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Saturday, 11 April 2015

ऋतुराज

ऋतुराज 


 

नयनाभिराम वसंत का दर्शन है, सर्वत्र सुवासित ही वातावरण

ऋतुराज हमारी सामर्थ्य बढ़ाता, रुचिकर है उसका आगमन॥

 

शिशिर-ग्रीष्म मध्य ऋतु-परिवर्तन से है मद्धम जलवायु रचित

वरदान नवांकुरों को देता, धन-धान्य से वसुंधरा है बहु-पूरित।

सब प्राणी-पादप प्रफुल्लित हैं, सबके उरों में उमंग ही जगाता

हरीतिमा चहुँ ओर बहु-विस्तृत, प्रसून* पकने का काल होता॥

 

अब अनिल अत्यंत सुहावनी है, मन काया को खूब प्रसन्न करे

वातावरण में एक अद्भुत गुरुत्व सा, सबको आकर्षित करे।

जहाँ भी जाओ अनेक रंग बिखरें, सबका मन हर्षित हो जाता

सूक्ष्म-विशाल पादप-गण में, एक विस्मयी तारुण्य है दिखता॥

 

माना बीज शिशिर-रोपित, पर प्रादुर्भाव यौवन वसंत ही लाता

तब नव-पल्लव विविध वर्णी होते, और कली को पुष्प बनाता।

प्रकृति अति रमणीय होती, अपनी इस ऋतु पर खूब इठलाऐ

तरु झूमते हैं, मस्ती में लहरते, आनंदित से हो सबको पुकारें॥

 

पीत सरसों दूर-२ तक विस्तृत, अत्युत्तम चारु दर्शन है कराती

पकती गेहूँ-बाली सुवर्ण सी प्रतीत, सुवास संग मन पुलकाती।

खेतों में चने-पालक, मेथी-बथुए-चुलाई का सौंदर्य देखते बनता

भिंडी-पुष्प तो अतीव मोहक हैं, बस कुछ ठहर बनता देखना॥

 

माना सर्दी से शुरू, गाजर-मूली, गोभी-शलजम सब उपलब्ध

ईख कुछ काट लिया गया सर्दी में, अभी कुछ खेत खड़े लहर।

फसल पकती, काटन-तैयारी है, कुछ समृद्ध होंगे कृषक जन

सब बाट जोह रहे इसके दर्शन की, आखिर महीना भी मस्त॥

 

सकल वृक्षगण-सौंदर्य को देखो, सब कुसुम-फलों से लदे पड़े

सब शहतूत काले-सफ़ेद फल-आच्छादित, प्रचुर मात्रा में बनें।

बेरी पेड़-झाड़ियों पर पके छोटे-बड़े फल, नीचे हैं स्वयं-पतित

नीम-अंकुर बौर बनने लगता, श्वेत पुष्प-गुच्छों से जाते वृक्ष भर॥

 

नींबू-संतरे, आम-अनार, सेब-अंगूर सब प्रजा को हैं उपलब्ध

व्यवसायिक गतिविधि वर्धित, आजीविका देता है विक्रय-क्रय।

सुखद समय है दूर यात्रा करने का, तन स्वस्थ-सुदृढ़-सुंदर होते

जो खाते आसानी से पचता, युवा क्रीड़ा-स्थल व्यायाम करते हैं॥

 

मस्त महीना है फाल्गुन का,' तन-मन में अनेक लालसा जगाता

बूढ़ी लुगाई भी मस्ताई फाल्गुन में', कामिनियों में हिलोरें मारता।

पिता पुत्र को 'फाल्गुन में तने घी दे दूँगा, छोरों गैला करियो आल'

एक अनुपम शक्ति स्व में इंगित होती है, युवा हो जाते बलवान॥

 

ग्राम्य-युवतियाँ रात्रियों में फाग खेलती, गीत गाती व नृत्य करती

प्रेमातुर पुरुष प्रतीक्षा करते, भुनभुनाते - कसमासते मन में ही।

हर हृदय में एक कवि प्रवेशित सा, सबसे कुछ मन -रचवा लेता

जितने प्राणी उतने कवि- गवैये, प्रत्येक स्व में कालीदास बनता॥

 

गेंदें-चमेली, डहेलिया-गुलेर, बागुनविली-गुलाब, केतकी हैं महकते

ट्यूलिप-कुमुदिनी, अमलतास-पलाश सब तरु-पादप रमण भरते।

उपवन में जाओ तो सुखद ज्ञात होगा, सत्य वसंत अति है मधुरमय

पर इसकी चमक तो अंग-प्रत्यंग में निहित, अतः सदैव है सुखद॥

 

सर्वत्र ही बहार है सिरिस-फाइकस, मौलसिरी-अशोक, पीपल में

सिल्वर-ओक, अर्जुन, बकायन, कीकर, ताड़-पापड़ी-शीशम में।

गुलमोहर, बरगद, पिलखन, अमरुद, नींबू, चंपा, झाड़ियों, ताड़ में

कटहल, सफेदे-ओक, गूलर-लसोडे, खजूर, कढ़ी-पत्ते व बाँस में॥

 

