Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Monday, 27 June 2016

श्रीकालिदासप्रणीत मेघ-सन्देश : पूर्व-संदेश

कालिदासप्रणीत

--------------------

 मेघ-सन्देश  : (पूर्व-संदेश)

----------------------------

 

निज कर्त्तव्यों से चिंतामुक्त एवं अपने स्वामी से शापित, महिमा-गमित,

कोई एक यक्ष दुःसह विरह से, निज कान्ता से एक वर्ष हेतु है निर्वासित।

बसता रामगिरि स्निग्ध छायादार वृक्ष-आश्रमों में,

और जनक-सुता के स्नान द्वारा पवित्र जलों में।१।


उस पर्वतिका कुछ मास बिताकर, दूर निज असहाय से,

सुवर्ण-कवच हैं फिसलते, उसकी अग्रबाहु को नग्न करते।

उस कामी ने प्रथम* आषाढ़-दिवस एक मेघ को गिरि-शिखर लेते देखा अंक,

जो क्रीड़ा में नदी-तीर पर प्रहार को झुके, एक अति-रूपवान गज था सम।२।


प्रथम* : अत्युत्तम मंगल    


देखकर उसको, जो केतकी-पुष्पण हेतु करता है प्रेरित,

          राजराजा-सामन्त स्वामी ने अश्रु नियंत्रित कर किया मनन।

            वर्षा-मेघ से तो उद्विग्न-हृदय भी प्रसन्न; तब उसकी कहें क्या,

     जो दूर-स्थित उसको कण्ठ लगाने हेतु करता है कामना ।३।


आगामी पावस संग, प्रिया के प्राण-पोषण की कामना करते,

स्व-कुशलता सन्देश प्राण-दायक मेघ द्वारा भेजने की आशा में।

उसने वंदना  करते हुए वन-मल्लिका के नूतन पुष्प-अर्पित कर,

स्नेह-शब्दों की भूमिका व प्रसन्नता से मेघ का किया स्वागत।४।

 

एकमात्र तुषार-ज्योति, मरुत-सलिल मिश्रण; क्या मेघ सक्षम

है संदेश-वाहन, व ले जा सकता ही प्रखर इन्द्रि व बुद्धित?

इससे अज्ञात अकारण कुतूहली यक्ष ने विनती की अभिभूत 

वस्तुतः कामातुर-मन चेतन को अचेतन से करते हैं भ्रमित।५।


आवर्तक*-मेघों के महान कुल में जनित भुवन*-विदित तुम,

ज्ञात तुम तड़ित-देव* के प्रकृति-पुरुष*, कामना से धरते रूप।

अतः दैवी-आदेश से भार्या व बंधुजनों से सुदूर, मेरा है निवेदन

    इच्छा प्राप्तार्थ उत्तम से विनती है उचित, अधम से तो निरर्थक।६।


आवर्तक* :भँवर; भुवन*: विश्व; तड़ित-देव* : इंद्र; प्रकृति-पुरुष*: अमात्य


ओ पयोद* ! तुम ही सब मनस्ताप-ज्वलित हेतु शरण हो, अतः

धनपति*-क्रोध से निरस्त मुझसे, प्रिया हेतु करो संदेश ग्रहण।

तब जाओ यक्षपति नगरी अलका, उसके प्रासाद हैं अभिषिक्त

    शिव-भ्रू की चन्द्र-ज्योति से, जहाँ वह बाह्य-विपिन* है स्थित।७।


पयोद* : वर्षा-दायक मेघ; धनपति* : कुबेर; विपिन* : वन

 

वनिताएँ जिनके पति दूर-भूमि पथिक हैं, अव्यवस्थित केश पीछे सरकाती

उत्सुकता से पवन-पदवी* पर उच्च आरूढ़ तुम्हें देखती, और सांत्वना पाती।

क्योंकि जब तुम आते सब वस्त्रों में व कर्म हेतु सशक्त, कौन उपेक्षा सक्षम निज

    अकेली विक्षिप्त भार्या की, यावत मुझ सम प्राणी एक विस्मयी अभिलाषा कृत।८।


पवन-पदवी* : आकाश


मित्र पवन तुम्हें शनै-२ धकेले
, जब तुम मार्ग पर हो डोलते,  

यहाँ तेरे वाम पर चातक पक्षी, स्व गर्व में मधुर संगीत गुनते। 

सारसिकाऐं जानेंगी मिलन-ऋतु, जब देखती रमणीय उपस्थिति 

पूरी तरह से आश्वस्त होती, आऐंगें आकाश-मार्ग से प्रेमी।९। 


वहाँ पहुँचकर अबाधित तुम, निश्चित ही देखोगे मेरी भार्या को, 

तेरी बन्धु-पत्नी अब तक जीती होगी, मात्र दिवस-गणना में तत्पर।

 आशा के मृदु सूत्रों से हैं बंध उस कामिनी के पुष्प सदृश प्राण, एवं

वियोग-भार से हृदय नीचे अति-शीघ्र ही झुकने को प्रवृत्त।१०।


और सुनकर एक कर्ण-मधुर ध्वनि तुम्हारी गर्जना,

जो वसुधा द्वारा उसके कुकुरमुत्ता-छत्र फहरा सकता।

 कैलाश शिखर तक मार्ग हेतु, कमल-पुष्प एकत्रित कर राजहंस

    मानसरोवर-कामना करेंगे, तेरे व्योम-पथ में बनेंगे सहचर।११। 


अंक* लगो व अपने 
सुहृद को विदाई दो, शैलकटक* द्वारा घिरे-

इस महागिरि पर, यहाँ चिन्हित चरण विश्व-पूजित रघुराज के।

अनेक बार तुमसे पुनर्मिलन पर यह निज स्नेह करता है प्रदर्शन,

उच्छ्वास करते ज्वलन आह ! दीर्घ वियोग से है जनित।१२।


अंक* :
कंठ; शैलकटक* : ढलान

 

पहले सुनो ओ मेघ! ! जैसे मैं करता हूँ मार्ग वर्णन,

जो तेरी यात्रा-उपयुक्त, जिसका करोगे अनुसरण। 

श्रांत हो पर्वतों पर चरण धरते हुए, जब क्षीण निर्झर-जल 

        द्वारा नूतन, सुनोगे मेरा संदेश, कर्णों में उत्सुकता से पान।१३।    


यद्यपि उन्मुख सिद्ध-अंगनाऐं* तेरी प्रचण्ड शक्ति देखकर हैं मुग्ध,

अब उत्साहित-चकित, कैसे पवन तुम्हें ले जा रही पर्वत-शिखर?

इस स्थान से सरस गहन निचुल* में उत्तर-उन्मुख नभ में अत्युच्च जाते,

   त्याग पथ स्थूल शुण्ड*-ध्वंस गर्वित गजों का, जो दिशा-रक्षा करते।१४।


अंगना* : कन्या; निचुल* : लबादा; शुण्ड* : सूँड


यहाँ से पूर्व में, पर्वतिका-शिखर से निकलता दर्शनीय 

इंद्र-धनुष अंश चमकता जैसे दीप्तिमान रत्न-शोभनीय

इसकी दमक से तेरी श्याम-नील देह स्फुरित, जैसे गोपाल-वेश में

     विष्णु कान्तिमान, प्रकाशित मयूर-पंखों की रंग-बिरंगी छटा से।१५।

 

यद्यपि प्रीति-स्निग्ध जनपद-वधू* भ्रू-विलास* में अभिज्ञ,

तेरा चक्षु-पान करती, जानती सर्व कृषि तुम्हीं पर निर्भर। 

अतः चढ़ो ऊँचे मैदानों पर, किञ्चित पश्चिम दिशा लेकर,

     नवीन हल-रेखाओं से सुवासित, गति से बढ़ो ओर उत्तर।१६।


जनपद-वधू* : ग्रामि
णी; भ्रू-विलास* : नयन-मटकाना

   

जब उदार चित्रकूट पहुँचोगे, वह तेरा अभिनन्दन करेगा,

ओ यात्रा-मान्दित वर्षा-दायक ! उच्च मस्तक वह बैठा लेगा। 

  तुम भी ग्रीष्म की भीषण-अग्नियों पर प्रखर बौछार करोगे,    

महात्माओं में सत्य-अनुभूति की मृदुता तुरंत फलदायक है,

नेकी का बदला महात्मा नेकी से चुकाते।१७। 


देख तेरी तीव्र धाराओं से दावाग्नि पूर्ण बुझता

अमरकूट भी कृतज्ञता से तुम्हें भाल लेगा लगा।

क्रूरतम हृदय भी पूर्व-अनुग्रह स्मरण कर शरणागत-सखा 

से मुख न फेरते, महाजनों की फिर कहिए क्या?।१८।  


इसके ढलान-कानन आम्रों के परिणत* फलों से कांतिमान,

शिखर पर कृष्ण स्निग्ध केशों से सर्प-वेणी* सम होना आरूढ़।

विस्तृत पीत-सुवर्ण वक्रों* से घिरे श्याम केंद्र से धरा सम प्रतीत,

दैवी प्रेमी-मिथुन की सम्मोहन-अवस्था जैसा होगा दर्शित।१९।


परिणत* : 
पके; सर्प-वेणी* : कुण्डली; वक्र* : घुमाव   

 

