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Saturday, 8 November 2014

कुछ प्रकृतिमय

कुछ प्रकृतिमय  


इस प्रकृति में रमना चाहता, सब चराचर अपना बनाना चाहता मैं

इन चिड़ियों की चीं-चीं, गिलहरियों की गिटगिट, भोर-सौंदर्य में॥

 

मैं निकलता प्रातः भ्रमण को, तो खग-वृन्द की किलकारियाँ होती

कभी फुदकती, कभी उड़ती, मीठे गीत सुनाती और हैं इठलाती।

पूँछ हिलाती, एक डाल से दूजी पर उड़ती, कभी आपस में लड़ती

कभी भूमि, शाखा पर पत्तों में छुपी, या सूखे ठूँठ पर हैं बैठ जाती॥

 

कभी दाना चुगती हैं, गर्दन घुमा बाऐं-दाऐं देखती चौकन्नी से बड़ी

कभी सुस्त प्रतीत, सत्य में विपरीत, दर्शन से ही प्राण सा हैं भरती।

मोर- कोतरी, तोते- मैना, सोनचिरैया, चिड़ियाँ हैं काली-भूरी- हरी

कभी बाज दर्शित, उल्लू- नीलकंठ, एक काला बड़ा भी है पक्षी॥

 

कोयल-कठफोड़वे-कबूतर आदि, औरों को न जानूँ -पहचानता

पर क्षेत्र समृद्ध खग-विचित्रता में, व पक्षी-प्रेमी के लिए है अच्छा।

खेतों में सफ़ेद बगुले गर्दन उच्च किए, चलते शहनशाह की भाँति

कई टिटहरियाँ भूमि पर बैठी कुछ चुगती, और फिर उड़ जाती॥

 

इन पक्षी-मित्रों से कुछ हिल-मिल सा गया, रोज नया रोमांच होता

उनसे बात करने की कोशिश करता, शायद निकले कुछ कविता।

क्रोंच-पक्षी क्रंदन ने, अनपढ़ वाल्मीकि को बना दिया जगत-कवि

और अद्भुत रचित उनकी कलम से, धरोहर है संपूर्ण जगत की॥

 

कभी घास चरता नीलगाय-झुंड दिखता, अभी तक छः-सात देखी

बड़े-नयनों से देखती, खतरे पर बड़ी छलाँग लगा दूरी तय करती।

बड़े आनंद से हैं चरती, जुगाली करती, आदमी देख चौकन्नी होती

अनेक वृक्ष यहाँ ऊँचे-नीचे धरातल में, विशाल क्षेत्र में वे विचरती॥

 

बहु खरगोश-गिलहरियाँ हैं विचरते, यह प्राकृतिक निवास उनका

विश्व-विद्यालय भूमि-क्षेत्र लगभग ५५० एकड़ है, प्रायः ऊसर सा।

यहाँ अधिकतर बालू-रेत के टिब्बे हैं, और कुछ जगह समतल भी

देसी-काबुली कीकर, जांटी-जाल पेड़, झाड़ी-बेर विस्तारित भी॥

 

कुछ मरूस्थल-वनस्पति सी यहाँ, और अधिकतर काँटेदार गाछ

यह भूमि पंचायत द्वारा दान है, तीन गाँव पाली, धौली और जांट।

तीन महाद्वार हरियाणा विश्व-विद्यालय ने बनाए, इन ग्राम-नाम से

सीमा-प्राचीर खींची चार वर्ष पहले, पर कुछ क्षेत्र विवाद-ग्रस्त है॥

 

कृषि-शून्य भूमि थी यह पूर्व, उत्तम शिक्षा उद्देश्य हेतु दी गई अतः

कुछ विचित्र विश्वविद्यालय बनेगा यहाँ, और क्षेत्र होगा विकसित।

शिक्षा-क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण, यहाँ अति विकास है अपेक्षित

लोग कृषि-पशुपालन पर ही निर्भर, अन्य व्यवसाय हैं आवश्यक॥

 

