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Monday, 16 June 2014

कुहुँ -कुहुँ

कुहुँ -कुहुँ 


कुछ नींद का नशा, मन में हैं हिल्लोरें कुछ

कुछ जाम पीने की इच्छा, व मस्ती-सरूर॥

 

मैं तो बहना चाहूँ, मस्ती के आलम में इस

अपना नहीं, तेरे लिए ही कुछ कर जाऊँगा।

मैं तो एक झौंका हूँ, आकर चला जाऊँगा

पर तेरे लिए तो फिर मरकर जीना पड़ेगा॥

 

मुझे तू मुहब्बत करना सिखा दे, ऐ साखी !

नहीं तो जिंदगी में, पछतावा रह ही जाएगा।

मैं तो यूँ बस जीता हूँ, दिन-रैन के कटन में

तू साथ रहे मेरे, सब कुछ एक हो सकेगा॥

 

कुछ शब्द-अर्थ तो समझा दे, मेरे ऐ दोस्त

न तो यूँ ही विमुक्त हुए मर कर जी उठूँगा।

मेरे जीवन में एक मस्ती का खेल हो बेहतर

फिर याद उसकी में रह-रह खिल उठूँगा॥

 

मैं तो हूँ बस, एक बोझिल दिमाग़ का मारा

पर याद तेरी में आके बारंबार तब मिलूँगा।

सुखद क्षण साथ तेरा, मेरे मन निकट कूँके

ऐसी ही कदां (मेहरबानी) से जीवन कटेगा॥

 

मैं रहूँ पास तेरे, और तुझमें ही समा जाऊँ

फिर भेद तेरा-मेरा किञ्चित भी नहीं रहेगा।

अहसास भी तो तेरा, मुझे सदा ही है साथी

हमारी मुहब्बत का गुलिस्ताँ फिर खिलेगा॥


पवन कुमार, 
15 जून, 2014 समय 15:55 अपराह्न 
(मेरी शिल्लोंग डायरी दि० 3 जुलाई, 2001 समय 12:40 म० रा० से )

