Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
Kind Attention:
Sunday, 15 June 2014
खुदा -करम
Saturday, 14 June 2014
माँ की विदाई
१२ मई, २०११ वीरवार, समय
करीब १२ :३० बजे दोपहर
माँ चल बसी, आया संदेश भाई
का कि माँ नहीं रही अब।
क्या गुजरी तब मेरे मन-तन
पर, बिलकुल टूट सा गया था
माँ गँवाकर शायद, जीवन की
सबसे बड़ी लड़ाई हारा था॥
हालाँकि मौत तो घटती सबके
संग, जग हेतु कुछ न नूतन
किंतु मेरी तो एक ही प्यारी
माँ थी, वह भी शीघ्र चली गत।
यह अभाव गहरा घाव कर, हृदय
पूर्णतया खाली कर गया
चाहकर भी कुछ न कर पा रहा,
खुद को अनाथ ही पाता॥
माँ क्या करूँ तेरे बिन मैं,
अब तो तुझसे लड़ भी न सकता
जब उत्तुंग था तुझसे भिड़ सा
जाता, गुस्सा व बहस करता।
फिर तू कुछ बूढ़ी हो चली थी,
बात में मेरा समर्थन करती
बहुत गूढ़ विषयों पर हम चर्चा
करते थे, तू विश्वास करती॥
माँ मुझे गर्व है कि तेरी ही
कोख में पला-बड़ा, लिया जन्म
तेरे स्तनों से दूध पीया है,
गोदी में खेला, गीले किए वस्त्र।
रोकर तंग किया, कभी
बाल-अदाओं से खुश किया होगा
तेरे हाथों से खाना, ऊँगली
पकड़ चलना व बोलना सीखा॥
बुखार में तू छाती पर लिटा
लेती, बीमारी में परेशान होती
शहर में वैद्य ढूँढ़ती, निज
से अधिक हमारी जान प्यारी थी।
भोजन खिलाती, लस्सी -दूध
देती, रोटी में मक्खन -घी देती
नहलाती, कपड़े पहनाती, दिनभर
गृह-कार्य में लगी रहती॥
तुम बहुत कम ही नाराज होती, गलतियाँ
सहन कर लेती थी
याद है कि गाँव के स्कूल
में, पहली बार तू ही लेकर गई थी।
पिता बीमार होते तो सेवा
करती, अतीव प्रेम था दोनों में तुम
कभी लड़ते भी, सब हालात देखे
संग, नैया निकाल ली पर॥
स्वार्थ में कभी अन्यों को
नकारती भी, संतानों पर बहु-प्यार
बेटी-दामाद से खास लगाव था,
स्मरण से ही खिलती बाँछ।
हम जब भी घर जाते, माँ-पिता
का प्रथम संदर्भ बहन होती
प्रश्न कि दीदी के घर हो आए,
या जाओगे यहाँ के बाद ही॥
कोशिश थी हम भाई-बहन प्यार
से रहें, अच्छाई ही बताती
विवाद-संदर्भ दूर ही रखती,
पता था क्या-कब चर्चा करनी।
अपनी तकलीफ़ अधिक न बताती,
कहती मैं तो ठीक हूँ ही
अन्य-विरोध मामले से दूरी,
कहती बहुत काम हैं अपने ही॥
तू चौहानों के गाँव की थी,
जहाँ अपेक्षाकृत मीठी है आवाज़
हमारे जाट-गाँव की खड़ी बोली
है, माँ की आवाज थी मधुर।
बड़ी सुबह राम- लक्ष्मण के
भजन गाती, बड़े ही सुरीले होते
सबसे प्रेम-पूर्वक
व्यवहार-शैली थी, कोई तुझे बुरा न कहते॥
मेरे अनुजों से खास स्नेह
था, उनकी खुलकर बड़ाई करती
पोते-पोतियों, नातियों की
चर्चा करती, कि कैसे सेवा होती।
और कहाँ वे बढ़िया कर रहे, व
उनकी अच्छी आदत विषय
सच भी वह उनके साथ रही,
जुड़ाव होना है स्वाभाविक॥
मुझसे तेरा स्नेह था, व दूर
जाने से परेशान ही हो जाती थी
एक बार नौकरी हेतु कश्मीर
गया था, इच्छा विपरीत तेरी।
माँ का डर स्वाभाविक, कई दिन
