Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday 9 March 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद - ८ (भाग -१)

परिच्छेद -  (भाग -१)

"सीधे सूर्य अस्त होना प्रारम्भ हो गया था, जैसे वह महाश्वेता की कथा सुनने पर कष्ट से दिवस-कर्त्तव्य त्याग रहा हो। तब दिवस धूमिल हो गया; ज्योतिर्मय लोहित लम्बित दिनकर जैसे पूर्ण-पुष्पण में प्रियंगु-कुञ्ज का पराग; नभ-दिशाऐं सूर्यास्त-ज्योति बिखेर रही थी, मृदु जैसे अनेक उत्पलों के रस से रंजित कौशेय। गगन रक्तिमा से रंजित था, एक चकोर की पुतलियों जैसे चमकता, जबकि इसकी नीलिमा छुपी हुई थी; गोधूलि शोणित हो रही थी और पृथ्वी को प्रकाशित कर रही थी, पीली-भूरी जैसे एक कपोत के नयन; परस्पर स्पर्धा करते नक्षत्र-मण्डल अग्र दमक रहे थे; रात्रि-तमस कालिमा में गहन हो रहा था, और एक वन्य-महिषी सम अपनी कृष्ण देह से सितारों के चौड़े पथ को चुरा रहा था; अरण्य-वीथियाँ (मार्ग) परस्पर युजित प्रतीत हो रही थी जैसे कि उनकी हरीतिमा महद-विषाद द्वारा अदृष्ट हो गई थी; निशा-ओस संग शीतल समीर बह रही थी; वन्य-कुसुमों की सुवास द्वारा चिन्हित अपने मार्गों द्वारा, जैसे कि यह वृक्ष और लताओं की गुत्थियों को हिलाती थी; और जब रात्रि में इसके खग सुप्तावस्था में थे, महाश्वेता शनै उठी, और अपनी सन्ध्या-प्रार्थनाऐं कहती हुई कलश-जल से अपने चरण-प्रलाक्षन (धोना) किए और एक ऊष्म, दारुण्य आह संग अपने वल्कल-आसन पर निष्ठ हुई। चन्द्रापीड़ भी उठा और सुकुसुमास्तरण (पुष्पों द्वारा बिखेरे) जल का एक उत्सर्ग अर्पित किया, अपनी सन्ध्या-स्तुतियाँ कही, और मृदु लता-पल्लवों द्वारा अन्य शैल पर एक आसन बनाया। जैसे उसने इसके ऊपर विश्राम किया, वह पुनः अपने मन में महाश्वेता की कथा पर विचार करने लगा। 'इस पातकी मदन', उसने सोचा, 'के पास उपचार सहन करने में अत्यंत कर्कश बल है। यहाँ तक कि महापुरुष भी, जब उसके द्वारा पाशित किए जाते हैं तो काल-पथ का विचार नहीं करते हैं, अपितु शीघ्र ही समस्त पराक्रम त्याग देते हैं और जीवन-समर्पण कर देते हैं। तथापि कामदेव की जय हो, जिसका अधिपात्य त्रिलोकों में सम्मानीय है।' (३४४) और पुनः उसने उससे पूछा : 'वह जो तुम्हारी परिचारिका थी, वन-आवास के व्रत में तुम्हारी सखी, और तुम्हारे दुःख में लिए गए तापसी-व्रत की साँझी - तारालिका, वह कहाँ है?' 'उत्तम मान्यवर', उसने उत्तर दिया, 'अमृत-जनित अप्सराओं की जाति से, जिसके विषय में मैं तुम्हें बता चुकी हूँ, मदिरा नामकी एक सुनयिनी कन्या उत्पन्न हुई, जिसका विवाह नृप चित्ररथ से हुआ, महाराज जिसका पादासन सभी गंधर्वों के मुकुट-कमलों से निर्मित था। उसके असंख्य गुणों से हर्षित, उसने उसको महारानी की उपाधि देते हुए अपना अनुग्रह प्रस्तुत किया, इसको चँवर से धारण करते, प्रभुत्व छत्र, एक सुवर्ण-सिंहासन द्वारा चिन्हित, और सभी रनिवासों को उसके अधीन करते हुए - एक नारी की असाधारण महिमा। और, परस्पर में उनके अत्यंत-समर्पण में जैसे वे यौवन-सुख भोग रहे थे, उपयुक्त काल में उनसे एक कादम्बरी नाम की अमूल्य दुहिता जनित हुई, अत्यन्त विस्मयी, अपने अभिभावकों और सभी गंधर्व-जाति का मात्र-प्राण, और यहाँ तक कि सभी जीवित प्राणियों का। अपने जन्म से ही वह मेरे बचपन की सखी थी, और मेरा आसन, शय्या, भोजन जल साँझा करती थी; उसके ऊपर मेरा गहनतम स्नेह स्थित था, और वह मेरे सब विश्वासों (गोपनीयों) का निकेतन थी, और मेरे अन्य उर सम थी। संग-2 ही हमने नृत्य गायन सीखा, और हमारा बाल्यकाल, क्रीड़ा जो इससे सम्बन्धित है, से मुक्त स्वतन्त्र व्यतीत हुआ। मेरी दारुण कथा से दुखित उसने एक व्रत लिया है कि वह एक पति स्वीकार नहीं करेगी जब तक मैं कष्ट में हूँ, और अपनी सखियों के समक्ष उसने यह कहते हुए शपथ ली : "यदि मेरे तात ने अन्यथा अथवा किसी समय मेरी इच्छा के विरुद्ध बलात मेरा पाणि-ग्रहण किया, मैं क्षुधा, अग्नि, फंदा, अथवा विष से अपना जीवन शमन कर लूँगी।" चित्ररथ ने स्वयं अपनी दुहिता का सब व्रत सुना, अपने अनुचरों के पुनरावृत्त प्रलापों में सकारात्मक वचन दिए गए, और जैसे समय बीतता गया, देखकर कि वह पूर्ण-यौवना वर्धित हो रही थी, वह महद संताप का बलि बन गया और एक काल हेतु किंचित में भी सुख नहीं लेता था, और तथापि, क्योंकि वह उसकी एक मात्र संतति थी और वह उसको अत्यधिक प्रेम करता था, वह उसको कुछ कह भी नहीं सकता था, यद्यपि उसे कोई अन्य विकल्प दर्शित नहीं हुआ। किंतु जैसे उसको प्रतीत हुआ कि काल अभी उपयुक्त है, उसने राज्ञी मदिरा संग विषय का मनन किया और दूती क्षीरोदा को इस संदेश संग ब्रह्म-महूर्त में भेजा : "प्रिय महाश्वेता, हमारे उर प्रथम ही तुम्हारे दुःखद दैव से ज्वलित थे, और अब यह नव आपद हम पर गई है। तुमसे हम कादंबरी को पुनः प्राप्त करने की इच्छा करते हैं।" उसके पश्चात, उन जैसे इतने आदरणीय, और अपनी सखी से स्नेह में, मैंने तारालिका सहित क्षीरोदा को कादंबरी से इस वचनार्थ भेजा कि एक पूर्व ही पर्याप्त कष्ट में वृद्धि की जाए, क्योंकि यदि वह मुझे जीवित रहने की आकांक्षी है तो उसे अपने तात के वचनों को पूरित करना ही होगा; और उत्तम श्रीमान, तुम्हारे इस स्थल पर आगमन से पूर्व ही, तारालिका दूर जा चुकी थी।' यह कहकर वह मौन हो गई।