मैं प्रातः अकेला घूमता हूँ, प्रकृति में खो जाता, सोचती रहती बुद्धि

सुबह की धूप, खुला-आकाश, दूर तक हरितिमा में जाती है दृष्टि।

अति-स्वच्छ वायु, प्रदूषण-मुक्त परिवेश है, दूर नगर-कोलाहल से

 अब विश्व-विद्यालय के क्षेत्रपाल-कर्मी दिखते, व प्रेमी भोर-सैर के॥

 

रात्रि-निशा में प्रकृति से पूर्ण संपर्क, चंद्रमा अनुपम छटा बिखेरता

तारें मोटे-अति स्पष्ट, माना कृत्रिम प्रकाश से कुछ अवरोध होता।

क्षेत्र बहुत विशाल-समृद्ध, अतः सौभाग्यशाली कि हूँ प्रकृति-गोद

फिर निज समय, अध्ययन-लेखन के लिए काफी समय उपलब्ध॥

 

मैं गाना चाहता प्रकृति के संग, रग-रग में संगीत स्फुटित करना

एक-२ पल इसमें आह्लादित होकर, जीवन को महकाना चाहता।

चाहूँ अति संगीत-तानों से इस कलम द्वारा, कुछ रुचिकर हो जाए

समय का संपूर्ण उपयोग, जीवन सार्थक बनाने में सफल हो जाए


 

पवन कुमार,
08 नवम्बर, 2104 समय 17:07 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 10 अक्टूबर, 2014 समय 09:18 प्रातः से )
  


Saturday, 1 November 2014

शून्य-ध्वनि

शून्य-ध्वनि 


शून्यता-आलम, बुद्धि-खालीपन व चेतन निष्क्रिय

बैठा विमूढ़ कागज़ पटल, निहारता लेखनी-संघर्ष॥

 

बुद्धि-गुणवत्ता बहुत मंद, न रहा इसे सूझ कुछ भी

पर बड़ा स्थिति-आनंद, शून्यता परिलक्षित क्योंकि।

सदा एक सम तो स्थिति असंभव, निज शून्यता-रस

वही प्रतिक्षण, यथा-स्थिति न्यूनता का कराती बोध॥

 

वैसे कुछ अनावश्यक ही, स्वयं सदा रखना व्यस्त

कुछ क्षण सुस्ताने के भी, व हल्के मूढ़ में मस्तिष्क।

वे देते अनुभूति हर क्षण की गरिमा, भंगिमा व वेग

निज को स्वयं-निकट लाने में, होते सहकर्मी परम॥

 

प्रथम हम भूल जाऐं स्व को, और सकल जग-कर्म

बस गहन डूब जाऐं शंकर भाँति, शांति में निमग्न।

जब कोई वजूद ही न, तो परिभाषा भी अनावश्यक

बस डूबें, हिचकोले खाते, कभी बाहर-कभी अंदर॥

 

खो गए उस गहराई में, परिभाषा विशाल जिसकी

कुछ भी बाह्य ज्ञात नहीं, कुछ नए में विस्मृत हैं ही।

एक स्वप्न से में, निज टटोलने की करते हैं कोशिश

जहाँ तो बहुत अस्पष्ट है, मन भी नहीं देता विवेक॥

 

जहाँ प्रति अंग- मनन-उपक्रम की गति है मद्धम

वहीं त्राटक अपने ध्यान-मनन हेतु, है प्रयासरत।

जिज्ञासु चक्षु मात्र कागज़-लेखनी पर ही है केंद्रित

कर्ण किंचित धोखा देते, बाह्य -शोर लेते ही सुन॥

 

यहाँ इस कलम पकड़ी उँगलियों का ही है सहाय

कुछ प्रयास करती, बेचैनी बावजूद बढ़ती है अग्र।

मन तो निष्प्रद-निष्क्रिय है, अनुत्तीर्ण व ज्ञान-शून्य

वह भी बस देखता रहता, कैसे-क्या-क्यों घटित॥

 

इन एकाकी पलों में, जिंदगी कोई न है सुविदित

जैसे सो रहा हूँ मृत्यु- शैया, कभी न होने जागृत।

एक स्थिति जो परे है, प्रपंच- व्यवधानों से समस्त

छूट गए जग-झमेलों से, हेतु मुक्ति-रसास्वादन॥

 

