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Wednesday 14 January 2015

प्रातः मनन

प्रातः मनन 
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ब्रह्म-महूर्त वेला, एकाकी समय और साथ है लेखनी का

अनुकूल पल सार्थक करने को, आओ इन्हें बनाऐं अपना॥

 

इन शुभ-प्रहरों में ही, ऋषि-मुनियों ने किए काव्य- मनन

सोचा उन्होंने अत्युत्तम-नवीन, जो हुए वाणी द्वारा प्रकट।

निर्लेप न पूर्वाग्रहों का, कोरी स्लेट सी रिक्तता-पूर्ति बस

जो चाहो लिखो-उकेरो, निरी-शून्यता से निकलो बाहर॥

 

एक-२ अक्षर से ग्रन्थ बनें, पर आवश्यक है गतिशीलता

एक उचित अवसर का मिलन, उसको अग्रसर बढ़ाता।

दिवस में हम व्यस्त हो जाते, स्व हेतु न उपलब्ध समय

कृत्य जो अनुपम कर सकते हैं, उनसे न होता सम्पर्क॥

 

जब खुलेंगे तव अन्तर्चक्षु, अनुभूत शंकर का तृतीय नेत्र

सर्व बाधा-संकोच मिट जाऐं, जब स्वत्व से होगा मिलन।

जब सब विकार-रसों का, प्रसर रहेगा अल्प सीमा तक

विभूति-समृद्धि अंतर की, लुब्ध-कुप्रवृत्तियाँ रखेगी दूर॥

 

जन्म यह नव-प्रभात में, पूरा दिवस इसका जीवन-क्षेत्र

जागृत सुप्तावस्था मध्य ही, सकल कार्य-क्षेत्र उपलब्ध।

प्रतिपल जीवन का यदि, कुछ जीवनोन्मादन किया जाए

निज उन्मुक्तता-अभिभूति, इस काल-कर्म में हो जाए॥

 

हर एक पल का अर्थ यहाँ, यदि गूढ़-तत्व में करें मनन

उनमें बसी महद संभावना, यदि स्थापित हो मन-कर्म।

जीवन को उच्चता मिलेगी, निकास संभव दुर्बलताओं से

मनोकामित है घटित सम्भव, आवश्यक श्रम-विवेक है॥

 

प्रकृति में महान शब्द उपलब्ध, उनका अर्थ तो न ज्ञात

अविवेकता तो जगत अंध-कूप, ज्ञान ही वाँछित प्रकाश।

पकड़ो प्रत्येक ऐसी ग्रंथि, पर खुलेगी वह पराक्रम ही से

पर नहीं वे अक्षर मात्र, अति-गुह्य स्व में समाहित किए॥

 

सम्यक-तत्व हैं बुद्ध-घोषित, मानस-जन पूर्णता से योग

वे समस्त आयाम-विस्तृत, अपनाने को हैं प्रेरित शोध।

कैसे बनें नागार्जुन सम भंते, क्या अपनाई शैली-जीवन

हर भिक्षु तो न सम अर्हत, लक्ष्यार्थ वाँछित शुभ-प्रयत्न॥

 

अनुपम-कर्म जीवन में ही, एकाग्रता से होते हैं फलीभूत

नित्य सम्पर्क नव-विचारों से, शैली में इंगित अनुरूप।

तब कैसे किया है उन्होंने निश्चय, रचने को इतना महद

या मात्र गतिशीलता से संभव, पर अल्प से ही प्रारम्भ॥

 

जुड़ते गए विभिन्न आयाम, मनन ढूँढ़ लेता अध्याय-स्व

लेखनी है कर-कमल, विद्वद्जनों से विवेचन- विमर्श।

क्या उचित है बहुत बार तो, स्व-विवेक तो लेता ही ढूँढ़

प्रायः न मिलती उचित राय भी, स्वयं से ही संभव कुछ॥

 

कैसे परम-अवस्था स्थित, वे महामानव चिंतन हैं करते

डूबे शंकर सतत मनन में, कोई बाधा भी सहन न करते।

जो भी कुछ अनुपम संभव, स्व-इन्द्रियाँ कूर्म-सम स्थिति

ऊर्जा सीमित अतः सु-प्रयोग से, हेतु सहायक है नियति॥

 

जीवन मिला है अत्यंत मधुर, आओ इसे सार्थक बना लें

सुपाठ पकड़े अध्ययनार्थ, ज्ञान को कर्म-दीपक बना लें।

हर नवीन पूर्णता- पूरक यहाँ, अतः निज-विस्तृतता बढ़ा

जीवन कर्म गति-वाहक, क्यों नहीं इसे लावण्यमयी बना॥


पवन कुमार,
१४ जनवरी, २०१५ बुधवार समय सायं २०:२०  
(  मेरी डायरी दि० २७ अक्टूबर, २०१४ समय सुबह ६:१० से ) 

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