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Sunday, 31 May 2020

उत्तम-प्रवेश

उत्तम-प्रवेश
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खुली आँखों से स्वप्न देखना, किंचित बाहर आना तंद्रा से
  बस यूँ नेत्र खोलें, कितनी संभावनाऐं  हो सकती मन में।  

शिकायतें कई तुमसे ऐ जिंदगी, न खिलती, न रूप दिखाती 
कहाँ छुपी बैठी रूबरू न हो, तड़प रहा तुममें रहकर भी।  
जल में रहकर भी  प्यासा, यह तो कोई फलसफ़ा न है भला 
ऑंखें मीचे सोता रहूँ तुझे न मतलब, कैसा निभा रही रिश्ता। 

मेरा सोना क्या और जागना क्या, जब दोनों में ही न स्पंदन 
प्राण तो पूर्ण जिया ही न, कुछ पेंच फँस काट दिया समय। 
ऐसे कोई मज़ा आए न, सौ में से एक-दो नंबर पा लिए बस 
उत्तीर्ण हेतु न्यूनतम तो पाऐं, उत्तम-उत्कृष्ट स्थिति अग्रिम। 

यह जीवन क्या, कैसे जी रहा, कुछ समझ तो अभी न आया 
या कि कभी कोशिश ही न की, जैसे आया वैसे बिता लिया। 
 जब  यूँ तंद्रा मन-देह में, पूर्ण चेतना बिना तो अधूरा ही होगा 
कोशिशें भी कुछ अधूरी ही, इच्छा-स्तर  भी दोयम ही रहा। 

   कोई कुछ छंद-कुंद जोड़ देता, मैं अवाक्-विस्मित सा देखता     
निज का जैसे वजूद न, किसी ने कुछ बताया उधर हो लिया। 
जीवन-सलीका तो बड़ी दूर की बात, सुस्ती छूटे तो सोचूँ कुछ 
मौका-ए-जिंदगी यूँ भागा जा रहा, बीता तो क्या कहूँगा फिर। 

दिन-रैन आते-जाते, कभी गुनगुना देता, प्रतिक्रिया देता कर
पर क्या सत्य प्रक्रिया इस प्रवाह की, रहस्य-अर्थ तो ज्ञात न। 
जग क्या-क्यूँ समझे, शख्स को खुद का ही न पूरा पता जब 
    कभी प्राण-स्पंदन हो जाता है, पर है पूर्ण का अत्यल्प अंश।    

यदा-कदा की बेचैनियाँ कष्टकारक ही, कोई न चेतना वरन 
वैद्य ने बस दर्द कम करने की सूई दी, यह कोई ईलाज न। 
वैद्य रोग बताता भी न, जानता कि कोई ज्यादा लाभ न होगा 
इसकी काट अति कष्टमय, शायद संग लेकर मरना होगा। 

इस दुनिया में तो भेजा हूँ, मेरा भी यहाँ कुछ अधिकार होगा 
जहाज में धक्का मार घुसा दिया, बे-टिकट तो मिलेगी सजा। 
पास जुर्माने की दंड-राशि भी न है, न ही लेगा कोई जमानत 
न कुछ गिरवी रखने को ही पास, कैसे निदान होगा पता न। 

शायद देह-मन यंत्रणा सहनी होगी, जग में अधिक दया न 
या योग से कोई दयालु मिले, डाँट-फटकार से ही दे छोड़। 
तथापि निरीह ही, इस कष्ट से निबटा अग्रिम का होगा क्या 
कुछ योग्य-सुकर्म अनुरूप न बना, कैसे होगी अग्रिम राह। 

कुछ दया-डाँट, दर-बदर भटकना, मायूसी से क्या जीना यूँ
कोई सुयोग्य-कर्मठ क्यूँ न बनाता, जीवन-राह सीख जाऊँ। 
जीना वही जो  पूर्ण  जीया, हर रोम से जीवन हो मधु सिक्त 
अंतः-उत्तम तो तभी बाहर आएगा, अंतः-सुदृढ़ता से हित।  

कुछ खान-पान-सोच दोषित, इतनी तंद्रा तो कदापि न वरन
विज्ञान शिक्षा प्राण-प्रक्रिया के नियम, कोशिका रचना-क्षय। 
जाँचन-सामर्थ्य तो न मुझमें, सुशिक्षित भी न जो जाऊँ समझ
बाह्य विज्ञान अति जटिल, विश्व समझना भी न इतना सरल। 

कौन नियम पालन ग्राह्य-स्थिति हेतु, रग-२ से टपके संचेतना 
स्व-आत्मीयता, गुण-दोषों से सहजता, सदा न लड़ सकता। 
आत्म-आलोचना आवश्यक, ज्ञान पश्चात ही कुछ चरण संभव 
पर सोच-समझ पूर्णता पर लाओ, अपने को कर लो दुरस्त। 
  
कैसा भवंडर निर्गम न होने दे रहा, निकलूँ तो सोचूँ सुधार की
ज्ञानमय हूँगा तो स्थिति सुधरे, पर पूर्वार्थ अभी मात्र इच्छा ही। 
भोर हो तो दिखेगा चलने को, अभी रात्रि-तमस में अटका पड़ा 
मन-देह प्रभा व सामर्थ्य-उत्कंठा का संगम, शायद बने बात। 

यह जिंदगी मिली कुछ महद उद्देश्य हेतु, चाहे अज्ञात हो मुझे ही 
प्रथम दिन शाला गया शिशु अज्ञान, कि विद्या विद्वान बना देगी। 
सफलता-सोपान खुलेंगे व यश-कीर्ति अवसर प्रारंभ होंगे समक्ष 
जीवन तब सुघड़ ही गुजरेगा, बहुरंग खिलेंगे, हो पुलकित मन। 

यही प्रार्थना कोई उत्तम में प्रवेश करा दे, प्रशिक्षु शिक्षक का भले 
डाँट-फटकार, स्नेह या अन्य युक्ति से यह मूढ़ भी कुछ योग्य बने। 
अभी समझ न भावी परिणाम, शायद  कालक्रम में जाऊँ समझ 
यद्यपि ऐसा न दर्शित, तभी तो छटपटाहट, हूँ किंकर्त्तव्य-विमूढ़। 

इस क्षुद्र मन में इतनी पीड़ा, कैसे उपचार हो बुद्धि सोच न पाती 
सिमटा बस कलम-कागज पर ही, रह-२ हो जाता असहज वही। 
क्या करूँ यही समक्ष पल-स्थिति, कुछ पृथक तो तथैव उकेरूँगा 
पर लक्ष्य एक आत्मसातता का, वर्तमान मंथन विलग निकालेगा। 