"तब इंदु उदित हुआ, अपने लक्षण द्वारा महाश्वेता के हृदय को उद्वेलित करता हुए, दुःखाग्नि द्वारा जलाते हुए, युवा-तापसी की मृत्यु के महद अपराध को धारण किए हुए, दक्ष-शाप की अग्नि के दीर्घ अंतर्निहित घाव-चिन्ह को दर्शित करते हुए, स्थूल-भस्मों द्वारा शुभ्र, और कृष्ण-मृग द्वारा अर्ध-आवरित, दुर्गा के वाम-वक्ष, शिव की मोटी-जटाओं के जटा-रत्न सम। तब पर्याप्त समय तक चन्द्रापीड़ ने महाश्वेता को सुप्त देखा, और निःशब्द स्वयं को अपनी पर्ण-शय्या पर लेटा लिया, और यह सोचते हुए सो गया कि वैशम्पायन दुःख करती पत्रलेखा और उसके राजन्य साथी तब उसके विषय में क्या अनुमान लगा रहे होंगे।

"तब प्रभात पर, जब महाश्वेता उषा को सम्मानित कर चुकी और अघमर्षण बुदबुदा रही थी, और चन्द्रापीड़ ने अपनी प्रातः-वंदना कह ली, केयूरक नामक एक गंधर्व बालक संग तारालिका आती दिखाई दी। जैसे ही वह निकट आई, उसने चंद्रापीड़ को अपलक देखा, विस्मय करते हुए कि वह कौन हो सकता था और महाश्वेता के पास आते हुए, उसने निम्न हो कर नमन किया और आदर सहित उसके पास बैठ गई। और विलक्षण विरल सुंदरता, देवों, दैत्यों, गंधर्वों और विद्याधरों का उपहास करती, और यहाँ तक किकामदेव को भी पीछे छोड़ती महाश्वेता द्वारा तब दूर से ही अपने सिर को नीचे झुकाए हुए उस पर एक दृष्टिपात से केयूरक ने कुछ दूर एक शिला पर अपना आसन ग्रहण किया।