वनस्पति सब प्रफुल्लित हैं, माना उनको भी कष्ट दे रही थी सरदी

सब धड़कनें सामान्य हो जाती हैं, प्रकाश-संश्लेषण मात्रा बढ़ती।

अधिक ऑक्सीजन की उपलब्धता, और जलापूर्ति पर्याप्त उपलब्ध

विभिन्न अंकुरों की सुवास मिलकर, बनाए है एक अनुपम संगम॥

 

हर नर-नारी में काम प्रवृद्धि है, उनकी काया को अलसाऐ कुछ

ऋतु बदली है, लोग बाहर निकल रहे, कुछ सावधानी आवश्यक।

फाल्गुन में ही होली आती, समस्त भारतवर्ष में है आनन्द-उत्सव

माघ व वैशाख इसके संगी, पर असली आनंददायी है फाग-चैत॥

 

आते कई पर्व नव-रात्रे, माता-आरती, राम-नवमी, महावीर जयंती

सब इनमें आनंदित ही होते, पूजा-अनुष्ठान करते, मिलकर भक्ति।

वैशाखी आने वाली ही, फसल कटेंगी, मेले लगेंगे, नाच-गाने होंगे

ढ़ोल-नगाड़े बजेंगे धमकेंगे, सब पुलकित हो संग तब खूब नाचेंगे॥

 

वसंतोत्स्व-गोष्ठियाँ होंगी, ग़ज़ल बनेंगी, जमेंगे गज़ल-कवि सम्मेलन

कुछ तो धमाल होंगे, पुस्तक मेले लगेंगे, वर्षांत पर पुराने खाते बंद।

कुछ युवा हृदय कवि बनेंगे, सोलह कलाओं से होगा मन-परिचित

 कोई शैक्सपीयर, बायरन, कालीदास, तो कोई बनेगा ही वर्ड्सवर्थ॥

 

वसंत-पंचमी को सरस्वती पूजा होती, कला-देवी देती है अनुकम्पा

पुरातन का स्थान नवीन हैं लेते, व सहायक बनते स्रष्टि की रचना।

सदैव हर एक प्राणी- पादप में जन्म, एवं युवा बनने की है पारम्पर्य

प्रत्येक को सर्वोत्तम का अवसर प्रस्तुत, और हेतु महद परिवर्तन॥

 

विकास तो सकारात्मक- दिशा होता, सहायता करे है उसमें वसंत

समस्त क्रियाऐं नव- निर्माण को इंगित होती, अतः स्तुत्य है स्वतः।

सर्वत्र ही मानवेतर प्राणी-जगत में, वसंत अपनी प्रफुल्लता है भरता

कोयल कूँ-कूँ, चिड़ियाँ चीं-चीं, शुक टें-टें से पुलकित खूब करता॥

 

गाय- भैंसे प्रसन्नता से रम्भाती, उमंग-अवस्था ही करे हैं प्रदर्शित

खग-वृंद का प्रातः-सायं कलरव, विशेष शोर-गुल करते हैं प्रस्तुत।

वसन्त तो हर रग-२ में है, आओ अनुभव तो करें, नव-निर्माण करें

प्रकृति के इस महोत्स्व में, अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित कर लें॥

 

अब ज्ञान-प्रवाह तो स्वयमेव ही बढ़ेगा, रचना चेष्टा सृजनात्मक है

आविर्भाव है नव-चिंतन, सर्व-विकास का, उत्साह प्राणी मात्र में।

यदि पादप-विज्ञान समझने में कठिन, तो वसंत की दृष्टि से देखें

हों सबके मन हर्षित, पुष्प महकें व नव भविष्य की तैयारी करें॥

 

प्रसून* : फल


पवन कुमार,

11 अप्रैल, 2015 समय 10:31 प्रातः
( मेरी डायरी 25 मार्च, 2015 समय 11:07 प्रातः से ) 

Friday, 3 April 2015

सम्पदा-संग्रह

सम्पदा-संग्रह 
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मैं खिला-खिला व मन प्रमुदित, सुखद क्षणों का आनन्द ले रहा 
सुवासित चहुँ ओर का अन्तर, निर्मल मन को प्रेरित कर रहा। 
वर्षा बन्द और सुबह खिली, सुन्दरता विसरित हर ओर 
माना सूर्य मेघ-आवृत, परोक्ष प्रकाश से उज्ज्वलित भोर। 

मन-आह्लाद ग्राह्यी बनाता, पर कितना प्रयोग इसका हो रहा 
क्या इससे संभव कुछ सार्थक, इस इच्छा का प्रबल हुआ। 
क्या कुछ चिंतन-मंथन होगा, इस जमे दुग्ध के घटक में 
इसमें जो छुपा, प्रकट करना इन क्षणों की प्रतिबद्धता है। 

जो कुछ हूँ उपलब्ध पल-अनुभव, कैसे इन्हें सम्मान तो दूँ 
क्या मनन इनमें संभव, क्या स्मृति हो सकती है साक्षी ?
क्या इन क्षणों का पूरक, क्या बाहर निकल सकता है 
कैसे बने अति लाभप्रद ये, और जीवन-स्पंदन ले ले ? 