चाह न अति विद्वान या समृद्ध होने की, उचित राह  पर्याप्त बस
गति पर कहीं पहुँचेंगे यदि दिशा हो, उपलब्धि बढ़ती उम्र सम। 
कुछ ढंग तो आए, साहसी कदम हों, योजना-परियोजना तो बने 
निस्संदेह उत्तरोत्तर सकारात्मक वृद्धि, बेचैनी दूर, मुख स्मित से। 

इतना तो अवश्य श्रेष्टतम से संपर्क हो, उन सम मन-बुद्धि बढ़े 
सबको पूरे विकास-अवसर, फिर क्यूँ अल्पता में ही अटके रहें। 
सत्य माना सब समरूप न बढ़ते, पर अनेक भी तो  आगे आए 
यदि प्रयास न तो कोई अन्य आएगा, तुम न तो अनेक पंक्ति में। 

सुचिंतन हो, नकारात्मकता पर विजय, हदों से कराएगी परिचय 
यह गंगा सलिल-प्रवाह सागर ओर, अति-विपुल से होगा मिलन। 
जब पूर्ण-पुष्पण होगा, तो सब वाँछित परिस्थितियाँ होंगी निकट 
इतनी जल्द हार मानने वाला भी न, अग्र बढ़ना न कोई संशय। 

क्या है इस कवायद का अर्थ, पर ऊर्जा-स्पंदन देता हेतु श्रेयस 
हर प्राप्ति माँगती निज मूल्य, समृद्ध बनो तो दे सको वाँछनीय। 
जीवन में प्रयास अति महत्त्वपूर्ण, दृष्टि उत्तम हेतु सततता रखो 
अग्रसर सुपग ही लक्ष्य पहुँचाते, अतः सर्व-इन्द्रि सुनिर्वाह करो। 


पवन कुमार,
३१ मई' २०२०, रविवार समय ५:२५ बजे अपराह्न 
(मेरी डायरी दि०  १८ अगस्त' २०१६, वीरवार समय ४:०५ बजे अपराह्न से)

Friday, 15 May 2020

विपुल परिचय

विपुल परिचय
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प्रतिदिन अनेकानेक घटित सर्वत्र, नर एक समुद्र-बूंद से भी अल्प 
हर पल अति महद निर्मित, कायनात के कितने क्षुद्र-कण हैं हम। 

कुछ पढ़ा-देखा, पृथ्वी व सूर्य की आयु बताई जाती ५ खरब वर्ष  
ब्रह्मांड-वय को बिगबैंग से १५ खरब वर्ष हुआ हैं मानते लगभग। 
कुछ समय पूर्व तक यूनिवर्स ही प्रचलन में, अब मल्टीवर्स चर्चा में
एक ब्रह्मांड परे भी अनेक अन्य हैं, मानव ज्ञान-पराकाष्टा से आगे।

बिगबैंग पूर्व भी  महा-गोलक में कुछ तो था, अज्ञात है कितनी वय
किसी महद प्रक्रिया चलते महाठोस होगा, बिखरा सा उससे पूर्व।
बिगबैंग द्रव्य से नक्षत्र-ग्रह-उल्का निर्माण में, बहु  आयाम निहित
    सौर-वृत्त में पृथ्वी एक क्षुद्र-ग्रह, जीव-मनुज विकास बड़ी पश्चाद।    

भारत में युग-महायुग-कल्प-महाकल्प आदि काल-अवधारणा विपुल
सत  १७.२८, द्वापर १२.९६, त्रेता ८.६४ व कलियुग ४.३२ लाख वर्ष।
सब मिल एक महायुग बनाते, जो बनें ४३.२ लाख वर्ष की दीर्घ काल
 १००० महायुग से एक कल्प या ब्रह्मा-दिवस व अवधि ४.३२ अरब वर्ष।
ब्रह्मा-सृष्टि आयु १०० कल्प-वर्ष या एक महाकल्प, होते ३११.०४ खरब
सृष्टि-स्थिति-लय महद विचार, महाप्रलय में विश्व संहार करते शिव। 

पुरा नर-बुद्धि भी नवीन से अल्प न विकसित, हाँ अनुमान करती थी यत्न
जितना समझा कह-लिख दिया, कुछ बाद वाले प्रतीतते अक्षरशः सत्य। 
अब विज्ञान-प्रयोग गूढ़-विवेचन हो रहें, अनेक पूर्व-रहस्य अन्वेषित-स्पष्ट 
नवीन नित समक्ष गोचर, प्रत्येक से परिचय की समय-ऊर्जा तो न है पर। 

हर पल विपुल निजी-बाह्य जग घटित, कैसे समुचित से परिचय संभव 
मेरी वय भी मध्यम हुई, गणना हिसाब से लगभग १९००० होंगे दिवस। 
इनमें अति-घटित हुआ, कम्प्यूटर मैमोरी की GB/TB में मापना कठिन
   नर कब इतना विकसित, हर विचार-वार्ता, दैनंदिन चर्या एकत्रण समर्थ।  

अनेक CCTV कैमरे लगें दुकान-कार्यालय, पर पूर्ण का मात्र अल्प अंश 
सघन उपकरण चाहिए संग्रहार्थ, फिर हुआ भी तो कितना प्रयोग संभव। 
यदि पूर्ण सचेत मनन-प्रक्रिया में तो भी, निकट विशेष घटनाऐं ही दर्शित 
 फिर स्मृति-विशेष अतिरिक्त तो अन्यान्य प्रतीत, कैसे सक्षम जग समस्त। 

अनेक चराचर खेल यहाँ, लोग अनेक विचार-मनन अभिव्यक्त कर रहें 
 क्या हम भी उन तथ्य-तहों तक जा सकते, वे स्वयं में पूर्णतया निखरे हैं।
वैसे किसे जरूरत अन्य-विषय सिर खपाने की, निजी ही कई असुलझे 
     ऐसे तमाम प्रसंग, कल का खाया तो आज न याद, नर स्वयं-भ्रमित है।      

हम अति अल्प हैं, यह पूर्ण कायनात समझने में तो नितांत असमर्थ 
चाहे जितने भी यत्न जन्मों तक, सीमाऐं हैं जाने की इसकी तहों तक। 
पर कमसमकम वे विषय तो चिन्हित हों, जो हमारी पहुँच में सकें आ
श्रम से कुछ सकारात्मक भाव, फिर खेद न कि प्रयास ही न किया। 

यह जीवन कुछ समझना पड़ेगा, तब कुछ पन्ने पलटने में सक्षम होंगे 
तभी निकट परिवेश उचित हो सकेगा, बगिया महकेगी, काम बनेंगे। 
चाहे महासूक्ष्म-बिंदु या नक्षत्र-विज्ञान, समझ से ही एक धारणा उचित 
पर बड़ा सोचने में न हो कोई निज कसर, सर्व-सीमाऐं स्वतः वर्धित। 


