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Saturday 7 February 2015

ऋतु - संहारम : ग्रीष्म

ऋतु - संहारम 
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सर्ग-१ : ग्रीष्म 
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भास्कर प्रचण्ड चमक रहा, शीतल चन्द्र हेतु है उत्कण्ठा

स्वागत है गहरे जल का, लगाने हेतु बारम्बार गोता। 

दिवस शांत सौंदर्य में खिंच रहें, कामना - ज्वार का

उफान कम है, झुलसती गर्मी अब है यहाँ,

ओ मेरी प्रिया !१।  

 

निशा को नीलिमा-चीर पहनाया शशि ने, नीर में

प्रासाद की छाया अद्भुत, जल-यन्त्रों से शीतल। 

विभिन्न मणि लगे स्पर्श में सरस, चन्दन तरल, इस

गर्मी की चिलचिलाती दाह से मुक्ति चाहता सारा जग,

ओ मेरी दुलारी !२।  

 

 हर्म्य-ताल सुवासित हैं, इन्द्रियों को लुभाती   

प्रिया के उच्छ्वास से मदिरा है हिल रही। 

रसीले तराने मधुर तानों पर सुतंत्रि* की,

कामी प्रेमी इन मदहोशिनी युक्तियों का

लेते आनन्दमध्य रात्रियों में ग्रीष्म की,

ओ मेरी चहेती !३। 

 

सुतंत्रि* : वीणा  

 

महीन रेशम व आभूषित मेखला, नितम्ब-सौंदर्य बढ़ाते,

मोती-कण्ठहारों से स्पर्श स्तन, चन्दन से महकते।  

सुगन्धित जल से धोऐ सुवासित उनके केश-जूड़े,  

इन्हीं संग कामिनियाँ रिझाती साजनों को अपने,

ओ मेरी महबूबा !४।  

 

बल खाती कमर, चरण रंजित हैं गहरे लाक्षारस से,

पायल नूपुर हर पग पर हंस-नाद की नक़ल करते।

पुरुष - हृदय तो मदाग्नि में जा रहे हैं जले।५।  

 

पयोधर* आर्द्र चन्दन से कोमल लेपे गए हैं, जो

अश्रु विन्दुओं से चमकते हार-शेखरों से भरे हैं। 

नितम्ब हेम*-मेखलाओं से घिरे हैं,

किसका उर न उत्सुक होगा ऐसे में?,

ओ मेरी सजनी !६।

 

पयोधर* :  स्तन; हेम* : स्वर्ण 

 

यौवन-भरपूर उच्च वक्ष कूचा*-यौवनाऐं,

जिनके अंग चमकते स्वेद-मनकों से। 

भारी परिधान उतार फेंकती व महीन अंशुक

पहन लेती, इस ग्रीष्म में वक्षों को ढँकने।७।

 

कूचा* : गली 

 

चन्दन जल सुवासित चँवरों की अनिल, 

प्रियतमा-क्ष पर पुष्प-माला का स्पर्श। 

वल्लकी* की अत्युत्तम मर्मर-ध्वनि, 

निद्रा से जगाती हैं ये सब अब, 

ओ दुलारी !८। 


वल्लकी* : वीणा 


समस्त रात्रि उत्कंठा से सुप्त, प्रसन्न, 

मंजुल-योषिताओं के मुख चिरकाल तक निहारता। 

संगमरमरी-महल छतों से, उषा होने पर वह चन्द्र,

अपराधी सा लज्जा से पाण्डु* हुआ है जाता।९।


पाण्डु* : पीला   


विरहाग्नि में मानस* जल रहे,

कांता-वियोग देखने में हैं प्रवासी असमर्थ। 

रेणु मण्डल* भवंडर में, धरा से उछलते ऊपर, 

सूर्य के भीषण ताप से होते संतापित।१०। 


मानस* : हृदय; रेणु मण्डल* : धूल के बादल  


 ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप से वनचर मृग हैं त्रस्त,

गगन को मुख किए दौड़ लगाते तृषा-ग्रस्त। 

जिसका वर्ण जैसे सुघड़ मिश्रित काजल,

   सोचते कि वहाँ अन्य वन में है जल।११।  


जैसे विस्मयी रश्मियाँ राकेश* से हैं आभूषित,

ऐसे ही कामुक नारियों की चाल मतवाली। 

 उनकी मोहक मुस्कान एवं कटाक्ष नज़रें,

        प्रेमी-दीवानों में एकदम कामुकता जगाती।१२।  


 राकेश* : शशि; 


रवि की उग्र मयूखों* से संतापित, अपने

तपते धूसर पथ पर, एक फणी झुकाए फन। 

पीड़क मार्ग पर रेंगता, पुनः -२ फ़ुफ़कारता, 

एक मयूर की छाया में लेता है शरण।१३। 


मयूख* : किरण

 

जन्तु-अधिपति मृगेश्वर* अति-तृषा से तड़प रहा,

चौड़े खुले मुख हाँफ रहा, जिह्वा लटकाए,

उसके अग्र-केसर स्पन्दित।

हत-विक्रम सा वह नहीं मारता गजों को, जबकि

वे उसकी सीमा से दूर नहीं हैं अधिक। १४। 

 

मृगेश्वर*: सिंह 

 

शुष्क कंठ, मुख पर फेन,

भानु की झुलसाती रेणुओं से आहत हुए जाते हैं।

प्रवृद्ध प्यास - कष्ट से दन्ती* तुषार-जल ढूँढ़ते हैं,

और सिंह से भी न भयभीत होते हैं।१५।

 