Sunday, 15 June 2014

खुदा -करम

खुदा -करम
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दिल को किसी चीज ने पकड़ सा लिया है।  चाहकर भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ।  क्या रहस्य है कुछ पता नहीं है।  हाँ यह बस आभास सा है कि मैं कुछ साँस ले रहा हूँ और घड़ी की टिक-टिक मुझे बार-2 जगा सी जाती है। दिल पर जब हाथ लग जाता है तो इसकी धड़कनों को महसूस कर सकता हूँ। इसके अलावा जब बाहर मुख्य सड़क पर कोई वाहन जाता है तो दूर तक उसकी आवाज़ कानों में आती रहती है। बाकी केवल निस्बद्धता है, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा है। हाँ लगता है कि समय गर्दिश के दौर से गुजर रहा है और मैं न चाह कर भी बेबस हूँ। कई सुझाव आए, कुछ ठीक भी थे, कुछ पर अमल हो न सका, कुछ पर जान बूझकर कोशिश नहीं की। हाँ यह बात तो निश्चित है कि आड़े वक़्त में ही इंसान की पहचान होती है। उनका भी पता चल जाता है जिनके लिए हम काम करते हैं और वे कितने सच्चे हैं अपने आसपास काम करने वालों के प्रति। परन्तु यह बात भी है कि समय सदा एक जैसा नहीं रहता। आज यह मेरे साथ है, कल तुम्हारे साथ होगा। अतः किसी की आत्मा को इतनी भी न दुखाओ कि वह कहीं तुम्हे बद-दुआ न दे दे। मैं सभी का भला सोचने में विश्वास करता हूँ, अपने कार्य से जी न चुराता हूँ, अपनी गम्भीरता अपने  में समाने की कोशिश करता हूँ। अपना जी कड़ा करके सीधा खड़ा होने को तत्पर होता हूँ, लेकिन फिर भी तो एक हाड़-माँस का पुतला ही हूँ। मैं बाहर से चाहे जितना कठोर बनने की कोशिश करूँ, अन्दर से तो दिल धड़कता ही है। पर मेरे दिल की धड़कन कौन सुन रहा हूँ? शायद वह खुदा वहाँ दूर बैठा मेरे करम पर कुछ मनन का रहा हो और शायद मेरी और परीक्षा ले रहा हो। पर प्रभु, तुम फिर जैसा रखना चाहो तुम्हारी मरजी, मैं तो तुम्हारे द्वारा निर्देशित हूँ। कभी-2 मैं चालाक बनने कोशिश करता भी हूँ तो क्या वह तुमसे छुपा है? मैं क्या हूँ, इसका मूल्यांकन तो नहीं कर सकता लेकिन पीड़ा अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ। मेरे प्रभु, मैं तो ठीक हूँ। तुम अगर और कष्ट देना चाहों तो मुझे स्वीकार परन्तु मेरी जान और मेरी बिटिया ने क्या अपराध किया है जो उन पर सजा थोपी जा रही है।  तुम्हारा अपराधी तो मैं हूँ तो मुझे सजा क्यों नहीं देते, क्यों उन मासूमों पर तुम सख्ती प्रयोग कर रहे हो। शायद तुम जानते हो कि जब उन्हें कष्ट होगा तो सबसे ज्यादा और पहले पीड़ा मुझे ही होगी। इसीलिए तुम अपनी सजा का सिकंजा ढीला नहीं करना चाहते। प्रभु, मैंने माना कि तुम सर्व शक्तिशाली और न्यायवादी हो पर तुम्हारे  अस्तित्व को झुठला ही कौन रहा है? फिर जब तुम हर दिल के अन्दर अच्छी तरह से झाँक कर देख लेते हो तो तुम्हे कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। अतः कुछ करो, मैं हार मान लेता हूँ अपने अपराधों के लिए। अगर वे क्षम्य हों तो मैं माफ़ी के लिए प्रार्थना करता हूँ। फिर भी तुम्हे लगता है कि मेरा कोई पुराना या अभी का हिसाब बाकी है तो आप जो उचित है, वह करें। मैं तो वैसे ही मरे हुए के समान हूँ, तुम मारोगे तो सद्गति ही होगी। शास्त्रों में तुमने रावण, कंस, इत्यादि को मारकर मुक्ति प्रदान की। अगर तुम्हारे न्याय में यही कुछ है तो मुझे कोई शिकायत नहीं। लेकिन फिर भी मैं रहम की अर्जी तुम्हारे समक्ष रखूँगा कि मेरे मामले पर गौर किया जाए, मेरे दस्तावेजों की पुनः समीक्षा की जाए, हो सकता है कहीं पर गलत-फहमी हो गई हो। फिर अपराध इतना संगीन न हो तो धमका कर, चेतावनी देकर छोड़ा सा सकता है। मैं सब कुछ छोड़ता हूँ तुम पर। अभी तक मैं बोला, तुमने सुना। अब तुम सोचो और मैं सोता हूँ। मुझे आशा है कि तुम जो कुछ करोगे, अच्छा ही करोगे। प्रभु तेरी मरजी में सबकी मरजी है। 

धन्यवाद , शुभ रात्रि। 

पवन कुमार,
15 जून, 2014 समय 18:52 सांय  
(मेरी शिल्लोंग डायरी 28 अगस्त, 2001 समय 12:50 म० रा० से )

Saturday, 14 June 2014

माँ की विदाई

 माँ की विदाई  


१२ मई, २०११ वीरवार, समय करीब १२ :३० बजे दोपहर

माँ चल बसी, आया संदेश भाई का कि माँ नहीं रही अब।

क्या गुजरी तब मेरे मन-तन पर, बिलकुल टूट सा गया था

माँ गँवाकर शायद, जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई हारा था॥

 

हालाँकि मौत तो घटती सबके संग, जग हेतु कुछ न नूतन

किंतु मेरी तो एक ही प्यारी माँ थी, वह भी शीघ्र चली गत।

यह अभाव गहरा घाव कर, हृदय पूर्णतया खाली कर गया

चाहकर भी कुछ न कर पा रहा, खुद को अनाथ ही पाता॥

 

माँ क्या करूँ तेरे बिन मैं, अब तो तुझसे लड़ भी न सकता

जब उत्तुंग था तुझसे भिड़ सा जाता, गुस्सा व बहस करता।

फिर तू कुछ बूढ़ी हो चली थी, बात में मेरा समर्थन करती

बहुत गूढ़ विषयों पर हम चर्चा करते थे, तू विश्वास करती॥

 