पहले बोलना छोड़ दिया
बाद में भी जब कई दिन बात न
होती, देती उलाहना सा॥
पर बाद में आयु बढ़ने के संग,
सबने देखा बड़ा प्यारा रूप
पड़ौस की चाची के पास जाने व
नमस्ते हेतु बोलती जरूर।
तू बड़ी रहम-दिल थी, अन्य-मदद
हेतु खुद से ही बोल देती
जहाँ भी किसी के यहाँ जरूरत,
स्वयं से संभव आगे बढ़ती॥
हमने तुझे हर रूप में जवानी,
मध्यमा व वृद्धावस्था में देखा
तू चाहे पूरे सौ वर्ष न सही,
जीवन का बड़ा अंश तूने जिया।
शायद तुझे अब ज्यादा शिकायत
भी नहीं थी इस जिंदगी से
और इसलिए जग से, इतनी शांति
से चली गई मुस्काते हुए॥
हम बहु-आभारी हैं तेरे, इस
जीवन में लाने व लक्ष्य देने हेतु
हमारे लिए तूने अनेक कष्ट
झेलें, और बनाया इस योग्य है।
तूने अपने खून के कतरों से
हमें पाला-पोसा, किया सिंचित
और विकसित वृक्ष में परिवर्तित करके, स्वयं हो
गई विलीन॥
माँ तेरी सुकीर्ति चहुँ ओर
है, और तू सदैव विजयी रहेगी
तू स्वयं जीत गई है, व सफल
बनाकर हमें भी जिता गई।
माँ तेरी महिमा-स्मरण जितना
भी करूँ, उतनी ही है कम
तू एक बहुत अच्छी माँ थी, पर हम बने रहें
नाशुक्रिए पूत॥
माँ तेरी बड़ी ज्यादा
सुश्रुषा तो, हम सब कर पाऐ हैं नहीं
बाहर की परिस्थितियाँ ऐसी
थी, तू ज्यादा संग ही न रही।
फिर भी जितना हमसे बन पाया,
तेरी सेवा -हाज़िर ही थे
और हम सदा तेरी लंबी उम्र
-स्वास्थ्य की दुआ करते थे॥
माँ तू चली गई दूर कहीं,
हमें व पिता जी को गई छोड़कर
पिता जी को तुझ पर नाज़ है,
कि तूने साथ निभाया बहुत।
सुभग हो कि अंतिम समय में,
साँस उनकी बाँहों में छोड़ी
पर अफ़सोस !, तेरी एक भी
संतान उस समय संग न थी॥
पर अंतिम विदाई में समस्त
संतान, बंधु-बांधव साथ थे तेरे
एक-२ करके, सब
रिश्तेदार-पड़ौसी-ग्राम जन जुड़ते गए।
और एक बड़ा काफ़िला सा बना था,
उस अंतिम डोली पर
नहा-सिंगर कर तो, तू बहुत ही
सुंदर दुल्हन रही थी लग॥
किंतु श्मशान जाते ही अचानक,
जैसे मोड़ लिया मुँह ही
सारा मोह त्याग दिया और बड़े
बाबुल की प्यारी हो गई।
किंतु तूने ही यह नया न
किया, पुरानी रीत है दुनिया की
हमें कोई शिकायत न तुमसे, पर
भुला न पाऐंगे ही कभी॥
माँ अब जहाँ भी जिस दशा में
है, पूर्णतया प्रसन्न रहना
हमें न पता है, कि तू हमें
कहीं से देख पा रही या नहीं।
पर हम तो तुझे हमेशा, अपने
पास हैं पाते ही अत्यधिक
वैसे ही जैसे सारी जिंदगी
पास थी, न ज्यादा ही न कम॥
बहुत करीब- बहुत करीब। मेरी
माँ॥
आत्म -संवाद
अपनी मन की गहराईयाँ मापना
चाहता हूँ
खुद को आत्म के समीप लाना
चाहता हूँ॥
यहाँ मेरी परिधि है क्या, और
क्या विस्तार
अंदर क्या सार ही है, और
क्या बहु प्रभाव?
क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ, व
कौन मैं नर हूँ
यही प्रश्न बारंबार मन को
घेरा करता है यूँ॥
अंतः किंचित गया तो, बाहर सब
गया हूँ भूल
एक विभ्रम की स्थिति सी,
अंदर हूँ या बाहर?