 प्रथम जानूँ स्वरूप अपना, क्या कुछ बवाल छुपा हुआ 
हर अणु का अनुभव, इस जीवन की आवश्यकता है। 
क्या-2 विचार संभव है, कैसे उनमें हो सकता प्रवेश 
मस्तिष्क क्यूँ न खोले द्वार, निज सम्पत्ति करे प्रस्तुत?

मैं किन विषयों में अधिक प्रतिबद्ध, जो प्रायः हैं इंगित  
क्या पहचान  इस लेखन की, किस द्वारा यह है प्रेरित?
क्यूँ फूट कर बारम्बार, एक भाँति मनन हुए संचारित 
कैसे उनमें खोया रहता, वास्तविकता तो ही भ्रमित। 

नहीं जानता क्या यहाँ घटित है, इसमें ही रहता लुप्त
कैसे बन सकता सार्थक, व कौन से बल हैं वाँछित ?
अपूर्णता अहसास माना जरूरी, अग्र गति वर्धन हेतु  
कब तक यूँ अटके रहोगे, कुछ तो है कर जाने को ?

 कोई मनन-अध्याय सोचूँ, देखूँ कितना संभव व्यक्त 
परीक्षार्थी सम चाहे न ज्ञात, ऊल-जुलूल तो लिखित। 
तथापि उद्वेलित करता, सदा विद्यार्थी बनाए रखता 
स्व का बहिः निगमन, इतना आसान-सहज नहीं। 

क्या विषय हों अध्ययन के, व उनकी सामग्री वाँछित 
आवश्यक कुछ सीख लो, मस्तिष्क फिर बढ़ाए अग्र। 
अपने पास न कुछ विशेष, और दूसरों से प्रेरणा न लब्ध 
यह तो बहुत विकट स्थित, मद्धम विकास ही संभव। 

करो उपलब्ध कुछ सार-अवलोकन, सीखों तथ्य उचित 
आधारित सामग्री हो आदर्श, वही तो सच्चा है सम्बल। 
व्यवस्थित रूचि, अनुशासित विद्यार्थी, तो कुछ विकास संभव 
मर्यादित हो अगर प्रवृत्ति, समस्त गुणों की कुँजी है निकट। 

बहुत लिखा हुआ समीप उपलब्ध, निश्चय ही विचार-प्रेरित 
लाभ परम लिया जा सकता, वाँछित सार ढूँढा जा सकता। 
तो क्यों न कोशिश, पुनः उन दिग्गजों के चरण-स्पर्श की 
मानो कुछ तो होंगे अध्यवसायी व अच्छे शिक्षक बनेंगे। 

 करो निज सिद्धांत विकसित, उत्तम विवेक का डालो पुट 
अपने को करो प्रतिस्थापित, बनाओ ठोस आधार एक। 
हर तथ्य का मतलब समझो, अति दूरी वे ले जा सकते 
संग्रह करो बिखरी सम्पदा, हर पल प्रभु विकसित करो। 

उपलब्ध क्षणों को आगामी हेतु, आधार बना करूँ श्रम योग 
हो सकता सम्भव मुक्ति पाना, तमाम झंझटों को समझना। 
हो सकता है बुद्ध जैसा चिंतन, औ गुणवत्ता सुधारर कुछ 
पा लो जीवन का दीपक, काल-कक्ष दीप्त करो समस्त। 

पवन कुमार,
03 अप्रैल, 2015 समय 16:59 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि ० 30 अगस्त, 2014 समय 10:05 प्रातः ) 
   



Sunday, 29 March 2015

कुछ बेहतर

कुछ बेहतर 


कैसे करूँ, अपने इस क्षुद्र मन-प्राण को ही निर्मल

बहुत अवाँछित धूल-कचरा भरा पड़ा है इसमें जब॥

 

नहीं छूटता है किंचित भी, अन्य-निंदा का आस्वादन

चाहे न चाहे यह जिव्हा, नश्तर चुभा ही देती है निज।

हालाँकि यह देती है, अपने मन को भी कष्टक-व्यथा

परन्तु मन तो निज अल्पत्व प्रदर्शित कर ही है देता॥

 

न तो छूटा मन लोभ से, स्वाँग चाहे ऊपर से लूँ कर

कहीं न कहीं स्व हेतु ज्यादा, करता ही तो कोशिश।

वह भी तो नहीं मैं शायद उतना बुरा, जितना हूँ अंदर

सुस्ती-अनियमितता, कार्य टालना आदि उसी ही में॥

 