"जब वह अपनी प्रार्थनाऐं समाप्त कर चुकी, महाश्वेता ने तारालिका से पूछा, "क्या तुमने मेरी प्रिया कादंबरी को ध्यान से देखा और क्या वह करेगी जैसा मैंने कहा था ?" 'राजकन्ये', तारालिका ने एक अति-मृदुल ध्वनि में शीर्ष को आदर से झुकाते हुए कहा, "मैंने राजकुमारी कादंबरी को सभी प्रकार से भली-भाँति देखा, और उसे तुम्हारा संदेश सुनाया था; जब स्थूल-अश्रुओं की सतत-धारा संग उसने इसे सुना, और उसका क्या उत्तर था, उसका वीणा-वादक केयूरक, जिसको उसने भेजा है, तुमको बता देगा।', और जैसे उसने विराम लिया, केयूरक ने कहा, 'राजकन्ये महाश्वेता, मेरी स्वामिनी कादंबरी ने एक गहन-आलिंगन सहित यह संदेश भेजा है : "क्या यह संदेश जिसको मुझे सुनाने हेतु तुमने तारालिका को भेजा है, मेरे अभिभावकों को प्रसन्न करने हेतु है अथवा मेरी भावनाओं की परीक्षा लेने हेतु; अथवा यह हमारी मित्रता-भंग करने की एक इच्छा है, अथवा एक जो तुमसे प्रेम करती है उसको त्यागने का उपकरण है, अथवा मात्र क्रोध है? तुम्हें ज्ञात है कि मेरा हृदय एक प्रेम से उमड़ता है जो मेरे में जन्म से ही है। तुमको एक इतने क्रूर संदेश भेजने में लज्जा क्यों आई? तुम जो वाणी में इतनी मृदुल हो, किससे तुमने अकरुणीय मात्र तिरस्कार कहना सीखा ? कौन अपनी चेतनाओं में, यद्यपि प्रसन्न भी हो, यहाँ तक कि एक तुच्छ विषय ही क्यों हो, को अपने चित्त में लाएगा जिसका अंत दुःख में हो? मेरे जैसी एक कितनी अल्प, जिसका हृदय एक सखी के कष्ट द्वारा पीड़ित है? क्योंकि एक सुहृदा के दारुण से शीर्ण एक हृदय में हर्ष की क्या आशा हो सकती है, क्या शांति, क्या सुख अथवा क्या प्रमोद (हर्ष)? मैं विषैले, अकरुण, निर्दयी कामदेव की कामना कैसे पूर्ण कर सकती हूँ, जिसने मेरी प्रिय सखी को पलायन की निराश-स्थिति में ला दिया है? यहाँ तक कि चक्रवाकी भी, सूर्यास्त द्वारा जब कमल-कुंज अस्वामी हो जाते हैं, जो उनके मध्य आवास से उदित होता है, अपने स्वामी संग संधि के हर्षों से निवृत होती है; नारियों को तब कितना अधिक करना चाहिए? जब मेरी मित्र दिवस रात्रि अपने स्वामी की क्षति हेतु शोक करती निवास कर रही है, कोई अन्य मेरे उर में कैसे प्रवेश कर सकता है; और जब मेरी सुहृदा अपने दुःख-संताप में स्वयं को प्रायश्चित से उत्पीड़ित करती है, मैं कैसे इतना तुच्छ मनन कर सकती हूँ कि अपने स्वयं के आनंदामृत का अन्वेषण करूँ और एक वल्लभ (पति) स्वीकार करूँ, अथवा कैसे मुझपर कोई हर्ष पतित हो सकता था? क्योंकि तुम्हारे स्नेह से मैंने इस विषय में कन्याओं के स्वभाव के विलोम एक स्वतंत्र-जीवन आलिंगन द्वारा दुष्कीर्ति को अनुमोदित किया है। मैंने उत्तम-कुल से घृणा की है, अपने अभिभावकों के आदेशों का उल्लंघन किया है, मानव-जाति के प्रवाद (गपशप) को नगण्य किया है, एक नारी की नैसर्गिक (सहज) गरिमा लज्जा को फेंक दिया है; कैसे, मुझे बताओ, एक ऐसे को वापस जाना चाहिए? अतएव मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ, तुम्हारे समक्ष नमन करती हूँ। मैं तुम्हारे चरण-आलिंगन (स्पर्श) करती हूँ, मेरे हेतु कृपालु होवों। जैसे तुम अतएव मेरा जीवन अपने संग लेकर वन में गई हो, इस प्रार्थना को अपने मन में, यहाँ तक कि स्वप्न में भी मत निर्माण करना।' इस प्रकार कहकर वह मौन हो गया, और महाश्वेता ने एक दीर्घ-चिंतन किया, और तब केयूरक को यह कहते हुए विदा किया, 'तुम विदाई लो', मैं उसके पास जाऊँगी और क्या उपयुक्त है, करूँगी। उसके विदा होने पर उसने चंद्रापीड़ से कहा, "कुमार, हेमकुंट रमणीय है और विचक्षण चित्ररथ की राजनगरी है, किन्नर-देश कुतूहली है, गंधर्व-विश्व ललित, और कादंबरी कुलीन एवं हृदय से उदार है। यदि तुम यात्रा को अति-अरोचक विचारते हो, यदि कोई गंभीर (अहम) व्यापार बाधित होता हो, यदि तुम्हारा मन दुर्लभ दृश्यों को देखने हेतु उत्सुक है, यदि तुम मेरे वचनों से उत्साहित हो, यदि विस्मयों की दृष्टि तुम्हें हर्ष देती है, यदि तुम मेरे अनुरोध मानने की कृपा करते हो, यदि तुम मुझे अस्वीकृत करने के उपयुक्त विचार करते हो, यदि कोई सौहार्द हमारे मध्य उत्पन्न हुआ है, अथवा यदि मैं तुम्हारी अनुकंपा की सुपात्र हूँ, तब तुम इस विनती को पूर्ण करने हेतु अवहेलना नहीं करोगे। अतः तुम मेरे साथ जा सकते हो, और मात्र हेमकुंट को नहीं देखोगे, जो लालित्य-समृद्ध है, अपितु मेरी द्वितीय-आत्म कादंबरी को भी; और उसकी इस मूढ़-तरंगों को हटाकर तुम एक दिवस विश्राम कर सकते हो, और अगली सुबह यहाँ लौट सकते हो। क्योंकि अतएव अकारण दत्त तुम्हारी करूणीय दृष्टि द्वारा, मेरा दुःख सहनीय हो गया है, क्योंकि मैंने तुम्हें अपनी यह कथा सुनाई है, उच्छवास करते हुए जैसे यह दारुण के तमस संग दीर्घ-विव्हलित एक हृदय से था। क्योंकि उत्तम जन की उपस्थिति उनको भी हर्ष देती है जो चित्त से निराश हों, और एक गुण ऐसों से उदित होता है जैसे कि तुम वह हो जो अन्यों को प्रसन्न करने का पूर्ण-प्रयास करता है।'

"देवी", चंद्रापीड़ ने उत्तर दिया, 'तुम्हारे दर्शन के प्रथम क्षण से ही मैं तुम्हारी सेवा में समर्पित हूँ। कृपया अपनी अभिलाषा बिना किसी संशय के अधिरोपित होने दो'; अतएव संबोधन करते हुए, वह उसकी संगति में प्रारंभ हुआ।