माँ मुझे गर्व है कि तेरी ही कोख में पला-बड़ा, लिया जन्म

तेरे स्तनों से दूध पीया है, गोदी में खेला, गीले किए वस्त्र।

रोकर तंग किया, कभी बाल-अदाओं से खुश किया होगा

तेरे हाथों से खाना, ऊँगली पकड़ चलना व बोलना सीखा॥

 

बुखार में तू छाती पर लिटा लेती, बीमारी में परेशान होती

शहर में वैद्य ढूँढ़ती, निज से अधिक हमारी जान प्यारी थी।

भोजन खिलाती, लस्सी -दूध देती, रोटी में मक्खन -घी देती

नहलाती, कपड़े पहनाती, दिनभर गृह-कार्य में लगी रहती॥

 

तुम बहुत कम ही नाराज होती, गलतियाँ सहन कर लेती थी

याद है कि गाँव के स्कूल में, पहली बार तू ही लेकर गई थी।

पिता बीमार होते तो सेवा करती, अतीव प्रेम था दोनों में तुम

कभी लड़ते भी, सब हालात देखे संग, नैया निकाल ली पर॥

 

स्वार्थ में कभी अन्यों को नकारती भी, संतानों पर बहु-प्यार

बेटी-दामाद से खास लगाव था, स्मरण से ही खिलती बाँछ।

हम जब भी घर जाते, माँ-पिता का प्रथम संदर्भ बहन होती

प्रश्न कि दीदी के घर हो आए, या जाओगे यहाँ के बाद ही॥

 

कोशिश थी हम भाई-बहन प्यार से रहें, अच्छाई ही बताती

विवाद-संदर्भ दूर ही रखती, पता था क्या-कब चर्चा करनी।

अपनी तकलीफ़ अधिक न बताती, कहती मैं तो ठीक हूँ ही

अन्य-विरोध मामले से दूरी, कहती बहुत काम हैं अपने ही॥

 

तू चौहानों के गाँव की थी, जहाँ अपेक्षाकृत मीठी है आवाज़

हमारे जाट-गाँव की खड़ी बोली है, माँ की आवाज थी मधुर।

बड़ी सुबह राम- लक्ष्मण के भजन गाती, बड़े ही सुरीले होते

सबसे प्रेम-पूर्वक व्यवहार-शैली थी, कोई तुझे बुरा न कहते॥

 

मेरे अनुजों से खास स्नेह था, उनकी खुलकर बड़ाई करती

पोते-पोतियों, नातियों की चर्चा करती, कि कैसे सेवा होती।

और कहाँ वे बढ़िया कर रहे, व उनकी अच्छी आदत विषय

सच भी वह उनके साथ रही, जुड़ाव होना है स्वाभाविक॥

 

मुझसे तेरा स्नेह था, व दूर जाने से परेशान ही हो जाती थी

एक बार नौकरी हेतु कश्मीर गया था, इच्छा विपरीत तेरी।

माँ का डर स्वाभाविक, कई दिन पहले बोलना छोड़ दिया

बाद में भी जब कई दिन बात न होती, देती उलाहना सा॥

 

पर बाद में आयु बढ़ने के संग, सबने देखा बड़ा प्यारा रूप

पड़ौस की चाची के पास जाने व नमस्ते हेतु बोलती जरूर।

तू बड़ी रहम-दिल थी, अन्य-मदद हेतु खुद से ही बोल देती

जहाँ भी किसी के यहाँ जरूरत, स्वयं से संभव आगे बढ़ती॥

 

हमने तुझे हर रूप में जवानी, मध्यमा व वृद्धावस्था में देखा

तू चाहे पूरे सौ वर्ष न सही, जीवन का बड़ा अंश तूने जिया।

शायद तुझे अब ज्यादा शिकायत भी नहीं थी इस जिंदगी से

और इसलिए जग से, इतनी शांति से चली गई मुस्काते हुए॥

 

हम बहु-आभारी हैं तेरे, इस जीवन में लाने व लक्ष्य देने हेतु

हमारे लिए तूने अनेक कष्ट झेलें, और बनाया इस योग्य है।

तूने अपने खून के कतरों से हमें पाला-पोसा, किया सिंचित

 और विकसित वृक्ष में परिवर्तित करके, स्वयं हो गई विलीन॥

 