मन की प्राण-शक्ति भी, कोई न
देती परिचय
क्यों न औरों भाँति,
अति-श्योक्ति ही दूँ कर॥
जब सब संज्ञा-शून्य हैं, और
मैं भी हूँ निस्पंद
आत्म-ज्ञान तो न, और भी क्या
होंगे अधिक?
फिर वे मेरी बड़ी
प्राथमिकताऐं भी तो नहीं हैं
बस जड़ें ही अपने में, पूरा
समाना चाहती हैं॥
जीवन दिया है रब ने,
उद्देश्य भी जानता होगा
पर लगता कर्त्तव्य-क्षेत्र,
कुछ ज्यादा ही बड़ा।
वह उचित भी, और मुझे निर्वाह
करना चाहिए
पूरी शक्ति लगा, कुछ उचित
जानना चाहिए॥
लोग समझाते, कुछ अधिक
अवाँछित करना
मुझको सुस्त बना, उल्लू सीधा
चाहते किया।
शायद उनकी अकर्मण्यता -सोच
है वही तक
पर मुझे निज कर्त्तव्य-पथ
से, न होना विमूढ़॥
मेरे मन-अंदर ही,
बहु-व्यापकता है विद्यमान
वे हैं, मेरी विविधताऐं-बल
एवं विभिन्न स्वरूप।
उनसे अवगत हो, व मन-प्रकट
करना चाहता
किंतु कुछ तो है जो रूबरू होने से रोक लेता॥
मेरा किसी अन्य से वास्ता न
हो, ऐसी नहीं बात
पर शायद निज से निकलने का
समय मिला न।
विधाता ने भी, कोई बहुत
बहिर्मुखी नहीं बनाया
किंचित अतएव मेरी बाह्य की
पकड़ न ज्यादा॥
कोशिश करता, बाहर को यथासंभव
महत्तम दूँ
अपनी जिम्मेवारियों का बोझ
अन्यों पर न डालूँ।
प्रयास-निष्ठा तो, फिर अन्य
ही करेंगे मूल्यांकन
पर बेड़ी पड़े बाज सम, बल का
ज्ञान नहीं निज॥
बहुत कुछ जगत में चहुँ ओर,
किंतु मैं अधूरा
पढ़-लिख भी कुछ, निज को
अत्यल्प हूँ पाता।
अभी कुछ उत्तम लेख-कविता ही
न कर पाया
न अपना स्वरूप-दर्शन ही कभी
कर हूँ पाया॥
ये मेरी कोशिशें क्या-कैसी-कितनी
हैं समुचित
या इसमें और भी, सामग्री-दान
है आवश्यक।
इस जीवन-यज्ञ में मेरी क्या
भूमिका है चिन्हित
याज्ञिक जानता होगा, जिसने
किया है प्रेषित॥
मैं आना चाहूँ स्व-निकट,
ताकि मित्रता हो गूढ़
दूरियाँ सिमट जाऐं, खुद का
कर सकूँ स्पंदन।
विधि तकाज़ा भी, स्वयं-सिद्धि
ओर चला जाऊँ
शीघ्रता से आत्म-परिचय
सुनिश्चित ही कर लूँ॥
Monday, 9 June 2014
कुछ - कुछ
बड़ी अनूठी रात भई, जिसमें
बहुत कुछ छुपा हुआ
सोचूँ कैसे बनेगा भविष्य,
राज अभी तक नहीं पता॥
सबके मन में कूकेँ कोयल,
लेती आनंद-लहरें हिलोर
परंतु मैं तो डरा सा बैठा
हूँ, लेकर प्रभु-नाम की डोर।
चंदा की तो दिखें रोशनी, मैं
अंधकार हूँ पाता लेकिन
चाहकर भी न दीप्ति-दर्शन, बीती जाए जवानी शुष्क॥
कभी सोचा था बनूँगा वयस्क
मैं, शैशव भी न हुआ पार
यूँ ही मूर्ख सम हँसता, और
जीवन को न पाया समझ।
सुना परिश्रम से
संसिद्धि-लब्ध, मैं लक्ष्य-विहीन परे रहा
इन बीते वर्षों में क्या कुछ
कर, जीवन-पूर था सकता?