अकिंचन, सहज-विरल, सरल-बालपन से ये पल

योगी मस्त स्वयं में, आंतरिक साम्राज्य में निज।

बहुत दर्शित तो न, परन्तु मात्र अनुभव ही निकट

बाह्य स्थिति महज़ स्पर्धा कराती, अंतः-प्रमाद न॥

 

इसका कुछ स्वाद लें, मन-मस्तिष्क विराम प्राप्त

जानकर निष्फलता ही, उसमें कुछ रंग तो लें भर।

विभिन्न स्थितियाँ- अनुभव, यहाँ भी महसूस होता

माना कि कम ही गति है, त्यों भी जहान अपना॥

 

प्रगाढ़ चिंतन स्थिति न, क्योंकि मात्र है अस्पन्दन

अपनी निष्क्रियता-स्थिति का तो है अलग आलम।

न चाहिए चिंतन ही अनुपम, रहना चाहता में इसी

जब इतना सहज है, तो बाह्य- ज्ञान की भूख नहीं॥

 

श्वास सहज, लेटा उलटे तकिए, बालासन-मुद्रा कुछ

उदर को बाऐं से सहारा, उसके स्वास्थ्य हेतु उचित।

बैठा यहाँ निज संग आने को, नहीं गया प्रातः-भ्रमण

सोचा यह भी महत्त्वपूर्ण, कमी पूरी करेगा व्यायाम॥

 

कैसा यह परवान-नशा चढ़ा, कुछ अन्य चाहता नहीं

अपनी स्थिति में मस्त, एक छोटी सी दुनिया बना ली।

उस कबीर सी फकीरी-बादशाही, तुलसी सी कल्पना

कोई संस्कार भी न हैं, रहें पीछे, छोड़ दिया अकेला॥

 

आश्चर्य, इसमें कुछ भी न पीड़ा, न ही कोई संकुचन

न कोई बाहर की लाज़-तंज, न दृश्यों का प्रसाधन।

न यहाँ प्रलोभन ही कोई भी, न अन्यों का डाह-डर

सकल ही निर्भीक यहाँ, मीरा पहुँची अपने कृष्ण॥

 

कहाँ खो गया है सब बाह्य, जिससे था प्रगाढ़ जुड़ा

निज न कोई वज़ूद, सब फक्कड़ सा उसमें रमा।

न चाहत या बहाना है, न प्रमुदित-दुखीपन कारण

सब एक सम ही विचरें, न है निम्न-उच्च का भेद॥

 

मैं आया इस स्थिति में, या किसी ने भिजवाया फिर

देने रोमांच इन पलों का, जब मस्तिष्क निद्रा-मग्न।

फिर यह कैसे संभव, व क्या इसका अर्थ बना कोई

क्या यह विचित्रता-गमन दिशा, या यूँ भ्रम-स्थिति॥

 

फिर भी मुझे नहीं जाना, किन्हीं बाह्य आकर्षणों में

यह अति सहज लगता, क्योंकि बहुत ही मधुर है।

मेरा मन ही मेरा सुहृद है, यही तो फिर अग्र बढ़ाता

वरन तो कथित चेतन क्षणों में, मात्र प्रमाद ही भरा॥

 

हम बहुत करते छलावा, इस बाह्य जीवन-निर्वाह में

कितने कर्कश बन जाते, और बकते बिन ही समझे।

न सुनना-कहना आता, फिर भी देखो संवाद में रहते

और अपने में गर्वित होते कि वाक-युद्ध में जीत गए॥

 

अति-न्यून समझते विषय, तथापि निज ज्ञान हैं बघारते

अन्यों को किंचित श्रेष्ठ पा, स्वयं को धिक्कार सा पाते।

अति-अवमूल्यन जीवन का, इसकी खोज-खबर नहीं

फिर जैसा है आया बिताया, न बहुत ही भली स्थिति॥

 

क्या इस परम-शून्यता का अर्थ, क्या ध्यान-स्थिति यह

कैसे समझे हम अन्तर को, क्या इसमें आशा है कुछ?