कुछ समय उस पर्वत पर विश्राम करना, लता-कुञ्जों में जिसके

वनचर-वधुएँ क्रीड़ा करती हैं, पुलकित होंगी तेरी द्रुत फुहारों से। 

तब शीघ्र मार्ग पार निकल देखना रेवा*-निर्झर को, जो भक्ति से सजाते 

     असमतल तीर विन्ध्य के, एक गज-देह भस्म-धारियों से विभूषित जैसे।२०।

 

रेवा* : नर्मदा  


जब तेरी वर्षा हल्की हो
, जलवाष्पों को लेना ऊपर खींच 

नदी-प्रवाह जम्बु* कुञ्ज बाधित, गज-मद गंध से सुवासित। 

ओ अन्तःसार* घन* ! अनिल तुमको रिक्त करने में है अक्षम, 

      क्योंकि लघुता से ही सर्वस्व संभव, विपुलता मात्र दंभ-गर्व ।२१।


जम्बु* : जामुन;  अन्तःसार* : सतत यात्रा से आंतरिक बल ग्रहण करते; घन* :
संहति  


देखकर हरित-कपिश* नीप* पुष्प, अर्ध-आविर्भूत उनके पुंकेसर 

और प्रत्येक सरोवर तट पर कंदली दिखा रहा निज प्रथम-मुकुल*। 

अग्नि-ग्ध अरण्य-भूमि से निकलती प्रखर सुरभि का आनंद लेते,

  सारंग* मार्ग प्रशस्त करेंगे, जब गुजरोगे नव जल-बिंदु गिराते।२२।


कपिश* : पीत; नीप* : कदम्ब; प्रथम-मुकुल* : कली;  सारंग* : मृग


सिद्ध तुम्हारी 
बूँदें पकड़ने में प्रवीण चातकों को देखेंगे 

उड़ते बगुलें चिन्हित करते, उँगलियों पर उन्हें गिनते। 

तुम्हें पूर्ण-कृतज्ञ हों आदर देंगे, व शीघ्र तेरी गर्जना से भय-कम्पित

        चिपकती प्रिय भार्याओं की अन्य-अपेक्षित आलिंगन-उत्तेजना करेंगे ग्रहण।२३। 


ओ मित्र
! 

यद्यपि मेरी प्रिया हेतु शीघ्रता भी करोगे, मेरा पूर्वानुमान विलम्ब 

जैसे धीमे चलोगे वन-ककुभ* से सुरभित एक से अन्य पर्वत पर।  

यद्यपि शुक्लापांग*  केका* संग सजल-नयनों से करेंगे  स्वागत, 

मैं तुमसे अनुनय करता हूँ कि अग्र बढ़ने का करना यत्न ।२४।


कुकुभ* : मल्लिका पुष्प; शुक्लापांग* : मयूर; केका* : पीहू-पीहू    


तेरे आगमन पर दशार्ण*-उपवनों में केतकी उठेंगी पीत खिल 

ग्राम-चतुष्क* नीड़ों में आकुल खग, एकत्र होना करेंगे प्रारम्भ। 

जम्बु-कुञ्ज पकते नील-कृष्ण फलों की आभा संग व होंगे गहन   

और वनांत में वन-हंस कुछ दिवस हेतु और जाऐंगे ठहर।२५। 


दशार्ण* : विन्ध्य के उत्तर में मालवा क्षेत्र; चतुष्क* : चौराहा     


उसके दर्शन पश्चात पहुँ
चो प्रख्यात विदिशा नाम राजधानी, 

तुरन्त तुम्हें विशुद्ध तृप्ति ही मिलेगी एक कामुक-कामना सी। 

वेत्रावती* के मधुर जल का स्वाद लेना, निज प्रिया-ओष्ट जैसे, 

तीरों पर मधुर गर्जन से वह तरंग-सुभ्रूओं संग बहती जैसे।२६। 

 

वेत्रावती* : बेतवा 


वहाँ तुम नीचे उतरोगे निकाई शैल पर विश्राम इच्छा से, 

तेरे स्पर्श से वह पुलकित, कदम्ब पुष्पण परिणत होते जैसे।  

पर्वतिका निज शिला-गृहों द्वारा, आनंद-परिमल* करती उद्गार  

   उद्दाम* अनुरागी नगर-पण्यांगनाओं* संग करते मिलेंगे विहार।२७।


परिमल* : सुवास; उद्दाम* : अनियंत्रित; 
पण्यांगना* : वेश्या


वहाँ विश्राम करके तुम चल देना,

वनों में नदी-तीर की यूथिका*-कलियों पर नूतन जलकण छिड़कना। 

जैसे तेरी छाया-उपहार से स्पर्श मालिन-मुख लेते क्षणिक एकत्रण सुख

 जो प्रतिक्षण गण्डों* से स्वेद पोंछती, काट देती मुरझाए कर्ण-उत्पल।२८।


यूथिका* : चमेली; 
गण्ड* : कपोल 


जैसे तेरा उत्तर-पथ अलका इंगित, उज्जैयिनी-मार्ग वक्र निश्चय ही, 

अतः उसके सौध*-भ्रमण से न हटना, वरन निश्चित जिओगे वृथा ही। 

वहाँ पौरांग्नाओं* की बिजली-स्फुरित चकित नयनों से यदि न करोगे विहार 

जो दामिनी-चमक पर वंचित लोचनों से अकस्मात भय से जाती काँप।२९। 


सौध* : प्रासाद; 
पौरांग्ना* : नगर-वधू; लोचन : चक्षु  

 

अपने पथ पर जब मिलो निर्विन्ध्या* को तुम, मंदिर-घंटियों सी 

मेखला पहने, लहरों पर पंक्तियों में छपछपाती हैं जल-मुर्गाबी। 

अस्थिर चारु चाल संग वक्र-पथ बनाते, नाभि-वलय प्रदर्शित, 

       ऐसे ही नवोढाओं* के प्रथम प्रणय-वचन से, अवश्यमेव प्रिय विभ्रमित।३०।


निर्विन्ध्या* :  पार्वती सरिता, नेवाज; नवोढा* : नववधू    


ओ सुभग प्रेमी ! उस नदी को पार कर तेरा होगा प्रिय कृत्य

काली सिन्धु को प्रवृत्त करना, निस्तेज करते दुख-निवारण से। 

स्पष्टतया तेरे विरह में तड़पती सी, सलिल क्षीण हो गया है, 

      कृश वेणी* व पाण्डु-छाया सी हुई, तीर पतित शुष्क तरु-पर्ण पीतिमा से।३१। 


 वेणी* : केश 

 

अवन्ती पहुँच, जिसके ग्राम-वृद्ध उदयन कथा-कोविद*, 

  तुम फिर श्रीविशाला* पुरी जाना जो पूर्वेव है बहु-चर्चित। 

चमकता जैसे दिव* का एक कांति-खण्ड, आया है धरा पर  

 स्वर्गिक-पुण्यों संग, जिनके सुरचित फल प्रायः हैं हृत*।३२। 


 कोविद* : पारंगत; श्रीविशाला* : उज्जयिनी; दिव* : स्वर्ग; हृत* : छीने गए  


प्रत्यूष* में उज्जैयिनी में शीतल
क्षिप्रा-वात* से स्फुटित कमल

दीर्घ आमोद की सुवासित मैत्री से सारस-युग्ल का प्रेम-कूजन। 

 रात्रि में थकी युवतियों के अंगों की सुरत*-ग्लानि हरती जैसे, 

  पटु* मदहोश प्रेमी अनुकूल प्रार्थना-चाटुकारिता करता है।३३। 


प्रत्यूष* : उषा-काल; वात* : पवन; पटु* : चतुर; सुरत* :
समागम   

 