"निश्चित काल में वह गंधर्वों की राज्य-नगरी हेमकुंट पहुँचा, और इसके स्वर्ण-द्वारों संग सात अंतः-पुरों से गुजरता हुआ, राजकुमार राजकन्या-निकेतन पर पहुँचा। अनुरक्षकों द्वारा अग्र-चरणित, जो महाश्वेता के दर्शन पर दूर से ही नमन करते हुए और अपने सुवर्ण-दंड पकड़े हुए अग्र दौड़ रहे थे, उसने प्रवेश किया और कन्या-हर्म्य को अंदर से निहारा। यह एक किशोरी-लोक सम प्रतीत हुआ, पूर्णतया असंख्य कामिनियों हेतु निर्मित, जैसे कि त्रिलोकों का वनिता-गण एक ऐसा योग बनाने हेतु परस्पर एकत्रित हुआ है; अथवा यह एक नूतन पुरुष-विहीन रचना हो, बालाओं का एक तथापि अजन्मा प्रायद्वीप, कुलनाओं का पंचम-युग, अथवा अनेक युग-निर्माण हेतु एक नारी-वैभव रचना। बाला-सौन्दर्य की तरंग इसकी सभी दिशाओं में विस्तृत होती थी, जिसने शून्य (आकाश) को पूरित कर लिया था, दिवस-सुधा छितरित करता, विश्व-अंतरालों पर वैभव बरसाता, और एक हरित-मणि सम शोभायमान चमकता, हर्म्य को दैदीप्यमान करता जैसे कि यह एक सहस्र इंदुओं संग हो; यह शशि-ज्योत्स्ना में प्रतिमान था; रत्न एक अन्य नभ-रचना कर रहे थे; चमकीले नयनों द्वारा सेवा दी जा रही थी; प्रत्येक भाग यौवनीय-सुखों हेतु निर्मित थी; रति-क्रीड़ाओं हेतु यहाँ एक सभा थी, काम-अभ्यास हेतु एक सामग्री, यहाँ सभी हेतु मदन द्वारा मृदु (कोमल) बनाया गया था; यहाँ स्नेह, सौंदर्य, अनुराग की सर्वोत्तम देवी, मदन के शर, सब कुछ विस्मयी था, और यौवन-तनुता थी। जब वह एक अल्प-पथ जा चुका, उसने कादंबरी के गिर्द किशोरियों की सुहानी वार्ता सुनी जैसे कि वे इधर-उधर टहल रही थी। जैसे कि लावलिका, हरितिका-क्यारियों को केतकी-पराग से सजाओ। सागरिका, सुवासित जल-पोखरों में रत्न-रज छिड़को। मृणालिका, कृत्रिम मृणाल-पंक्तियों में क्रीडनक (खिलौना) चक्रवाक-युग्ल को चंदन-चूर्ण सहित रख दो। मकरिका, ठिकरे (सूखी सुगंधित पत्तियों के मिश्रण) को कर्पूर-रस द्वारा सुगंधित करो। राजनिका, घन तमाल-वीथियों में रत्न-जड़ित दीपक रखो। कुमुदिका, दाड़िमों (अनार) को पक्षियों से दूर करने हेतु मोती-जड़ित जालों से ढ़को। निपुणिका, रत्न-विभूषित पुत्तिकाओं (गुड़ियों) के वक्ष पर चंदन-रेखाऐं चित्रित करो। उत्पलिका, कदली-आवास में नीलम-मंडप को सुवर्ण-मार्जनियों (बुहारी) द्वारा बुहारो। केसरिका, बकुल-पुष्पों के गृहों को मदिरा द्वारा फुहारित करो। मालतिका, कामदेव के पूजा-स्थल की गज-दंत जड़ित छत को लाल-सीसे से रक्तिक करो। नलिनिका, पालतू कलहंसों को उत्पल-मधु पान करने दो। कदलिका, गृह-मयूरों को धारा-गृहों में ले जाओ। कमलनिका, शिशु-चक्रवाकों को उत्पल-पर्णों से कुछ रस तो दे दो। चूतलतिका, पिंजर-बंद कपोतों को आम्र-कुसुमों का उनका भोजन तो दो। पल्लविका, पालतू हरिताल-कबूतरों को मिर्ची-पादपों के ऊपरी पल्लव दो। लवंगिका, तीतर-पिंजरों में पिप्पली-पल्लवों के कुछ टुकड़े डालो। मधुकरिका, कुछ पुष्प-आभूषण बनाओ। मयूरिका, गायन-कक्ष में किन्नर-युग्ल को विदा करो। कन्दलिका, क्रीड़ा-शैल के तीतर-युग्ल को ऊपर लाओ। हरिणिका, पिंजर-बद्ध शुक-सारिकाओं को उनके पाठ याद कराओ।

"तब उसने कादंबरी स्वयं को उसके चारों बैठी एक तरुणी-मंडली द्वारा वृत्त में उसके हर्म्य-मध्य में देखा जिसके चमकते रत्नों ने उसे एक कल्प-तरु कुञ्ज सम बना दिया। वह अपनी मुड़ी भुजाओं पर विश्राम कर रही थी, जो नीले कौशेय से एक लघु-आसन पर रखे एक शुक्ल उपधान (तकिए) रखी थी; उसे चँवर-धारकों द्वारा वात की जा रही थी, जो अपनी लहराती भुजाओं की गति में उसके लालित्य की चौड़ी बहती धारा में तैराकों सम थे, जैसे कि इसने वसुधा को ढ़क लिया था, जिसको मात्र महावराह के दन्तों द्वारा ऊपर उठाया गया था।