न चंचल न चलायमान, बस निज
दशा पर स्वयं-विव्हल
उम्र बीते ही, पर एक दिवस भी
न है साक्षात्कार-जीवन।
फिर क्यों बड़ी बातें, जब
लघु-विषयों में न हूँ सफल ही
मन- स्वामी कभी न बना, न
इसका अहसास हुआ ही॥
कब तक रहोगे ऐसे स्थित, कब
प्राणांत व प्राप्त नवजन्म
होगी जीवन- सुगबुगाहट, कब
मुझे होगा आत्म- दर्शन?
अकेले क्षणों में बुदबुदाता
हूँ, किंतु व्यस्त पल तो निष्क्रिय
अति अपूर्णता स्वयं-प्रतीत,
श्रेष्ठता-दामन दूर ही दर्शित॥
न कहता हीन-भावना, या फिर
कहूँ कि आत्मावलोकन
किंतु उमंग-ललक कुछ बनने की,
यदा-कदा तो प्रबल।
असह्य-पीड़ा हृदय-घावों की,
न्यून-सरसराने से भी टीस
सोचा था लेपन लगा दूँगा, पर
खोजने से भी मिली ही न॥
जब-तब प्रसन्न भी है, पर
एकांत में मनन-लुप्त चाहे बुद्धि
पर अनुभव सब सतही,
सद्गुरु-मिलन न हुआ है अभी।
अच्छे लेखकों से दूरी आजकल,
सुविचारक भी न मिलते
बचकानियों में समय बीते, तब
कैसे सुधार-आशा रखते?
संयम प्रथम पग-उन्नति,
मन-वाणी-कर्म अंकुश से मंज़िल
सफलता निकट ही है व फिर मन
में श्रेष्ठता का होगा संग।
स्वाध्याय से विचार
उदय-उत्थान है, व्यर्थ संवाद-कलहों से
वाणी में तेजस्विता-ओज हो,
हर शब्द-अर्थ सम्मानीय हो॥
सदा गांभीर्य भी न जरूरी, पर
उचित वाणी अवश्य संभव
तब किसी प्रति ईर्ष्या-बू न,
सबसे निभेगा बन्धुत्व-कर्त्तव्य।
फिर होंगे सात्विक विचार,
हरेक से करोगे प्रेम- व्यवहार
सुंदरता दिखे चहुँ ओर ही, व
रहे अनेक-सुख का व्यापार॥
प्रभु विनती, बख्श
सद्बुद्धि, वही मेरे व दूसरों के ही लाभ
करो जो तुम्हें उचित जँचता,
लेकिन हो सर्वहित-पूर्णन्याय॥
Saturday, 7 June 2014
मेरी हिम्मत
इस अजाने सफर में, कोई साथी
तो मिला
दूल्हा बेशक न बन पाया,
बाराती तो बना॥
कसक उठी थी मन में, कुछ कर
जाने की
मुश्किल हुई ज़रा सी, फिर
बैठा ही मिला।
यह तो कोई बात न हुई मज़बूत
मंसूबों की
दुनिया में इस तरह तो कोई
चोखा न बना॥
भारतेंदु-कहावत 'अंधेर
नगरी चौपट राजा,
टके सेर काजू व टके सेर
खाजा' है
प्रसिद्ध
क्यों मायूस हो, मौका है कुछ
करके दिखा।
इस मन-साम्राज्य के बन जाओ
तो बादशाह
चरम सफलता-सीमा तक ही, बढ़के
दिखा॥
बन अंतः- पावन और कर दे, दूर
वहम सारे
बस अंतरात्मा-दामन में ही
छुपता चला जा।
वह तो कर देगा दूर, तेरे भी
समस्त अंधियारे
फिर तू भी पूरी रोशनी से
चमकता चला जा॥
तेरी पुरज़ोर कोशिश नाम ही तो
सफलता है
फिर अगर कोई और, तो परिभाषा
बता जा।
छोड़ जा, अपने कदमे- निशाँ
यहाँ जमीं पर
सब न तो कुछ ही को, अपना प्रिय
बना जा॥
दैव से उन धुरंधरों की नगरी,
तू आ पहुँचा है
क्या कुछ वज़ूद तेरा भी है,
ज़रा दिखा तो जा।
जीना-मरना है तो जीवन की
स्वाभाविक क्रिया
अगर मर्द है तो मरकर भी, जी
