मन का बली
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बहुत एकाकी क्षण मेरे, किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हूँ क्या करूँ
सोकर बिताऊँ, मनन में लाऊँ या कुछ सार्थक चित्रित करूँ ?
समय ने एक बार फिर करवट बदली और एकान्त में धकेल दिया,
पुनः झझकोरा या कहूँ, एक और अवसर दिया।
निकाल अपने सर्वोत्तम को बाहर, जग प्रति किञ्चित समर्पित हो,
बना अपने को कुछ योग्य, और आगामी पलों को जीवन-परक बना।
स्व-निर्माण एक प्रक्रिया है, गुणवत्ता हर पक्ष में वाँछित है
यह तो है भवन या अन्य निर्माण जैसा, जहाँ हर पहलु महत्त्वपूर्ण है।
नहीं छोड़ा जा सकता है यह, अनाड़ियों, नौसिखियों के हाथ में,
प्रबन्धन के समस्त बिन्दुओं का, योगदान अति-आवश्यक है।
मैंने उम्र के कुछ वर्ष बिताए, कुछ यूँ ही इधर-उधर से जोड़ा
नहीं सोचा पर घड़ता चला गया, नहीं पता कितना योग्य है ?
पुरातन समय में नृप अपने होनहारों को, एक-विधि तहत तैयार करते
हर एक क्षेत्र का ज्ञान और पारंगतता, एक समर्थ निर्माण करती।
कुछ बनें समर्थ फिर अभूतपूर्ण तन-मन के स्वामी, कुछ करने का हुनर आया
सम्भालते अपने काज यत्न से, और श्रेष्ठ विचार करते।
विद्वान राजा एक अनुपम उपलब्धि, प्रखर बुद्धि उचित निर्णय कराती
मात्र दुर्बलता के पुतले नहीं, अपितु मानव सबल निर्माण करती।
मैं बना कुछ अल्प-सामग्री से, नहीं उतना माहौल पाया
जो कुछ मिला, उसी को छाँटा और कुछ गलत-ठीक से स्वयं को बनाया।
प्रायः क्षणों में नहीं उचित निर्णायक, तो भी बुद्धि की उपज है
और उसी को ठीक बनाना, समस्त अग्रिम कर्मों का प्रेरक है।
तन-मन स्वामी, जितेन्द्रिय, स्वयं-सिद्धा, ये सभी तो स्वयं-निर्मित हैं
उन्मुक्त भाव, निर्भय, अति-सूक्ष्म, ये शनै-२ जुड़ते हैं।
अनन्त प्रवाह मन का और चक्षु अति तीक्ष्ण, अपने दोष-गुण खोजते हैं
मन का बली बना वह प्रहरी, अपना दोष प्रत्येक दूर करता है।
जो कर्त्तव्य जग ने दिए हैं, भला ज्ञान उनका उन्हें होता
नहीं शंका स्व-क्षमताओं पर, निर्भयता-पूर्वक अपनी बात कहते हैं।
पल-२ में वे विवेक के संगी, उनकी प्रति-बद्धताओं पर न कोई प्रश्न-चिन्ह है
वे देखे जहाँ, अवसर हैं वहाँ, उनकी उपस्थिति एक विश्वास देती।
वे ज्ञान के वाहक, साहस के पुँज, असीमता में नज़र गड़ाते
हम नहीं वह जो महज दीखते, अपितु अपरिमिता संगी हैं।
जीवन-दर्शन अति सूक्ष्म, उनको हर अवयव का ज्ञान है
वे चलें सदा अपने उद्देश्यों में, नहीं कोई प्रमाद करते।
अनन्त प्रवाह के साथी वे, हर क्षण फिर चेतन का होता
वे अनुभव करने में सक्षम, समस्त भूत, वर्तमान, भविष्य में।
उनका चिंतन अति पवित्र, सार्वभौम और यथार्थ के वे समर्थक हैं
वे विश्वास करते सुधरने-सुधारने में, शिक्षा के वे प्रशिक्षु होते।
मैं भी कुछ समर्थों सा बनूँ, यह विश्वास मन में लिया
प्रयोग कर इन अनुपम क्षणों का, अपने को और बेहतर घड़ूँ।
हर पल दिन का हो पूर्ण-उपयोग, और रचनाऐं बहुत ही सार्थक हों
अच्छी पुस्तकें बनें साथी यहाँ, और तन-मन को स्वस्थ करूँ।
एक विद्वान पद अपने लिए बनाऊँ, क्या जोड़ सकता कुछ उपाधियाँ
और क्या कुछ विज्ञों की श्रेणी में, स्थान अपना भी बना सकता?
कुछ करूँ बेहतर अपेक्षाऐं स्वयं के लिए, और फिर यत्न कर लूँ
जीवन सार्थक बनाने का अनुपम अवसर, इसे मैं आत्मसात कर लूँ।
पवन कुमार,
23 जनवरी, 2015 मध्य रात्रि 00:25 बजे
(मेरी डायरी दि० 16 सितम्बर, 2014 समय 8:40 बजे से )
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