तुम तक न स्थित

यदि सहारा लो उपलब्ध युक्तियों का, निस्संदेह कल्याण है सम्भव॥

 

निज शक्ति बढ़ाओ मित्र-बंधु सहयोग से भी, यह सर्व-जग तेरा ही

मानो मूल्य देना ही होगा, क्यों हो डरते, उत्तम वस्तुऐं महंगी होती।

जीव-कल्याण इतना भी न सुगम, मन की मर्जी तो नहीं, होए स्वयं

प्राण-समर्पण तो करना ही होगा, बिन मरे तो स्वर्ग-दर्शन असंभव॥

 

किंचित विशाल सोचो, लिखो भित्ति पर तो, सदैव प्रेरणा रहे मिलती

पथ बहु सुगम हो जाता है, जब चलोगे तो मंजिल जाएगी दिख ही।

मानव-धर्म है उच्च-प्रेरणा हेतु, वर्धन हो निज तुच्छता से ऊर्ध्व-मन

स्व-उत्थान निज-दायित्व ही, कोई आकर न शीर्ष पर करेगा तिष्ठ॥

 

मन सन्तोष में पढ़ेगा तो, यकायक सफलता-कुञ्ज में ही प्रवेश होगा

शरीर-बुद्धि दोनों प्रसन्न होंगे, वास्तविक उद्देश्य भी तब इंगित होगा।

यह एक विडम्बना है, एक कदम बढ़ाने पर ही अग्र का पता चलता

एक उपाधि मिली तो अन्यों में उत्सुकता बढ़ती, विवरण है मिलता॥

 

प्रथम दिवस ही किन उपाधियों का संचय होगा, ऐसा तो सदा अज्ञात

हाँ कड़ियाँ जुड़ती जाती, एवं कदम बढ़ते, महद दूरी तय हो है जात।

जीवन में मात्र यही दीर्घ इच्छा है, उस परम-लक्ष्य का रहे नित चिंतन

पूर्व भी इसी अन्वेषण में बीत रहा है, जल्द ही उपलब्धि मिलेगी पर॥

 

श्वास बढ़ता इस आशा के साथ ही, कुछ योग्य करने में हूँगा सक्षम

पर जीव-विकास नित स्वतः प्रक्रिया, अति-शीघ्रता से भी न सुफल।

किंतु इस स्व- मन का क्या करूँ, निज-अपेक्षाओं में ही है उलझता

बहुत कर्म अधूरे, इस नन्हीं जान को सुबह-शाम रोना-पीटना लगा॥

 

गति परम में हो परिवर्तन इसका, कुछ महात्माओं में लगे उपस्थिति

क्या प्रबुद्ध होगा यह भी, शंकित सा, पर निराश हो नहीं बैठूँगा कभी।

ओ जिंदगी, जरा पास तो आओ, व स्पंदन मेरे मन-देह रोमों में कर दे

सदा मुस्कुराना-चलना सिखा दे मुझे, व्यर्थ तर्क-बकवादों से हटा दे॥

 

हो सार्थक-संवाद, प्रेरणामय शब्द-प्रयोग, इस अकिंचन की हो शैली

उच्चतम शिखर-इंगन हो सम्भव, गतिमानता तो सदा श्रम में है मेरी।

ओ सखा, अमूमन लिखो गागर में सागर तुम, पर सत्यमेव गहन-मंथन

तभी तो मोती-माणिक्य, रत्न निकलेंगे, अतः रखो निज लेखनी-चलन॥



पवन कुमार,
१४ अगस्त, २०१६ म० रा० ०१:१० बजे 
(मेरी डायरी १६ जुलाई, २०१६ समय १०:१० प्रातः से)

Saturday, 30 July 2016

विहंग-दर्शन

विहंग-दर्शन 


निरत निनाद विहंग-वृन्द ध्वनित है प्रातः, प्रेरित करें बनो शाश्वत

अन्य भी चहकते लघु चेष्टाओं में, प्रमुदित हों करें दिवस आरंभ॥

 