पवन कुमार,
१५ मई, २०२० शुक्रवार, समय ९:५५ बजे प्रातः 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २४ अगस्त, २०१७ समय ९:१९ बजे प्रातः)       
     
  

Sunday, 26 April 2020

स्व-उत्थान

स्व-उत्थान 
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स्व-उत्थान लब्ध किस श्रेणी तक, नर मन का चरम विकास 
क्या अनुपम मार्ग अनुभवों का, स्वतः स्फूर्त परम-उल्लास। 

भरण-पोषणार्थ तन नित्य-दिवस, माँगता आवश्यक कार्य  
ऊर्जा-बल प्राप्त अवयवों से, जग-कार्य संपादन में सहयोग। 
उससे मन-रक्त संचारित रहता, उचित कार्यान्वयन परिवेश 
पर सत्य आहार चिंतन विरल का, सहायक उन्नयन प्रवेश। 

कौन दिशा विस्तृण-संभावना, या सर्व-दिशा एक सौर सा वृत्त 
मेरा विकिरण कितना प्रभावी, करूँ श्लाघा सामर्थ्यवान तक। 
क्या यह मन संपूर्ण देख पाता, अपूर्वाग्रह सब मनुज-दृष्टिकोण 
निज-संतुष्टि या सर्व प्रकृति को भी, कर्तुम सक्षम आत्म-स्रोत। 

कैसे बढ़े यह लघु-मन सीमा, क्या आवश्यक यज्ञानुष्ठान हव्य 
महर्षियों सा अनुपम-चिंतन, अपने विधान में ब्रह्मांड समस्त।
स्व-धर्म-ध्वजा बस अग्र-प्रेषक हो सके, हों सब वितण्डाऐं पार 
अनेक रत्न बिखरें इस मार्ग, बनाओ सुंदर-समृद्ध मुक्ता हार। 

कैसे स्थिर वर्तमान में एक ही क्षेत्र, वृद्धि अदर्शित मृदुता ओर 
हर शब्द पर है कलम रुध्द, कुछ चिंतन हो भला करे विभोर। 
कैसे एक ज्ञान-सीढ़ी निर्माण, शीघ्र निश्चित हो वह महद लक्ष्य 
बंद हैं गलियाँ अंधकार चहुँ ओर फैला, कैसे निकलूँ सूझे न। 

किस पंथ-मनस्वी से मेल खाता, कैसे उनका आत्म-पाश निर्गम
 पथ अज्ञात गंतव्य अनिश्चित, पर छटपटाहट तो है अन्तःस्थल।  
कूप-पतित  कुछ भी न सूझे, शून्यावस्था में यूँ गोते लगाऊँ बस
अस्तित्व नितांत ही विस्मृत, किञ्चित ओझा सा स्व-मंत्र ही मस्त। 

क्या संदेश  दे रहा स्वयं को, या  निज कूपान्धता  का ही उक्ति 
पर जैसी स्थिति तथैव कथित, जो न उसकी क्या अतिश्योक्ति। 
प्रजाजन लुब्ध-प्रवृत्ति में, कुछ महापुरुषों का बस महिमा-मंडन 
पर क्या नर स्व की चरमावस्था हेतु है प्रयासरत व करते प्रयत्न। 

पर क्या मम प्रयास इन शून्य-क्षणों में, कलम-रेखाओं के अलावा 
क्या परिणति ऐसे  प्रयोग की, न किसी बाह्य-दीप्ति से बहलावा। 
उच्च-श्रेणी मन एक भाव ले चलते, कुछ सार तो लेते ही निकाल
    पर एक स्थल कोल्हू-बैल सा घूर्णन, देह-श्रम के अलावा न कुछ।   

इस शून्यावस्था के क्या अर्थ, कौन कोंपलें फूटेंगी विटप से इस 
इसे धूप-जल-मृदा अनुकूलन प्राप्त, शनै खिलेंगे ही  किसलय।
किसी भी स्थिति में आनंदमयी होना ही तो समरूपता सिखाता 
रोना-बिलखना त्याग मुनि सा चिंतनशील, खुलेंगे मार्ग स्वतः ही। 

कुछ आश्रम मौन-शून्यावस्था सिखलाते, विपश्यना जैसी विधि 
मनुज भूल सब विवादों को, एक शांत भाव में निवासार्थ युक्ति। 
सब चित्त-विचार तरंगें स्वतः शमित, तब फूटे है अनुपम ज्योति 
विभ्रम स्थिति से एकाग्रता ही भंग, सारी चेष्टा एक मूर्त हेतु ही। 

आत्म को करो व्यर्थ भार से मुक्त, ऊर्जा अपव्यय से उलझे मन
नित प्रयास हो मुक्ति-चिंतन का, व्यर्थ त्याग कराती प्रवेश परम। 
दुर्दिन का सुदिन में परिवर्तन, विमल चेष्टा-आकांक्षा से ही संभव 
आयोजन हो परम विकासार्थ, भ्रामक ग्रंथि खुलते ही मुक्ताभास। 

वे छुपे शब्द आते क्यों न समक्ष और कराते अपनी सदुपस्थिति 
ये ही तो हैं असली योद्धा, जीवन सुचारु रूप से चलाने हेतु भी। 
क्यों तब तव आदेश पालन न हो रहा व खुल न रही दिव्य-दृष्टि 
समाधान न प्रकट स्वतः ही, मन डोलता है बस इधर-उधर ही। 

एक ताल में महावृक्ष स्वप्नित, जल-तरंगें शाखा-पल्लव कंपित 
मेरा मन भी अतएव विव्हलित, कुछ भी प्रतिक्रिया न निर्मित। 
नितांत मैं  संज्ञाशून्य बन रहा, निस्पंद हो  निहारता सब कुछ 
अब नेत्र भी निमीलित हों रहें, कैसे निकलूँ उहोपोह स्थिति से। 

कैसा अधकचरा यह ज्ञान, अभिमन्यु सम प्रवेश तो चक्रव्यूह 
निर्गम दुष्कर, इस दशा से निकले तो अग्रिम विचार हो कुछ। 

या इसे ऐसे ही रहने दो मीरा बावरी सम,  कृष्ण-रंग में मस्त 
क्यों जरूरी निकास, जग मदहोशी हेतु  करता अनेक यत्न। 
जब बिन बाह्य-सहाय ही, प्राप्त हो रही  परम-आनंदानुभूति 
चिंता न और संबल की, सर्व  आवश्यकताऐं  पूर्ण हो रहीं।  

जगज्जञ्जाल से छूट स्वानंद  में, सर्वत्र हो रही  निर्मल-वर्षा 
विस्तृत आनंद का बस स्पंदन,  सर्वोच्च  समाधि अवस्था। 
जीवन-कला उत्थित स्वयमेव,  समृद्धि से  स्वतः ही मिलन 
 लुप्त रहूँ अनुपम  अनुभूति में,  विश्व पूर्व  भी था मेरे बिन।   