पर लोभ की किञ्चित एक अति विस्तृत परिभाषा है

जब कष्ट होता `वसुधैव-कुटुंबकम' सूत्र अपनाने में।

जब स्वार्थ पूर्ण हावी हैं, न प्राथमिकता सर्वजन हित

जब सूर्य-चन्द्र-पवन-धरती सम, न है प्रवृत्ति-बाँटन॥

 

किंचित हमारे स्वार्थ-स्तेय व लोभ ही संकुचा हैं देते

व्यापक-दृष्टिकोण से हटा, बस स्व-साधन सिखाते।

अति लघु बनाते, संभावना नर-विस्तृतता की अपेक्षा

श्रेष्ठ जो जगत को कुछ देते, बदले में कोई न आशा॥

 

फिर स्वयं को कैसे बनाऐं ही, जब कुछ संचित हो न

पर बुद्धि-मार्ग से, स्वारूढ़ होना शायद न बस लोभ।

हाँ, तय अपेक्षा-नियमों में लज़ीलापन दुर्बलता-द्योतक

वह तो लोभ ही, क्यूँ कि पार जाने में हम होते अक्षम॥

 

कैसे सोचूँ बेहतर जग विषय, क्यों टिप्पणी जाने बिन

कितना बोलना उचित, व क्या वह नितांत आवश्यक?

चंडूखाने की ख़बरों का कोई वज़ूद न हो जीवन में इस

फिर भी कर्ण-संतुष्टि व जिव्हा-स्वाद कारण हैं भ्रमित॥

 

निस्वार्थी होने का तात्पर्य, स्व-विकास मार्ग त्याजना न

अपितु सर्व हिताय स्व- सक्षम बनाना, उसका है भाग।

बाहर निकलूँ ज्ञानेन्द्रियों की, लेने आनन्द-लोलुपता से

तभी मन की अनुपम शांति, अनुभव भी कर सकूँगा॥

 

मेरे मन-अहंकार को तो हटाकर, प्रेम-मार्ग दिखा दे

कैसे बने जीवन सुंदर ही, इस हेतु कुछ पाठ पढ़ा दे।

टिप्पणी एक विशेष कारण के, वशीभूत होकर न दें

सकल तथ्य ध्यान-विचार, निज से कुछ उत्तम करें॥

 

प्रतिबद्धताऐं हों विस्तृत, मन-मस्तिष्क-उर मृदुल बना

निकालूँ मन-कायरता बाहर, उचित शब्द में न लज्जा

जहाँ भी मिले कोई विचार-मंच, सर्वहित कथन न बुरा।

बनूँ एक निर्मल मनस्वी, न झिझक स्वस्थ-यश वचन में

प्रश्न उत्थित हो निज से, जिसको समर्थ भी महत्त्व देते?

 

उचित-निर्वाह और थकान को बाधा करने से रोकना

निज-सामर्थ्य बढ़ा, एक निर्भीक का व्यवहार करना।

जब असमर्थ हो समझने में, पूछना न है गलत नितांत

ज्ञान वह शक्त करता, अतः रोक-निवारण अनिवार्य॥

 

कैसे बनूँ सुविचारक, जब हो निज-कर्मठता पर विश्वास

कैसे अन्यों को लगे सत्य-उचित सार्वभौमिक ही कहा।

हालाँकि यह किंचित स्वार्थ ही, न तो आकांक्षा न करत

तथापि उचित हेतु निष्ठा, इस मंज़िल की है सीढ़ी प्रथम॥

 

ओ मौला, दूर कर सब अंधकार, जीवन उचित-मृदुतर

मन बने अति पावन-संयमित, दूर हों लोभ-प्रलाप सब।

मदर टेरेसा, बाबा आमटे, गाँधी सम सबको गले लगाना

सब बाधाओं को हटाकर, हमें सुमार्ग का यत्न है करना॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
29 मार्च, 2015 समय 00:05 
 ( मेरी डायरी दि० 29 मई, 2014 समय 9:20 प्रातः से )  

Monday, 23 March 2015

सुबह की बारिश

सुबह की बारिश 

भोर की वर्षा, घोर मेघ-गर्जन, बाहर चहुँ हरीतिमा-प्रसार है

कुछ वसुंधरा-प्यास बुझी है, इस चिर-प्रतीक्षित रिमझिम से॥

 

वस्तुतः अत्यल्प वृष्टि है इस वर्ष, भारत-देश के बढ़ा रही कष्ट

अतः जाते से मानसून में वर्षा-दर्शन, अहसास है अति सुखद।

सब धन-धान्य है निर्भर, समस्त कृषक-मज़दूर जोह रहें बाट

 जल-अल्पता एक गंभीर विश्व-समस्या, वर्षा है उसका निदान॥

 