जैसे गवाक्ष* निकसित नारी केश संस्कार* व धूप से बढ़ता तेरी चारु-रूप, 

वैसे ही भवन के मयूर बन्धु-प्रीति भाव से उपहार देते निज नृत्य।

यात्रा से थके तुम रात्रि बिताकर, वैभव देखना उसके महलों में, 

जो सुवासित है ललित कामिनियों के अंकित* पाद-रंग से।३४।  


गवाक्ष* : जालांतर, खिड़की; संस्कार* : सुगन्धित 
तेल; 

पाद-रंग अंकित* : रक्त-अलक्तक पद-चिन्ह   

 

 तब तुम त्रिभुवन-गुरु चण्डेश्वर* के पुण्य-धाम जाना, 

 गण भर्ता की कंठ-छवि सादर देखते, तेरा वर्ण भी नीलकण्ठ जैसा। 

इसके उपवन गंधवती-समीर से हिलते, सुगन्धित नीलकमल-रज से 

 व जल-क्रीड़ा करती नवोढ़ाओं द्वारा प्रयोग अनुलेपों से महकते।३५। 


चण्डेश्वर* : महाकाल    

 

संयोग से यदि तुम पहुँचो असंध्या- काल* महाकाल,

रुकना जब तक, सूर्य दृष्टि से न हो जाए असाक्षात*। 

 मंदिर-डमरु आयोजन द्वारा शूली* को समर्पित संध्या-बलि संस्कार में, 

    ओ जलधर ! तुम गहन-कंठ गर्जन के पूर्ण-फल का लेना सुख अपने।३६।   


असंध्या-काल* : दिवस समय; शूली* : पिनाकी, शिव;
असाक्षात* : ओझल  

 

अपने परिमित चरणों से रत्न-नूपुर खनकाती लीला-वधुएँ*, 

जिनके हस्त थके हैं शोभित रत्न-जड़ित मूँठ वाले चँवर डुलाते। 

तेरे वर्षाग्र-बिंदुओं* से प्रसन्न, जैसे गणिका* आनन्दित प्रेमी के 

नख-क्षत से, और मधुकर*-पंक्ति सम दीर्घ कटाक्ष नज़रों से।३७।


 लीला-वधू* : देवदासी;  वर्षाग्र-बिंदु* : बौछार; मधुकर* : भ्रमर;
गणिका* : वेश्या, नगरवधू  

 

तब नूतन जपाकुसुम* सम संध्या की रक्तिम प्रभा में, अभिषिक्त हर 

नृत्य शुरू करते, नाभि-मंडल लीन, उठा निज कर-वन में पूर्ण लुप्त। 

 जब पशुपति* रक्त-रंजित आर्द्र गज-चर्म धारण की इच्छा करते त्याग, 

     भवानी के स्तिमित* नयनों द्वारा भक्ति देख, अब हैं उके उद्वेग शांत।३८।


जपाकुसुम* : 
गुड़
, चीनी-गुलाब; पशुपति* : शिव; स्तिमित* : निश्छल

 

 राजपथ पर रमण*-आवास को मिलनार्थ युवतियाँ जाती मिलेंगी, 

वहाँ रात्रि में दृष्टि-अस्पष्ट तम, जिसे छेद न सके एक सुई भी। 

सौदामिनी* से पथ चमकाना, जो पारस पर सुवर्ण-रेखा सी चमकती, 

     पर गर्जना व भारी वर्षा से चकित न करना, सतर्क हो जाती सहज ही।३९।


रमण* : प्रेमी; सौदामिनी : बिजली   

 

कुछ भवन-वलभियों* पर जहाँ पारावत* हैं सुप्त,

दामिनी संग रात्रि बिताना, जो चिर-विलास से अति-खिन्न। 

परन्तु विनती है सूर्योदय पर यात्रा पुनः आरम्भ देना कर, 

निश्चय ही सुहृद* के सहायक न करते कदापि विलम्ब।४०। 


वलभी* : कंगूरेदार छत; पारावत* : धारीदार-कपोत; 

दामिनी* : बिजली; सुहृद* : मित्र  


खण्डिता*-पति भी 
तब घर जाते मिलेंगे, दुखी पत्नियों को शांति दान, 

नयनसलिल* पोंछते, अतः शीघ्र ही सूर्य के पथ से आना निकल बाहर।  

वह भी उषाकाल कमल-सर लौट आता, उसके सरोज-मुख से अश्रु मार्जन, 

   वह तो अल्प-सुवासित ही, यदि तुमसे उसकी किरण-कराग्र* न बाधित।४१। 


खण्डिता* : स्त्री, जिसका पति व्यभिचार का दोषी हैं; नयनसलिल* : अश्रु;  कराग्र* : उँगली     


तुम छाया रूप में भी प्रकृति-सुभग*, 

 निर्मल गम्भीरा-जल में ऐसे प्रवेश करोगे, जैसे शांत चेतना-सर*। 

अतः धैर्य कर स्वागत करती चटुल* नज़रों की न करना उपेक्षा, 

उसकी कुमुदिनी सी श्वेत मीनों की विस्मयी उछालों का।४२। 


प्रकृति-सुभग* : अति सुन्दर; सर* : ताल; चटुल* : प्रिय   

 

उसके ढलुए तट-सरकंडों द्वारा नितम्ब* से मुक्त होते घननील सलिलवसन- 

को हल्के हाथ से रोकना; खिंच रहा ऐसे, जैसे तुम झुकते हों उसके ऊपर।  

ओ सखा ! क्या तेरे लिए कठिन न निर्झरी त्याग, क्योंकि छोड़ेगा कौन 

   एक-विवृत-जंघा* वनिता को, एकबार वपु-मधुरता स्वाद चखकर?।४३। 


नितम्ब* : कटि; विवृत-जंघा* : नंगी जांघ  


तेरी फुहारों द्वारा नूतन वसुधा-गंध से सुवासित, 

कानन-उदुम्बरों* को पका देगी शीतल पवन।   

गज-सूंडों की जल-बौछार संग, प्रसन्न हो ले जाऐगी यह

  तुम्हें शनै देव-गिरि* पर, जहाँ चाहोगे पहुँचना तुम।४४। 


उदुम्बर* : अंजीर,
गूलर; गिरि* : पर्वत 

 

स्कन्द* वहाँ निवासित है, तुम बनाना निज को पुष्प-मेघ, 

व्योम*-गंगा जल संग पुष्प-सार से लगाना फुहार उन पर। 

क्योंकि सूर्य से भी अधिक ऊर्जावान, नव शशिभृत* धारक 

     वह दैव-अग्नि मुख में रखा गया, इंद्र-मेजबानों की रक्षार्थ।४५। 


स्कन्द* : कार्तिकेय; व्योम* : आकाश; शशिभृत : चन्द्र    

 

तब पर्वत-गूँज में तेरी गर्जना बढ़ेंगी व नर्तन हेतु प्रेरित करेगी 

कार्तिकेय-वाहन मयूर को, ऑंखें शिव-चन्द्र ज्योत्स्ना से चमकेंगी। 

 तथा पुत्र-प्रेम में गौरी कर्णों पर ज्योति-लेखा वलयों से चमकती 

  उसके गिरे पंख को उठा, पूर्व-धृत कमलपत्र स्थल रख लेगी।४६।  


जल-ध्वनि कुल-जन्में! ऐसे देव की स्तुति कर व कुछ दूरी लाँघने पर  

वीणा-धारक सिद्ध-दम्पति तेरी जल-बिंदुओं से डरकर छोड़ देंगे पथ। 

 पर सुरभि-पुत्री बलियों से उपजी रंतिदेव-कीर्ति का करना आदर, 

जो एक चमर्ण्वती (चंबल) नदी रूप में बहती है पृथ्वी पर।४७।  


शारंगी* देव का वर्ण चुराकर जब इसके जलपान हेतु झुकोगे,

निश्चय ही गगन-गत दूर से वह सिन्धु नीचे देख विस्मित होंगे। 

एक तनु-रेखा सा प्रवाह देखकर; यद्यपि वह स्थूल है, जैसे  

 मध्य नीलम-जड़ित एक मुक्ता-माला पहनी हो पृथ्वी ने।४८। 


 शारंगी* : शिव 


 वह नदी पार कर तुम स्वयं को बनने देना पात्र 

दशपुर की मृग-नयनी वधुओं की कुतूहली नेत्रों का। 

 चमकते रमण मृगी-चक्षु व श्वेत चमेली की मधुकर श्री* से भी, 

विभ्रम भ्रू-लता संग बढ़ कर होते, उनके कृष्ण नयन ही।४९। 


श्री* : शोभा, गरिमा

 