"और जैसे ही उसका प्रतिबिंब पतित हुआ, वह भुजंगों द्वारा धारण की गई नीचे रत्न-जड़ित कुट्टिम (फर्श) पर स्थित प्रतीत हुई;  निकट भित्तियों पर दिक्पालों द्वारा नेतृत्व किए जाने हेतु, ऊपर छत पर देवों द्वारा ऊपर स्थापित करने हेतु; स्तंभों द्वारा अपने अंतः-करण में धारण करने हेतु; हर्म्य-मुकुरों द्वारा अपने में पान करने हेतु, मंडप में फैले छत से नीचे देखते विद्याधरों द्वारा गगन में उठाने हेतु चित्रों की छद्म में छिपे ब्रह्मांड द्वारा पारित करने हेतु, उसको निहारने हेतु एक सहस्त्र नेत्र प्राप्त स्वयं हर्म्य द्वारा देखी जाने हेतु उसको देखने हेतु सभी एकत्रितों के नेत्र फैले थे जैसे वे उसके रत्नों से टकराते हुए नृत्य करते थे, जो अपने कुतूहल में उसको निहारने से एक दिव्य अंतर्दृष्टि प्राप्त हुए प्रतीत होते थे।

"उसकी रमणीयता जागृत-प्रेम के प्रभाव को धारण करती थी यद्यपि अभी तक वचन में, और वह बाल्य-काल का रूप एक ओर हटाती प्रतीत होती थी एक किंचित शून्य-मूल्य की वस्तु सम।

"ऐसी थी कादम्बरी जब पार्थिव ने उसको निहारा। उसके समक्ष केयूरक बैठा था, चन्द्रापीड़ की चारुता की श्लाघा में उच्च-स्वर, जिससे कि कादम्बरी ने यह कहते हुए प्रश्न किया, "वह कौन है, और उसका कुल, नाम, रंग-रूप, और वय क्या है ? उसने क्या कहा, और तुमने क्या उत्तर दिया ? तुमने उसे कितना दीर्घ देखा ? वह महाश्वेता का एक मित्र सम अन्तरंग कैसे बन गया ? और वह यहाँ क्यों रहा है ?"

"अब, कादम्बरी के मुख की इंदु सम सुंदरता को देखकर कुमार का हृदय समुद्र-ज्वार भाँति विव्हलित हो गया। 'क्यों ?' उसने विचारा, 'विधाता ने इन्द्रियों को मेरी दृष्टि में ही निर्मित किया, अथवा मेरी चक्षुओं ने क्या ऐसा उत्तम कृत्य किया है कि वे उसको अनियंत्रित देख सकती हैं ? निश्चित ही यह एक विस्मय है। स्रष्टा ने प्रत्येक लालित्य हेतु एक निकेतन रचा है ! इस अथाह रमणीयता के अंगों को कैसे एकत्रित किया गया है ? सत्य ही मनन-श्रम में कर्ता के लोचनों से पतित-अश्रुओं से, जैसे उसने उसे अपने करों से साँचे में डाला होगा, विश्व में सभी अरविन्द अपने जन्म रखते हैं।