माँ तेरी सुकीर्ति चहुँ ओर है, और तू सदैव विजयी रहेगी

तू स्वयं जीत गई है, व सफल बनाकर हमें भी जिता गई।

माँ तेरी महिमा-स्मरण जितना भी करूँ, उतनी ही है कम

 तू एक बहुत अच्छी माँ थी, पर हम बने रहें नाशुक्रिए पूत॥

 

माँ तेरी बड़ी ज्यादा सुश्रुषा तो, हम सब कर पाऐ हैं नहीं

बाहर की परिस्थितियाँ ऐसी थी, तू ज्यादा संग ही न रही।

फिर भी जितना हमसे बन पाया, तेरी सेवा -हाज़िर ही थे

और हम सदा तेरी लंबी उम्र -स्वास्थ्य की दुआ करते थे॥

 

माँ तू चली गई दूर कहीं, हमें व पिता जी को गई छोड़कर

पिता जी को तुझ पर नाज़ है, कि तूने साथ निभाया बहुत।

सुभग हो कि अंतिम समय में, साँस उनकी बाँहों में छोड़ी

पर अफ़सोस !, तेरी एक भी संतान उस समय संग न थी॥

 

पर अंतिम विदाई में समस्त संतान, बंधु-बांधव साथ थे तेरे

एक-२ करके, सब रिश्तेदार-पड़ौसी-ग्राम जन जुड़ते गए।

और एक बड़ा काफ़िला सा बना था, उस अंतिम डोली पर

नहा-सिंगर कर तो, तू बहुत ही सुंदर दुल्हन रही थी लग॥

 

किंतु श्मशान जाते ही अचानक, जैसे मोड़ लिया मुँह ही

सारा मोह त्याग दिया और बड़े बाबुल की प्यारी हो गई।

किंतु तूने ही यह नया न किया, पुरानी रीत है दुनिया की

हमें कोई शिकायत न तुमसे, पर भुला न पाऐंगे ही कभी॥

 

माँ अब जहाँ भी जिस दशा में है, पूर्णतया प्रसन्न रहना

हमें न पता है, कि तू हमें कहीं से देख पा रही या नहीं।

पर हम तो तुझे हमेशा, अपने पास हैं पाते ही अत्यधिक

वैसे ही जैसे सारी जिंदगी पास थी, न ज्यादा ही न कम॥

 

बहुत करीब- बहुत करीब। मेरी माँ॥


पवन कुमार,
14 जून, 2014 समय 22:00 रात्रि
(मेरी डायरी दि० 17 जुलाई, 2011 म० रा० 11:35 से )

आत्म -संवाद

आत्म -संवाद 


अपनी मन की गहराईयाँ मापना चाहता हूँ

खुद को आत्म के समीप लाना चाहता हूँ॥

 

यहाँ मेरी परिधि है क्या, और क्या विस्तार

अंदर क्या सार ही है, और क्या बहु प्रभाव?

क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ, व कौन मैं नर हूँ

यही प्रश्न बारंबार मन को घेरा करता है यूँ॥

 

अंतः किंचित गया तो, बाहर सब गया हूँ भूल

एक विभ्रम की स्थिति सी, अंदर हूँ या बाहर?

मन की प्राण-शक्ति भी, कोई न देती परिचय

क्यों न औरों भाँति, अति-श्योक्ति ही दूँ कर॥

 

जब सब संज्ञा-शून्य हैं, और मैं भी हूँ निस्पंद

आत्म-ज्ञान तो न, और भी क्या होंगे अधिक?

फिर वे मेरी बड़ी प्राथमिकताऐं भी तो नहीं हैं

बस जड़ें ही अपने में, पूरा समाना चाहती हैं॥

 

जीवन दिया है रब ने, उद्देश्य भी जानता होगा

पर लगता कर्त्तव्य-क्षेत्र, कुछ ज्यादा ही बड़ा।

वह उचित भी, और मुझे निर्वाह करना चाहिए

पूरी शक्ति लगा, कुछ उचित जानना चाहिए॥

 

लोग समझाते, कुछ अधिक अवाँछित करना

मुझको सुस्त बना, उल्लू सीधा चाहते किया।

शायद उनकी अकर्मण्यता -सोच है वही तक

पर मुझे निज कर्त्तव्य-पथ से, न होना विमूढ़॥

मेरे मन-अंदर ही, बहु-व्यापकता है विद्यमान

वे हैं, मेरी विविधताऐं-बल एवं विभिन्न स्वरूप।

उनसे अवगत हो, व मन-प्रकट करना चाहता

 किंतु कुछ तो है जो रूबरू होने से रोक लेता॥

 