कर दिखा जा॥
सुना था कोशिश का सबब ही तो
चारों तरफ़
उन्हीं से कुछ बड़ा सा तू
बनाता ही चला जा।
पर्वत से टकराने की भी तू
हिम्मत रखने वाले
हर बला को तो फिर तू झुकाता
ही चला जा॥
मेरी जान की बड़ी बाज़ी लगी है
इसी जन्म में
साहस से इसे और सफल बना के
दिखा जा।
परम-तत्व तक पहुँचने की
हिम्मत तू दे, मौला
सदा ही शुभ राह तू मुझको
दिखाता चला जा॥
योनियों के इस देश में क्या
कोई है वज़ूद तेरा
हिम्मत है तो इसे प्रसिद्ध
करके ही दिखा जा।
सीख जीवन सफल बनाने का होता
ही तरीका
फिर आँधी में भी नित्य तू
कदम चल बढ़ाता॥
चिर बीते पूर्वाग्रहों का,
नहीं मेरा कोई आलम
हर राहगीर को तू गले से
लगाता ही चला जा।
मैं तो हूँ सबका ही अपना, और
सब ही हैं मेरे
सद्भावना का यह पाठ दिल से
ही, पढ़ाता जा॥
Wednesday, 4 June 2014
एक आशा
चल दे मेरी ऐ प्रिय कलम, कुछ
राह तू आगे तो
वरना लगता, यह मस्तिष्क लगभग
गया है सो॥
तुम बिन इस एकाकी वेला में,
कितना अधूरा मैं
नयनों में नींद, देह में
थकान, हाथ में ठहराव है।
सर्द-रात, रजाई का साथ,
किंतु पैर हैं ठंडे अभी
तथापि मन चाहता है, कुछ कदम
चल जाऊँ ही॥
न ही शब्द, न सुर-संगीत, न
ही कोई चाह महद
चेतना-अभाव,
अज्ञानता-साम्राज्य, व मैं निस्पंद।
बहुत विकट है स्थिति, पर कुछ
भी तो न सवेंदन
दिवस-कुशलता, परिश्रम-ज्ञान,
सर्वस्व नदारद॥
फिर वह क्या मुझमें, जो अभी
तक न है मानता
और जो मुझको प्रायः ही
निर्जीव बनाना चाहता।
आखिर क्या भला चाहे वह
मुझसे, व हैं अपेक्षाऐं
किंचित उस के मन में कोई
अन्यथा ही लक्ष्य है॥
फिर उस परम-कर्ता के, हाथ की
हूँ कठपुतली
वह जैसा जहाँ चलाना चाहता,
चलना पड़ेगा ही।
यहाँ अपने या पराये के विवेक
की बात न कहीं
जब गुरु सु-सक्षम तो, आज्ञा
मानने में है भलाई॥
फिर मैं तो विधि-हाथों की
कृति व यहाँ हूँ प्रेषित
निश्चित ही उसके मन में तो,
योजना होगी कुछ।
सच में उसका है मुझसे,
आशीर्वाद-स्नेह अतिशय
तभी वह मुझ निष्ठुर पर भी
कृपा रखता है निज॥
जब माँ सरस्वती की, अनुकंपा
ही होगी मुझ पर
तो घन अंधेरे में भी उठकर,
सीधा जाऊँगा बैठ।
मन-तरंगें उठेंगी फिर घोर
जिज्ञासा-आकांक्षा की
और मैं भी श्रेणी में आ
जाऊँगा, प्रसाद-पात्रों की॥
दिवस कांति व
निशा-निस्बद्धता हैं, दिशा-सहाय
तब सुबुद्धि, मेरी
आत्मा-उज्ज्वल जाऐगी ही कर।
वीणा का सुमधुर-संगीत, मेरे
कर्णों में सुनाई देगा
सर्वोत्तम कला-साहित्य का
सर्वदा ही संग होगा॥
फिर मैं ही क्या, सर्वस्व
तन-मन तो उठेगा महक
विश्व में फैलेगी,
भीनी-खुशबू का अहसास सर्वत्र।
मैं उनका व सब वो मेरे, कोई
फासला ना रहेगा
जगत में चहुँ तरफ, बस मेरा
ही अपनापन होगा॥
तब जमेगी सुर-ताल, संगीत की
रोचक महफ़िल