पावन कुरुक्षेत्र नीचे ब्रह्मवर्त से गुजरते निज-छाया द्वारा, 

तुम उस युद्धसूचक नृप-महारण की भूमि  भूल जाना

जहाँ गाण्डीव-धन्वा* के राजन्य*-मुखों पर बरसें शतों शर

जैसे तुम भी धारा पात करते हो उत्पलों* पर।५०। 


राजन्य* : राजकुमार; गाण्डीव-धन्वा* : अर्जुन; उत्पल* : कमल 


बन्धु-स्नेह निहित समर*-विमुख व अभिलाषित रेवती*-लोचन  

हाला*-रस तजहलधर* ने सरस्वती-पय किया अर्चन। 

 ओ सौम्य ! तुम भी उस जल का आनंद लेना

      जो अंतःशुद्ध करेगा, कृष्ण बस वर्ण में करेगा।५१।


 समर* : युद्ध; 
हलधर* : बलराम;  रेवती* : बलराम की पत्नी; हाला* : सोम-रस   


वहाँ से निकल जाह्नवी जाना, जो आती कनखल-पवर्तिका निकट- 

शैलराज* से अवतीर्ण, यहीं सगर-तनयों* हेतु स्वर्ग सोपान* निर्मित। 

और इंदु आभूषित शिव जटाऐं उसने ऊर्मि-हस्तों से ली जकड़

हँसते हुए फेन गौरी की वक्र-भृकुटि का करते उपहास।५२।


शैलराज* : हिमालय; तनय* : पुत्र (
६००००); सोपान* : सीढ़ी  


यदि तुम व्योम* में सुरगज सम लटके अपने पृष्ठ-भाग में,

 इच्छा रखो गंगा-प्रपातों का निर्मल-स्फटिक जल पान में।  

जैसे ही तेरी छाया उस स्थल पर उसकी धारा पर पड़ेगी, 

  गंगा-जमुना संगम सी वह, अभिराम* ही प्रतीत होगी।५३।  


व्योम* : आकाश;  अभिराम* : 
मनोरमा 


मृग-नाभि गंध से सुरभित शिला, वह गौर हिमाच्छादित 

गंगा-प्रभव* पर्वत जब देखोगे, मिटा देगा तेरा श्रम दीर्घ। 

तुम सुशोभित होंगे त्रिनेत्र वाहन श्वेत नांदी के पंक*-  

उखाड़ते शृंग की शुभ्र-शोभा चिह्न की तरह तब।५४।


प्रभव* : जन्म-स्थल; 
पंक* : गीली मिट्टी  

 

यदि बहती पवन में सरल* शाखा-घर्षण से वनाग्नि उल्का-क्षेप सम- 

पर्वतों पर आक्रमण करें, व भीषणता चमरी* वालभारों* को ज्वलन 

तुमसे विनती उसे पूर्ण-शांत करना, सहस्र तीव्र वारि-धाराओं से निज, 

  महाजन-समृद्धि का सर्वोत्तम उपयोग पीड़ितों की आपदा-प्रशमन।५५।   


सरल* : देवदार; चमरी* : 
याक; वालभार* : गुच्छीदार पूँछ 


यद्यपि गर्जना सह
-असमर्थ, पर्वतों पर यकायक व्यर्थ-गर्वित शरभ*, 

क्रुद्ध हों तुमपर झपटेंगे, मार्ग से अति-दूर मात्र तुड़वाऐंगें निज अंग। 

 हँस कर उनको तुमुल* हिमवृष्टि पात से छितरा देना तुम, क्या 

निष्फल आरम्भ प्रयत्न-कर्ता उपहास फल ही न बनता?५६।  


शरभ* : टिड्डी-दल;  तुमुल* : घनघोर  


वहाँ 
परिक्रमा करना इन्दुमौली* के चरण-न्यास* धारक पर्वत की 

आदर-नमित* हों, सिद्ध नम्र हों पूजा-उपहारों से शाश्वत भक्ति। 

जिस पर दृष्टि से देह-परित्याग और पाप छोड़कर अपने

 श्रद्धालु स्थिरगण पद प्राप्त हैं करते।५७। 


  नमित* : झुककर; इन्दुमौली* : शिव; चरण-न्यास* : पद-चिन्ह

 

कीचकों* से निकल अनिल मधुर-संगीत बजाती

किन्नरियाँ* आनंदित होकर त्रिपुर-विजय गाती। 

यदि तेरी ध्वनि कंदराओं में डमरू सम बज सकती है, तो वहाँ एकत्रित

  पशुपति* नृत्य-नाटिका हेतु संगीत-टोली क्या पूर्ण होगी तुम बिन?५८


 कीचक* : खाली बेंत; किन्नरी* : वन-
सुंदरी;  पशुपति* : शिव  


अद्रिनाथ* के तटों* के अनुपम सौंदर्य से गुज़रते हुए,

तुम निकलना उत्तर दिशा में संकरे क्रोंच- रंध्र* से। 

यह द्वार है हंसों के मानसरोवर का, भृगुपति* हेतु यश का व जैसे 

     खिंचे लाँघन को वामन* के चारु श्याम-पद, बलि-र्व चूर्ण करने।५९। 


 अद्रिनाथ* : हिमालय; तट* : ढलान; रंध्र* : दर्रा; भृगुपति*: परशुराम; वामन* : विष्णु    

 

ऊर्ध्व* चढ़ते कैलाश-अतिथि बनना - तीस वनिताओं* हेतु दर्पण, 

जिसकी शिखर-संधियाँ* हैं दशमुख* भुजा दबाव से अवदलित*। 

ऊपर नभ-चुम्बी महद शिखर, विशद* कुमुद से चमकेंगे, जैसे यह 

  प्रतिदिन ही राशिभूत* होता युगों से हो त्रयम्बकम- अट्टहास*।६०।


 ऊर्ध्व* : ऊपर; वनिता* :देवी; संधि* : जोड़; दशमुख* : रावण; अवदलित* : चटकी; 

विशद* : मृदु; राशिभूत* : संचित; अट्टहास* : महाहास


जब  तुम ऊपर देखते हुए, स्निग्ध* अभिन्न अंजन सम चमकते 

इसके नूतन कटे श्वेत हस्ती-दन्त सम शुभ्र-लानों पर फिसलोगे। 

हिमालय प्रफुल्ल नयन से अवलोकन करेगा, जैसे हलभृत* ने एक 

    नीला वस्त्र कंधे रख, चित्तहारी नयनों सी शोभा अर्जित ली कर।६१।


स्निग्ध* : चिकना; हलभृत* : बलराम     


उस क्रीड़ा-शैल पर शम्भु के भुजंग-वलय वंचित 

हस्त पकड़े गौरी पादचरण* विहारती मिले यदि। 

भक्ति से अंतः-स्तंभित जल ऊर्मि-सोपान* में विरचित कर,

         जैसे वे मणि-तट* आरोह हों, अग्रगायी होकर मिलना वहीं पूर्व।६२।  


 पादचरण* : पैदल; ऊर्मि-सोपान* : लहर की सी
ढ़ियाँ; 

मणि-तट* : रत्नाभूषित लान 


वहाँ इन्द्र-दामिनी से 
उद्गीर्ण वलयों से टकराकर बरसोगे तुम, 

सुर-युवतियाँ निश्चित ही जल-यंत्रधारा* से करेंगी अभिषेक*। 

ग्रीष्म-ताप में तुम्हें पाकर क्रीड़ा-उत्सुक, यदि न जाने दें अग्र, 

ऐ मित्र! भीषण गर्जना से उन्हें कर देना भयभीत कुछ।६३। 


यंत्रधारा* : बौछार; अभिषेक* : स्नान   


तुम मानसरोवर जल का पान करना, खिलतें स्वर्ण-कमल जहाँ, 

व मुखपट* प्रीति से ऐरावत को एक क्षण काम-पुलकित करना। 

जलद* की आर्द्र-वात* की नाना-चेष्टाओं से रेशमी अंशुक पहनेंगें 

कल्पतरु किसलय*, लेना आनंद उस ललित नगेंद्र* का जिसके, 

आभूषित तट विविध प्रकाश-छाया में हैं चमकते।६४।


मुखपट* : गुह्य छाया, जलद*: मेघ; आवरण; वात* : बयार; 

किसलय* नव-पल्लव; नगेंद्र* : हिमालय   


ओ कामचारिन* ! शुक्ल-दुकूलों* में स्व प्रणयिन के बैठी ऊपरी अंग   

उच्च पर्वत से पतित नीचे अलका* को देख, पाओगे  पहचान तुम। 

बहु-मंज़िलें महलों पर ऊँचे जैसे वनिता केश-बाँधे मुक्ता-जाल में, 

वह पावस* में मेघ-सलिल उद्गार से बहती है अति-मात्रा में।६५। 


कामचारिन* : स्वेच्छा से भ्रमण करने वाले; दुकूल* : वस्त्र; 