इस पोषक नीर के धरा-आगमन से, तरु-पादप सब हैं हर्षित

धुल जाता मैल पल्लवों का, देखो सब हैं लहलहाते आनंदित।

सर्व-कृषि विशेषकर धान-फसल हेतु, यह जल तो है वरदान

नलकूपों से भूजल-निकास महँगा, अतः है बारिश-आव्हान॥

 

झरने-नदी-नालें सब आह्लादित होते, जैसे भर गए उनमें प्राण

सिंचित करें धरा- क्षेत्र को, परिवहन होती जल-राशि विशाल।

तरु-पादप खिल से उठते, उनकी वृद्धि अमल प्राण-वायु देती

धूल-दूषण वातावरण कम होता, अनिल स्वच्छ-निर्मल होती॥

 

वसुधा के शुष्क वक्ष-स्थल पर, यूँ बाँट जो रही तृण-वनस्पति

हर नीर-बूंद उन हेतु सुधा, तब सुंदर छटा विस्तृत है करती।

समस्त प्राण वारि ही निर्भर, न्यूनता है उसकी कितनी विद्रूप

 नगरों में मारा-मारी जल की, ग्राम्य-जीवन और कठिन रूप॥

 

सिञ्चन इस पावस अम्बु से, सब कुछ है निःशुल्क प्रोत्साहित

यह प्रकृति का अमूल्य उपहार, सब इससे ही हैं प्रतिपादित।

पानी का हम आदर करें, उसकी उपलब्धि से है जीवन-संचार

 वर्षा निश्चय ही एक सुमाध्यम, जल-चक्र करे सबका उपकार॥



 पवन कुमार,
23 मार्च, 2014 समय रात्रि 22:31
( मेरी डायरी दि० 30 अगस्त, 2014 समय 8:15 प्रातः से ) 

Tuesday, 17 March 2015

प्रबुद्ध चिन्तन

प्रबुद्ध चिन्तन 



ओ प्रज्ञा-विवेक ! प्रयास करो, मन मेरा तो निर्मल करो

अनेक भ्रांतियाँ अंतः-स्थित हैं, स्वच्छ कर मृदुल करो॥

 

मन में कुछ प्रश्न हैं, सर्वश्रेष्ठ-प्रभुता सहज न स्वीकारता

निकट तो पाया न उसको, व बाहर से समझ न आता।

कुछ इधर-उधर से देख-पढ़कर ही, हुई है बुद्धि गठन

जग-प्रक्रिया स्वतः या संचालित, विषयों से न है संपर्क॥

 

बुद्धि तो कदापि सीधी न, अपनी तरह परिभाषा बनाती

अन्य व्याख्या सहज-अस्वीकृत, निकट हेतु प्रयत्न करती।

कुछ तो उचित होगा, कार्य करने का सलीका आ जाता

उचित सामंजस्य हेतु आवश्यक, ठोक-पीट कर देखना॥

 

अनेक आस्तिक इस जग में, परम-सत्ता में विश्वास सहज

देव ही कर्ता-पालक-संहारक, उसे वे जोड़ते प्रकृति संग।

जनों ने रचें रूप निज अनुरूप, पर कितने हैं सत्य-निकट

हुआ बड़ा कार्य इस क्षेत्र, एकाधिक हैं व्याख्या उपलब्ध॥

 

यदि नर हम छोड़ दे, अन्य जीवों में ईश-नमन न देखते

कुछ मुद्रा प्रभु-प्रेम समझते, पर ज्ञान बुद्धि का न उनके।

देख प्रकृति को निकट, कुछ बंधुओं ने किया जग-चित्रण

जोड़ा उसे परा-शक्ति से, अन्यों की चाहे आए समझ न॥

 

देव-चेहरे भी बदलते रहे, कुछ हट गए, कुछ नए आ गए

विभिन्न सभ्यताओं के स्व-आराध्य, निज भाँति स्तुति गाए।

अनेक दंत-कथाऐं जोड़ी चरित्रों में, मानव-परे बनाना-यत्न

पर तत्वज्ञ करते प्रश्न, तोलते ढ़ंग-कर्म-वाक्य व हर चरित्र॥

 

देव भी न आलोचनाओं से परे, अंततः वे हैं नर-कल्पना

कैसे कोई परिभाषा सक्षम, दुष्कर खुद को ही समझना।

मनुज ने कुछ देख-समझ कर, अनेक खड़े हैं किए पात्र

क्या सत्य या सहज श्रेष्ठ-भक्ति या पेट पालने के उपाय ?

