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Saturday 10 January 2015

मन की धुन

मन की धुन 
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मृदुल मन के स्वामी या सेवक, पुनः आपसे है अनुरोध 
स्व-क्रियाओं को करो सयंमित, नितत रखो अपने उद्योग। 

तन का इकतारा, मन की धुन में, अपने को लगाए जा 
लेकर नाम उस कर्ता का, दायरा अपना बढ़ाए जा। 
गर्मजोशी और प्रसन्न-मुख से, प्रेम का सुर तू गाए जा  
आत्मा होगी तभी पवित्र, जब सबको गले लगाए जा। 

छोड़ो संकोच, बढ़ाओ सोच, सर्वांगीणता की बात करो 
सब अपने हैं और मैं सबका, इस सोच में सोच मिलाए जा। 
बहुत बढ़े हैं आगे ऐसे, मन को जिनने विस्तृत किया 
समय अल्प और कर्म ज्यादा, क्षमता अपनी बढ़ाए जा। 

जीवन-पथ अति सुगम, यदि जीने का ढंग सीख लिया 
फिर तान भी अपनी, सुर भी अपना, मन में तू गाए जा। 
सर्व-मार्ग उपलब्ध हैं जग में, उचित खोजना कर्म तुम्हारा 
चलो चलते है और ढूँढ़ते, इस आशा को बढ़ाए जा। 

मैं अपने में हूँ मस्त पर मुझको, चिंता इस जग की भी है 
कुछ तो कर्त्तव्य पूरा करूँ मैं, ये बातें तू समझाए जा। 
गाकर अपने मन के गीत, जग को भी सुना तान कभी 
कुछ तो लाभान्वित होंगे ही, यदि हृदय पवित्र बनाए जा। 

लोभ, लम्पट, कदाचार, गर्व यूँ ऊर्जाओं को नष्ट करें 
सद्गुणों को अपना कर भाई, जीवन सफल बनाए जा। 
इस जग का कारक है तू, और सबको तुमने काम दिए 
फिर मैं क्यूँ बैठा हूँ खाली, जीवन को कर्म में लगाए जा। 

पवन कुमार,
10 जनवरी, 2015 समय 16:52  
(मेरी डायरी दि० 14 सितम्बर, 2013 से)     

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