मेरा किसी अन्य से वास्ता न हो, ऐसी नहीं बात

पर शायद निज से निकलने का समय मिला न।

विधाता ने भी, कोई बहुत बहिर्मुखी नहीं बनाया

किंचित अतएव मेरी बाह्य की पकड़ न ज्यादा॥

 

कोशिश करता, बाहर को यथासंभव महत्तम दूँ

अपनी जिम्मेवारियों का बोझ अन्यों पर न डालूँ।

प्रयास-निष्ठा तो, फिर अन्य ही करेंगे मूल्यांकन

पर बेड़ी पड़े बाज सम, बल का ज्ञान नहीं निज॥

 

बहुत कुछ जगत में चहुँ ओर, किंतु मैं अधूरा

पढ़-लिख भी कुछ, निज को अत्यल्प हूँ पाता।

अभी कुछ उत्तम लेख-कविता ही न कर पाया

न अपना स्वरूप-दर्शन ही कभी कर हूँ पाया॥

 

ये मेरी कोशिशें क्या-कैसी-कितनी हैं समुचित

या इसमें और भी, सामग्री-दान है आवश्यक।

इस जीवन-यज्ञ में मेरी क्या भूमिका है चिन्हित

याज्ञिक जानता होगा, जिसने किया है प्रेषित॥

 

मैं आना चाहूँ स्व-निकट, ताकि मित्रता हो गूढ़

दूरियाँ सिमट जाऐं, खुद का कर सकूँ स्पंदन।

विधि तकाज़ा भी, स्वयं-सिद्धि ओर चला जाऊँ

शीघ्रता से आत्म-परिचय सुनिश्चित ही कर लूँ॥


पवन कुमार,
14 जून, 2014 समय 14:35 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 17 जुलाई, 2011 रा० 11:35 से )



Monday, 9 June 2014

कुछ - कुछ

कुछ - कुछ 


बड़ी अनूठी रात भई, जिसमें बहुत कुछ छुपा हुआ

सोचूँ कैसे बनेगा भविष्य, राज अभी तक नहीं पता॥

 

सबके मन में कूकेँ कोयल, लेती आनंद-लहरें हिलोर

परंतु मैं तो डरा सा बैठा हूँ, लेकर प्रभु-नाम की डोर।

चंदा की तो दिखें रोशनी, मैं अंधकार हूँ पाता लेकिन

 चाहकर भी न दीप्ति-दर्शन, बीती जाए जवानी शुष्क॥

 

कभी सोचा था बनूँगा वयस्क मैं, शैशव भी न हुआ पार

यूँ ही मूर्ख सम हँसता, और जीवन को न पाया समझ।

सुना परिश्रम से संसिद्धि-लब्ध, मैं लक्ष्य-विहीन परे रहा

इन बीते वर्षों में क्या कुछ कर, जीवन-पूर था सकता?

 

न चंचल न चलायमान, बस निज दशा पर स्वयं-विव्हल

उम्र बीते ही, पर एक दिवस भी न है साक्षात्कार-जीवन।

फिर क्यों बड़ी बातें, जब लघु-विषयों में न हूँ सफल ही

मन- स्वामी कभी न बना, न इसका अहसास हुआ ही॥

 

कब तक रहोगे ऐसे स्थित, कब प्राणांत व प्राप्त नवजन्म

होगी जीवन- सुगबुगाहट, कब मुझे होगा आत्म- दर्शन?

अकेले क्षणों में बुदबुदाता हूँ, किंतु व्यस्त पल तो निष्क्रिय

अति अपूर्णता स्वयं-प्रतीत, श्रेष्ठता-दामन दूर ही दर्शित॥

 

न कहता हीन-भावना, या फिर कहूँ कि आत्मावलोकन

किंतु उमंग-ललक कुछ बनने की, यदा-कदा तो प्रबल।

असह्य-पीड़ा हृदय-घावों की, न्यून-सरसराने से भी टीस

सोचा था लेपन लगा दूँगा, पर खोजने से भी मिली ही न॥

 

जब-तब प्रसन्न भी है, पर एकांत में मनन-लुप्त चाहे बुद्धि

पर अनुभव सब सतही, सद्गुरु-मिलन न हुआ है अभी।

अच्छे लेखकों से दूरी आजकल, सुविचारक भी न मिलते

बचकानियों में समय बीते, तब कैसे सुधार-आशा रखते?