 

कैसे चरित्र खड़े कर लिए, देव-२ कहकर प्रचार किया

कुछ प्रजा में श्रद्धा जगाई, खाने-पीने का प्रबन्ध किया।

कितने अनुष्ठान-बलियाँ, उन देवों के नाम पर गई लाई

लोभ निज व नाम देव का, यह तो कोई भक्ति न भाई॥

 

चारण-भाट नृप-स्तुति में, जीविकोपार्जन सुनिश्चित कुछ

निज-अमरता की प्रखर इच्छा, विद्वान करते प्रचार कुछ।

वस्तुतः क्या व्याख्या ग्रंथ-जड़ित है, व बढ़ाते कथा-वाचक

या रचनात्मक बुद्धि की, स्व-वृद्धि हेतु रचवाती साहित्य॥

 

क्या यह ज्ञान है मनीषी-रचित, वा प्रवृद्ध भाटों की स्तुति

या सहज लोक-प्रकृति, जो कुछ श्रेष्ठ को उच्च मान लेती।

माना सदा कुछ चरित्र अनुपम होते, जो सत्य ही हैं स्तुत्य

पर ईश-सृष्टिकार तक जाना, उचित-तार्किक कहाँ तक?

 

दयानंद-कबीर से चिंतक, किया है पात्र समझने का कष्ट

रूढ़िवादिता पर किया प्रहार, सत्य समक्ष लाना है प्रयत्न।

 ब्रह्म-ज्ञान तत्वज्ञ सा भी कुछ, या इच्छा निज-दर्शन प्रचलन

 संपूर्ण में तो कुछ उचित भी हो, पर क्या सत्य वाक्यांश हर?

 

क्या है धर्म-ग्रंथों का इतिहास, कैसे मनुज द्वारा देव चित्रित

 कैसे मंदिर-गिरजे-मस्जिदें खड़ी हुई, अनुशंषा में महायज्ञ?

क्या कृति नर-कला पक्ष, या एकांत पलों का चिंतन-एकत्रण

या स्व-संवाद वृद्धि-लालसा, कुछ भक्त-अनुचर जोड़े संग?

 

नर दक्ष परिभाषा में, उनके लघु-कार्यों में भी भरता सौंदर्य

फिर जहाँ श्रद्धा, सब दोष किनारे, भला पक्ष ही करे समक्ष।

कवि हृदय विशाल है, निज पक्ष-कथन का सुघड़ ढ़ंग रखता

विशेष ज्ञान पात्र-वदन बोलता, कल्पना सत्य-रूप है लेता॥

 

कुछ हो मानव मन विशाल, वृहद रचने का रखता सामर्थ्य

सब प्रकार के प्रयोग करता, ईश्वर-चिन्तन उनमें से है एक।

कुछ चपलों ने निर्वाह हेतु भी, अनेक युक्ति इस क्षेत्र लगाई

मन रहे नित्य सहज भक्तिमय, गुह्यता ने भीत है दिखाई॥

 

तुम चलते चलो, निर्मित करते देवानुष्ठान हेतु स्थल अपना

अपने शिविर लगाए बस दूकान चल निकली, चोखा धन्धा।

क्या यह देववर्धन, या यथासंभव कर्षण करना बहु-ग्राहक

दान-दक्षिणा महद थी पूर्व, अब भी मठ-आश्रम हैं समृद्ध॥

 

प्रतिष्ठानों से उच्च संस्कृति निर्माण, विद्वान-तर्क से आकर्षण

यह प्रायः नगरों में होता, एक व्यवसायिक केंद्र सा है रूप।

छोटी जगह लघु संस्कृति पनपे, जन देव-समर्पित ही अपने

थोड़े में ही निर्वाह, यदा-कदा शक्ति अनुसार लगते हैं मेले॥

 

प्रचार-योग बड़ा बढ़ने में, युक्ति हेतु लोग व्यय वहन करते

सफलता कई कारक-निर्भर, कुछ प्रसिद्ध-समृद्ध हो जाते।

माना अति-स्पर्धा उनमें भी, महत्तम अनुचर बनाने का यत्न

आम समय भी छोटी-मोटी दुकान से, भृत्ति होती है सुलभ॥

 

पर शुरुआत थी ओ मेरे मन, चितवन अपने को करो पवित्र

हटकर दंभी-मिथ्या आवरण विचार से, प्रबुद्ध करो चिन्तन।

चाहे सत्य विज्ञान या परम-सत्ता, मात्र उचित हेतु ही समुद्यम

जीव हेतु जो सुवाँछित-सुअनुकूल, उसी में बुद्धि-अग्रसरण॥

 

कुछ अलग ही, और बेहतर करो, मन-दिशा करो प्रखर।

कितना उचित न हूँ जानता, जो मन में आया दिया लिख।

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं 
( मेरी डायरी 17 फरवरी, 2015 समय 10:52 प्रातः से )

Saturday, 14 March 2015

गमले के कपोत शावक

गमले के कपोत शावक 


एक कबूतरी ने दिए, हमारे पौधों के गमले में दो अण्डें

फिर आकर वहा बैठने वहाँ लगी, उन्हें सेने के ही लिए॥

 