माना सहज योग-समाधि सी में, तो भी परमानुभूति न

न जानता कुंडलिनी-शक्ति, मस्तिष्क बस अवचेतन॥

 

पर फिर भी डूबा रहना चाहता, माना कि यही जीवन

नहीं भ्रमित करती हैं जंजीरें, न उनका ध्यान ही कुछ।

मैं तो फिर स्वयं में खोया, और आनन्दों की चाह नहीं

अकूत-शक्ति समाहित स्व में, चिन्ता का विषय नहीं॥

 

प्रयोग रहित व परिणाम-आशा, परस्पर विरोधाभास

कुछ जीवन -यत्न सीखने को, मन में अति अभिलाष।

तथापि असंवाद, निमग्न स्थिति में रहने का ही विचार

इसी शून्यता में अधिकाधिक प्राण-खोज का प्रयास॥

 

किस से कहे स्थिति अपनी, उन हेतु शायद हो विचित्र

इसको रोगी कहे या योगी, कुछ भी तो है न चिन्हित।

बुद्धि के खेल निराले यहाँ, अपनी धुन में यह ले जाता

हम बस वस्तु हैं इस हेतु और विभिन्न रोमांच कराता॥

 

कहीं डूबें-गोता लगाऐं, कहीं तैर कर आने का प्रयास

कभी करें सार्थकता-प्रयत्न, कभी मूढ़ता में जन्म ह्रास।

कहीं है सफल संवाद, लज्जा स्व-दुर्बलताओं पर कहीं

कहाँ से चले थे कहाँ पहुँचे, केवल इसे है सुध इसकी॥

 

पानी केरा बुदबुदा, इस मानुष की जात;

देखत ही छुप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।`

कबीर सम मनीषी भी, इसे अति क्षणिक ही पाते

सहज-सजग मनोध्वनि, इस जग को हैं बतलाते॥

 

एक-२ पल ऐसे अनुभव में बीते, यही मेरी कामना

इनको व्यर्थ गँवाने से तो, और भी घोर है निराशा।

कुछ अमूल्य पल ऐसे भी, जिनमें जाऐं पूर्णतः डूब

तब मन भी साथ देगा, रूहानी हो जाने को कुछ॥

 

उससे तो फिर परिमाण, कहाँ पहुँचे, क्या अनुभव

कितना समझा जीवन-स्पंदन, किया सार्थक कुछ?

कितना अंश समृद्ध हुआ है, आत्म-समीप जाने से

कुछ ज्ञान कण जुटा पाऐं, इस अन्वेषण अंतः के?

 

करूँ हृदय से प्रयास, हो विश्वास व समस्तता-बोध

निकले अंतः से तब सुधा, जिससे हो जीवन पुनीत।

तज प्रपंच सभी, अपनी युक्ति-संगति अंदर लगाऊँ

और ज्ञान-पथ पर बढ़, इस जीवन को धन्य बनाऊँ॥



पवन कुमार,
01 नवम्बर, 2014 समय 21:20 सांय 
(मेरी डायरी दि० 24 मई 2014, समय 9:30 प्रातः से)

Sunday, 26 October 2014

सफल जागरण

सफल जागरण 


दिन निकला और सुबह हुई, मन मेरा उन्मत्त हुआ

कैसे बेहतर बने सब कुछ, विचारने का मन हुआ॥

 

मेरी खूबसूरतियों की स्मृति, इस पल में हुई है प्रखर

उजला-उजला विभोर, प्रफुल्लता चहुँ ओर स्फुटित।

शब्द-समृद्धि व अपरिमित-आकांक्षा, सब ओर बिछीं

मैं उठ बैठा फिर खड़ा हुआ, सब पर्यन्त मुखर हुई॥

 

मैं उन्मादित-हर्षित मन में, यह जीवन का उजला पक्ष

विचारक-चिंतक मौलिक, और सब है संवाद सबक।

मेरी लघु-परिमिता विस्तृत हुई, ज्ञान चक्षु हुए हैं प्रखर

बहु-समृद्ध, विशाल-असीमित, नभ-तारक गण मुखर॥

 

