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Saturday 14 February 2015

ऋतु-संहारम : शरद ऋतु

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-३ : शरद ऋतु  
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पीत रेशम से काश-पुष्प अंशुक में, प्रफ्फुलित कमल सा मुख,

उन्मादित हंसों की किल्लोली, उसके नूपुरों का नाद मधुर।

किञ्चित झुकी सी, काया शाली* की पकती बालियों सी,

रमणीय रूप लिए वधू भाँति आती है, शरद अब।१।

 

शाली* : धान

 

मही* काश-पुष्पों से श्वेत चमकती, रजनी श्वेत चन्द्र-किरणों से,

सरिताऐं वन-हंसों से श्वेत, सरोवर श्वेत कुमुदों से। 

अरण्य सप्तच्छद वृक्ष कुसुम-भार से झुके,

उपवन शुक्ल सुवासित मालतियों से।२।

 

मही* : पृथ्वी 

 

नदियाँ सहज बहती एक गर्वित नव-यौवना सी,

कमर-बंद जिसकी दक्ष मीनें उछाल लगाती।

और अब उसकी मालाऐं तीर के श्वेत खग-वृन्द,

चौड़े तीरों पड़ी महीन बालू उसके नितम्ब।३।

 

एक जल-शुष्क मेघ-दल, सुन्दर, चाँदी-पीली सागर-सीपियों सा,

आगे-पीछे अति-सहज तीव्र हवाओं संग इतर-तितर स्वछन्द उड़ता।

आकाश प्रतीत होता एक महाराजाधिराज भाँति,

जिनको वात हिला रहे शतों चँवर रेशमी।४।

 

नभ एक चिकना काजल सा चमकता,

धूसरित मही जैसे बंधूक-परागकणों से उषा। 

सुरुचिर सुवर्णी निर्झरी* तट, खाद्यान्नों से भरे खेत-खलिहान,

ऐसी तरुणाई में किसका हृदय न होगा ग्रसित-चाह? ।५।

 

निर्झरी* : नदी 

 

इसकी उच्च-शिखाऐं हिलती एक शालीन बयार से,

सुरमयी पल्लव और पुष्प-प्रकीर्ण होता शिखर से।

टपकते मकरन्द पर पियक्कड़ से झूम रहे भ्रमर, इस

      कोविदार* तरु-लालित्य से बहकेगा किसका न मन?।६।

 

कोविदार* : कचनार

 

असंख्य तारकों से विपुल-आभूषित रजनी,

स्व को चन्द्र-प्रभा परिधान में लपेट लेती;

 जब शशांक अपने मुख को करते मन्द

अम्बुदों से मुक्त कराने का करता संघर्ष।

दिन पर दिन बढ़ती वह नव-यौवना सी,

     शालीनता से गर्वित स्त्रीत्व में बढ़ाते कदम।७।

 

वन-हंस का शोकाकुल नाद संगीत सा बजता,

तरंगिणी कमल-पराग रंजित लाल गुलाब सी बहती,

व घूमती लहरों से आंदोलित, जहाँ जल-मुर्गाबी डुबकी लगाती।

कृष्ण हंस व सारस पक्षियों की धक्का-मुक्की से किनारे शोरगुल,

चारों ओर जलधाराऐं मोह लेती हैं, दर्शकों का मन।८।

 

कांतिमान प्रभामंडल से नेत्र-प्रिय शशि सब दिल बाँध लेता,

वह प्रमोद-प्रणेता, तुषारों सी शीतल रश्मि बिखेरता।

वह अंगों को आत्मसात करता रमणियों के,

     जो घायल हैं, पति-वियोग के विषैले शरों से।९।

 

 एक पवन-झोंका भुट्टों को झुकाता झूमती मक्का के,

विशाल वृक्ष नृत्य करते, पुष्प-भार से नमस्ते करते।

सरोवर सिक्त हैं स्पन्दित अरविन्द पुष्पों से,

       और युवा दिलों को निर्दयता से व्यग्र करते हैं।१०।

 

 सरों की प्राणलेवा लहरती रमणीयता सुवासित

भोर-समीर से, जहाँ कमल एवं मकरंद खिलें तेज़ से। 

प्रेमानुरक्त वनहंस-युग्ल तैर रहे होते, सम्मोहित करते,

भर देती है यकायक हृदय को उत्सुकता से।११।

 

इन्द्र-धनुष छिप गया है मेघों के उदर,

अब और न चमकती है चपला आकाश-ध्वज।

बगुले पंखों से पवन को और न छपछपाते हैं,

     अब मयूर मस्तक उठाए नभ को न ताकते हैं।१२।

 

नृत्य-प्रदर्शन बन्द हुआ, छोड़ा मयूरों को आनन्द ने,

   सुनने हेतु मधुप्रिय सहगान वनहंसों के।

ललित, प्रवीण मञ्जरी काल, कदम्ब, कुटज, कुकुभ,

सर्ज और अशोक खिलते हैं सप्त-प्राण में अब।१३।

 