ये हैं साम-गीतिका के ऋषि, प्रातः नीड़ों से निकल गुंजन करते

आशय तो निज मन ही समझें, हमें तो प्रायः अनुशासित दिखते।

पंख-फड़फड़ाहट, शाखाओं पर फुदकें, अदाऐं सदा मन-मोही

भाँति-भाँति के गीत गा रहें, सुनता हुआ मैं मनन-लेख में सोही॥

 

ये मित्र प्रातः ६ बजे ही जगा देते हैं, क्यों सोऐ हो बाहर तो आओ

हमारे लिए भी तो समय निकालों, निज मृदुल-काव्य में समाओ।

हम भी तुम्हारा ही जीवन- भाग, मधुर गायन से वातावरण सुंदर

संग ही निवास द्रुमों के पर्ण-नीड़, आनंद-संतोष हैं स्व- धरोहर॥

 

न किसी से ही है याचना, दिवस-परिश्रम, पंख फैलाते सुदूर तक

नन्हें चूजों हेतु चुग्गा लाते हैं, मानव सम तो रखते नहीं उपकरण।

जीवन लघु पर हम उसमें आनंदित, जितना हो सके करते प्रयास

प्रत्येक क्षण मधुर-यापन में प्रयोगित, व्यर्थ चेष्टाओं में नहीं स्वार्थ॥

 

मानव तो बड़ा बन बैठा, छोड़ प्रकृति-चिंतन, सबको किया तीर

अरे भाई हम भी आऐं धरा पर पूर्व, अग्रज हैं कुछ सको तो सीख।

बहुत कुछ देखा है प्राचीन समय से, वसुंधरा- रूप बनते-बिगड़ते

पर काल संग अठखेलियाँ, समस्त कायनात में अनुकूल विचरते॥

 

भोर में सूरज के उगने से पूर्वेव, हम तत्पर सहज जीवन यात्रा हेतु

प्रातः नर्तन-गायन हमारी शैली, बिना मनन-प्रार्थना करते न शुरू।

देखो सुबह के मधुर-राग, गीत का महत्व हमारे जीवन में तो बहुत

 लघु तन में कंठ-फेफड़ें सुदृढ़, उर-धड़कन, आरोग्य-क्रिया सरल॥

 

देखो न हमारी आदतें, अल्प -संतुष्ट, पर जीवन का है पूर्ण-आनंद

व्यर्थ की न मारा-मारी, प्रकृति विशाल, प्रयास से ही लेते पेट भर।

 समन्वय सीखा है हमने जीवन में, अज्ञात या विदित भी न देते कष्ट

 हम नभचर पंख प्रयोग जानते हैं, न कोई कयास साँसत में व्यर्थ॥

 

बैठते हैं वृक्ष-शाखों, भवन-कगूरों, बिजली-तारों व छत-मुँडेरों पर

जहाँ आसरा वहीं स्व-क्षेत्र, पिंजर-बद्धता न सुहाती, हम उन्मुक्त।

झूलती उच्च शाखाओं पर दूर-दृष्टि, किंतु हमें अपने काम से काम

दूजों के मामले में हस्तक्षेप न, हाँ परोक्ष रुप से देते अनेक लाभ॥

 

सामान्यतया यूँ सहज रहते, एक वातावरण निर्माण हेतु दीर्घ वय

धीमान तुमसे पर समझते स्वयं को, सत्य अर्थ बताऐ कोई समर्थ।

आत्म-अतिश्योक्ति न करते, आंदोलन-यत्न हेतु निज सहज-यापन

प्राप्त पर्याप्त उदर-पूर्ति हेतु, उपलब्ध समय आनंद ही निकेतन॥

 

मानव लुब्ध प्रकृति में, अन्यथा अन्य लेते हो परमावश्यक जितना

जब सब कुछ यहीं ही है रहना, किराए के मकान से मोह कैसा?