अलका* : गंगा; पावस* : वर्षा-काल  



पूर्व -संदेश समाप्त 
     ----------------------      


Sunday, 26 June 2016

कर्मभूमि - उच्छ्वास

कर्मभूमि - उच्छ्वास 


मन-मकरंद, तन -उज्ज्वल, कुछ स्वस्थ चिंतन- भ्रमण

लम्बी सैर नहीं यदि संभव, यत्न हो भरने को कुछ पग॥

 

नहीं चाहिए मुझे उपालम्भ, पूर्व ही बहुत हानि हो चुकी

जीवन के सीमित कोष से, अपव्ययता अति हो चुकी।

संसाधनों के उचित प्रयोग से, स्व को योग्यतर तराशो

हरेक क्षण इसका अमूल्य-मोती, उनसे माला बनाओ॥

 

निकल इस पीड़ा-जंजाल से, बचा चेष्टा से ऊर्जा कुछ

लक्ष्य कुछ महत्तर बनाकर, उसमें ही सर्वस्व लगाकर।

एक-एक ईंट से बनता महल, बूंद-२ से विशाल सागर

हर श्वास बनाता पूर्ण जीवन, पर सदुपयोग आवश्यक॥

 

एक क्षीणता-सारणी भी आवश्यक, चिन्हन हेतु उत्तम

प्रत्येक को तब दूर कर, स्वस्थ करना निज तन- मन।

कोई प्रमाद न प्राण-देह में, हर क्षण में है पूर्ण-आयाम

संचेतना-क्षेत्र को बढ़ा, साम्राज्य अपना करो विशाल॥

 

हर दिवस गुरु-चिंतन से, कोंपल-उत्कृष्टता ही फूटेंगी

उत्तरोत्तर संशोधन होगा शैली में, गुणवत्ता यूँ महकेगी।

निज-शब्दों पर होगा गर्व सा, स्व-श्रम से संतुष्ट लेखनी

मन में उठेंगी हिलोरें, इच्छा समर्थों में जगह पाने की॥

 

बदलते दौर से गुजरता, अस्पष्टता -सम्भावना भी संग

जल्द होगा स्थान-परिवर्तन, नव वातावरण से संपर्क।

स्वयं को संपूर्ण-उतार, करना होगा ही कर्त्तव्य-पालन

करना कर्मक्षेत्र-सुनिर्वाह, मील-पत्थर में प्रतिस्थापन॥

 

अग्रिम-चित्रण, दिशा-निर्धारण, वर्तमान से है अग्र-वर्द्धन

पता जरूरी क्या बनना, जग को निज लघु दान- सक्षम।

क्या अपेक्षाऐं स्वयं से, कैसे विस्तार हो क्षुद्र वस्तु में इस

क्या आयाम-दिनचर्या के, सबल-समर्थ बनाने में सक्षम?

 

तथागत बुद्ध, महावीर, नानक, लाओत्से, सुकरात सम

या फिर मुँहफट योगी कबीर सम, पर्दाफ़ाश हर भ्रम।

या स्तुति तुलसी-सूर सम, धर चरित्र प्रभु को मन- निज

या धीर-वीर अरविन्द, रमण सा योगी, स्व ही तल्लीन॥

 

क्या बनाना चाहूँ इस तन्तु का, जो पूर्ण-रूपेण अघटित

सर्व भी सक्षम-संभावना में, यह निज-क्षमता पर निर्भर।

निर्माण कला-वस्तु, जुटा यंत्र, व साजो-सामान किञ्चित

बैठ एक कलाकार सम एकचित्त, बनाओ चित्र विचित्र॥

 

मेरे लिए तो स्व ही अबूझ पहेली है, इसका हल दे बतला

द्रुत-गति से जीवन दौड़ रहा है, इसे कुछ उत्तम सिखला।

कुछ चेतना जो पारितोषिक में मिली है, प्रयोग समुचित दो

न रुकना, चाह दो जूझने, संभावनाओं से भीत न होने दो॥

 

यहाँ न आया चैन से सोने, कर्मभूमि करती बड़ा इंतजार

मनुजता संत्रस्त है, गिद्ध-निगाहें निरीहों को बनाती ग्रास।

नर- बुद्धि का अल्प-उपयोग, अल्पज्ञता का आलम सर्वत्र

मैं मूढ़ इस अनाड़ी शहर में, कहाँ है सुकून हेतु ही स्थल?

 

चाहे आँधी- भवंडर चलें, किंतु यह प्रसुप्त आत्मा जगा दो

खाऐं हिचकोलें विचित्र -अनुभवों में, पर सत्य-रूबरू हो।

चाहूँ यह सबल बने, व विवेक- मनन से उत्तम-बुरा विचारें

तंतु चाहे बिखरेने दो, तन तो खाक ही में मिलेगा अंत में॥

 

मेरी युक्ति में बस युक्त लगा दे, झंझावत से चाहे हो संपर्क

कराओ सामना तुम कृष्ण की वाँछित कलाओं ही समस्त।

न डर यहाँ कोई भी क्योंकि, भला-बुरा सबके संग रहता ही

जब स्वयं हो भंडार-स्वामी, सर्व शुभ-अशुभ के होंगे साक्षी॥

 

अतः बहने दो सुरभित मलय, और करो तुम हर रोम-स्पंदन

पुलकित कर तुम चेतना को, कलम-वाणी में तेजस्विता भर।

समय-बाधा न हो कोई भी चलन में, सततता को बना आदत

और एक अथाह-ज्ञान रश्मि का पुञ्ज, इससे बना साथ निरत॥



पवन कुमार,
26 जून, 2016 समय 16:40 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 21 अगस्त, 2014 समय 9:15 सुबह से) 
      

Monday, 20 June 2016

नाम-चिंतन

नाम-चिंतन 


एक उन्मुक्त अभिलाषा मानव-मन की, सर्वश्रेष्ठ से सीधा जुड़ाव

तभी तो नर नाम ईश्वर पर रखते, माना उनके हैं प्रत्यक्ष अवतार॥

 

भारत में कितने ही नाम-गोत्रों का संबंध तो देवों से जुड़ा है लगता

विशेषतया उच्च-वर्ग लोगों ने सु-नामों पर, एकाधिकार सा किया।

बहु तो न ज्ञात सामाजिक स्थिति का, तथापि एक ओर झुके लगते

अधुना युग में सब नव-नाम अपनाते, सब भाँति के प्रयोग हो रहें॥

 

गणेशन, विनायकम, मुरुगन, विश्वनाथन, सुब्रमण्यम, कार्तिकेयन,

गंगाधरन, महादेवन, सदाशिव, परमशिवम, दक्षिणमूर्ति, नटराजन।

ईश्वरन, नारायणन, सत्यनारायणन, करुणाकरण, विभूतिनारायण,

स्वामीनाथन, वेंकटेश्वर, नरसिंहम, हरिहरन, रामचंद्रन, जगन्नाथन॥

 

संपूर्णनारायण, करुणेश, प्रभु, राधाकृष्णन, श्रीनिवासन, भास्करन,

वेंकटरमन, गोपालन, रंगनाथन, सच्चिदानंद, राजगोपाल, आनंदन।

स्वामी, कृष्णन माधवन, मोहनन, राघवन, शेषशायी, अनंतनारायण,

करूणानिधि, थिरुमल, कलानिधि, नांबियर, राजराजा, धराधरन॥

 

अय्यर, सेनानी, राजर्षि, शेषन, कृष्णामूर्ति, नारायणमूर्ति, चिदांबरम

धरनीधरन, लिंगेश्वरन, सुंदरम, चक्रवर्ती, सदगुरु, व अनेक हैं अन्य॥

 

भारत में नामकरण संस्कार शिशु का, हेतु अनन्त योग-संभावना

ज्योतिषी जाँचते पूर्वजन्म व भविष्य, क्या-२ उसके भाग्य में बदा।

समृद्ध-समर्थों को अच्छे नाम, शास्त्रोक्त नाम भी बँटे जन्मानुसार

निर्धन-निम्नों के नाम भी निम्न, श्रेष्ठ शब्दों पर न विशेष अधिकार॥

 

पर क्या जिजीविषा मानव-मन की, युग्म सीधा ईश्वर से करने की

क्या यह गुण-ग्रहण की इच्छा या नाम से प्रभुता सिद्ध करने की ?

