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Sunday 25 March 2018

विद्यानग-पथ

विद्यानग-पथ 
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कितना बना वह शिक्षित, इसका पैमाना है क्या 
कुछ उपाधियाँ एकत्रित भी, पर क्या वे पर्याप्त ?

कितना शिक्षा-यत्न, कितना वास्तव में ही समझता  
कितनी फिर स्मृति ही, कितना आचार में ला पाता ? 
कितने अल्प सतही ज्ञान पर, यूँ इतराता है फिरता 
स्वयं को फिर विद्यानग समझता, एक घोर बचपना! 

उसके मन की क्या थाह, चेतना कहाँ तक पहुँचती 
क्या वर्णन-संवाद अन्यों से, निज संग कैसी दोस्ती?
किन विषयों पर गूढ़ संवाद, कहाँ उसे मिलता रस 
कहीं नर क्षीणता-उपहास, बनाता तो न हास्यास्पद?

क्यों रहता नादान व नहीं डूब जाता गहन अध्ययन में 
कुछ विद्या-अर्जन हो तो उचित संवाद भी लगे करने। 
अविद्या को तुम ज्ञान-दीप प्रकाश से किञ्चित हटा  दो 
कालिदास सम मस्तिष्क-कपाट को पूरा ही खोल दो। 

बुद्धि कोष्टक-द्वार अर्ध-बंद, नहीं है उनका पूर्ण प्रयोग 
कितनी उनमें संभावना,  कैसे खुले एक प्रश्न विशाल। 
किनका साथ  चाहिए, जो कुछ उत्प्रेरित कर तो सके 
कौन उत्तम-पथ गमन अथक, आत्म-जागृति करा दे ?

कुछ उल्टा-सुलटा सीख, विद्वता की करता कोशिश 
जब न है अभिज्ञान, तो क्यों नहीं करता मौन-धारण?  
उचित ज्ञान चाहे क्यों न हो अल्प, तथापि है सार्थक   
बुद्धि सागर तो विपुल, पर डुबकी-सामर्थ्य  सीमित। 

 शिक्षित होने की अभिलाषा, रूचि स्वाध्याय में नहीं पर 
कुछ लेखन-चेष्टा भी, पर बिना किसी विषय के प्रारम्भ। 
निरंतरता कुछ दिखती, पर भटकाव भी होता ही बहुत 
कैसे फिर शिक्षित-श्रेणी में, पठन-लेखन दोनों ही अल्प।

कैसे बने शिक्षित, मात्र कुछ विषय-भाषा लेखनी तो नहीं 
बहु-विषय व पुष्कल तथ्य, पर कुछ नर तो अति प्रवीण। 
हर एक तो विश्व लिए,  कितनों को हम जानने में सक्षम  
तथापि प्रयास संभव, यदा-कदा ही यह हूक लगती पर। 

सत्य ही पूर्ण-ज्ञान अति-दुष्कर, फिर किस स्थल हो यत्न
  कौन वे अभिरुचि-विषय, जहाँ हो महद ऊर्जा-विनिवेश।  
कैसे स्व-थाह बढ़ सकती, अन्यों के निकट आने से कुछ 
कैसे हो ज्ञान-वर्धन निज-धारा का, एक विचारणीय प्रश्न। 

देखूँ महामानवों को तो, वे भी न हैं सर्व-विषय पारंगत  
अतः सब मन-भ्रांतियाँ खण्डित, कर लो स्व-गर्व मर्दन। 
अडिग कुछ शैक्ष्य-शैली में, जो जानो औरों में बाँटो वह
होगा फिर सुधार गिर्द, और ज्ञान-मार्ग की बढ़ेगी राह। 

निज चरण-शोधन कर लो, अति-दूरी है सुधार दुर्धर  
जीवन-दुराह पर चलकर, संभावना बढ़ा लो सशक्त। 
विद्या-ग्रहण में निरत-उन्मत्त, यत्न से स्व-निर्मित सुभग 
जीवन माना अति जटिल, समझो कुछ बनाओ सरल। 

सुरूचियों को बढ़ा दे, शिक्षा का पाठ पढ़ा उचित कुछ 
अभी निद्रा-तंद्रा तंग कर रही, सोने को रही बाध्य कर। 
कुछ न सूझे उत्तम तो, फिर कभी चेतना का लेना संग 
निश्चय ही शिक्षित बन जाओगे, पर योग्य बना दे प्रथम। 

पवन कुमार,
२५ मार्च, २०१८ समय १८:२९ सायं 
( मेरी डायरी दि० ९ अगस्त, २०१४ समय ११:१५ बजे म०रा० से )  


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