यह हमारी पूर्वज- संपदा, इसकी पवित्रता सहेजना निज कर्त्तव्य

खाऐंगे-पियेंगे, जिऐंगे-मरेंगे यहीं, आगामी हेतु भी छोड़ना सत्व॥

 

किसके हैं ये नन्हें पाँव, किसके पंखों की है छाँव, किसकी हैं ये-

नीली आँखें, शीश निराला किसका है, बतलाओ जी किसका है

मधुरतम कंठ किसका, कौन द्रुत उड़ान से दूरी पाटन-समर्थ है।

किसकी अपने निकट-पड़ोस में ही रुचि, कौन ध्रुवों के पार जाते

कैसे दिशा-स्थलों के परीक्षक, एक समय बाद पुनः लौट आते॥

 

कैसी योगी-मुद्रा उनकी, सब जानते-देखते हुए शांत-मुस्काते हैं

वृक्ष पर बैठे जैसे चिंतन-रत, क्या चलता है उस लघु तन-मन में?

बीजों का स्थान-परिवर्तन करते, प्रकृति उपज में होती सहायता

जितना आवश्यक उतना करें, जो बचा निज ही कहीं न जाएगा॥

 

माना विविधता बहु कार्य-कलापों में, तो भी है ढ़ंग-संदेश निराला

प्रेरणामय नर सतत मनन हेतु की, फुर्सत में बैठ स्व को जाँचता।

क्यों असक्षम हो उन योगी सम अंत: संभालो बहि: को त्याग कर

यह अंतः -मंथन पैमाना स्थिति का, उत्थित होवो सब समय तुम॥

 

इन नन्हें पँछियों ने मुझ निष्प्राण-नीरस में, प्राण-प्रवाह चेष्ठा है की

आभारी हूँ मैं इस नव- स्वरूप से, संचेतना का क्षेत्र तो बढ़ेगा ही।

पर कैसे प्रतिस्थापित करूँ पर्याप्त, निज उत्तम अग्र-स्थिति में भी

महद-आनंद हेतु रूपांतरण आवश्यक है, प्राण-पूर्णता अनुभूति॥

 

प्रकृति ने मुझे गढ़ा है मनुज रूप में, पर अन्य रूप भी हैं मेरे ही

अंतिम प्राकृतिक विकास-क्रम के, सब जीव-अवस्थाऐं पूर्व की।

क्या विवेचन है सक्षम सोपानों का, जिन पर चढ़ पहुँचा यहाँ तक

असल-आनंद तो गति-अवस्था में है, स्मरण पूर्व मूल से जोड़ें पर॥

 

विकास-क्रम तो नित्य-सतत, कहाँ ले ही जाएगा नितांत अविदित

मनन-कर्म प्रक्रिया, वर्तमान अवस्था में नव-दिशा करेगी इंगित।

सतत यात्रा असंख्य चेतन-देह स्वरुपों में, मैं भी भागी खेल में इस

मम विकास की यह जन्म-सीमा, पर वंशानुगत जींस करेंगे अग्र॥

 

पर सोच-कथन-श्रवण, पठन-पाठन, तर्क-विमर्श-दर्शन भी वाहक

मनीषी-प्रबुद्धों ने सदा-चिंतन से ही किया है परिवेश सद्प्रभावित।

अनेक ही परोक्ष कारक-संवादों की प्रक्रिया है, होगा संगति-असर

ज्ञानी-सुजन संपर्क अनुपम वर है, अमूल्य समय उपकार हम पर॥

 

कीर्ति-अपयश की न चिंता है, सर्वोत्तम मम हेतु क्षणों में उपलब्ध

क्या मुझसे कुछ निर्माण संभव, जो जगत-सुगति में हो सहायक?