निज कुल का ईश्वर-योग, किंचित उन्हें भी उसी श्रेणी में रख देगा

पूर्वज महान-स्तुत्य थे, हम भी योग्य, अतः अन्य सम्मान से देखें॥

 

पुराने काल में नाम भी वर्गीकृत, जिससे दूर से ही पहचान हो ज्ञात

किससे कितना है संपर्क वाँछित, आचार-व्यवहार के नियम तय।

कुछ पूर्ण-स्वच्छन्द सर्वाधिकार युक्त, कुछ को हैं सीमाऐं दिखा दी

किसी को सर्व पूर्ण-पनपन मौकें, अन्यों हेतु बलात दमित-प्रवृत्ति॥

 

ये ईश्वर पर कैसे नामकरण हैं, नरों ने समय-२ पर मनन से बनाऐं

नामों का जन्म एक घटना है, चिंतन से जुड़ते गए शतों-सहस्रों में।

ईश्वर सर्वव्यापी ही है तो, हर कण पर उसकी उपस्थिति की मुहर

सर्वभूमि गोपाल की ही तो, सबका उसपर बराबर का अधिकार॥

 

पर ऐसा न था सत्य जग में, हर पहलू पर अधिकार-कर्त्तव्य बताऐ

कुछ तो किंचित अतीव हैं स्नेह-पात्र, अन्य अति-दूरी पर रखे गए।

कुछ तो है दृष्टिकोण बाँटने वालों का, अपनों को तो लाभ ही मिले

मैं ही नियन्ता, बुद्धि-शक्तिमान, अपने से बचे तो अन्यों को मिले॥

 

कौन निर्धारक कर्मगति का -मानव, प्रारब्ध या अदम्य ऊर्ध्व-शक्ति

माना कारक भी बाधक, क्या भाग्य पर रुदन-उद्विग्नता बात अच्छी?

राजधर्म या प्रजा में आश्रमों का कठिन निर्वाह, सेना-पुरोहित सचेत

रहो सीमा में, सुपाठन- सुव्यवसाय स्व-क्षेत्र, अन्यों का है तो निषेध॥

 

क्या थी बलात प्रगति-निरोध, या दमितों को निम्न रखने का स्वभाव

या अंध-विश्वास में डूबे है रहना, वास्तविक उन्नति हेतु कर्म-अभाव?

क्यों वे व्यक्त-असमर्थ, कम से कम अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर

एकता-अभाव व युक्ति-असमर्थता, स्पर्धा से भय, बलशाली समक्ष॥

 

एक को सर्वाधिक, दूजे को कम, फिर और कम, अतएव वर्गीकरण

अन्तिमों को कुछ नहीं, या लो बची जूठन, बाँटे अपने-२ को है अन्ध।

जिनको कुछ मिला - समझे वंचितों से सौभाग्यशाली, कुछ तो हैं श्रेष्ठ

विषमता है प्रजा-प्रचलित, सर्व चेष्टा-दृष्टि प्रभुओं को करने में संतुष्ट॥

 

जब इतने बटाँव है तो विरोध स्वाभाविक, मार तो ही पड़ेगी क्षीण पर

वह मज़दूर हाशिए पर खड़ा है, जैसे उसके रक्त से ही जगत-पोषण।

माना मानव ने बलि- प्रथा को दिया अन्य-रूप, शोषण अधिकार-नव

देह-कर्म उनका- लाभ हमारा, अन्न-धन वे पैदा करें, फल खाऐं हम॥

 

क्या यह लाभ-तंत्र, झूठ-फ़रेब चलन या है वास्तविक श्रम-पारितोषिक

निर्धन- मज़बूरी का अमानवीय लाभ, लपकने को बैठे कुछ ही अन्य।

कौन तय करे दाम कितना हो, शासकीय या माँग-पूर्ति की क्रिया बस

या व्यवसायी-साहस जो दूर ले जाए, दुर्लभ-वस्तुओं का मूल्य अधिक॥

 

क्या है यह परम से जोड़ने की प्रवृत्ति, माना वह नाममात्र तक सीमित

चरित्र-व्यवहार कितना मिलता आदर्श से, या वह भी है मात्र कल्पित।

या वे भी थे सहज मानव सब भाँति, सभी तरह के गुण - दोष से युक्त

बस नरों ने गुण- अतिश्योक्ति की, व सबसे ऊपर कर लिए हैं स्थित॥

 

वर्तमान में भी हैं योग्य, सत्य धरातल पर न सही कमसकम प्रसिद्धि में

वे कितने महान, मानव-विफलताओं से परे या विज्ञापन भाव बढ़ाए हैं।

या कुछ परिस्थितियों का समन्वय, जो मनुष्य को दिलाऐ यश- सम्मान

तब कैसे भावी पीढ़ी महिमा-मंडन करेगी, साक्षात ईश-श्रेष्ठ लेगी मान?

 

सुयोग्य तो निज प्रतिभा-निर्मित, चाटुकार-स्वार्थी संग, लगें शेखी बघारने

सामान्य को ही ईश्वर-कृत माना, शनै वे भी निज को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे।

कितने दंभी-ढोंगी बैठे हैं, हाट में सजा-सजाकर अपनी विज्ञापन-दुकान

साक्षात ईश्वर से ही उनका सीधा रिश्ता, कृपा बरसेगी हमारा है बखान॥

 

सब कुछ चलन आधुनिक संचार माध्यमों पर, उनको है मिलता शुल्क

जितनी प्रसिद्धि उतने श्रद्धालु होंगे, अल्प जुड़कर ही तो भरेगा कलश।

फिर भक्त-जमात एक बड़ा राजनीतिक बल, जो चुनावों में होता प्रयोग

नेता व प्रचारक का है सु-समन्वय, दुकान चलने दो, तुम लो फिर लाभ॥

 

वह कौन सा काल आया है इस जग में, जब तथाकथित देवता थे विचरते

चार युग तो बता दिए हैं स्मृति-ग्रन्थों में, किंतु कितना सत्य कोई न जाने।

प्रश्न का अधिकार मानव को मिला है, और विज्ञान-धारणा उनको नकारे

यहाँ बहुत-कुछ लिखा बस अतिश्योक्ति, मानव सर्व-काल प्रवेशित कैसे?

 

फिर विभिन्न पंथ-मान्यताऐं, अनेक वृतांत, क्या है नितांत सत्य व असत्य

माना विश्वासी की संस्थाओं में सत्य-निष्ठा भी, क्या मान ही लें सारा जग?

पर स्वार्थी निज-ग्रंथों को ही शाश्वत घोषित करते, विरोध तो नहीं सहन है

या तो अपने में ही मस्त रहो, न हम तुमको छेड़ें - उलझो न तुम हमसे॥

 

मैं अमुक वहाँ पर इस कुल-स्थान जन्मा, मेरा संपर्क सर्वोपरि ईश्वर से

मेरा आराध्य, उसपर पूर्णाधिकार, कोई अन्य आकर न धृष्टता दिखाए।

ईश्व को तो स्वार्थ-वश वर्गीकृत किया, यह मेरा रूप अन्य से न मतलब

फिर तेरे गणेश की ऐसी-तैसी, मेरा गणेश ही होगा सर्वप्रथम विसर्जन'॥

 

यह क्या खेल निष्ठा- विश्वास-रूढ़ियों का, सत्य अज्ञात फिर भी हैं उलझे

कुछ तंत्र-कर्मकांड बता दिए स्वार्थियों ने, श्रद्धालु उन्हें अकाट्य मानते।

अनेक लघु पंथ पनपे हैं नर-समूहों में, बस निज-परिधि निर्मित वहीं तक

किंतु कितना विस्तार मानव-मन संभव, सिकुड़ना तो है अर्ध-विकसित॥

 

और क्या है प्रश्नकरण-प्रवृत्ति, हेतु मानव का सर्वांगीण विकास व उद्भव

जब वर्तमान ही सहज न लगता, विरोधाभास खोलते हैं परत दर परत।

क्या है यह सब मनीषियों का निर्मल- चिंतन या स्वार्थ-निर्वाह लुब्धों का

या घोर तम में ही मात्र सन्तुष्टि, मूढ़ता-ज्ञानाभाव निकृष्ट श्रेणी में रखता॥

 

यद्यपि साहित्य दर्पण है मनन का, पर प्रश्न कितनी संभव है मानव-थाह

क्या जन- भावनाऐं कर्ता में, कुछ विवेकशील भी या अंधानुकरण मात्र।

या बस एक ढ़र्रा सा बना लिया, समस्त तीज-त्यौहार मनाते समझें बिन

सभ्यता-प्रयोग एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, पर क्या इच्छा ही सत्यान्वेषण?