दीन-हीन तो असंभव, सीधा संपर्क शांत-सौम्यता से निज
वपु-क्षीणताऐं स्वतः  निर्मूलित, तन-मन  हैं  दोनों  स्वस्थ। 
पर क्या इससे कुछ ज्ञान होगा, अग्रिम   चरण भी  इससे 
कब आत्मसात, किस काल तक रह  सकता सम्यक में। 

विमुक्ति-अनुभव ईश्वर-अनुकंपा, न कोई उपलब्धि अल्प   
गौरान्वित हूँ इस प्रसाद से, बिना गर्वोन्माद के किन्तु नम्र। 
सब प्राणीभूत स्पंदन मुझमें,  सबसे प्रेम कोई विषाक्ति न 
मेरा अंश है सर्वत्र छितरित,  हूँ पुलकित विकास से इस। 

स्वप्न सी स्थिति, बस लेखनी ही कराती चेतना उपस्थिति 
अदीप्त हो रहे सर्व मन-द्वार, कहते कुछ देर रहो यूँ ही। 
प्राण मिला बड़-भाग से, हारना मत, गति से मिले सुयश 
बाधा स्वतः हटेंगी, कुटिल  सरल होंगे व सुजन -संगम। 

विकास-यात्रा अति दीर्घ, कुछ अतएव पड़ाव विश्राम-क्षण 
आवश्यक न नित दौड़-धूप में रहो, शांत हो करो निर्वहन। 
स्व-उत्थान उच्च-मनावस्था द्योतक, यदि प्राप्त तुम सुभागी 
सोपान मिलेंगे आरोहणार्थ, लक्ष्य अनुपम, रहो चेष्टाकांक्षी। 

एक और निर्मल अनुभव, धन्यवादी जो तू कराता सम्पर्क 
बस अभी यूँ डूबे रहने दो, यथासंभव करूँगा रसास्वादन। 


पवन कुमार,
२६ अप्रैल, २०२० समय ११:४७ बजे म० रा०  
(मेरी डायरी १९ मार्च, २०१६ शनिवार, समय ११:४० बजे पूर्वाह्न से )
   

Thursday, 16 April 2020

कवि-उदय

कवि-उदय 
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कैसे नर-उपजित कलाकार-कवि रूप में, प्रायः तो सामान्य ही 
देव-दानव वही, एक स्वीकार दूजे से भीत हो कोशिश दूरी की। 

यह क्या है जो अंतः पिंजर-पाशित, छटपटाता मुक्ति हेतु सतत 
मुक्ति स्व-घोषित सीमाऐं लाँघन से, कितनी दूर तक दृष्टि संभव? 
दूरियों से डरे, किनारे खड़े रहें, लोग आगे बढ़ते गए व दूर-गमन
आत्मसात की प्रबल आकांक्षा, मन को प्राप्ति हेतु करना तत्पर। 

एक महा-स्वोन्नति लक्ष्य, भौतिक-आध्यत्मिक एवं निज-व्याख्या 
उदधि-पार द्वीप-वृक्षों का दर्शन, पतवार चढ़ चक्कर लगा आना। 
वहाँ  स्थित वे प्रतीक्षा कर रहें, उठो तो प्रकृति-संसाधन दर्शनार्थ 
विपुल-साम्राज्य तव हेतु ही, घुमक्कड़ी-बेड़ा तैयार कर लो बस। 

कुलबुलाहट-क्षोभित, क्या व्यथा-कारण सुलगते अग्नि बनने हेतु 
अति ऊष्मा-ईंधन आवश्यकता, ज्वाला बन भी क्या लक्ष्य होगा? 
क्या महज स्व-हित ही चाहते, या पूर्ण-विश्व को भी दिखाना दिप्त 
त्रस्त-तमोमयी आत्मा बस जी रहीं, व्यर्थ प्रपंच फँस प्राण-व्यर्थ। 

पर प्रथम कर्त्तव्य तो स्व-त्राण, व्यवधानों से न हुआ व्यक्त निर्मल
जब दीप्त-कक्ष के कपाट बंद हों , कौन कुञ्जी  दिलाएगी प्रवेश?
अति-सूक्ष्म  द्रष्टा तो न हूँ माना, पर प्रयास कि हो एक कवि-जन्म 
बाल्मीकि तो क्रोञ्च-विरह अनुभूति से ही, निर्मल श्लोक उद्गीरत। 

कैसे व्यास सम नर, कहाँ छुपा अपरिमित ज्ञान व सामर्थ्य-कथन  
किस परिवेश-सान्निध्य से गणेश-गुहा प्रवेश, बैठ लिखे जाते ग्रंथ?  
जो सहायक पूर्णतार्थ, ललकारते भी, मूलतः निज ही अभिव्यक्ति 
बाह्य-निनाद  परे एकांत कारक-सामंजस्य, कामायनी सम कृति। 

विशेष प्रेरणा संग विटप प्रति आवश्यक, अंकुर-निर्माण तभी संभव 
प्रक्रिया उपनयनित शिक्षार्थ, कालोपरांत प्रबुद्ध भाव भी हो उत्पन्न।  
कुछ नित चयन-प्रक्रिया त्याज्य-त्याग, ग्रहणीयों के लब्धार्थ  प्रयास 
गुण-संकलित तो अभूतपूर्व ऊर्जा उदय, अनेक संग हित -सक्षम। 

जीवन प्राप्त भाग्य से ही, कुछ पदार्थ संग्रह करो मननार्थ चित्त-दान 
पर कितना प्रयुक्त सत्य-सार्थक, या व्यर्थ-अनर्गल ही गल्प-प्रलाप। 
विद्वद-उक्ति अथाह संभावना पुण्य-कृत्यों हेतु व सर्व-लोक कल्याण 
प्रवीणता इस अदने शख्स में भी, पर आवश्यक है अन्वेषण-उपाय। 

संसाधन यदि संयोजित, निपुण रचनात्मकता स्वतः ही अग्रचरणित 
ज्ञानी तो नित-अतंद्रित, विदित जीवन ही व्यापकता हेतु समर्पित। 
निर्मल-चित्त, विश्व-व्यापी, सबके प्रति न्याय-प्रेम व भाव प्रगति-पथ 
समय व्यर्थ एक मरण सी स्थिति, स्व को ललकारना लगता उत्तम। 

एक कवि आत्म-क्रांत दर्शन में समर्थ, सर्व-सौंदर्य मुखरण-त्वरित 
निष्पक्ष विश्व-दर्शन में सक्षम, अत्याचारों-कष्टों प्रति दयालु-नरम। 
एक उज्ज्वल सदा मन-देह में, विवेकी नीर-क्षीर भेदन में है सक्षम 
सरस्वती वाणी-निवासित, न्यून सम न नकार, अति अंतः-समृद्ध। 
  