 

संयम प्रथम पग-उन्नति, मन-वाणी-कर्म अंकुश से मंज़िल

सफलता निकट ही है व फिर मन में श्रेष्ठता का होगा संग।

स्वाध्याय से विचार उदय-उत्थान है, व्यर्थ संवाद-कलहों से

वाणी में तेजस्विता-ओज हो, हर शब्द-अर्थ सम्मानीय हो॥

 

सदा गांभीर्य भी न जरूरी, पर उचित वाणी अवश्य संभव

तब किसी प्रति ईर्ष्या-बू न, सबसे निभेगा बन्धुत्व-कर्त्तव्य।

फिर होंगे सात्विक विचार, हरेक से करोगे प्रेम- व्यवहार

सुंदरता दिखे चहुँ ओर ही, व रहे अनेक-सुख का व्यापार॥

 

प्रभु विनती, बख्श सद्बुद्धि, वही मेरे व दूसरों के ही लाभ

करो जो तुम्हें उचित जँचता, लेकिन हो सर्वहित-पूर्णन्याय॥


धन्यवाद। 


पवन कुमार,
9 जून, 2014 समय 23:01 रा० 
(मेरी शिल्लोंग डायरी दि० 26 जनवरी, 2002 से ) 

Saturday, 7 June 2014

मेरी हिम्मत

मेरी हिम्मत 


इस अजाने सफर में, कोई साथी तो मिला

दूल्हा बेशक न बन पाया, बाराती तो बना॥

 

कसक उठी थी मन में, कुछ कर जाने की

मुश्किल हुई ज़रा सी, फिर बैठा ही मिला।

यह तो कोई बात न हुई मज़बूत मंसूबों की

दुनिया में इस तरह तो कोई चोखा न बना॥

 

भारतेंदु-कहावत 'अंधेर नगरी चौपट राजा,

टके सेर काजू व टके सेर खाजा' है प्रसिद्ध

क्यों मायूस हो, मौका है कुछ करके दिखा।

इस मन-साम्राज्य के बन जाओ तो बादशाह

चरम सफलता-सीमा तक ही, बढ़के दिखा॥

 

बन अंतः- पावन और कर दे, दूर वहम सारे

बस अंतरात्मा-दामन में ही छुपता चला जा।

वह तो कर देगा दूर, तेरे भी समस्त अंधियारे

फिर तू भी पूरी रोशनी से चमकता चला जा॥

 

तेरी पुरज़ोर कोशिश नाम ही तो सफलता है

फिर अगर कोई और, तो परिभाषा बता जा।

छोड़ जा, अपने कदमे- निशाँ यहाँ जमीं पर

सब न तो कुछ ही को, अपना प्रिय बना जा॥

 

दैव से उन धुरंधरों की नगरी, तू आ पहुँचा है

क्या कुछ वज़ूद तेरा भी है, ज़रा दिखा तो जा।

जीना-मरना है तो जीवन की स्वाभाविक क्रिया

अगर मर्द है तो मरकर भी, जी कर दिखा जा॥

 

सुना था कोशिश का सबब ही तो चारों तरफ़

उन्हीं से कुछ बड़ा सा तू बनाता ही चला जा।

पर्वत से टकराने की भी तू हिम्मत रखने वाले

हर बला को तो फिर तू झुकाता ही चला जा॥

 

मेरी जान की बड़ी बाज़ी लगी है इसी जन्म में

साहस से इसे और सफल बना के दिखा जा।

परम-तत्व तक पहुँचने की हिम्मत तू दे, मौला

सदा ही शुभ राह तू मुझको दिखाता चला जा॥

 

योनियों के इस देश में क्या कोई है वज़ूद तेरा

हिम्मत है तो इसे प्रसिद्ध करके ही दिखा जा।

सीख जीवन सफल बनाने का होता ही तरीका

फिर आँधी में भी नित्य तू कदम चल बढ़ाता॥

 

चिर बीते पूर्वाग्रहों का, नहीं मेरा कोई आलम

हर राहगीर को तू गले से लगाता ही चला जा।

मैं तो हूँ सबका ही अपना, और सब ही हैं मेरे

सद्भावना का यह पाठ दिल से ही, पढ़ाता जा॥


धन्यवाद, शुभ रात्रि। 


पवन कुमार,
7 जून, 2014 समय 13:58 अपराह्न 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 12 अक्तुबर, 2001 समय 11:30 म० रा० )

