Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Thursday 12 February 2015

ऋतु-संहारम :पावस

ऋतु-संहारम 
--------------

सर्ग-२ : पावस 
------------------


जलाच्छादित मेघों संग चिंघाड़ते धृष्ट मतंग*,

दामिनी-ध्वज लिए व गर्जन तालियों की ढोल थाप।

प्रेमियों का स्वागत है, गगन-चुम्बी गौरव,

नृप की भाँति आती है ऋतु पावस,

 ओ मेरी प्रिया !१।

 

मतंग* : हाथी 

 

चहुँ दिशा घनघोर घटाओं का घटाटोप,

नभ नीलकमल पंखुड़ियों की गहन चमक सा प्रतीत होता।

कृष्ण जगह-जगह जैसे हमवार मिश्रित काजल का ढेर,

    दीप्त चहुँ ओर जैसे माता ने शिशु वक्ष से चिपका रखा।२।


महद तृष्णा त्रसित चातकों के अनुनय-विनय से,

विपुल जल-राशि के भार से नीचे हुए लटकते।

विशाल बादर शनै-२ बढ़ते, मूसलाधार बरसते,

और कर्ण प्रिय हैं गर्जन-स्वर उनके।३।

 

प्रक्षेपित वज्रपात एक भय सा करता उत्पन्न,

चपला धारियों से पिरे हैं इंद्र-धनुष।

प्रखर तेज बौछारों को ढीला छोड़ते - उत्तम सधे निर्दयी शर,

निर्दयी अम्बुद गेह-दूरस्थ पति-हृदयों को करते हैं आकुल। ४।

 

वसुंधरा नरम तृण-फूँटों का आवरण पहन लेती, चमकती

यथा पन्ना, जो प्रकाश-किरण सम्पर्क से लगता कंपकंपाने।

कांडली* की पल्लव कलियाँ खिल उठती, और इन्द्रगोप*

   चकित कर जाते, जैसे एक रमणी लदी हरे-लाल रत्नों से।५।

 

कांडली* : बिच्छू-बटी; इन्द्रगोप : लेडीबर्ड

 

सारंगों* का बड़ा वृन्द सदा आनन्द-नाद करता,

उत्सुकता से इन उत्सवी क्षणों को निहारता।

चोंच-लड़ाई और दुलार की हड़बड़ाहट में है फँसा,

भव्य पंख पूरा फैलाए अब नृत्य करने है लगा।६।

 

सारंग* : मयूर

 

सरिताऐं पंकिल जलराशि से फूली हुई हैं,

प्रबल शीघ्रता से सागर ओर दौड़ पड़ी हैं।

 अपने तीर-तरुओं को हिलाए, गिराए जैसे

     व्यभिचारिणी कामुक-कल्पनाओं से भरी है।७।

 

हरी-भरी हरियाली दूब नरम-फूँटों से सुशोभित,

शाकाहारियों के मुखों से गिरी, बिखरी इतर-तितर। 

 किसलय के वृक्ष मनोहर, कन्दराऐं-विन्ध्य

 अब दर्शक का कर लेती है उर-वश।८।

 

नदी-निर्झर रमणीयता से प्रमुदित समस्त बियाबान चिह्न,

आसानी से भौचक्के होते मृगों को देते हैं आश्रय।

 विस्मित करते जैसे नीली-कुमुदिनियों से, काँपते उनके नयन,

और यकायक बेकरारी से कसमसाने सा लगता है हृदय।९।

 

धराधर* उच्च स्वर में बारम्बार गर्जना करते,

रात्रियाँ घोर तिमिरमय हैं।

मात्र तड़ित-प्रकाश ही मार्गों को दीप्त करता तथापि गुप्त भेंट

करने प्रेमातुर कामोन्मादित तरुणियाँ अपने पथ पर हैं।१०।

 

धराधर* : बादल

 

मेघ फूट पड़ते, भयंकर गड़गड़ाहट से

कोलाहल करते, दामिनियाँ चमकती। 

भीत ललनाऐं काँपती बिस्तरों में, अपने भर्तारों से हैं चिपक जाती,

   हालाँकि, ये नर निज कुत्सित व्याभिचारी प्रवृत्तियों के हैं दोषी।११।

 

नील-पंकज से प्रिय नयनों से, पके बेर से अश्रु पड़ते

कोमल अधरों पर, जिनके पति विदेश यात्रा गए हैं।

वे पत्नियाँ दुखित हैं और अपने आभूषण, पुष्प एवं

सुगन्धि एक ओर उतार फेंकती हैं।१२।

 

कीट, मृदा एवं तृण-तिनकों से लिपटा,

वर्षा-सर्प मटमैले वर्ण का एक।

मुण्ड नीची किए अपने पीड़क पथ पर धीरे-२ बढ़ता अग्र,

  उसे बड़ी उत्सुकता से रहा है देख अधीर टोडर-दल।१३।

 

त्याग देते वे सर जहाँ पद्मों ने कर दिए पल्लव क्षिप्त,

भ्रमर मधुर गुनगुनाते हैं, मधु के प्यासे हैं, वे मूर्ख ।

नृत्य करते मयूर-पंखवृत्त गिर्द बना लेते जमघट सम,

इस आशा में कि ये नूतन कोंपलें हैं अरविन्द।१४।

 

प्रथम मेंह अम्बुधर के गर्जन से

वन-हस्ती क्रोधित हैं, पुनः-२ चिंघाड़ते हैं। 

शुभ्र-नीले कुमुदों से ताल पूर्णतया आच्छादित हैं,

उनके विशाल कर्ण अपने ऊपर झुंड बनाती

मक्षिकाओं की फैलाव-रेखाओं से।१५।

 