"और जैसे ही उसने अतएव विचारा, उसके नयन उसकी नयनों से मिलें, और यह विचारते हुए, 'यह वही है जिसके विषय में केयूरक ने बोला है, उसकी अनुपम चारुता पर विस्मय से स्फुरित हुई अपने नयनों को उसपर दीर्घ और शांत-भाव से विश्राम करने दो। कादम्बरी की दृष्टि से भ्रमित, तथापि उसके लोचनों की चमक द्वारा जगमग, वह एक क्षण हेतु एक पाषाण की भाँति खड़ा हो गया, जबकि उसपर दृष्टिपात से कादम्बरी में एक सिहरन सी उदित हुई, उसके रत्न टकराए, और वह आधी खड़ी हुई। तब मदन ने एक उद्दीप्ति उत्पन्न की, किन्तु उपालंभ (बहाना) शीघ्रता से उठने के प्रयास का था; कम्पन ने उसके चरणों को बाधित किया - नूपुर-ध्वनि द्वारा आकर्षित चारों ओर के हंसों ने दोष लिया; एक आह के उभार ने उसके परिधान को सिहरा दिया - यह चँवर-वात के कारण विचारा गया; उसका कर उसके हृदय पर पड़ा, जैसे कि चन्द्रापीड़ के चित्र को छूना चाहता हो जो उसमें प्रवेश कर गया था - इसने उसके आँचल को छुपाने का उपालम्भ किया; उसने अपने हर्ष-अश्रु पतित होने दिए - बहाना था कि उसके कर्ण-पुष्पों से पतित पराग हो। लज्जा ने उसकी वाणी बन्द कर दी, शीघ्रता करता मधुकर-गण उसके आनन के मृणाल-माधुर्य हेतु कारण था; काम-शर के प्रथम-सम्पर्क की पीड़ा ने आह उत्पन्न कर दी - कुसुमों के मध्य केतकी-कंटकों के दर्द ने अपराध साँझा किया; उसके पाणि को एक कंपकंपी ने हिला दिया - जो उसकी प्रतिहारिणी (दासी) को दूर करने का एक व्याज (बहाना) था जो उसके पास एक सन्देश के साथ आई थी; और जबकि कादम्बरी में काम प्रवेश कर रहा था, एक द्वितीय मदन, जैसा कि यह था, उठा, जो उसके संग चन्द्रापीड़ के उर में भी प्रवेश कर गया। क्योंकि उसने उसकी रत्न-आभा को एक अवगुंठन (मुखपट) ही समझा, अपने हृदय में उसके प्रवेश को एक अनुग्रह, उसके कंगन-खनखनाहट को एक संवाद, उसकी समस्त इन्द्रियों का उस द्वारा हरण एक महिमा, और उसकी उज्ज्वल सुंदरता संग सम्पर्क उसकी सर्व-कामनाओं की पूर्ति। इस मध्य, कठिनता से कुछ पग लेकर बढ़ती कादम्बरी ने स्नेह एक उत्कंठ-अभिलाषा संग अपनी सखी को आलिंगन कर लिया, जो बहुत देर से उसकी दृष्टि की कामना करती थी, महाश्वेता ने उसका आलिंग्न और भी अधिक सामीप्य से लौटाया, और कहा, 'प्रिय कादम्बरी, भारत-भूमि में एक नृप तारापीड़ है, जो अपनी प्रजा की सभी पीड़ाओं को दूर करता है, और जिसने अपना प्रमाण चारों महासमुद्रों पर अपने उत्तम-अश्वों के खुराग्रों से चिन्हित किया है, और चन्द्रापीड़ नामक उसका यह पुत्र अपनी शैल-सम भुजाओं के सहाय से पृथ्वी-वृत्त में विभूषित है, अपनी विश्व-विजय के लक्ष्य में इस भूमि पर पहुँचा है; और वह, प्रथम क्षण से ही जबसे मैंने उसे निहारा है, स्वाभाविक रूप से मेरा मित्र बन गया, यद्यपि उसको अतएव बनाने हेतु ऐसा कुछ नहीं किया था; और यद्यपि मेरा उर सभी बन्धनों के अपने त्याग से शीतल था, तथापि अपने चरित्र की विरल जन्मजात (स्वाभाविक) उत्तमता के कारण उसने यह आकर्षित कर लिया है। क्योंकि संवेदनशील मस्तिष्क के एक पुरुष को ढूँढना दुष्कर है जो नितांत सत्य-हृदय, सखात्व में निस्वार्थी, और विनीतता से पूर्णतया आड़ोलित है। अतएव उसको परख कर ही मैं उसे यहाँ बलात लाई हूँ। क्योंकि मैंने विचारा कि जब तुम भी उसे ऐसे निहारोगी जैसे कि मैंने ब्रह्मा की दक्षता का एक विस्मय किया है, चारुता का अतुल्य स्वामी, एक उत्तम-भूमि में पृथ्वी-सुखों, लक्ष्मी का एक स्थान लेने वाला, नश्वरों द्वारा देवों को पीछे छोड़ता, कामिनियों के नयनों का पूर्ण-फल, समस्त कीर्तियों का एकमात्र मिलन-स्थल, उत्तमता का साम्राज्य, और मनुष्यों हेतु एक विनम्रता-मुकुर। और मेरे द्वारा वह प्रिय सखा ही प्रायः उवाच किया गया है। अतएव पूर्व में उसके अलोकित होने की लज्जा भूमि पर त्याग दो, उसके एक अस्पष्टकीर्ति (अज्ञात) होने का दुर्बल-भाव एक ओर रख दो, उसके शील के अपरिचित होने से उदित शंका को त्याग दो, और उससे अतएव व्यवहार करो जैसे कि मेरे से। वह तुम्हारा एक सुहृद है, तुम्हारा बंधुजन, और भृत्य। उसके इन वचनों पर चन्द्रापीड़ कादम्बरी के समक्ष नत-मस्तक हुआ, और जैसे उसने बाजुओं से स्नेह से उसपर दृष्टि डाली, अपने दीर्घ-वृत्तों के कोनों की ओर मुड़ी अपनी सुंदर पुतलियों संग, उसकी नयनों से हर्षपूर्ण अश्रुओं की प्लुत, यद्यपि श्रांत हो, पतित हुई। एक स्मित की चन्द्रिका, अमृत सम शुभ्र, अग्रसर हुई, जैसे कि यह उर द्वारा उठाई गई रज है जैसे इसे शीघ्रता से चलायमान किया गया हो; शीर्ष को एक उत्तर देती एक भौंह उठी जैसे कि हृदय के अति-प्रिय अथिति का स्वागत कर रही हो। उसका कर उसके कोमल पृथक ओष्ठों पर रेंग रहा था, ऊँगलियों के मध्य एक नीलम की अंगूठी की दमक जैसे कुछ तांबूल लिए प्रतीत हो रहा था। वह कुछ अविश्वास से झुकी, और तब महाश्वेता के संग आसन पर बैठ गई, और परिचारिकाऐं शीघ्रता से सुवर्ण पाए की एक पादुका और शुक्ल-कौशेय का एक वस्त्र ले आई, और इसे आसन निकट रखा, और चन्द्रापीड़ ने वहाँ अपना आसन ग्रहण किया। कादम्बरी की इच्छा जानकर परिचारिकाओं ने महाश्वेता को प्रसन्न करने हेतु और बन्द ओष्ठों पर एक कर द्वारा सभी ध्वनि रोध का एक आदेश लेते हुए, प्रत्येक दिशा में बीन, वीणा गायन को, और मगध-वनिताओं के 'जयनाद' को बन्द कराया। (३७०) जब भृत्य शीघ्रता से जल ला चुके, कादम्बरी ने स्वयं महाश्वेता के चरण धोए, और अपने अंशुक द्वारा उन्हें शुष्क करते हुए, पुनः आसन पर बैठ गई; और कादम्बरी के अनुरूप एक सखी मदालेखा, अपने स्वयं के प्राणों सम प्रिय और उसके सभी विश्वासों का निकेतन, ने चन्द्रापीड़ के चरणों का प्रलाक्षन करने का आग्रह किया, यद्यपि वह अनिच्छुक था। इस मध्य महाश्वेता ने कादम्बरी से पूछा वह कैसी है, प्रेम से अपने हस्त से अपनी सखी की नयनों को स्पर्श किया, जो कर्ण-आभूषणों के प्रकाश में प्रतिबिम्ब से चमकता था, उसने कादम्बरी के कर्ण में लगे कुसुमों को उठाया, मधु-मक्षिकाओं द्वारा पूर्णतया आवरित, और कोमलता से चँवरों की पवन द्वारा अस्त-व्यस्त हुई उसकी केश-अलकों को सहलाया। और अपनी सखी-स्नेह से अपने भली-प्रकार रहने से लज्जित कादम्बरी, जो ऐसे सोच रही थी कि जैसे अभी तक प्रासाद में रहने में उसने एक अपराध किया है, ने एक यत्न के साथ कहा कि उसके साथ सब कुशल हैं। तब, यद्यपि दुःख-पूरित और महाश्वेता के आनन पर एक दृष्टि-अभिलाषा करती, तथापि अपनी कृष्ण पुत्तलिका संग और जैसे ये बाजुओं में देख रही थी, फड़कती थी, कामदेव के प्रभाव में थी, धनुष पूर्णतया झुका हुआ, चन्द्रापीड़ के मुख द्वारा अबाधित खिंचा, और वह इसे हटा नहीं पा रही थी। उसी क्षण निकट खड़ी उसने अपनी सखी के कपोल पर उसके बने चित्र से ईर्ष्या अनुभव की - पीड़ा जैसे उसके अपने स्वयं के वक्ष पर मन्द हुए उसके प्रतिबिम्ब (छाया) मन्द हुई, एक हर्ष द्वारा छेदित - एक प्रतिद्वंद्वी भार्या का क्रोध जब मूर्तियों की छाया उसपर पड़ती थी - जब उसने नेत्र बन्द किए निराशा का दारुण, और अंधता जैसे कि हर्ष-अश्रुओं द्वारा उसकी छवि आवरित हुई हो। 