प्रकृति दत्त एक मंच-समय, दिखाओ तो अपना अभिनय अनुपम

टूटने दो भ्रम अन्यों के तव विषय में, वीतरागी हो रहो अनवरत॥

 

बी.के.एस आयंगार की 'Tree of Life' पढ़ रहा, बताते मुद्रा-ध्यान

न मात्र अन्यों की नकल पर, अंदर से नया निकसित करो विचार।

योगीजन ढ़ंग से प्रभावित करें, क्या मुझमें भी सकारात्मक रूचि

मम जीवन भी अन्यों सम ही, उचित सुधार से बना दो तेजोमयी॥

 

कैसे निकलूँगा अधो-स्थिति से इस, यम-नियम तो बतलाने होंगे

न विराम लेने दूँगा सहज, गहन मुक्ति-आकांक्षा है इसी जन्म में।

जीवन मिला तो घड़ सुकृति में, किंचित आत्म- संतोष ही निवृत्ति

कह सकूँ बुद्ध सम 'सत्य मिल गया', निर्वाण देह-मन सहज ही॥

 

इन मित्र-पंछियों से कुछ सीखो, वसंत है अति-मधुर गुनगुना रहें

सुनता हूँ उन्हें निकट ही, रह-रह कर उपस्थिति आभास जताते।

तुम प्रबुद्ध जगाओ तम-सुप्तावस्था से, अनंत-यात्रा राही बनाओ

एक ज्ञान-पथिक मैं बनूँ सतत, प्रमदता त्याग अपूर्व से संपर्क हो॥



पवन कुमार, 
३० जुलाई, २०१६ समय २३:४२ बजे म० रा० 
(मेरी डायरी ४ मार्च, २०१६ समय ९:१७ प्रातः से)

Sunday, 17 July 2016

सुपथ-मनन

सुपथ-मनन 


कौन ज्ञान कहाँ-उदित, जब सामान्यतया तो हम होते निस्पंद

विशेष परिस्थिति में विद्वान बनें मनुज, भावमय होते हैं शब्द॥

 

कहाँ से व्याख्यान- शक्ति मिलती, कौन जोड़ता तंतु-अवयव

कैसे भिन्न पहलू होते हैं समन्वित, संचित होता कुछ अनुभव?

स्मृति पटल से बहु-तथ्य हैं समक्ष, मस्तिष्क करता फिर योग

कर्म-ज्ञान इंद्रियाँ होती संचालित, वाणी-प्रवाह करता उद्योग॥

 

प्रतिदिन बहु जीवन-परिस्थितियों में, वक्ता है दर्शित ज्ञान-पुँज

सदा तो सामान्य ही दिखता, बन कैसे जाता है सरस्वती-कुञ्ज?

विभिन्न विषयों या स्व-क्षेत्र में, मूढ़ भी कई बार दर्शित है प्रवीण

अंधों में काना राजा बनता', प्रत्येक समूह विशेष में हैं सर्वांगीण॥

 

सत्य ही श्रेणी है अल्पज्ञ-सुविज्ञों की, यदि उपलब्ध ज्ञान हो वर्णन

पर आवश्यक न कोई हर जगह पारंगत, सदा सर्वत्र हो धुरंधर।

सामान्यतया नर स्व-क्षेत्र में श्रेष्ठ, तुलना करना है मात्र हास्यस्पद

विद्या कराती संपर्क बहु-कलाओं से, जीव में सक्रियता-उत्तंग॥

 

कौन प्रेरणा सुप्तावस्था से जागृत करा, सामान्य से निकाले पार

उद्योग मन-वाणी-कर्म से, स्वछंद खग की सुदूर गगन-उड़ान।

मनुज मन-उद्विग्नता निम्नावस्था की, हर उद्योग स्व-स्थिति सुधार

अप्रमुदित तम-रज वृत्ति-आचरण में, सत्त्व में ही हो आविष्कार॥

 

कैसे मन के लवें बदलते, परिष्कृत मनोभाव-आचरण-व्यवहार

संस्कृतिकरण या उच्चावस्था-संपर्क प्रयास, बनता जीवन-भाग।

प्राणी श्रेष्ठता ग्रहण-अधिकारी, विस्तृत विश्व प्रदत्त करे कर्म-क्षेत्र

जितना चाहो - चूम लो, फैलाओ झोली होवों स्व-सीमा से अग्र॥

 

