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Tuesday 17 February 2015

ऋतु-संहारम: हेमन्त-ऋतु


ऋतु-संहारम 
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सर्ग-४ : हेमन्त ऋतु  
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प्रवाल नव-पल्लव यकायक फूँटकर बड़े

पुलकित लगते, लोधरा पुष्प पूर्ण यौवन पर हैं,

और पकी शाली (धान) स्वर्णिम है। 

सब कमल अब विलीन हो गए हैं, 

         घनी तुषार ने शिशिर में करा दिया प्रवेश है।१।

 

रक्त केसर वर्णी कुन्द-पुष्प मालाओं से मनोहर, 

चमकते जैसे तुषार-कण एवं चन्द्र।

       विलासिनी-स्तन मण्डल हो रहे हैं अलंकृत।२।

 

मतवाली चाल वाली कामिनियों के

पुष्ट पयोधर नूतन चोलियों में न समा पाते। 

नए रेशमी परिधान उनके नितम्बों से नहीं चिपकते,

      हस्त-कंगन और भुजबंद अंगों से सामंजस्य न बना पाते।३।

 

रमणियाँ अपने यौवन और सौन्दर्य गर्व में,

नितम्बों को कंचन-रत्न मेखलाओं से सजाती न।

उनके चरण-कमलों की पायज़ेबों का नूपुर-संगीत, 

हंस-ध्वनि सम होता है मधुर।४।

 

 नारियाँ अब सुरतोत्स्व (कामोत्सव) हेतु तैयार होती,

अपने केशों को कृष्ण अगरु धूम्र से सुवासित करती।

अपने कमलमुख पर पत्र-लेखा लगाती,

      और गात्रों को शुक्ल चन्दन चूर्ण से लेप करती।५।

 

प्रेम-क्रीड़ा थकन से पाण्डु हुआ मुख और खिंचा सा बदन,

नव-यौवनाऐं, जिनके अधर प्रेमी-चुम्बनों से रक्तिम हैं। 

जोर से हँसने से डरती हैं, 

       बेशक निकट कोई आनन्दोत्स ही न हो चाहे।६।

 

कामिनियों के कामुक सौष्ठव वक्ष इन्द्रियगोचर

करके, लेकिन उनको कड़ा मर्दन किए जाने से।  

भोर समय हेमंत रो सा पड़ता, अश्रु-बिन्दु गिराता,

जो दूब - तृणों के सिरों पर चिपक से जाते हैं।७। 

 

पकते धानों से खेत परिपूर्ण हैं, 

जहाँ मृगणियाँ झुण्डों में फिरती मंजुल। 

मादा सारस की नाद सुमधुर होती,

       आह! कितनी व्यग्रता जगाते हैं ये सब।८।

 

 जहाँ तालों में शीतल जल झिलमिलाता,

नील-कमल सुन्दरता से चौड़े खिलते।

बत्तखें अति-उन्माद में प्रेम जताती, ऐसे में

  सब हृदय असीमित आनंद को प्राप्त होते।९।

 

जमाते पाले में दुर्बल, रक्तहीन सा,

बहती पवन में सदा काँपता रहता जैसे एक

प्रमुदित बाला अपने कांत से हर ली गई हो।

अब प्रियांगु (श्याम बेल) पाण्डु है पड़ता,

ओ मेरी मोहिनी !१०।

 

पुष्प-मदिरा खुशबू से महकते मुख, 

मिश्रित श्वासों से अंग सुवासित। 

प्रेमी-युग्म सोते हैं परस्पर आलिंगन कर, 

प्रेम की मधुर कविता बनकर।११।

 

नीले अधरों पर प्रेम-चुम्बन के प्रखर निशान, 

स्तनों पर बलमा की चुटकियों के चिह्न। 

सब आवेशित विलास को स्पष्ट दर्शाते अनवरत, 

ये सुन्दरियों की यौवन-लाली में प्रथम।१२।

 

एक विशेष रमणी हाथ में दर्पण लिए, 

अपने दमकते कमल-मुख को सजाती है,

भोर की मृदु दिवाकर-ऊष्मा में धूप खाती है।

बड़े आनंद से मुख फुला कर प्रेम-चुम्बन देखती है,

      जो आशिक ने अधरों का मधुपान करते हुए छोड़े हैं।१३।

 

एक अन्य काँची की काया सुरतश्रम* से खिन्न है,

उसके पद्म-नेत्र दीर्घ रात्रि में जागने से रक्तिम हैं, दुखते।

गहन-निद्रा में सोती है मृदु भानु से होते उष्मित,

आकुल स्कन्धों से लटकते केश-बन्ध उसके।१४।

 

सुरतश्रम* : संभोग-क्लेश

 

अन्य छरहरी कान्ताऐं,

जिनकी देह उन्नत स्तन-वजन से किञ्चित नम हैं,

    अपने मस्तकों से केश हटाती हैं, पुनः सँवारती हैं।

रात्रि में सजा घन-नील वर्णी पुष्पहार कुम्हला गए हैं,

 जो एक बार आनन्द देकर खो बैठे सुवास अपनी हैं।१५।

 

एक अन्य मटकते नैनों वाली प्रिया

जिसकी लट उलझी है चंचल वक्रों में,

अपने अधरों की चारु शोभा को सहेजती है।

प्रेमी द्वारा आनन्दित काया को देखती है, 

फिर सावधानी से नखक्षत अंगों को तब

       हर्ष से भर उठती व चोली पहन लेती है।१६।

 

लम्बी कामुक युवा-क्रिया से क्लान्त

अन्य रमणियाँ शिथिल कोमल देहों की 

सुगन्धित तेलों से मालिश करती हैं।

शीतल पवन उनके पयोधरों (स्तन)

      एवं उरुओं (जंघा) में सिहरन छोड़ती है।१७।

 

यह सुखदायी हेमन्त काल

अपने बहुगुणों से रमणियों के चित्त हरता,

ग्राम सीमांत परिपक्व धन-धान्य* से परिपूर्ण हैं। 

जब क्रोंच विहंग पंक्तियाँ अति सुन्दर हैं, 

     यह तुषार काल आप सभी को मंगल दे।१८।

 

धन-धान्य* : शाली, धान

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-४ :  हेमन्त 

का हिन्दी रूपान्तरण प्रयास) 

 

पवन कुमार,

१६ फरवरी, २०१५ समय २०:२० सायं 

(रचना काल २५ जनवरी, २०१५ समय १०:१५ रात्रि)

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