इस चित्त-बुद्धि में सर्वस्व समा सकता, वृहद-वक्ष किधर से उत्पन्न 
अनेक विश्व-रहस्य विदित, गुह्य-जटिल तथ्य सुलभ हो होते समक्ष। 
वह है श्रेष्ठ नियम-धर्ता, पालन-कर्ता, करुणा-दृष्टि में सब एक सम 
पर बाह्य विश्व में कई भाट भी, जिनकी कवि-कृति मात्र निर्वाहार्थ। 

रचनात्मकता है आयामों में मनन-सामर्थ्य, निज ही से कुछ रचना 
 जब कृति विश्व-धरोहर तो कह सकोगे, मैं भी कुछ भागी-विपुलता। 
निज तो न कुछ सब प्रकृति-पूंजी, मात्र उपयोग करना सीख लिया 
तन-मन-धन सब उसी का उपहार, विजयी-गर्वशून्यता ही थाती। 

वह कवि तो अति-महान चरित्र घड़ लेता, अनेक गुणों का समावेश 
एक कथानक बुनने में समर्थ, कुछ प्रेरणा-मनन सदैव रहती साथ। 
निज-विस्मृति समर्थ चाहे कुछ काल ही, मात्र प्रयोजनों में ही लुप्त 
विद्या-निवासिनी संग, हर शब्द परीक्षित, वाक्यांशों पर और बल। 

मन-कवि कहाँ बसता, न निकसित, इस कलम का ही सत्य-संघर्ष 
उत्तम रचनार्थ तो सदा प्रयासी, पर कब संभव विधि को ही विदित? 
अवश्यमेव संकीर्णता-मुक्ति, क्रांतदर्शी मन करे शुरू बहुल दर्शन 
       निर्मल भाव अंततः होगा पर तावत प्रतीक्षा, जैसा संभव रहो चलित।       

कोई साहित्य-प्रशिक्षण तो न, स्व से ही कुछ ली शब्द-संकलन शिक्षा 
निस्संदेह कालि-व्यास-सूर-कबीर-शैक्सपीयर-प्रसाद सी तो न गूढ़ता। 
पर किञ्चित यह कुछ जीव उदितमान, अल्पाधिक निर्मल देगा ही रच 
सतत-अभ्यास इसकी भी सीढ़ी, कला-पारंगतता असीम धैर्य का नाम। 

माना आम मनुज न गूढ़ साहित्य-रसिक, पर दूरात तो स्तुति कर देता 
पर सत्य-कवि न यशाकांक्षी, वह स्व-विकार ही मर्दन करना चाहता। 
दूरगामी दृष्टि से नक्षत्रों के पार चरम ब्रह्माण्ड-छोर तक गंतुम-समर्थ 
एक अति-विशालता से सतत परिचय, प्रत्येक अंश से लगाव महद। 

एक आह सी मुख से निकलती, उत्तम न ज्ञात कैसे हो दुर्गम पथ पार 
संपूर्ण शक्ति इसी पर, सदा व्यक्त रहें निर्मल-सर्वकल्याणक उद्गार। 
कुछ परिवेश-स्वच्छता जिम्मा भी लेता, हर क्षण का प्रयोग समुचित 
सर्व दंभ निर्मूलित, साहसी भी कि सत्य-कथन में न तनिक झिझक। 

जिस दिवस हो यह अंतर्भय अंत, सर्व-मानवता हेतु उपजेगा करुण 
एक  कालखंड वासी को अमरत्व, पर न अतिश्योक्ति-आत्ममुग्ध। 
ऐसा साहित्य विश्व निजता-गर्व कर सके, क्या इस लेखनी से संभव 
संवेदनशील, समय-परीक्षा से परे, गागर में सागर समाना साहस। 

कुछ  निर्मल-हृदय योग हो इस वृहद अभियान में, कुछ हो सहायता 
प्रशंसा तो आ ही जाती, पर कोई उर से कृति स्वीकारे तो आए मज़ा। 
कुछ विवेचना हो, दोष भी निकाले जाऐं, ताकि व्यक्तित्व हो परिपक्व 
एक कवि-दार्शनिक  भाव मन में आए, तो जग-आगमन हो सार्थक। 

अद्य-प्रयास  स्वयं से परिचित होना, जिससे कुछ कवित्व हो प्रदर्शित 
  मम लेखन यदि  विस्तृत बन सके, मृदुल-भाव रचना हो  पाए रचित।  


पवन कुमार,
१६ अप्रैल, २०२० वीरवार, समय  ६:०१ बजे सुप्रभात 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० १७ मई, २०१९, शुक्रवार, समय ७:५५ बजे प्रातः से)   


  

Tuesday, 7 April 2020

तरंग-उत्पत्ति

तरंग-उत्पत्ति
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इस वृहद जग-सागर में मेरी भी एक लहर, क्या परिणति होगी देखें  
हर ऊर्मि को वापस लौटना ही होता, लीन-विलीन प्रशांत उदधि में।  

क्या है यह तरंग-अभिलाषा, कुछ तो अति-सुंदर दृश्य प्रस्तुत  करती 
कुछ अति-विध्वंशकारी, अन्य निज जैसों से मिल जन-हानि कर देती। 
सबका निज ऊर्जा-स्वभाव है, पर सागर की है किंचित न्यून-प्रक्रिया  
सब उसकी अंतः-ऊर्जा का ही रूप, अंततः उसी में समाना परिणति। 

मेरी क्यूँ उत्पत्ति है कैसा रूप, चेतना भी या एक वृहद प्रक्रिया का अंश 
ऐसी क्या आवश्यकता थी जग को मेरी, अनेकानेक तो पूर्वेव थे स्थित? 
फिर कौन द्योतक था निर्माण में, कलपुर्जों, माँस-मज्जों से बनाया किन  
क्या माता-पिता ही कर्ता थे, या वे भी किसी महद लक्ष्य हेतु थे मध्यस्थ? 

मम हेतु अभिभावक अति-महत्त्वपूर्ण, जग विचारे सामान्य जीव ही पर  
उनका जीवन भी साधारण सा, संतान-उत्पत्ति था एक सामान्य कर्त्तव्य। 
पर मैं उनसे ही क्यूँ हूँ, माना सहोदर भी, यदि वे न जन्मते तो क्या होता 
या जन्म और द्वारा भी संभव था, अगर हाँ भी तो कैसा परिवेश मिलता? 