बहु-दोष प्राणी-तत्व में, महत्वाकांक्षा कराऐ आदर्श-साक्षात्कार

एक गुण- संपर्क स्थापन चरित्र में, अन्य प्रदोष शनै होते बाहर।

उत्तरोत्तर वृद्धि विस्तृतता-दिशा में, मनुज बन सकता ब्रह्म-अंश

यह एक उच्च मन-भाव से संपर्क, सर्व-युक्ति कराती निज-यत्न॥

 

कैसे मनन होता उच्चतम भाव में, सर्व-प्रेरणा कराए अग्रसरित

मनुज देखता संभव श्रेष्ठ-तल को, प्रयासरत सतत स्व-स्फुरित।

न आकांक्षा कर्म-कांड हो जड़ित, बनूँ कुछ प्रज्ञान-विज्ञान भिक्षु

बुद्ध सम किंचित स्पष्ट-द्रष्टा, सर्व-कल्याण को ही खोले हैं चक्षु॥

 

शिव सी निमील- अम्बकम गहन-ध्यान मुद्रा, क्या अध्याय-चिंतन

क्या मात्र मनन-सुधार हर ग्रंथि का, या सर्व-स्रष्टि हेतु है निमंत्रण?

बहु-अवरोध हैं आम जन को निर्वाह में, शृंखला-निर्मूल हेतु प्रयास

हर कली विकसित पूर्ण पुष्प में, प्रमुदित-समर्पण से फैले सुवास॥

 

कैसे ज्ञात हो परम-लक्ष्य मन में, अति-पीड़ा अल्प-निम्नावस्था में

जप-तप, स्वाध्याय-प्राणायाम साधना हेतु, दुर्लभ कर-बद्धता में।

मनुज तन मिला हैं अल्पकाल हेतु, कितना हो सकता स्तर-वर्धन

रत्नाकर से वाल्मीकि बना है, भंड से बाणभट्ट या सिद्धार्थ से बुद्ध॥

 

किस परमोचित के अन्वेषण से, मन विव्हलित होता दिवस-निशा

न मात्र वाकपटुता-रुचि, अपितु मौन-धैर्य-सहनीयता ही हैं दिशा।

निज श्रेष्ठ स्वरुप दृश्य भी है अति-निम्नाकांक्षा, हाँ गुण प्रसार गति

आवश्यक न नित प्रमुदित भाव हों, स्तर-ऊर्ध्व संघर्ष-घर्षण से ही॥

 

अनेक चिंतक हैं सर्वोत्तम झलक को, सात्विक-भाव से मृदुल चिंतन

देव के विभिन्न नाम दिए जाते हैं, गुण-दर्शन एवं आचरण में मंथन।

परम में लय तो बदला स्व-सकल, दीन परिष्कृत है सर्वाधिक समृद्धि

आशीर्वाद श्रेष्ठ का तो उन्नति निकट, चिंता न है किसी अवरोध की॥

 

इस अल्प को भी सुपथ दिखा, दीर्घ-काल बीता है बेतुके संवादों में

जग के अन-सुलझे प्रपंचों से बहिर्गमन, शक्ति निज-बात कहने में।

व्यवहार-निपुण बना कर्त्तव्य-सुनिर्वाह को, स्थिति होगी सुसम्मानित

कार्य प्रदत्त तो पूर्ण करेंगे ही, भागना न लक्ष्य, दर्शाना साहस-निज॥

 

कुछ अनुपम क्षण अतएव भी दो, संपर्क पाकर तुमसे हो आत्मसात

सीमित मात्र मनन तक न रखना, व्यवहार में भी अवश्यमेव सुभाव॥


पवन कुमार,
१७ जुलाई, २०१६ समय ४:00  बजे अपराह्न  
(मेरी डायरी दि० ११ फरवरी, 2016 समय ९:२८ बजे प्रातः से)