"एक क्षण पश्चात जैसे वह ताम्बूल देने की इच्छुक थी, महाश्वेता ने कादम्बरी से कहा : 'प्रिय कादम्बरी, हमारे नव-आगुन्तक अतिथि चन्द्रापीड़ को सम्मान दिखाने हेतु हमारा समय गया है।अतः उसको कुछ दो।' परन्तु अपने झुके मुख को एक ओर करते हुए, कादम्बरी ने धीमे अस्पष्ट रूप से उत्तर दिया : 'प्रिय सखी, मुझे ऐसा करने में लज्जा आती है, क्योंकि मैं नहीं जानती हूँ। क्या तुम इसे लोगी, क्योंकि तुम बिना हिचक कर सकती हो, मुझमें हिचक होगी, और इसे उसको दे दो; और काफी अनुरोध के पश्चात ही और वह भी कठिनता से, और एक ग्रामीण-बाला की भाँति, उसने इसे देने का निश्चय किया। उसके नेत्र महाश्वेता के मुख से कदापि नहीं हटे थे, अंग काँप रहे थे, उसके नयन तरंगित थे, उसने गहन आह ली, वह कामदेव द्वारा दण्ड से विस्मित  थी, और वह एक भय की एक मृगया प्रतीत होती थी जैसे कि उसने अपना कर आगे बढ़ाया, ताम्बूल को पकड़े हुए जैसे किसी वस्तु से चिपकने का यत्न कर रही हो, इस विचार से कि वह गिर रही है। प्राकृतिक गुलाबी रंग का खिंचा चन्द्रापीड़ का कर इस प्रकार खिंचा कि जैसे कि उसके विजयी गज के फड़कने से इसपर पड़ा हो, धनुष-डोर के घावों से कृष्ण पड़ा था, और उसने अपने शत्रुओं की लक्ष्मी की नयनों को स्पर्श करने से चिपके काजल की बूंदें लेने हेतु प्रतीत होता था, अपनी आगे चमकती नखाग्र-किरणों द्वारा इसकी ऊँगलियाँ शीघ्रता से दौड़ती प्रतीत होती थी, लम्बी होने हेतु और हँसने हेतु, और हस्त पंच-ज्ञानेन्द्रियों में पाँच अन्य ऊँगलियों को उठाता प्रतीत होता था जैसे कि उसको स्पर्श करने की अभिलाषा में, अभी पूर्ण-प्रेम से उनका प्रवेश कराया हो। तब सर्व-रस प्रभाव ने कादम्बरी को अतएव पाश में ले लिया जैसे कि प्रवेश के इतने सरल उस क्षण में महिमा-दर्शन की उत्सुकता में परस्पर एकत्रित हुई थे। उसका कर, जैसे कि उसने नहीं देखा यह कहाँ जा रहा है, वृथा ही आगे खिंचा जा रहा था, और उसकी नख-मयूखें चन्द्रापीड़ के कर से मिलन हेतु अग्र शीघ्रता करते प्रतीत होते थी; और अपने कम्पन द्वारा सिहरते हुए यह भुजबंद-रेखा की ध्वनि से, जैसे जल-बूंदें इस पर उठी हों, यह कहते प्रतीत हुई, 'कृपया कामदेव द्वारा अर्पित यह दासी स्वीकार की जाय, जैसे कि वह स्वयं को अर्पित कर रही थी, और 'अब के पश्चात यह तुम्हारे हाथ में हैं', और जैसे कि वह इसे एक जीवित प्राणी में निर्माण कर रही हो, और अतएव उसने तांबूल दिया। और अपना हाथ वापस खींचने में उसने भुजबंद के गिरने पर ध्यान नहीं दिया, जो उसकी स्पर्श-उत्सुकता में उसकी भुजा से नीचे फिसल गया था, मदन के शर द्वारा घायल उसके हृदय सम, और ताम्बूल का एक अन्य भाग लेकर, उसने इसे महाश्वेता को दे दिया।