मेरी व्याधियाँ-अतृप्तियाँ, संकुचन सब भाग से हैं गए

मैं बना सम्पूर्ण और ये पल, परब्रह्म से सम्पर्क किए।

मेरी शैली-रचना, मेरा मतवाला बौद्धिक चिंतक मन

मेरी विद्या-पुस्तकें-ज्ञान, सब कुछ तो हुए प्रज्वलित॥

 

मैंने तजी कुचेष्टाऐं, व दया-शुचिता को आमुख हुआ

व्यर्थ-संवाद छोड़, सबल-समर्थ-सार्थक ओर हूँ बढ़ा।

मैं बना वास्तुकार स्वयं का, भले ही विचार बाह्य कुछ

किंतु इस समक्ष पल में तो, स्व में ही फलीभूत बस॥

 

शायद मनुष्यत्व पा हूँ गया, एवं आत्म को जान गया

अपनी व्यर्थताओं को भुला, सुपक्षों ओर इंगित हुआ।

मैं जागा, जगत जागा, और समाधान हो गए सारे प्रश्न

सौभाग्यशाली बना स्वयं को, बढ़ा दूँगा अपने प्रयत्न॥

 

मन में उठी हिल्लोरें मेरी, मन कुछ हुआ है वयस्क

वर्धन उस ओर जहाँ, सीमाऐं हुई हैं समाप्त सकल।

सब मेरे और मैं सबका, कोई भी नहीं है विरोध-द्वेष

बना हूँ स्वयं का संगी, और सब ओर खड़े हैं प्रेरक॥

 

माना मन में ही निज, मनोरमा विस्तृत आगे कितनी

करूँ रसास्वादन मैं उनका, सब कुछ लिए मेरे ही।

जागा इस भाँति से हूँ, सर्वस्व ही अपना हो सा गया

मैं उठ खड़ा तन्द्रा से, बहु-विचित्रता से रिश्ता बढ़ा॥

 

मेरे सब डर दूर भाग गए हैं, और मैं जितेन्द्रिय बना

महावीर मेरा तन-मन, व सबलता का है पक्ष बढ़ा।

मोह हटा मम दुर्बलताओं से, अधमता क्षीण हुई सब

और मैं बना परम का साधक, अरिहंत से बढ़ा प्रेम॥



पवन कुमार,
26 अक्टूबर, 2014 समय 15:26 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 11 अगस्त, 2014 समय 07:00 प्रातः से )

Thursday, 23 October 2014

उज्ज्वल-पक्ष

उज्ज्वल-पक्ष 


कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते, जब वे भी हैं हाड़-माँस के

कैसे स्थापित प्रयत्नों में, बहुत अधिक दूरी तय कर जाते॥

 

मनस्वी-मन तहों तक जा, क्षीण आचरण-ईंट ठीक करते

बनते सतत प्रहरी स्वयं के, निज बेहतर की आशा करते।

प्राण उच्च-शिखर ओर इंगित हो, नहीं कुछ छोड़े कसर

 जगाकर निज क्षीण पक्ष, सतत अभ्यास से करते सशक्त॥

 

नहीं है आसान इतना भी, जब दुर्बलता अविश्वास जगाए

कौन छेड़े अनछुए पहलू, और क्यों मीठी नींद को खोए।

मानव के अंदर छुपे हुए हैं शत्रु, और उसे वे घायल करते

सतत युद्ध यूँ चलता है, कभी यह जीता कभी वह हर्षाए॥

 

स्व-पक्ष मज़बूत करना, मन-मस्तिष्क को करना दुरस्त

निकाल बाहर सब नकारात्मकता, आचार करना सुदृढ़।

जीवन की एक सु-शैली बना, जो भरी हो आत्म-विश्वास

 फिर अपना ही तो न, बल्कि संगियों को भी लेना साथ॥

 

यह जग स्वार्थ-मस्त है, केवल वर्तमान की परवाह करता

कभी भूत से भी प्रभावित है, तथापि अब की चिंता करता।

बहुदा परेशान सा रहता, निज क्षीणताऐं महसूस है करता

मन तो बदला न है, अन्य-दुर्बलताऐं भी निजी मान लेता॥

 

