वर्ष-परिवर्तन
-----------------
वर्ष का अंतिम दिवस अंततः आ ही गया है
कुछ घण्टे और शेष हैं, फिर नव वर्ष में आगमन होगा।
कैसे बीत जाते हैं ये दिवस, मास, वर्ष और आयु-अवस्थाऐं
जीव कुछ ठहर यूँ उनको महसूस न कर पाता और उम्र हाथ से फिसली जाती है।
यूँ पैदा हुआ, युवा बना और वृद्धावस्था को दिशा कर ली
जीवन चक्र में घूमता रहा और हम हत्प्रद देखते रहें।
पर कैसे ठहरा लें हम वक़्त को संग अपने, क्या कुछ युक्ति सम्भव है
हम कुछ दिन रहें पूरी संचेतना से, ताकि बीते पलों का अहसास रहे।
कुछ यन्त्र तो हमें प्रारब्ध में मिलें हैं, स्मृति को रूह में रखने को
पर वह भी कालान्तर में विस्मृत होती, और हम जीवन परे होते।
काल बीतता जाता है यहाँ, कोई आऐ या फिर जाऐ
वह है एक शाश्वत प्रवाह, लौट कर न फिर वापस आऐ।
हाँ माना चक्र-भाँति यह, पुनः - 2 नव-रूपों में इंगित होता
क्या विभ्रान्ति है सब इस व्यूह की, क्या हम बदलते या यह चला जाता है ?
किसको कहें बदलाव इस जग में, संसार-अवस्थाऐं या वक्त का बहना
हम खड़े-2 नाटक करते रहते, और लगता जग बदल रहा है।
क्या नहीं है यह जग का स्व-रूपान्तरण, जिसको हम काल-परिवर्तन कहें
प्रकृति के कुछ नियम प्रदत्त, उनके अनुसार सब चलन होता है।
जंगम-स्थावर कारकों की अपनी कार्य-शैली, निरंतरता, सामूहिक रूप से काल को धकेले
काल देखें तो कुछ नहीं, यूँ ही सारी अवस्थाऐं अपने समय पर आती रहती हैं।
ऋतुऐं अपने समय पर आती, हाँ प्रकृति के अन्य कारक अपना प्रभाव जमाते
यह है सब एक शनै-प्रक्रिया, कुछ ध्यान से देखें तो ज्यादा नहीं बदला है।
हाँ बदलाव तो है बाह्य रूपों में, प्राणी और स्थावर स्वरूप में
काल को यदि हम कुछ वर्ष दे दें, तो वह भी हमारी भाँति चल रहा है।
हम करते बीते पलों का स्मरण, जो वर्तमान से कुछ भिन्न होता
इतना बड़ा संसार, बहुत प्रक्रियाऐं, जो हमारे चाहे, अचाहे चलती रहती है।
पर किसके रोके से रुका है जीवन, यह बहता अनवरत अनंत रूपों में
मानव वर्तमान में कुछ हेंकड़ी भरके, समस्त संसाधनों पर अपना अधिकार जमाना चाहता।
सबसे धनी, शक्तिमान, बुद्धिमान और न जाने क्या-2, अपने मन पर आवरण चढ़ा लेता है
और चाहता जग-प्रक्रिया को प्रभावित करना, और बहुदा अनाप-शनाप किए हैं।
कुछ तो बदला प्राकृतिक कारणों ने स्वरूप, कुछ प्राणी-मात्र ने भी प्रपञ्च किए हैं
उन्हीं से अवस्थाऐं बदल रही धरा की, जिनको हम परिवर्तन कहे हैं।
यह कैसा है व्यूह जिसे हम समझ न पाते, पर रह-2 कर पुनरावृत्ति होती है
बस विशेष काल में स्वरूप हैं भिन्न, अन्यथा तो सब एक सार सा है।
हाँ प्रकृति के काल-गर्भ में जाकर, इसकी विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान होता
इनको हम परिवतन कह सकते हैं, क्योंकि अवस्थाऐं बदलती हैं।
कुछ हो गए हैं आमूल- परिवर्तन, जिन्होंने सब आयामों की दशा बदल दी
पर यह सब इतना शनै हुआ है, अपवाद को छोड़े यदि, इसे गुजर जाना कह सकते हैं।
पर यह नव-वर्ष आया, पुराना बीता और शुभ-कामनाऐं, प्रार्थनाऐं मंगलमय की
क्या है यह चेष्टा कुछ शुभ बनाने की, और एक काल-खंड को अनुरूप बनाने की।
पूर्ण भाग्य जैसे सूर्य तारक का जीवन-चक्र, किञ्चित प्राणी के वश में नहीं
फिर भी वह अपने उपलब्ध वर्तमान में यदि कुछ कर सकता, तो यह उसका प्रबन्धन ही है।
कहो, आओ बनाऐं स्व-वर्तमान को बेहतर सब मिलकर, उसी को नव-वर्ष मंगलमय कहेंगे
अपने समय, भविष्य के हम मालिक, क्यों न इसे बुद्धि में चिंतन करें।
समय तो यूँ ही आता रहेगा, अपने लिए वर्तमान में कुछ जगह बना लो
सकारात्मक परिवर्तन / निर्वाह में सहभागी बनों, तभी नव मंगल-कामनाऐं सार्थक हैं।
पवन कुमार,
01.01.2015 समय 23:59
(मेरी डायरी दि० 31.12.2014 समय 9:16 प्रातः से )
No comments:
Post a Comment