Wednesday, 4 June 2014

एक आशा

एक आशा 



चल दे मेरी ऐ प्रिय कलम, कुछ राह तू आगे तो

वरना लगता, यह मस्तिष्क लगभग गया है सो॥

 

तुम बिन इस एकाकी वेला में, कितना अधूरा मैं

नयनों में नींद, देह में थकान, हाथ में ठहराव है।

सर्द-रात, रजाई का साथ, किंतु पैर हैं ठंडे अभी

तथापि मन चाहता है, कुछ कदम चल जाऊँ ही॥

 

न ही शब्द, न सुर-संगीत, न ही कोई चाह महद

चेतना-अभाव, अज्ञानता-साम्राज्य, व मैं निस्पंद।

बहुत विकट है स्थिति, पर कुछ भी तो न सवेंदन

दिवस-कुशलता, परिश्रम-ज्ञान, सर्वस्व नदारद॥

 

फिर वह क्या मुझमें, जो अभी तक न है मानता

और जो मुझको प्रायः ही निर्जीव बनाना चाहता।

आखिर क्या भला चाहे वह मुझसे, व हैं अपेक्षाऐं

किंचित उस के मन में कोई अन्यथा ही लक्ष्य है॥

 

फिर उस परम-कर्ता के, हाथ की हूँ कठपुतली

वह जैसा जहाँ चलाना चाहता, चलना पड़ेगा ही।

यहाँ अपने या पराये के विवेक की बात न कहीं

जब गुरु सु-सक्षम तो, आज्ञा मानने में है भलाई॥

 

फिर मैं तो विधि-हाथों की कृति व यहाँ हूँ प्रेषित

निश्चित ही उसके मन में तो, योजना होगी कुछ।

सच में उसका है मुझसे, आशीर्वाद-स्नेह अतिशय

तभी वह मुझ निष्ठुर पर भी कृपा रखता है निज॥

 

जब माँ सरस्वती की, अनुकंपा ही होगी मुझ पर

तो घन अंधेरे में भी उठकर, सीधा जाऊँगा बैठ।

मन-तरंगें उठेंगी फिर घोर जिज्ञासा-आकांक्षा की

और मैं भी श्रेणी में आ जाऊँगा, प्रसाद-पात्रों की॥

 

दिवस कांति व निशा-निस्बद्धता हैं, दिशा-सहाय

तब सुबुद्धि, मेरी आत्मा-उज्ज्वल जाऐगी ही कर।

वीणा का सुमधुर-संगीत, मेरे कर्णों में सुनाई देगा

सर्वोत्तम कला-साहित्य का सर्वदा ही संग होगा॥

 

फिर मैं ही क्या, सर्वस्व तन-मन तो उठेगा महक

विश्व में फैलेगी, भीनी-खुशबू का अहसास सर्वत्र।

मैं उनका व सब वो मेरे, कोई फासला ना रहेगा

जगत में चहुँ तरफ, बस मेरा ही अपनापन होगा॥

 

तब जमेगी सुर-ताल, संगीत की रोचक महफ़िल

फिर शायद, कुछ तुकबंदी करने में हूँगा सक्षम।

होगा मधुर संगीत-नाद, श्रेष्ठ अनुभव रोम से हर

निज कर्त्तव्यों में, मैं तनिक भी न हूँगा लापरवाह॥

 

हे माँ, चाहूँ तेरी कृपा, एक विश्व-पुरुष निर्माणार्थ

इसमें थोड़ा स्वार्थ है, किंतु नहीं तो पूरा लालच।

जानता कि योग्य बना, प्रसन्न अवश्यमेव तुम भी

सब माँ-बाप, संतति बनाना ही चाहें बड़ी अच्छी॥

 

फिर शायद यहाँ, क्षुद्र जीवन-उपस्थिति से इस

जग-कल्याण की आशा-अनुभूत हो एक उत्तम॥

 

धन्यवाद माँ, अनुकंपा करना शिशु पर

बहुत तड़पता हूँ तेरी करुणा के लिए॥



पवन कुमार,
 4 जून, 2014 समय 23:06 रात्रि 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 14 फरवरी, 2000 समय 12:25 म० रा० से )