खेल-खेल में परस्पर ठेलते, श्वेत-लाल राजीव से,

सुखद शीतल प्रेम-विव्हलित कम्पित होते।

पल्लवों के किनारों से ओस-बिंदु पोंछते,

         उषा काल समीर उर कँपाती उत्कट इच्छा से।१४।

 

देखकर ग्राम्य-सीमाऐं जन-मानुष प्रसन्न होते,

जो भरी होती अबाधित अनेक गो-झुण्डों से।

वहाँ पड़े हैं खाद्यान्नों के ढेर खलिहानों में,

        पवन सुनाती क्रन्दन-नाद वनहंस व सारसों के।१५।

 

हंस-चाल मात देती एक मादक-कामिनी के चरण-आनन्द को विरले,

पूर्ण-खिलित कमल चमकते, सोम-मुख की दीप्ति से भी स्पर्धा करते।

नील-जलकुमुदिनियाँ कामोन्मादित नेत्र-लावण्य को भी पीछे छोड़ती,

      व कोमल लघु तरंगों की रमणीयता, गरिमामयी भौंह मटकाने की।१६।

 

श्याम बेलें कोमल फूलों से भरी शाखाओं से मुड़ी होती,

और रमणी के आभूषित अंगों की शोभा को लोहा देती।

ताज़ा चमेली अशोक-पुष्पों के मध्य से झाँका सी करती,

और शशि प्रकाश के सौंदर्य को भी पीछे छोड़ती।१७।

 

नव-यौवनाऐं भरी होती चमेली कलियों की छटा से,

रात्रि-मध्य उनके घने केश लगते छोरों पर घुँघराले।

विभिन्न नील-कमल वे लगा लेती हैं,

       अपनी सुन्दर सुवर्ण कर्ण-बालियों के पीछे।१८।

 

सुडौल स्तन सजे हैं चन्दन वर्ण मोतियों से,

उनके चौड़े नितम्ब नूपुर बंधित मेखलाओं से।

     बहुमूल्य पायजेब उनके कमल-चरणों से अब मधुर संगीत बजाती,

            अन्तर में अति प्रसन्न खिली सी, यामिनियाँ स्व-चारुता बढ़ाती।१९।

 

शशि एवं असंख्य नक्षत्रों से जड़ित मेघ रहित नभ,

जवाहिर चमक सम उत्कृष्ट ताल-सौम्यता रही दमक। 

खिले शशि-कमलों सी है विस्तृत,

       और प्रशान्त सा तैर रहा है एक राजहंस।२०।

 

विस्मयी मेघान्त गगन, निशा छितरी हुई सितारों से,

 शुद्ध आलोकित चन्द्र-रश्मियों से, शीत लावण्यमयी हैं नभ-दिशाऐं।

जमघटी पावस धराधरों से वसुधा शुष्क, जल विशुद्ध स्वच्छ है,

समीर शीतलता से बहती है मिलकर राजीवों से।२१।

 

प्रातः रश्मियों से जागृत, अब खिल जाता,

 दिवस पंकज एक मनमोहिनी कामिनी के मुख सा।

पर चन्द्र-कमल शशि अस्त होने पर कुम्हला जाते हैं जैसे,

वे सजनियाँ, जिनके बालम घर से दूर परदेश गए हैं।२२।

 

अपनी प्रेयसी के कृष्ण-नयनों की लाली, नील-कमलों में देखते,

सुवर्ण मेखला के नूपुर-सुर, प्रेमोन्मादित वनहंस-कलरव में सुनते।

उसके अवर अधरों की लाली, बंधूक के भड़कीले गुच्छों में

                   स्मरण करते यात्री, ख्यालों-उन्माद में खोए से अतिरंजित होते।२३।          

 

निशीथ* भरता सुन्दरियों के चेहरे आभा में,

वनहंस-श्रुति सरगम भरती उनके रत्नाभूषण पायलों में।

आकर्षक बन्धूक-पुष्प लालिमा मिलती उनके निचले होंठों को

    उदार प्रचुर शरत-वैभव अब बिछुड़ रहा, जाने कहाँ कौन?।२४।

 

निशीथ* : चन्द्रमा 

 

पूर्ण-खिलित अरविन्द पीत गुलाबी सा उसका मुख,

खिलती गहरी नील कुमुदिनियाँ जैसे उसके कृष्ण नयन।

ताज़े शुक्ल काश-पुष्प दीप्तिमान परिधान उसका, भव्य चन्द्र सा चमकता;

प्रियतमा जैसे तेरे प्रेम में खो गई, यह अप्रतिम सुख दे तेरे उर को ऐसा।२५।

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-३ : शरद 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

१४ फरवरी, २०१५ समय १४:१७ अपराह्न 

(रचना काल २४ जनवरी, २०१५ समय १०:२६ प्रातः)


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