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Monday 23 February 2015

ऋतु-संहारम : शिशिर

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-५ : शिशिर ऋतु  
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 समस्त भूमि विस्तरित पकी शाली एवं ईक्षों से,
समीर बजा रही छिपे क्रन्दन क्रोंच पंछियों के।
रमणियों का मनभावन प्रखर उत्साह से प्रेम बढ़ता है, 
ओ मेरी प्रिया, सुनो ! सर्द अब यहाँ है।१।

जन अब कपाटों को सख़्त बन्द कर लेते, अलाव जलाते,
धूप से अपने को उष्मित करते और भारी वस्त्र पहनते।
वर्ष के इस काल में पुरुष सुन्दर युवतियों की संगति ढूंढते।२।

 चन्द्रिका में शीतल न किया जाता आर्द्र-चन्दन
अब न तो घने तुषार से शीतल पवन।
न ही प्रासाद-छतों पर आलोक शरत-चन्द्र,
इस सर्द-काल में कोई ऐसी युक्ति मन को न करती प्रसन्न ।३।

सर्द, सर्द, तुषार पात भारी,
शशि-रश्मियों की हिमानी चमक और सर्द बढ़ाती। 
चमकते सितारें अप्रतिम पीत-सौन्दर्य से कांतिमान,
अब लोगों को आनन्द नहीं देती रात्रियाँ।४।

पत्नियाँ प्रेमातुर होती,
कुमुद-मद्य से सुवासित होते उनके मुखारविन्द। 
कृष्ण-अगरु धूप से सुगन्धित निज शयनागारों में प्रवेश करती,
लेकर पान, शेफालिका और मादक इत्र।५।

बेवफा रहते साजनों की रमणियाँ
कडुवाहट से करती भर्त्सना। 
उनको घबराया और लज्जामय पाती, तब भी,
प्रेम की गहन आकांक्षा से, उनके दोषों को देती भुला।६।

दीर्घ रात्रि की लम्बी काम-क्रीड़ा के सुख अबाधित 
उनके मनोज युवा हृदयेशों द्वारा अनुराग,
कामेच्छा और न रुकने की अति।
नवोढया रात्रि के अंतिम प्रहर में निकल जाती
चुपचाप कक्ष से, पीड़ित उरु-ऐंठन से लडख़ड़ाती।७।

चारु चोलियों में कसे उनके वक्ष-स्थल, 
जंघाऐं गाढ़े रंग के रेशमी दुकूलों से हुई छिपी।
उनके केशों में लगे पुष्प - जूड़ें, 
कामिनियाँ सर्दर्तु हेतु सजती हैं फिरती।८।

सर्दी भगाने हेतु कामी प्रेमी
खिलते यौवन की ऊष्मा का आनन्द लेते। 
केसर से मले, सुवर्ण से चमकते स्तनों से चिपक कर,
सुप्त, कामुक मनोहरी रमणियों के।९।

 विलासिनी, पतियों संग मद्यपान से युवा कामिनियाँ
उन्मादित हो जाती, आनन्द-दायिनी,
वासना उर्ध्व-वर्धिनी, मदिरा श्रेष्ठ है - स्वादिष्ट अति। 
कुमुदिनियाँ लजीली मद्य में तैरती,
उनके सुवासित श्वासों के नीचे हैं काँपती।१०।

भोर होने पर जब काम-ज्वार जाता उतर,
एक युवा रमणी जिसके सख्त हैं स्तनाग्र,
अपने सखा की बाँहों से निकल कर,
ध्यान से अपने पूर्ण आनन्द भोगे गात्र को देखती है। 
मुदित सी हँसती है, और शयनागार से निकल
गृह के आवास-कक्ष में चली जाती है।११।

एक और प्रिय पत्नी, भोर होने पर पति को है छोड़ देती, 
सुडौल एवं चारु, छरहरी कटि, सुदृढ़ पुट्ठे व गहरी नाभि। 
खुले लटकते भव्य घुँघराले केश,
पुष्प-मालिका नीचे सरके है जाती।१२।

स्वर्ण-कमल सा कांतिमय मुख, लम्बे एवं द्रवित नेत्र
मादक लाल अधर, और स्कन्धों पर खेल रहे सुसज्जित केश।
 सुन्दर योषिताऐं इन हिमानी सुबहों में
    दमकती फिरती हैं अपने आवासों में।१३।

पुष्ट नितम्ब-भार से कटि पर किंचित झुकते हुए नव-यौवनाऐं,
अपने सीनों के वजन से क्लांत हैं, बहुत शनै चलती हैं।
प्रेम के मधुर अनुष्ठान हेतु रात्रि-वस्त्रों को शीघ्रता से उतार देती हैं,
और दिवस कार्य अनुकूल अन्य वस्त्र पहन लेती हैं।१४।

नख-चिन्हों से भर दिए गए स्तनों की गोलाई को निहारती,
और चुम्बन-मर्दित अवर अधरों के अंकुर को सावधानी से स्पर्श करती। 
नव-यौवनाऐं प्रेम-पूर्णता के इच्छित चिन्हों को देख मुदित होती हैं,
और भोर होने पर अपने चेहरों को सजाती हैं।१५।

सर्द ऋतु, जो प्रचुर होती स्वादु धान एवं ईक्ष से,
और जब स्वादिष्ट शक्करों के ढ़ेर लगे होते। 
 काम होता अपने गर्वित उफान पर
व प्रेम-क्रीड़ा होती अपने चरम पर। 
जब दूर आशिकों की विरह-व्यथा बहुत होती मार्मिक,
यह ऋतु आप सभी के लिए सदा हो मंगल-सूचक।१६।


(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-५ : शिशिर का हिन्दी रूपान्तरण प्रयास ) 

पवन कुमार,
22 फरवरी, 2015 समय 22:56 रात्रि 
( रचना काल 26 जनवरी, 2015 समय 3:15 अपराह्न )

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