 

कैसे सत्य, किसके सत्य, क्या, क्यों, कितना ही है अध्ययन-अनुसंधान

क्या हर संभव पक्ष का सत्य-अवलोकन, या जो समक्ष चलाऐं हैं काम।

फिर कौन अन्वेषी दुर्गम राहों के, किसमें साहस सूक्ष्मता में करें प्रवेश

कौन उपकरण, गुरु-सहायक, मनन-दिशा संग में, हम भी बनाऐं पंथ॥

 

पर मानव-मन है अति ढोंगी-चतुर, निज स्वार्थ-पूर्ति हेतु है उक्ति बनाए

उसको न अर्थ है पूर्ण सत्य-उचित से, बस जैसा बन सके, काम चलाए।

वह बिदकता है अपने से समर्थतरों से, जो हाँ में हाँ मिलाऐ वही उत्तम

कहता यह अन्य तो अविवेकी-दोषपूर्ण हैं, दूर रहो-रखो इसमें ही हित॥

 

किंतु क्यों हम बोलते हैं अन्य के विरोध में, अच्छे हो जब तक संग ही

जरा हटें तो विरोधी मान लिया, मन-वाणी-कलम से उनकी ही बुराई।

किंतु कब तक खुद को ही समझाऐं, जब दर्द हो रहा तो क्या न कराहें

उसकी स्थिति तो न समझ-जानते, निज समय तो बस उसी में है बीते॥

 

माना सबसे न कहते भी, पर अंदर ही अंदर तो युद्ध चलता ही रहता

कष्ट तो हैं जब नर नीर-क्षीर विवेकी, सत्य-स्थिति को ज्ञान-यत्न रहता।

मात्र आत्म-मुग्ध या दत्त नाम रूप मानने से, बहु-विकास हैं न सम्भव

प्रयास-वृद्धि, अस्वीकार विशेषण, `मन से जय ही निज सत्य-विजय'



पवन कुमार, 
20 जून, 2016 समय 23:54 म० रा०  
(मेरी डायरी 20 जून, 2015 समय 10:50 प्रातः से) 
    

Sunday, 12 June 2016

संचार-रूप

संचार-रूप  


बहुत जनों ने संस्थान हैं बनाए, जगत को करने अपना सर्वस्व दान

सदा संग्रह करते हैं प्रत्येक अनुपम को, उपलब्धि हेतु एक स्थान॥

 

हमने मान लिया तथाकथित क्षुद्र मानव, मात्र स्वार्थी न है वरन क्या

गूगल पर एक क्लिक से ही, लाखों परिणाम क्षण में थे सकते आ?

अनेक सदा रखते जाते, विभिन्न वेबसाइट्स पर सर्व-अवलोकनार्थ

अनेक नूतन विचार-दृश्य-लेख-फ़िल्म- समाचार सर्वदा उपलब्ध॥

 

कौन ये नर जो सदा निरत रहते, बाँटने हेतु निज सर्व मनन-विज्ञान

पूर्व एक-दो किताबें घरों में होती थी, अब खुला पूर्ण ब्रह्मांड-वृतांत।

ज्ञान या तो कुछ मस्तिष्कों में सीमित, या कुछ पुस्तकों में था व्यक्त

पर कैसे हो संपर्क-आत्मसात, आम जन की थी एक दुविधा महद॥

 

अब विश्व-वृतांत उपलब्ध नेट पर, पहले अत्यल्प में ही क्रय-सामर्थ्य

अनेक महाजन-जीवनवृत्त, विचार, यूँ सस्ते में न थे कदापि उपलब्ध।

हाँ खोजी-अन्वेषक तो उस समय में भी चेष्टा से, कुछ लेते थे ही ढूँढ़

पर इतनी सुलभ ज्ञान-लब्धता तो, कभी किसी ने कल्पना की थी न॥

 

अब नर रत निज-पांडित्य बाँटने में, होड़ लगी हेतु अधिकतम पाठक

इसमें कुछ विशेष लोभ नहीं उनका, बस अच्छा लगा व किया प्रस्तुत।

अब पाठक भी क्या करें, पढ़ें या छोड़ें, सोशल-मीडिया है बहु-विस्तृत

यथा ट्विट्टर, ब्लॉगर, फेसबुक, व्हाट्सअप आदि ध्यान खींचे हैं बहुत॥

 

अनेक अज्ञात ई-मेल, कहाँ-२ से पता ढूँढ़ कुछ अद्भुत करते प्रेषित

तुम ध्यान दो या मत देखो, ध्यानाकर्षण हेतु आते ही हैं रहते सतत।

प्रजा ने तो फेसबुक पर लाइक हेतु साइट्स खोली, पोस्टस उपलब्ध

लाभ तो ज्ञान मुफ्त-उपलब्ध, पर प्रश्न कितना हो पाते हैं लाभान्वित॥

 

अनेक भाँति के प्रभाव हो रहें मन पर, समस्त-जग है कारक हम पर

टीवी-रेडियो, समाचार-पत्र, टेलीफोन, संदेश-पत्रिका, मेल व पुस्तक।

गत के सौ वर्ष पूर्व रेडियो-टीवी आने के बाद हुई संचार-क्रांति आरंभ

पर २५-३० वर्ष पूर्व इंटरनेट पश्चात तो ज्ञान-प्रसार दिशा गई है बदल॥

 

सब दूरी खत्म, संचार अति सस्ता, एक गरीब भी लाभ है उठा सकता

इंटरनेट संग मोबाइल फोन हस्त-उपलब्ध, ब्रह्मांड साथ लिए घूमता।

ऑनलाइन फॉर्म- परीक्षा से, अनेक भौतिक कष्टों से मिला है निवारण

बैंकिंग-प्रणाली अति सहज-सुलभ हुई, प्रजा को मात्र लाभ ही लाभ॥

 

स्थान- दूरी समाप्त, समय की बचत व संचार कुछ क्षणों में ही सम्भव

अब हर संस्थान, विश्व-विद्यालय, व्यक्ति-चरित्र की जानकारी उपलब्ध।

जहाँ चाहो वहाँ अवसर ले सकते, व उनकी न्यूनतम अपेक्षाऐं भी ज्ञात

बहु सफल-सुयोग्य बनने के अवसर, बस बनो स्फूर्त व करो कोशिश॥

 

आवागमन-मुश्किलें अल्प, मोबाइल ध्वनि-मैसेज से ही करते हैं संपर्क

नेट पर ही जाँच-ऑर्डर बुक कर सकते, भुगतान सुविधा भी है लब्ध।

भावी समय में मोबाइल पर ही और सुविधाऐं मिलेंगी, अतीत-कल्पना

मानव-जीवन और सुविधा-निकट, बस लाभ लेने की चाहिए है इच्छा॥

 

अनेक विशेषज्ञ, विश्व एक ग्लोबल-विलेज, गूगल के सर्जई व लैरी पेज,

फेसबुक- जुकेरबर्ग, एप्पल-स्टीव जॉब्स, माइक्रोसॉफ्ट- बिल गेट्स।

अनेक तकनीशियनों ने निष्ठा-कर्म से, सब ज्ञान-संगीत धारा दी बदल

पुराकाल सम ज्ञान न गुप्त-सीमित, है सार्वजनिक भले हेतु उपलब्ध॥

 

यह बाँटन-प्रवृत्ति पूर्व भी थी कुछ में, पर इतना सहज-साहचर्य न लब्ध

एक टॉपिक पर मिलें अनेक विचार-शोध, खोलता रचनात्मकता-द्वार।

सच ही तो है मस्तिष्क भी उपलब्ध ज्ञान पर ही, करता टिप्पणी-मनन

माना सूचना-बहुलता अतिरिक्त बुद्धि-भार, किंतु लेता निज अनुरुप॥

 

और अधिक विभिन्न विषयों में अपनी प्रवृष्टि करो॥


पवन कुमार,
12 जून, 2016 समय 19:06 सायं 
(मेरी डायरी दि० 3 मार्च, 2015 समय 10:24 बजे प्रातः से)       

Sunday, 29 May 2016

देश-समाज

देश-समाज 


गाँव- देश- समाज, जगत के कूचे, पृथक ढ़ंग से हैं विकसित

सबके निश्चित स्वरूप हैं, एक विशेष रवैया उनसे निकसित॥

 

सब छोटे-बड़े टोलों के स्वामी, निज भाँति धमकाते-गुर्राते हैं

सब निज-वश ही करना चाहे, विरोध-स्वर न सहन करते हैं।

हमारा परिवेश सबसे उत्तम है, सब इसको हृदय से स्वीकारें

यदि विसंगति तो भी सर्व हेतु सहो, सर्वोपरि समाज-सेवा है॥

 