तो कौन सत्य माता-पितु या थे मात्र जन्म-वाहक, अब दिवंगत भी हुए 
क्या कोई उद्देश्य इस उत्पत्ति का, या मात्र समय पूरा कर जाना चले? 
क्या मेरी कोई व्यक्तिगत पहचान भी, या मात्र इसी जन्म का रेला-पेला 
भिन्न दर्शन निज ढंग से अलापते, खुद से ही समझ गुह्य से पार आना। 

ईश्वर-परमात्मा शब्द वृहद अर्थपूर्ण, कई मनीषियों का विचार-दर्शन 
माना 'आत्मा' कल्पना मानव-कृत ही, तथापि हुआ है गहन अध्ययन। 
कोई आवश्यक न हम सदैव उचित हों, तथापि कयास तो लगा सकते 
स्व को परम-ज्ञाता मानना भी उद्देश्य न, पर एक ज्ञान-पथ ध्यान भी। 

इतना तो अवश्य  सब निज में ही  विचरते, जीना तो होता इसी में 
चाहे जीवन से संतुष्ट हों या असंतुष्ट, हम अपने शत्रु-मित्र भी होते। 
अपने पर कई बार कर्कश रहते, कुछ आत्म-हत्या तक भी लेते कर
असंतुष्टि चलते खुद को मारा, इसी स्वयं पर आज का विचार गठन। 

सुभग को एक कार्य-क्षेत्र मिला है, व्यक्तिगत प्रतिभा भी दिखा सकते 
माना सफलता अन्य-सहयोग से ही, पर वे भी तव अभिव्यक्ति देखते। 
यह देह-भाषा भी एक विचित्र आयाम, लोग यथारूप प्रभावित हैं होते 
मेरी भी निश्चित परिधि, इसी में उलझ निज व अन्यों को जोड़े रखते।  

कुछ पेंच तो अवश्य है इस जीवन में, तभी तो चेतना-निरंतरता दर्शन 
माना सदा भूलते भी, जन्म-पूर्व व ४-५ वर्ष वय तक न विशेष स्मरण। 
पर इसका अर्थ यह न जो याद न है घटित ही न, ये दोनों पृथक विषय 
सबकी तो न एक सम स्मृति होती, पर जीवन फिर भी चलता है रहता। 

यदि कीट-सरीसृप-मत्स्यों को छोड़ दें, जीवों में संतति-वात्सल्य स्वतः ही 
स्तनधारी व कुछ पक्षी तो अति धीमान, वैसे सबमें होती कुछ सम-प्रवृति। 
क्या हैं ये प्राण व कर्म-बल, स्थूल दर्शन से तो जन्म-मरण मध्य ही अवधि 
कई पूर्व-जन्म सिद्धांत विश्व-प्रतिपादित, पर समझना किंचित कठिन ही। 

आओ कुछ स्व को ही समझ लें, तो संभवतया सर्व विश्व-प्रक्रिया भी ज्ञान 
इस देह में जन्म से अब तक, एक सतत चेतना संग ही रहें है आवासित।  
माना है एक निश्चित आकार-रूप में, पर एक परिस्थिति विशेष से युजित 
लेकिन मान तो चेतना-संगति से ही होता, देह भी तभी रहती सम्मानित। 

कौन प्रधान देह या यह चेतना /आत्मा, एक दूजे बिन तो दोनों निरर्थक 
मृत्यु पर देह स्वतः विनष्ट होकर, पंचतत्व में हो जाती पूर्णतया विलीन। 
कथन-मनन सक्षम चेतन अब लुप्त, संपर्क न संभव चाहे हों जितने यत्न 
प्राण-बात थी दोनों के समन्वय से ही, एक उड़ा तो दूजा हुआ निस्तेज।   

फिर देह मृत हुई चेतना न रही,  जीवन होने से ही तो कहलाता जीव 
फिर स्व-अधिकार न रहता,  अशक्त अन्यों द्वारा किए जाते विसर्ग। 
फिर 'स्व' भी कहाँ गया नितांत  अज्ञात, माना भिन्न धारणाऐं प्रचलित 
फिर ज्ञान तो मरे बाद ही होगा या न भी, विज्ञान भी इस बारे में चुप। 

आत्मा कुछ मस्तिष्क-प्रक्रिया ही, सोच-समझ-आदेश ले-दे सकती 
यह भी देह का एक अवयव ही, ऊर्जा हटी तो यह भी निष्प्राण हुई।
देह के ऊर्जा-स्वास्थ्य से ही तो, यह मस्तिष्क भी सक्रिय-विज्ञ रहता 
जब समुचित भोजन-पोषण न,  आत्मा क्षीण हो दुर्बल-भाव करती। 

फिर यात्रा जन्म से मरण अवधि ही, यह तो कोई अधिक बात हुई न 
  जब सब सिलसिला यहीं निबट जाना, एक श्रेष्ठ जिंदगी जी लें क्यूँ न। 
देह-मन संगम निर्माण एक पवित्र कर्त्तव्य, विकास परियोजना विपुल 
यह जीवन ही मंदिर-शिवालय, प्रतिष्ठा-स्थापन भी  जिम्मेवारी निज। 

यह तो कुछ ऐसा कुछ ही घंटे मिलें, और अनेक काम किए जाने हैं 
विश्राम की तो न कोई बात, गाड़ी छूटने जा रही तुम शीघ्र चलना। 
पर यह शेष क्या है जो इतने उतावले, जग तो तुम बिन भी चले था 
जब सब निज भाँति कर रहें हैं, तो तुम भी संजीदा हो जग देख लो। 

जब सब कूक रहें तुम क्यूँ न, रंग-ऊर्जा व प्रतिभा विसरण होने दो 
जग में अनेक परीक्षण-प्रयोग  सतत, कुछ उतावले तुम भी हो लो।


पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०२०, बुधवार, समय १०:११ बजे प्रातः  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २९ जून, २०१७ समय ८:३७ प्रातः से)

Sunday, 29 March 2020

अंकुश

अंकुश
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'अंकुश' शब्द अभी मन में आया, सोचा कि इस पर हो कुछ मनन 
जिंदगी में बहु-विक्षोभ, रोध जरूरी, मनुज उन्नति हेतु हो संयमित। 

अनुशिष्ट, संयम, अंकुश, पूर्वापाय, प्रशिक्षण, डाँट-फटकार, साधना
ये शब्द पर्यायवाची से, प्रयोग हर  दिन, पर सत्य परिवर्तन ही सार। 
मन में हैं अनेक तरंगें उठती, पर  बह जाना समझदार कदम क्या 
जीवनोत्थान चेतना-साधन से ही, स्वरूप सँवरे, सर्व - प्राथमिकता। 

 'अंकुश' शब्द आशय को थोड़ी गहराई से समझने का चलें करें यत्न 
यदि बच्चे कुपथ पर अग्रसर तो समझा-बुझा, डाँटकर लाए मार्ग पर। 
शिक्षक कर्त्तव्य शिष्य का विद्या-ग्राहीकरण, मन-देह समर्पित ज्ञान में 
कार्यालयाधीश कर्त्तव्य ऑफिस ठीक नियमानुसार-गुणवत्ता से चले। 