क्यों यह भ्रामक स्थिति ही, और सु-गंतव्य पर न है नज़र

मन के मीत को जगा, उसको बना ही मृदुल एवं स्नेहिल।

कैसे आगे बढ़ने के हों मार्ग, जिनका हैं अनुसरण करना

समस्त ज्ञान निकटता पर भी, इस समय अबोध हूँ पाता॥

 

बड़ी दूर पर एक तारा, मारूँ छलाँग और उसे लाऊँ तोड़

पर चाहिए महद प्रयास अनवरत, साहस ही कुँजी वाँछित।

इन जग-प्राथमिकताओं में तो, भरी हुई हैं बहुत अवाँछित

तुम निज समझो, और अर्जुन की भाँति करो मीन-लक्षित॥

 

अनेक अविष्कार, वृहद गाथा, जगत समझा स्वस्थ मन से

नहीं रहे पर-छिद्रान्वेषी, पर स्वयं को बहुत ही सुधारते हैं।

कैसे बनें अतिरिक्त भी योग्य, इसमें सब आहूति हैं डालते

जितना बन पाए उतना देते, नहीं अटकते या भ्रांत रहते॥

 

पर क्या उनका द्वंद्व न स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते

और अपने से उठकर विश्व में, कुछ सार्थक रचना करते।

कैसे बनें आत्म-विजयी, और कौन प्रेरणा कराती अद्भुत

नहीं मम में ही खोए रहते हैं, अपितु ठोस कर जाते कुछ॥

 

मनन लाओ स्व से बाहर, बाह्य सौंदर्य भी कुछ अहसास हो

पर यह अनुपम जीवन-चिंतन, कैसे बाहर भी अनुभूत हो।

पकड़ लो कूची-कैनवास, ले रंग-रोगन उकेरें कुछ ललित

सौम्य रचना हो स्व के संग, अन्यों को भी कर दे रोमांचित॥

 

उपलब्ध जीवन के प्रत्येक पल से, यथासंभव बेहतर करना

वे चित्रण तो करते स्वयं का ही, बाहर तो केवल दिखावा।

कुछ हममें से देख लेते हैं, अन्यथा निज से किसे ही फुर्सत

जब उपभोग में ही व्यस्त तो, फिर सोचते उपयोगी हैं हम॥

 

किंतु मुझे यह कलम, कुछ अंदर से बाहर चाहिए मोड़ना

कब तक यूँ ही व्यथित रहोगे, जब बाहर भी आवश्यकता।

निकालो- उठाओ उपकरण प्रगति के ही, दो झोंक सर्वस्व

तब संभावना भी, कुछ सक्षमों की श्रेणी में आने की अन्य।

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
23 अक्टूबर, 2014 समय 17:02  
(मेरी डायरी दि० 4 अक्टूबर, 2014 ब्रह्म-महूर्त 4:48 से )

  

Saturday, 18 October 2014

यायावरी उत्कण्ठा

यायावरी उत्कण्ठा 


वह अद्भुत मन-नृप, खुली आँखों से विश्व-भ्रमण है करता

एक स्थल नयापन कम, पर घुमक्कड़ी ताज़ा रखती सदा॥

 

एक स्थान रहते-२ ही, हम वातावरण से सामंजस्य बनाते

प्रकृति से एक-रूप होते, अपने लिए कुछ स्थान बनाते।

सबसे जुड़ा तो तब भी न संभव, तथापि तो लगता निजत्व

अपनी छोटी सी दुनिया को ही, समस्त जग बैठते समझ॥

 

पर यायावरी घुमक्कड़ हेतु तो, सकल विश्व अपना क्षेत्र है

वे निकल पड़ते मन में साहस लिए, नवीन-संसर्ग करते।

उनका दृष्टिकोण सर्व-व्यापी, एवं मानवता-समर्पित होता

नए लोग-वातावरण से सम्पर्क, वृहदता को बढ़ावा देता॥

 

स्व तो अत्यल्प, ज्ञात होता जब गोता महासमुद्र में लगाते

आँखें विस्मृत हो जाती और नव-अनुभव रोमांच हैं बढ़ाते।

विचित्र नजारें मन आन्दोलित करते, व स्मृति प्रखर होती

सबसे जुड़ने की चाह, और अधिक स्फूर्तिवान है बनाती॥

 