सब दिशाओं पर जड़ित चमकते जल-प्रपात,

मयूरों से परिपूर्ण, जो कर रहे हैं अपना नृत्य प्रारम्भ।

शिला चूमते, अल्प ऊँचाई पर लटके, बारिश भरे मेघ,

पर्वत लगाते हैं असहनीय तड़पन।१६।

 

कदम्ब एवं सर्ज-कुञ्जों से बहती, और

केतकी एवं अर्जुन तरुओं को हुई हिलाती,

जो अपने कुमुदों की महक से हैं सुवासित।

मेघों का संग करती, वर्षा-जल से शीतल होती,

          बताओ ऐसी बयारें किसे तमन्नाओं से न देंगी भर? ।१७।

 

 केश नितम्बों के नीचे आते हैं, सुवासित पुष्प

कर्णों के पीछे गुँथे, मोती-मालाऐं करती स्तनों से प्रेम-स्पर्श।

मदिरा श्वासों को सुगन्धित करती, इन सबसे रमणियाँ

अपने महबूब-हृदयों में लगाती हैं अग्न।१८।

 

इन्द्र - धनुषों की झलक से, 

चपला-स्फुरण से महीन सुवर्ण-नक्काशी सा काम,

जीवन-दायक बादल नीर से भरे, लटकते।

 कामिनियाँ जवाहिर-जड़ित बालियों से चौंधियाती,

और कमर-बन्द नूपुरों की माला से सजे,

       ये दोनों मिलकर विदेश गए साजनों के दिहैं चुराते।१९।

 

योषिताऐं घुँघराले केश नव कदम्ब-पुष्पमाला से गूँथती,

केसर-कली व केतकी-पत्र व कर्णों ऊपर बाली सी लगाती।

अर्जुन की पुष्पण शाखाओं को, और इन सबको अति

मनोहर आकृतियों में हैं सजाती।२०।

 

पुष्प-सुवासित शानदार केश और

आर्द्र चन्दन व कृष्ण घृतकुमारी लेपे कोमलांगी ललनाऐं,

बादर-गर्जन सुनकर, कुछ डरकर ही प्रथम रात्रि प्रहर में। 

अपने ज्येष्ठों के आवास से निकल कर जाती,

     व शीघ्र ही प्रवेश कर जाती शयन-कक्ष में ।२१।

 

आसमानी वर्ण के पंकज-पल्लव से गहरे नीले बुलन्द जलधर,

वारि भरे, नीचे झुके, करते बौछार हैं इंद्र-धनुषी ज्योति संग

अलक्षित रूप से गति करते द्वारा समीर मंद

वे कामिनियों के जी को निकाल लेते, जो अपने

          नाथों के अति-दूर जाने से पहले ही हैं अति-क्लांत।२२।

 

पावस की प्रथम झड़ियाँ, अकाल दुर्बल करती, प्रसन्नता से

झूम उठती वन-स्थलियाँ, जैसे कदम्ब यौवन में बढ़ाते कदम। 

केतकी की सुनहली पल्लव-कलियों के दृश्य से होती पुलकित,

    नृत्य करती व तरु पवन-झोंकों से दिखाते भाव झूम-२ कर।२३।

 

वर्षा काल में सजते बकुल-पुष्पहार, मालती कलियों संग,

नव-यौवनाओं के मस्तकों पर ताजा खिले यूथिका कुमुद।

जैसे एक अनुरक्त पति का प्रेम और नूतन

       कदम्ब-लड़ियाँ लिपटती उनके कर्णों पर।२४।

 

तरुणियाँ सुंदर वक्षों को सजाती मोती-शेफालिका से,

महीन पीले रेशम-दुकूल से सुडौल वक्र-कटि ढक लेतीं

जिसके नीचे की एक महीन रेखा नाभि तक ऊपर है चढ़ती,

मिलन हेतु शीतल सिहरती, ताजी वर्षा-बिन्दुओं का सम्पर्क पाने हेतु,

कितने मनोरम हैं वे बन्ध, जो लीक खींचते हैं कमर में उनकी।२५।

 

केतकी-पराग से महकती, स्वच्छ मेंह की नव-फुहारों

से शीतल, जिसको नृत्य का आदेश दिए जाती है बयार,

गाछ पुष्पों के वजन से झुक जाते हैं। 

           ये सब विदेश गए पुरुष-हृदयों को अचेत कर देते हैं।२६।

 

यह महान विंध्याचल हमारा सुदृढ़ आलम्बन,

मेघ जल-भार से दोहरे जाते हैं झुक

पावस बदरा झुक के नीचे अपनी फुहारों की सौगात देती

और अति प्रसन्न होती दारुण झुलसती विन्ध्य की पर्वतिका,

      ग्रीष्म की भीषण जंगली ज्वालाओं से, जो दावाग्नि लगाती।२७।

 

चित्तहारी रमणियों के लिए सम्मोहक स्रोत,

वृक्ष, विटप एवं लताओं का चिर-बन्धु,

सब जीवों का निर्विकार प्राण-दायक।

यह जलद-समय इन मंगल कामनाओं में,

        तुम्हारे कल्याण के सर्व मनोरथ करे पूर्ण।२८।

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-२ : पावस 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

१२ फरवरी, २०१५ समय ९:५० प्रातः 

(रचना काल १६.०१.२०१५ समय १०:१९ प्रातः) 

No comments:

Post a Comment