शासन-पुलिस कर्त्तव्य प्रजा को शांतिपूर्ण-उन्नत प्राण हेतु देना परिवेश 
यदि उपद्रवी सामंजस्यता भंग करें, रोध कभी दंड-प्रयोग भी उचित। 
पर क्या सर्वोत्तम युक्ति सुशासन की, सर्वलोक की हो गरिमा सुरक्षित 
समता भाव, बृहत-दृष्टिकोण, जग-सूक्ष्मताऐं समझ हो व्यवहार-शील। 

एक सीमा बंधन ही है है अंकुश, मर्यादा पालन  अपना क्षेत्र बताए 
स्व-विचार परीक्षण भी आवश्यक, जरूरी न  लोग सर्व स्वीकारेंगे। 
नर भिन्न कुल-समाज-स्थलों में सदैव, सुविधा  से संविधान निर्माण 
नियम-भिन्नता स्वतः ही, कुछ सक्षम भी हैं समेकित-दर्शन सक्षम। 

एक की अनुचित प्रवृत्ति, पर दंड या कुल-प्रतिष्ठा बढ़ने से करें रुद्ध 
लोगों को माँ-बाप याद, अपमानजनक स्थिति पैदा न हो करते यत्न। 
 अपने घर में भी तो बहन-बेटी हैं, सबके आदर से अपना बना रहेगा 
परस्पर सम्मान, पड़ोसी से संयमित रिश्ता, कई कष्टों से है बचाता। 

अंकुश-अनुशासन का अर्थ न कोई बलात, अपितु मन से सुप्रतिबद्ध 
आदि-प्रशिक्षण चाहे ही कष्टमय, फिर शनै सामान्य होने लगता सब। 
विवाह-पूर्व अत्युद्दंड युवा भी पाणिग्रहण पाश बाद जिम्मेवार हो लिए 
उम्र संग लोग गंभीर हो जाते, जीवन व्यर्थ ही न  बीतने देना चाहिए। 

मनीषी तो सदा हुए, होते रहेंगे, आदर्श  जीवन-संहिता करें प्रस्तुत 
चाहे हों अनेक विसंगतियाँ, पर लोकमत  कि प्रयोग से तो ही सुख। 
कुछ न्यूनतम निर्मल भाव तो विश्वव्यापी,  माना परिवर्तन भी शाश्वत 
पर लोग प्रचलित रूढ़ि-पाशित, उन्हीं में  जीवन के करते हैं प्रयोग। 

यदि एक उदरपिशाच हो स्थूलकायी बना, ऊपर से व्यायाम न कुछ 
परिणाम सर्व-विदित रुग्णता ही, कई नकारात्मक प्रभाव देंगे कष्ट। 
यदि कुछ अंकुश है उचित जीवनशैली का, निश्चित ही सुभीता भव 
 न्यूनतम समन्वय वाँछित सु निर्वाहार्थ, कंटक हैं पसरे, चलो संभल।  

मौन-व्रत कि मुख से न अनर्गल, श्रवण सीखूँ, ज्ञात हो मूकों का भी दर्द
मुस्लिम लोग एक मास रोजा रखते, गरीबों की भूख की आती समझ। 
दरिद्र-नारायण एक वृहद आयाम, असहाय - सहायक को कहते ईश्वर 
स्वार्थ त्याग अनेक हितकार्य में व्यस्त-समर्पित, मन को मिलता शुकून। 

शहर में दंगा, प्रशासन ने समय से रोक दिया, बहु-जानमाल हानि से रक्षा 
यदि उत्तम संस्कारित तो अधिक जिम्मेवार, सर्वहित में निज भी दर्शना। 
कोई इस जग से विलग  नितांत भी न, सब  सुखी तो मुझे स्वतः ही लाभ 
निजी स्वार्थों से ऊपर उठो, सबकी पीड़ा कम हो ऐसा करो सब प्रयास। 

लोक-समाज-सभ्यता-देशों पर  अंकुश, सीमा में रहो वरन हानि अधिक 
  मनुज न पूर्ण स्वछंद-स्वतंत्र, कुचक्रों से सर्व-विनाश सोच सकता किंचित। 
पर ज्ञान कि मारा जाऊँगा, सचेत कि अधिक बुरा न हो, लोग लेंगे पकड़ 
परस्पर सहन बड़ी बात, एक-दूजे से गुँथे, समर्पण से हो व्यवहार उत्तम। 

अनुशासित हो नर व्याधियों से बचा रहता, पुरस्कार में  लोक-सम्मान 
स्व का वृहद-चिंतन पथ ज्ञान, स्वशासन काष्टाओं को देता अग्रचरण। 
जीवन में अनेक कष्ट हैं आते, पर व्रत-परहेज से बीमारियाँ रहती  दूर 
योग भी एक शैली, संपर्क-दृष्टि-यापन-दर्शन-व्यवहार सिद्धांत - बुद्ध। 

जीवन में निर्मल-स्पंदन चाहिए, उन्नति हेतु व्यर्थ-व्यवधानों से बचना 
  सीमित ऊर्जा सुप्रयोग, उत्तम नियम वरण, अन्य-अंकुश न हो वर्जना। 


पवन कुमार,
२९ मार्च, २०२० शनिवार, समय ७:३१ बजे सांय 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १० अप्रैल, २०१८ समय ८:२४ बजे प्रातः)     
   
   

Sunday, 15 March 2020

नर-प्रगति

नर-प्रगति 
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कर्मठों को व्याज न जँचते, स्वानुरूप काम की वस्तु कर ही लेते अन्वेषण 
प्रखर-ऋतु से भी न अति प्रभावित, कुछ उपाय ढूँढ़ लेते, निरंतरता न भंग। 

बाह्य-दृश्य अति-प्रिय, चहुँ ओर घने श्वेत कुहरे की चादर से नभ-भू आवरित  
स्पष्ट दृष्टि तो कुछ दूर तक ही, तथापि प्रकृति-सौंदर्य मन किए जाता मुदित। 
घोर सर्द, तन ढाँपन जरूरी रक्षार्थ, पर अनेकों का अल्प-साधनों में ही यापन 
निर्धन-यतीम बेघरों का भीषण सर्द में आग जला या कुछ चीथड़ों में ही गुजर।

चलो कुछ मंथन कि दृश्यमान विश्व में संसाधन-अल्पता बाह्य या मात्र कृत्रिम 
धनी की अलमारी-बेड गरम वस्त्रों से पूरित, कईयों का तो न आता भी क्रम। 
स्वामिनी भूली कि वो स्वेटर या कोट-पेण्ट कहाँ  रखा, चलो अब पहनो दूजा 
पहनने वालों के भी नखरे उत्तम न जँचे, दीन बस बोरी लपेट  गुजर करता। 