हम हेतु कुतूहल-विषय, कि एक गमला ख़राब कर दिया

क्योंकि हटाकर तो, अन्य जगह भी नहीं रखा जा सकता।

अपने पुराने अनुभव से जानते हैं, कि उनको नहीं है छूना

तत्पश्चात कबूतरी समीप न आती, व जीवन नष्ट हो जाता॥

 

फिर हौले से उसने समय बढ़ा दिया, अण्डें सेने के लिए

बाद में तो बड़ी देर तक वह, एक-मुद्रा में ही रहती बैठे।

पहले हमें देख उड़ जाती थी, किंतु अब तो थी दुस्साहसी

रक्षा-मुद्रा में पंख फड़फड़ाकर, हटाने का प्रयत्न करती॥

 

गिने तो न पर कुछ १८-२० दिवस बाद, हुआ अण्ड-फूटन

निकले उनमें से दो चूजें, बिलकुल छोटे और पंख-रहित।

अब तो कबूतरी माँ उनपर ही बैठी रहती, निज ऊष्मा देती

लेकिन उनके पैर या देह का, कुछ भाग दे जाता दिखाई॥

 

हम हैरान, देख कबूतरी की संतति प्रति प्रतिबद्धता-त्याग

इस व्यस्तता में न तो उसे खाने का, न पीने का ही ध्यान।

चूजें बहुत छोटे, पर हमने माता द्वारा कुछ खिलाते न देखा

कैसे उन्हें ऊर्जा-भोजन मिलता, हमारी समझ में न आता॥

 

अब लगभग २० दिवस के हो गए, शरीर कुछ बढ़ गया है

हमें देख वे गर्दन हिलाते, व मनोरम हाव-भाव दिखलाते।

अपनी चोंच हिलाकर, कभी डराने की कोशिश भी करते

और हमारी हर क्रिया पर अपनी जरूर प्रतिक्रिया करते॥

 

अब तो वे हमारा एक भाग बन गए, करते पुकार-प्रतीक्षा

मैं भी सवेरे जागकर, सर्वप्रथम उनको ही देखने जाता।

उषा, शीनू व सौम्या भी, उनकी अदाओं को खूब सराहते

अब तो चेष्टा सी करते कि उनके पास रहे, बतियाते रहे॥

 

आश्चर्य-चकित हैं, क्या मात्र माता-देह गर्मी से पालन होता

क्योंकि मैंने अभी तक, उनको कुछ खाते हुए नहीं देखा।

अवश्य ही कुछ समय बाद, खाना शुरू तो करना होगा ही

पर तब तक समझना, हमारी बुद्धि के बूते में न है अभी॥

 

यह सच है कि बड़े होकर जल्द, किसी दिन जाऐंगे ही उड़

रहेंगे कुछ आस-पास ही, व किसी कोटर में नीड़ बनाकर।

पर तब क्या हम उन्हें पहचान न पाऐंगे, और मित्रता रहेगी

तो क्या हमारा संपर्क, मात्र उनके शिशु- काल तक है ही ?

 

पहले भी घर के गमलों में कुछ कपोत शावक पले-बढ़े थे

पर इस बार तो लगाव कुछ ज्यादा ही, इन छोटे चूजों में।

मैं नितांत मुग्ध-अचंभित ही होता, उनकी भिन्न-अदाओं में

शायद लगता कि मेरा ही भाग हैं, और कभी जुदा न होंगे॥

 

मैं कुछ न अंतर कर पाता हूँ, एक मानव शिशु और उनमें

उषा से कहता कि पड़ोस के सोनू व उनमें क्या भिन्नता है?

फिर ये भी जीवन हमारी तरह, अंतर है किस्म का ही मात्र

क्या ये हमारा भाग नहीं संभव, जब हाव-भाव लेते संज्ञान?

 

पर मुझे कबूतर पालने का कोई बिलकुल पूर्व-अनुभव नहीं

गाँव में सिकलीगर-लड़कों को उन्हें पालते-उड़ाते था देखा।

विलियम डेलरिंपल की प्रसिद्ध पुस्तक 'City of Dzinns' में

पुरानी दिल्ली के कई कबूतर -प्रेमियों के विषय में पढ़ा है॥

 

फिर दिल्ली-जयपुर-मुंबई के चौंक-चौराहों-पगडंडियों पर

बाजरे-मक्की-गेहूँ के दानों हेतु कबूतर- जमावड़ा दर्शित॥

 

फिर भी अब मेरे जीवन का, एक रिश्ता तो बना है उनसे

ये मुझे चिरकाल याद रहेंगे, अब वे रमे हैं मेरी आत्मा में।

लगता वे सोचते होंगे, बड़ा होने पर भुला दोगे हमको तुम

पर मुझे अभी तो उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं आता समझ॥

 

मैंने सोचा था कभी कुछ लिखूँगा, इन नन्हें पक्षी-जीवों पर

थोड़ा प्रयास किया है आदर्श-उत्तम तो नहीं सकता कह॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि० 18 अप्रैल, 2014 समय 12:53 से ) 