फिर शायद, कुछ तुकबंदी करने
में हूँगा सक्षम।
होगा मधुर संगीत-नाद,
श्रेष्ठ अनुभव रोम से हर
निज कर्त्तव्यों में, मैं
तनिक भी न हूँगा लापरवाह॥
हे माँ, चाहूँ तेरी कृपा, एक
विश्व-पुरुष निर्माणार्थ
इसमें थोड़ा स्वार्थ है,
किंतु नहीं तो पूरा लालच।
जानता कि योग्य बना, प्रसन्न
अवश्यमेव तुम भी
सब माँ-बाप, संतति बनाना ही
चाहें बड़ी अच्छी॥
फिर शायद यहाँ, क्षुद्र
जीवन-उपस्थिति से इस
जग-कल्याण की आशा-अनुभूत हो
एक उत्तम॥
धन्यवाद माँ, अनुकंपा करना
शिशु पर
बहुत तड़पता हूँ तेरी करुणा
के लिए॥
Saturday, 31 May 2014
दर्द-ए -दिल
मैं तो परिवार के ख्यालों
में ही, बहुदा खोया रहता
बाह्य निर्गम-असक्षम, मात्र
उनमें ही हूँ डूबा रहता॥
तुम तो हार कर भी जीते, मैं
जीतकर भी हार जाता
मन तो सेवक है सनम, अगर बोले
तो मर भी जाता।
क्या कसक दी दिल में, अपने
ही दर्द में हूँ कराहता
न जानूँ गति इस स्व की, बस तुझमें ही हूँ बहा
जाता॥
बरबस यूँ ख्याल है तेरा, मैं
तो अपने से ही डरा जाता
न पता डगर ही अपनी, क्यों
हवा में तेरी उड़ा जाता।
आजीवन का संग पकड़ा, पर चंद
लमहों से घबराया
तुम तो दूर बैठे हो सनम, मैं
ख़्वाबों में ही डर जाता॥
दे निज कुछ शक्ति-अंश, मैं
तो अपना लुटा बैठा सब
तेरी बाहों का गर मिले साथ,
हर पल को दूँ शिकस्त।
तेरी यादों में खोया हूँ
बहुत, कुछ पता नहीं जिंदगी का
कैसे चलती किसकी भांति, कब
निज-ज्ञान ही होगा॥
झोली में पड़े बहुत से चमन,
तुझसे जो साथ हो जाए
किस्मत भी खपा सी, होते मिलन
को भी दूर ले जाए।
हालात पर यूँ दया न, किसी
शख्स को न रोना आता
किससे कहूँ दास्ताने-अपनी,
कुछ समझ नहीं आता॥
बन गया कुछ मजनूँ सा,
दिन-रैन लैला किया करता
मुझे कुछ भी सूझे न ऐ साथी,
आके जरा संभाल जा।
खो गया अपनी धुन में ही,
क्यों दूर चले गए हो मुझसे
हालात पर आंसू बहें, संभालने
वाला भी न है पथ में॥
ये गम-लम्हें उसपर यादें,
दर्द पर नमक सा छिड़का
दर्द कुछ अजीब सा, पर मुझे
तो पता न क्या माजरा?
दुनिया ने तो बहुत पीड़ाऐं
दी, पर सहन लिए जाता मैं
कुछ पथ दिखा जानूँ, करूँ
शिकायत भी तेरी किससे॥
मेरा भाग्य-दोष शायद, वरन
क्यूँ रोता जाता इतनी दूर
तू भी तड़पे बिना मेरे वहाँ,
हालत तेरी भी न है बेहतर।
किससे गिला करूँ सनम, यहाँ
हर कोई एक सा लगता
दीवाना सा फिरूँ उलझा, किस
कदर खुद में हूँ खोया॥
भोली सूरत पर दया कर, मुझ पर
नहीं तो महबूब ही पर
बिछुड़ा उनसे व हमसे वह, दर्द
में तड़पाएगा कब तक?
नीयत में खोट हो तो बता, मैं
क्या करूँ नहीं पाऊँ समझ
सुना तू बड़ा निर्णयी, मुझसे
क्यूँ नयन चुरा जाता फिर॥
क्या हालत बन गई मेरी, खुद
पर आंसू बहाता हूँ जाता
तेरी आँखों में सुना है दया,
फिर क्यूँ मैं नज़र न आता?