दन्ती* : हस्ती

 

रवि की हुताग्नि से क्लांत एक कलापी*

जैसे असंख्य यज्ञाग्नियों से धधकता।

कोई इच्छा न फणित सर्पों पर आक्रमण करने की,

अपने कलाप*-चक्र में आनन* लेता है छिपा।१६।

 

कलापी* : मयूर; कलाप* : पंख; आनन* : मुख   

 

उष्ण दिवाकर मयूखों* से उत्पीड़ित वनैले

वराह*- यूथ, लम्बे थूथनों के गोल सिरों से अपने।

 तालों की दलदली घास एवं शुष्क मृदा को उखाड़ते,

ऐसे लगते कि मानो भूमि में चले गए हैं गहरे।१७।

 

मयूख* : किरण; वराह* : शूकर

 

प्रभाकर की प्रचण्ड किरणों के सेहरे से झुलसा,

एक भेक* पंकिल* ताल में छलाँग लगाता है।

एक विषैले भुजङ्ग के पत्र*-छत्र के नीचे आ

       बैठ जाता, जो पहले से ही मान्दित-प्यासा है।१८।

 

भेक* : मेंक; पंकिल* : कीचड़; पत्र* : फन

 

एक मृदु पंकज पादपों का बड़ा भाग उखड़ा पड़ा है,

मीन मृत पड़ी हैं, सारस भय से दूर उड़े जा रहे हैं।

झील एक मोटी दलदल में बदल गई है,

       एक बड़े हस्ती-दल द्वारा धकेलते - रेलते।१९।

 

एक कृष्ण-सर्प तृष्णा - बाणों से घायल,

अपनी द्वि-जिह्वा बाहर निकाले मरुत चाटने लगता।

मस्तक-मणि कान्ति, दीप्ततर भानु-रश्मियों से टकराती,

ग्रीष्म-ताप से जलता, अपने ही उफनते विष से आकुल,

वह दादुरों* के जमघट पर नहीं करता हमला।२०।

 

दादुर* : मेंढक

 

एक महिषी - यूथ दीर्घ तृषा से क्रोधित,

 सिर उठाए पहाड़ी-गुफाओं से निकलता है।

वायु में अम्बु निरीक्षण करता, गुहामय जबड़ों से फेन बाहर आता,

    लटकती गुलाबी जिह्वाओं से, उनके होंठों से झाग निकल रहा है।२१।

 

एक दावाग्नि नाजुक शाखाऐं भस्म कर देती,

सूखे पत्तों को निर्दयी पवन ले जाती तीव्र वेग से ऊपर।

सर्वत्र जल-स्रोत सूखकर निम्न स्तर पर आ गए इस दग्ध अग्नि में,

अरे, वनों की सरहदों पर यह कैसा वीभत्स दृश्य है प्रस्तुत!।२२।

 

हाँफते नभचर पल्लव विहीन वृक्षों पर बैठे हैं,

कृष कपि झाड़ियों से की गुफाओं में टोली बना लेते हैं।

जब जंगली वृषभ नीर की तलाश में फिरते मारे-२, फिर

   सावधानी करते गज-शावक सूंड से कूप-जल पी लेते हैं।२३।

 

हिंसक पवन - बल द्वारा निष्ठुरता से धकेले,

अग्नि चमकती जैसे खिलते गुलाब के चमकीले सिंदूरी पल्लव।

हर दिशा में उड़ती फिरती, बावरी सी सबको आलिंगन करें,

   तरु-शिखाओं को, विटप-लताओं को, व करे भू को ज्वलन।२४।

 

अरण्यों के आंचलों में उछाल लगाती

अनल की जलजलाहट वन-जंतुओं को मान्दित कर देती है।

यह अनिल-पंखों से घाटियों को भभका देती, चिटकाती है,

और सूखे बाँस की झाड़ियों में विस्फोट सा करती है,

     प्रतिक्षण वृद्धि करते घास में विस्तारित हो जाती है।२५।

 

पवनोत्तेजित वनाग्नि अरण्य में सर्वत्र स्वछंद विचरती,

सेमल के कुंजों में चमकती अनेक रूप लिए है।

यह तड़कती-भकड़ती, सुवर्ण सी चमकती, खोखले तरुओं में,

   ऊँचे दरख्तों पर कूद लगाती, झुलसते पल्लव-शाखाओं में।२६।

 

अग्नि की प्रचण्ड ऊष्मा से दग्ध काया को लिए,

अपनी शत्रुता भूल जाते हैं हस्ती, सांड, सिंह सब।

झुलसे चरागाहों से शीघ्र बाहर निकलते हैं, इकट्ठे - मित्रवत,

किञ्चित विश्राम पाने हेतु नदी के चौड़े रेतीले तीरों पर।२७।

 

ओ मेरी रमणी!

किसका गायन इतना सुरीला है, रात्रि में चाँदनी नहाई छतों पर,

मनहर कामिनियों द्वारा ग्रीष्म गुजरने की प्रतीक्षा होती।

जब तालें कमल-पूरित होंगी, पाताल-पुष्पों से सुवासित समीर।

सुहाना जल मिलेगा जब सुस्ताने को, मुक्ताहार स्पर्श में शीतल,

इसे बड़ी प्रसन्नता से बीत जाने दो, तुम्हें मिलेगा सुकून।२८।

 

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-१ : ग्रीष्म 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

७ फरवरी, २०१५ समय २१:१८ रात्रि 

(रचना काल १४.०१.२०१५ समय ०९:२८ प्रातः) 


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