माना संपर्क यदा-कदा बाह्य से भी, कहे अपने तो ये रिवाज़

हमारे विषयों में हस्तक्षेप न करो, तुम क्या करते, न मतलब।

निज विचार-विश्वास-रूढ़ि, कानून स्वीकृत हैं, हम स्व-मस्त

चाहे दंभी-निर्दयी-असहिष्णु, पर निज-आलोचना न स्वीकृत॥

 

जनों ने बनाया एक सोच का ढ़र्रा, कितना दोषपूर्ण न है विचार

विद्रोही चुपके से स्वर उठाते, प्रबल तंत्र उन्हें न देता परवान।

यदि ईष्ट-देव, श्रेष्ठ-पुरुष, श्रुति-पर्व, रिवाज़ दबंगों को स्वीकार

सम्मान प्रदत्त, अन्यथा सर्व विवेक-कर्म कर दिए जाते नकार॥

 

छोटे गाँव के बगड़-मोहल्ले, उनमें विभिन्न जातियाँ, गौत्र, कुल

निज संबंधी-घर-कुटुंब वहीं हैं, सदस्यों की सोच-विचार पृथक।

छोटे कस्बों से जुड़ें गाँव, बाह्य-दृष्टि से सबके तौर-तरीके भिन्न

गाँव विशेष से कुछ निर्धारित, नाम सुनते ही समक्ष एक चरित्र॥

 

एक गाँव-वासी को दूसरे में जाकर, न है सहन स्व-कमी कथन

निज-प्रतिष्ठा सबसे प्रिय, कोई अन्य अनर्गल बोले, नहीं सहन।

सबमें कुछ तो बदलाव होता, एक सम न है लोगों का व्यवहार

स्थल-काल, नर का विशेष परिवेश, सबको कमोबेश स्वीकार॥

 

निज जलवायु-वनस्पति-पर्वत, रेगिस्तान-फसल-पशु व आराध्य

कौन जन यहाँ सफल बनें, कितना प्रभाव है एक अवसर प्रदान।

कितना ज्ञान-सम्मान यहाँ पर, या केवल बाहुबल को ही महत्त्व

बहु-कारक समन्वय है विचित्र, जितने टोले उतने विविध रूप॥

 

अनेक हैं गाथाऐं- संस्मरण- शैली, इतिहास एवं जागरूकता निज

त्रुटियाँ, बेवकूफियाँ, नादानियाँ, कुरीतियाँ, कुकर्म एवं हैं सुकर्म।

जानवर, विशेष वृक्ष, उनसे जुड़ी भ्रान्तियाँ, निज ही देवी-आत्माऐं

अपने चौराहें-मोड़ हैं, आँगन, कच्चे-पक्के पथ व खलिहान-गोरे॥

 

निज वयवृद्ध हैं, उनकी फटकार-कथाऐं, दूर-दृष्टि, हिताकांक्षा सर्व

मूँछों पर ताँव, गंभीर-विषय पांडित्य, निकट किंतु कितना प्रभाव।

कितना आपसी-आदर, क्या सब सोलह-कलाओं का लाभ उठाते

किंतु परस्पर बाँटते सुख-दुःख, सब गुण-दोष सुभाँति हैं समझते॥

 

सामूहिक-लोभ, परस्पर चूना लगाना, धोखाधड़ी, ईर्ष्या व अपवाद

निपुणता-चिंतन अनुरूप आचार-शैली, फिर अवसर देख बदलाव।

जब निज टोलों में ही कई भिन्न रूप, फिर अन्य तो हैं अति-पृथक

तथापि संपर्क तो अवश्य उनसे भी, वरन एक जगह न सकते रह॥

 

पुरुष- गाथा, जीव- विविधता, नर आचार-व्यवहार में हैं बहु-बदलाव

जन्म-शिशु-बाल-किशोर-युवा-अधेड़-वृद्ध व परम-सत्य मृत्यु-प्रस्थान।

फिर सब निज गति- क्रिया से चलते हैं, कुछ शनै तो या शीघ्र किंचित

प्रारब्ध-गंतव्य तो सबका एक ही, मध्य कैसा बीता, है जीवन-वृतांत॥

 

पर यह व्यक्ति तक सीमित न है, कैसे बड़े स्वरूपों में समाज-लक्षित

वे भी दूर से मुहल्ले ही लगते, कुछ एक सम विशेष चरित्र है दर्शित।

पर जैसे ही इकाई से ऊपर गए, समानता मिले, विरोधाभास भी होते

अनेक धर्म-शैली-बर्ताव-रंग-रूप-बोली, रीति-रिवाज़, क्षेत्र-लगाव में॥

 

जब देखें एक राज्य को ध्यान से, भिन्न क्षेत्र-जिलों में प्रारूपता विशेष

उनकी बोली-समृद्धि, साक्षरता-स्वास्थ्य, प्रगति-स्तर और लोक-प्रेम।

पर विविधता होते भी भिन्न अंगों में, राज्य इकाई मान लिया है जाता

अंचल से स्तर उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण आदि पर भी बहु-समानता॥

 

बड़ा लघु से ही निर्मित, स्थूलतया भाषा- साहित्य-देव-मंदिर एकरूप

जन भूल जाते अंतर्विरोध को, समूहों में आकर खो देते निज पहचान।

अंतः-ज्ञान कि हम मात्र उस वृहद का ही अवयव, न कोई विषमता है

बड़े पर्व, पीर-पैगंबर, मेले-उर्स में आकर, सब समाधिस्थ होना चाहें॥

 

देश-स्तर पर सूक्ष्मता से देखें तो समस्त संस्कृति एक सम ही दिखती

भूमि-लोग, जलवायु-संस्कृति, साहित्य-कला, प्रगति सबमें हैं सजती।

निवासी समृद्धि-सम्पन्नता पर ही गौरवान्वित, अपना राष्ट्र ही सर्वोत्तम

अन्य तो असभ्य, जन-विरोधी, विधर्मी, आतंकी-समर्थक व विवादित॥

 

निज पर्वत-शिखर, समुद्र, हवाऐं, वर्षा, विविध जीव, फसल-वृक्ष-फल

कष्ट-सुख, विजय- हार सब मिल बाँटें, तीज-त्यौहार मनाऐं एक संग।

सुवीर-नायक, रक्षक, खिलाड़ी, कवि-साहित्यकार, और विद्वान अपूर्व

वास्तु-भवन, विज्ञान, आचार-शैली, स्वास्थ्य, अतः गर्वानुभूति नैसर्गिक॥

 

पर सब राष्ट्र न देते हैं सम्मान, जनसंख्या अनेक स्थल अल्प-विकसित

सबको न सुपरिवेश तो सर्वोत्तम कैसे, पर देखो अन्यों ने विस्तार कृत।

नहीं विरोधाभास विश्वासों-पहनावे से, इतिहास का भी हो सम्मान कुछ

परंतु सार्वजनिक हित-विकास कैसे हो सम्भव, गहन मंथन है वाँछित॥

 

आवश्यकता है योग्य, विशाल-उर नायकों की, मानवता ही निज-अंग

माना कुछ स्थल दूषित-संकुचित हैं; दमित वातावरण, प्रजा अवदलित।

प्रबंधन न्यूनतम मानवीय स्तर संभव, जब सब करें ही सुरक्षित अनुभव

जीवन का इतना भी न अल्पमूल्य, कुछ स्वार्थ त्यागो उचित ही है सब॥

 

कौन ले तब दायित्व प्रबंधन का, अनेकों ने स्व-क्षेत्रों में तीर तान रखे हैं

अनेक स्वयंभू बन बैठे निज क्षेत्रों में, उनकी इच्छा का सिक्का चलता है।

कितने धर्म-नाम पर दबाना चाहते हैं, हम ही राज्य, नियम-कानून, विज्ञ

बड़े समृद्धों का जन-संसाधन पर अतिक्रमण, निर्धन मात्र दया-अधीन॥

 

क्यों है मानसिक-भौतिक-आर्थिक असमता, कैसे नर हो विकासोन्मुख

शिक्षा-स्वास्थ्य, भोजन-जल, बौद्धिक-विकास से हो सबका ही परिचय।

जब जीवंतता- पाठ पढ़ोगे तो, परिवेश संभव है हिताय-सुखाय सर्वजन

तब अधिक दायित्व-समर्थ, 'वसुधैव-कुटुंबकम' प्राचीन उद्गीत अंततः॥



पवन कुमार,
29 मई, 2016 समय 23:39 म० रा० 
(मेरी डायरी 28 जून, 2015 समय 10:48 प्रातः से)