खाने का अभाव देखा जाता, लोग कहते कि खाने हेतु ही तो नौकरी करते 
अन्न-दाल-शक़्कर-घी के भंडार भरे, रसना-अतृप्ति से उदरपिशाच बनते। 
कब्ज-डकार-सिरदर्द-स्थूलता, कृश-टाँगें, हृदयरोग, मधुमेह व्याधियाँ हैं घेरें
मनुज सोचे ऐसा क्यूँ, आदतें तो अनियंत्रित, दुःख ही भोगना पड़ेगा बाद में। 

माना प्रकृति में क्षेत्र-विविधता चलते, कुछ स्थलों पर है अधिक संपन्नता दर्शित
कुछ रेगिस्तान, शीत-पहाड़ी क्षेत्र, पठार, सघन-वन क्षेत्रों में जनसंख्या अल्प।  
एक न्यूनतम समन्वय तो चाहिए  जिससे मानव-जीवन सुघड़ता से गुजर सके 
 माना निद्रा-तंद्रा आत्मिक-आर्थिक उन्नति-बाधक, तथापि सब प्राण-साधन चाहें। 

धनिकों पास कई-२ निवास, खेत-फैक्टरी, ऑफिस-व्यवसायिक केंद्र नाम निज  
खरबों की संपत्ति, कई जायदाद अज्ञात, कोई रहते खेती-बाड़ी से रहा गुजर कर। 
किसी भी वस्तु की कोई कमी ही न पर फिर भी धन-लोलुपता से अंतः को तपन 
निज व्यवहार तो कभी न जाँचा, अनेक निरीह हो जाते एक ही मोटे के पालनार्थ। 

माना समय-चक्र नित, निर्धन भी कल संपन्न बन सकता, धनी भी हो जाता कंगाल 
तथापि वर्तमान दमन-चक्र पर हो कुछ अंकुश, सबकी मूलभूत जरूरतें हों पूर्ण। 
दुर्गति निर्मूलनार्थ जीव को हाथ-पैर मारने पड़ते, पर खड़े होने की सामर्थ्य भी हो
माँ को बच्चा पाल-पोस बड़ा करना होता, सामाजिक काम का बनता योग्य हो। 

यह तो न कि सब आबादी एक सघन क्षेत्र ही आवासित हो, हर स्थल की विशिष्टता 
लोगों ने श्रम-पसीने से भीषण वन काट खेत बनाए, दुर्गम पर्वत चीरकर पथ बना। 
नदी से नहर खींचकर मरुभूमि में हर घर जल पहुँचाया, दूर स्थल विद्युत् पहुँची  
समुद्री खारा जल अलवणीकृत होकर पेय-योग्य बना, असंख्य नरों की तृषा बुझी। 

पूर्व में संसाधन अत्यल्प थे, अभी निकट कृषि से प्रचुर मात्रा में पैदा अन्न-कपास
अनेक उदर क्षुधा-शमित हुए, जनसंख्या-वृद्धि तथापि  लोग घोर भूख से  रक्षा। 
यातायात-साधनों से वस्तु, खाद्य-सामग्री अन्य स्थल पहुँची, दाम दो भूखे न मरोगे
इसके बदले वह ले, मेरे यहाँ यह वस्तु अधिक तेरे  वह, दोनों सुखी हो सकते। 

रुई से वस्त्र बहुतायत-निर्मित तो क्रय-विक्रय भी जरूरी, अनेक तन ढ़के जाने लगे 
पहले कम के पैर में जूते थे कुछ कष्टदायी भी, उद्योग-उत्पाद  से हर पाँव  पहुँचे।   
संख्या कम तथापि घोर गरीबी थी, औद्योगिकरण से सबकी जरूरत लगी होने पूर्ण
अब आबादी निस्संदेह अधिक पर पोषण हेतु साधन भी हैं, किञ्चित परस्पर पूरक। 

नर ने बुद्धि से ऊर्जा-उपलब्धता के अर्थ ही बदले, प्रचलित साधनों के कई विकल्प आए
चूल्हों में खाना बनाने हेतु ईंधन-गोसा-काष्ट की जगह रसोई-गैस, बिजली-स्टोव आ गए। 
पहले प्रकाश हेतु तेल के दिए की जरूरत थी, अब विद्युत्-कनेक्शन से दिवस-अनुभव
रात्रि में नर को इतनी स्वतंत्रता मिली कि बहुत काम होना संभव, प्रगति हुई है निस्संदेह। 

पहले क्षुद्र रोग से भी मृत्यु-ग्रस्त होते थे अब उपचार उपलब्ध, कम ही मौत असामयिक 
खाना-पीना, देखरेख बढ़ी, अगर कुछ पैसा हो तो अनेक सुख-सुविधाऐं सकता खरीद। 
माना मनुज ने अनेक अन्य जीवों को हासिए पर ला दिया, पर निज जीवन तो सुधरा ही 
काल संग पर्यावरण विद-प्रेमी भी हो गया, निज संग सब सहेजकर रखना चाहता भी। 

पर प्रगति की इस कसमकस में या कुछ ने श्रम-युक्ति से अति संपदा इकट्ठी कर ली 
माना देर-सवेर सब बँटेगा ही पर यदि आज कुछ के कष्ट मिट सकें तो भला होगा ही। 
हम भविष्य के लिए संग्रह करते हैं कुछ गलत भी नहीं, पर अति संग्रह पर हो अंकुश 
निज प्रयास से अधिकाधिक जीव सुखी होऐं उत्तम है, तुमपर भी अनुकंपाऐं हैं अनेक। 

समृद्धि-वर्धन हेतु धन का प्रयोग आवश्यक, बाजार में स्पर्धा हो तो सस्ती होंगी वस्तुऐं
आशय है हरेक का जीवन पूर्णता लब्ध हो, प्रत्येक व्यवस्था में कुछ लाभ कमा सके। 
माना मनुज-प्रकृति संग्रह की है, पर संसार-चक्र में सर्वस्व करपाश तो न उसके बस  
कितना ही धन चोरी हो जाता, छीना जाता, ठगा जाता, मृत्यु बाद हो जाता निष्क्रिय। 

हम सब मात्र लोभी ही नहीं हैं, कुछ करुणा-स्नेह-कल्याण भावना से द्रवित होते भी 
तभी परस्पर वस्तुऐं बाँटते बिना किसी स्वार्थ के, प्राणी-सहायता करनी चाहिए ही। 
यही भाव तो हमें देवत्व समीप ले जाता, एकरूप हो विश्व के कुछ मृदु-दायित्व लेते 
जितना संभव जग-परिवेश सँवार ले, लोग जब मृदु चरित्र देखेंगे तो सहिष्णु भी होंगे। 


पवन कुमार,
१५ मार्च, २०२० रविवार, समय ६:२६ बजे सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ दिसंबर, २०१९ समय ८:३४ प्रातः से)