Saturday, 7 March 2015

तृतीय नेत्र

तृतीय नेत्र 


कुछ लघु सा मस्तिष्क-कक्ष, जिसमें परम- शून्यता सी

यूँ मद्धम लहरें उठती-बैठती, गति का कोई पता नहीं॥

 

कहाँ से उदित हैं ये विचार, जब बाह्य सब कुछ है शान्त

न निकल पाता हूँ तम-गुम्फा से, व मात्र है छटपटाहट।

पर अन्य तो चिंतन कर ही लेते हैं, ऐसे सुक्षणों में एकांत

अंतरतम-मृदुलता ही होती, चितवन होता कृपा-निधान॥

 

किञ्चित सुसंवाद इस स्वयं से ही, वीणा-तार हों झंकृत

फूटें तान सुरीली-रसीली यहाँ, व जीवन हो मधुरमय।

हो जीवन-संचालित, उपलब्ध क्षणों का सार्थक उपयोग

सारी कवायद आत्म-उन्नति हेतु, रचनाऐं है अपरिमित॥

 

कलम-वाहन हाथ ने अपना कर्म किया, पर न है चाल

कागज़-कलम संबंध अनुपम है, स्वतः ही होते प्रयोग।

उत्तम उपजता सामंजस्य से, यदा-कदा अपूर्व है आता

महान-ग्रंथ रचित मंथन से, जो सदा कल्याणक होता॥

 

यूँ धाराऐं निकले शैल-गर्भ से, मिल परस्पर बनाती गंगा

एक-२ तार विचार का मिल, देता अनुपम सितार बना।

अंतः-मन की पीड़ा, कुछ व्यूह-रचना को करे तब प्रेरित

माना संघर्ष इतना विरल न, कुछ तो पार चले ही जात॥

 

तूलिका-चलायमान आत्म-प्रक्रिया से, चलने दो स्व गति

कोई बलात्कार न कलम से, महत्त्वपूर्ण इसकी रूचि भी।

सब विस्मय ही जग में, उभो जय-विजय हैं इसके प्रभाग

किञ्चित संघर्ष दर्शन-कुतूहल, अनुपम अनुभूति चित्रित॥

 

परा-अपरा विद्या न समीप अभी, न ही वह संजीवनी ज्ञान

न पहचान रहा हूँ वाँछित, उठा पर्वत दौडूँ भाँति हनुमान।

बड़ा बोझ है चढ़ा शिखर पर, क्षमताऐं न पाता हूँ पहचान

कोई वैद्य न, अतः प्रस्तुत औषधियों की न है कोई जाँच॥

 

कैसे कुछ जीते हैं दुनिया में, धन्य किया अकिंचन जीवन

आऐं धरा पवित्रीकरण को, है विकसित सोच सकारात्मक।

वचन-कर्मों से लघु बुद्धि-कोष्ठक में, जन्मते परम-प्रकाश

देख पाते गुण-दोष अपूर्वाग्रह, व्याधि मुक्ति का आभास॥

 

डूब जाते हैं चिन्तन में, ज्ञान-दीपक की वे उपासना करते

कितना हित संभव अल्प समय में, पूर्णतः ही प्रयास करते।

न फुर्सत विभूति के महिमा-मंडन की ही, क्यूँकि हैं कर्मठ

देव-स्तुति न प्रार्थना-याचना, अपितु करने हैं कर्म-सुकृत्य॥

 

कहाँ छुपा है वह जीवन, जिससे साक्षात्कार करना चाहता

जीवन-स्पंदन ध्येय इस क्षण में, कालजयी हूँ बनना चाहता।

महाकाल ने काल जीता है, पूजनीय हुए सब भारत धरा पर

सर्व दिशा लिंग स्थापित हैं, लगाने हेतु परम-शिव में ध्यान॥

 

मेरी तपस्या है चराचर जग में, कैसे पहुँचूँ चरम तत्व तक

गंतव्य मार्ग तो मुझे पता नहीं है, वेदना भारी भी तिस पर।

न मैं उपासक हूँ जाग्तिक दृष्टि से, न रूचि है कर्म-कांड में

तथापि समर्थों के सार्थक चिंतन से, बुद्धियंत्र हूँ चलाता मैं॥

 

एकांत बैठ कैलाश शिखर सम, ध्यान लगा परम का चाही

महादेव तो बने परमेष्ट-देव, प्रभावित मात्र स्तुति से है नहीं।

ध्यान लेकर प्रेरणा उनसे, तृतीय नेत्र खुलें अपरिमितता को

इसमें स्वार्थ मात्र इतना है, एक संजीवन-झलक पाने को॥

 

बोझिल पलों का एक संघर्ष। धन्यवाद॥



पवन  कुमार,
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि  
( मेरी डायरी दि० 13 नवम्बर, 2014 समय 7:10 प्रातः से )