जीवन- शक्ति दे मुझको, तेरी
ही इबादत में लगा रहता
भूल गया हूँ सकल विद्या,
अपनी हालात पर रोए जाता॥
मैं तेरी डगर का पथिक, जिसको
दया का फूल न मिला
बड़ा सूखा हो गया दिल, कोई
आकर तसल्ली दे जाए।
बेड़ी कोई काट दे तो, उम्रभर
उसका गुलाम हो जाऊँ
तेरे जगत में कोई मरहम भी,
या घायल ही चला जाऊँ॥
कैसे करूँ सामना मैं तेरा,
दोषी हूँ भाग आया छोड़ कर
शायद किस्मत को रोती, कहती
भगोड़े से मिली किस?
मुझको भी समझ ले तो ऐ जानूँ,
इतना भी नहीं हूँ नाशुक्रा
माना मुज़रिम हूँ, पर दर्द
जितना वहाँ, अधिक ही यहाँ॥
किसे कराऊँ अहसास दर्द का,
मुझे ऐसा नज़र ना आता
सब सुनते बनावटी रहम खा, बाद
में कर देते अनदेखा।
सीने की जलन सही न जाती है,
कैसे सहूँ समझ न आए
कोई वैद्य भी नज़र न आता, आके जो मरहम लगा जाए॥
दूरियाँ स्थान की हैं बड़ी,
कैसे पार करूँ पंख भी तो नहीं
अच्छे फंदे में डाला जिंदगी,
सहेजना तुझे न आता सही।
डर सा गया हूँ अपने ही साये
से, ढ़ाढ़स न कभी मिलता
कोई कहता न पीड़ा बहुत, किसी
को न आती भी दया॥
भटकता हूँ इस जग में अकेला,
कोई साथी न आए नज़र
किससे रोऊँ- कहूँ -बखानूँ,
हर तो अपने में ही हैं मस्त।
मैं भी स्वार्थी बहुत
ज्यादा, और किसका ध्यान करता ही
डूबा हूँ अपने ही ग़म में, पर
किसी से शिकायत है नहीं॥
पर कब तक चलेगा ऐसा ही, मुझे
मौला तू दे दे होंसला
सुना था तू दयालु बहुत,
मुझको दया का पात्र तो बना।
बहुत तड़पा हूँ ऐ मेरे मौला,
अब और नहीं सहा है जाता
कहीं सब्र-बाँध टूट गया, तो दया का अर्थ न रह
जाएगा॥
किस कदर मैं यूँ ही भटकूँ, ऐ
सनम तू आकर सुला जा
घायल हो गए हैं पाँव मेरे,
चलते-२ लड़खड़ा हूँ जाता।
दुनिया मेरी रोशन कर दे,
औरों के भी तो घर बसते हैं
फिर ख़फ़ा ही क्यों मौला, बता
तेरा क्या बिगाड़ा मैंने॥
ज्ञात है थोड़ा बुरा हूँ, पर
ऐसा नहीं बिलकुल खराब ही
फिर कैसा बदला लिया, चाहे
शक्ल दिखा अपनी ही।
तू फिर बाप है सबका, क्यों
संतानों पर ही ढ़ाता कहर
इस सूने रात्रि- प्रहर में,
क्या मेरी नहीं दिखती शक्ल?
अगर आत्मा है मुझमें, तो वो
भी तुझको फिर याद करें
जाकर संभाल ले उसे, वरन
बेचारी ना जाने क्या करें।
चाहूँ तो हूँ लेख रोकना, पर
दिल है कि मानता ही नहीं
गर्दिश- शिकंजे ही सही, पर
कलम तो साथ दे जाती॥
मैं इसका ही तो सहारा पाता,
पर रोते हुए है रोक देती
कहती है मत घबरा अज़ीज़,
तपस्या ज़रूर रंग लाएगी।
किस कदर खो गया बातों में,
नहीं ख्याल कोई जग का
शिकायत न ज़माने से है, अपने
ही रंज में डूबा जाता॥
दिल बहलाने का संग दे, कैसे
कटे कुछ ढ़ंग कर दे
मैं अपने ही क़त्ल का मुज़रिम,
फिर चाहे तो भंज दे।
तेरी ही दया का चाही, तू कुछ
ऐसा करिश्मा कर दे
मिला दे मेरे साथी से, मेरे
जाने का इंतज़ाम कर दे॥