"तब वहाँ तीव्र क़दमों से एक सारिका (मैना) आई, उत्पल-पल्लव सम पीत एक कुसुम उसके पगों में था, उसकी चुँच एक चम्पा-कली सम थी, और उसके पंख एक अरविन्द-पत्र सम नीलम थे। उसके निकट पीछे से चाल में मद्धम, हरित-पंखों वाला, मूँगे सम एक चोंच, और त्रि-किरणों का इंद्रधनुष धारण किए एक वक्र-ग्रीवा एक शुक आया। क्रोध से सारिका ने शुरुआत की : 'राजकन्या कादम्बरी, तुम इस अधम, असभ्य, दम्भी शुक को मेरे अनुसरण से नियंत्रित क्यों नहीं करती हो ? यदि तुम उस द्वारा मेरे उत्पीड़न की उपेक्षा करती हो, मैं निश्चित ही स्वयं को नष्ट कर लूँगी। मैं इसे तुम्हारे कमल-चरणों की शपथ लेती हूँ।' इन वचनों पर कादम्बरी मुस्कराई; परन्तु कथा अज्ञात होने से, महाश्वेता ने मदालेखा से पूछा कि वह क्या कह रही थी, और उसने निम्नानुसार उपकथा सुनाई : 'यह सारिका कालिंदी, राजकन्या कादम्बरी की एक सखी है, और उस द्वारा पवित्र-विवाह में पारिहास शुक को दी गई है। और आज, जबसे उसने उसे कादम्बरी की ताम्बूल-वाहिका तमालिका से एकांत में अति-प्रातः कुछ संवाद करते देखा है, वह ईर्ष्या से भर गई है, और क्रोध-दुराग्रह में उसके निकट नहीं जाएगी, अथवा बोलेगी, अथवा स्पर्श, या उसको नहीं देखेगी; और यद्यपि हम सबने उसे शांत करने का प्रयास किया है, वह शांत नहीं होती।' इससे चन्द्रापीड़ के आनन पर एक स्मित छा गई, और वह धीमे से हँसा और बोला, 'यह प्रलाप-गति है। वह न्यायालय में सुना जाता है; कर्णों के एक अनुक्रम द्वारा परिचारिकाऐं इसे प्रसारित करती हैं; बाह्य विश्व इसे दुहराता है; कथा पृथ्वी के छोरों तक भ्रमण कर लेती है, और हम भी सुनते हैं कि कैसे यह शुक पारिहास राजकन्या कादम्बरी की वाग्गुलिका संग प्रेम में पड़ गया, और प्रेम-पाशित, भूत को कुछ नहीं जानता है। इस अशिष्ट, निर्लज्ज, स्व भार्या-त्यक्ता को दूर करो, और उस सारिका को भी दूर करो ! पर क्या राजकन्या द्वारा अपने चंचल दास को नियंत्रण करना उपयुक्त है ? किंचित उसकी निर्दयता, प्रथम बार अबला कालिंदी को इस शील-वर्जित खग में दिखी थी। अब वह क्या कर सकती है? क्योंकि स्त्रियाँ अनुभव करती हैं कि एक साँझा पत्नीत्व अमर्ष (रोष) हेतु कटुतम विषय है; मन-मुटाव संबंध-विच्छेद का मुख्य कारण है, और सबसे बड़ा सम्भावित अपमान है। कालिन्दी मात्र इतनी धैर्यवती है कि संताप के इस वहन द्वारा उत्पन्न प्रतिकूलता में उसने स्वयं की विष, अग्नि या प्लुत द्वारा हत्या नहीं की है। क्योंकि कोई अन्य एक कामिनी को इतनी घृणित नहीं बनाता है; और यदि, एक ऐसे अपराध के बाद भी, वह सामंजस्य-स्थापन की इच्छुक है और पुनः उस संग रहती है, उसपर लज्जा है। उसका बहुत हो चुका। उसको निर्वासित किया जाय और घृणा में बहिष्कृत किया जाय ! उससे कौन बोलेगा अथवा पुनः उसको देखेगा, और कौन उसका नाम लेगा? कादम्बरी का वनिताओं के मध्य एक हास्य उदित हुआ जैसे ही उन्होंने उसके परिहासमयी वचन सुने। (३७५) परन्तु उसके उपहास-वचन सुनकर पारिहास ने उवाच किया : 'निपुण पार्थिव, वह चतुर है। जैसे कि चंचल, वह तुम्हारे अथवा किसी अन्य द्वारा ली जा सकती है। वह इन सभी कुटिल वचनों को जानती है। वह एक विनोद को समझती है। उसका मस्तिष्क एक न्यायालय के सम्पर्क से प्रखर है। अपने विनोदों को विराम दो। वह वीर पुरुषों की वार्ता हेतु कोई विषय नहीं है। क्योंकि जैसे कि वह मृदु-भाषी है, वह भली-भाँति काल, कारण, परिमाण, वस्तु एवं क्रोध शांति हेतु विषयों को जानती है।" इसी मध्य एक दूत आया और महाश्वेता को कहा : 'राजकुमारी, महाराज चित्ररथ महाराज्ञी मदिरा ने तुम्हारे दर्शन हेतु सन्देश भेजा है', और जाने को उत्सुक उसने कादम्बरी से पूछा, 'सखी, चन्द्रापीड़ को विश्राम करना चाहिए।' उत्तरवर्ती ने इस विचार पर अन्तः से मुस्कुराते हुए कि उसने पूर्व से सहस्रों वनिताओं के हृदय में एक स्थान बना लिया है, उच्च-स्वर में कहा, 'प्रिय महाश्वेता, अतएव क्यों उवाच करती हो? जब से मैंने उसे देखा है, मैं स्वयं की स्वामिनी हो सकी हूँ, अपने हर्म्य एवं अनुचरों की तो और भी अल्प।' उसके पश्चात् महाश्वेता ने उत्तर दिया, 'उसको अपने हर्म्य के निकट राजन्य-उपवन की क्रीड़ा-पर्वतिका (शैल) पर बने रत्न-जड़ित निवास में रहने दिया जाय। और वह महाराज के दर्शनार्थ चली गई।
......क्रमशः   



हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(०९ मार्च, २०१९ समय २२:०६ रात्रि)

No comments:

Post a Comment