दर्शन-सामर्थ्य सर्व ब्रह्मांड को, एवं प्रक्रिया समझना इसकी

सकलता में निज भागीदारी भी, पूर्ण विश्व-नागरिक बनाती।

कण-कण में विद्यमान अनंतता के, और उसे अनुभव करते

जीवन सभी का उनका ही है, इसी से सन्तुष्टि मिलती उन्हें॥

 

मेल-जोल अन्य सहचरों से, जीवन-यात्रा सुगम है बनाता

एक-दूसरे से सहयोग, प्रेम रिश्तों में और मधुरता लाता।

वे बनते एक-दूजे के पूरक, क्योंकि अति-कठिन है यात्रा

हिल-मिल जाते जल्द नव-प्रकृति में, सब एकसार लगता॥

 

जीवन भी अद्भुत यात्रा, अनेक रहस्यों से अवगत कराता

आकाश-पाताल-धरा सब ही तो, इस यात्रा का क्षेत्र होता।

ज्ञानेन्द्रियाँ सहायक इसमें, प्रबलेच्छा-निडरता अग्र बढ़ाती

विविधताऐं विस्तृत हर स्थल पर, प्रगति-सहायता करती॥

 

अल्प-जीवन पर जिजीवाषा अति-तीक्ष्ण, विश्राम न लेने देती

आंदोलित करा मन-प्राण, संपूर्णता निकट का प्रयत्न करती।

दिन-रैन नव विषयों का अध्ययन, नर-विस्तार से है अनुभूति

निज क्षेत्र कैसे बढ़े बौद्धिकता में, यही समस्त मंत्रणा होती॥

 

सभ्यता एक तुलनात्मक स्थिति, और निस्सन्देह मात्राऐं भिन्न

पर मानव मन तो अमूमन, सर्वत्र एक सा ही हुआ विकसित।

कुछ रखते खुले नेत्र-बुद्धि, करने को प्रकृति के मनन-बखान

माना सब सच न भी होता, तो भी अपने से करते हैं प्रयास॥

 

बहुत गहरा रिश्ता है सबका, आओ कुछ और सुहृद बनाऐं

नव लोग, साहित्य-क्षेत्र, कला-संस्कृति से हम संपर्क बनाऐं।

आओ बाँटें आपसी अनुभव, एवं परस्पर का जीवन महकाऐं

निज से समर्थतरों का सम्मान, दुर्बल-मदद को अग्र आऐं॥

 

बनो विशाल मन-स्वामी, रखो सब कृपणता-अधमता दूर

होवों निर्मल मनों के संगी, और कुछ दुष्टता तो करो न्यून।

बहुत जवाबदेही जगत में, आए हो हेतु किसी उद्देश्य-परम

निकल पड़ो मंज़िल की खोज़ में, ढूँढ़ने परिष्कार-उपकरण॥

 

राहुल सांकृत्यायन का 'घुमक्कड़-शास्त्र', आजकल पढ़ रहा

मानवता-प्रेमी यह महानर, सदा अग्रसरण प्रोत्साहन करता।

मैं भी खोजी बनूँ कुछ योग्य, अन्य नहीं तो अपनी ही नज़र में

तोड़ दूँ वे समस्त जटिलता-बंधन, जो कहीं भी जकड़े रखे हैं।

 

पवन कुमार, 
18 अक्टूबर, 2014 समय 22:23 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी दि० 8 अक्टूबर, 2014 समय 9:35 प्रातः से ) 

Sunday, 14 September 2014

मन विचक्षण

मन विचक्षण 


मनन निराला, कर्म अनोखे, सचमुच सब ढ़ंग हैं विचित्र

विरला उनका समस्त ही आचरण, दृष्टि चहुँ ओर इंगित॥

 

वे खोजते हैं अपने आत्म को, तजकर बाह्य अवरोध सब

कलम को बना अभिन्न-मित्र, चल पड़ते कुछ अन्वेषण।

सोचते कि कुछ अलग करूँ, जो अब तक न आया मन

इच्छा से वृहद-पहचान कर, नूतनता में बढ़ाते हैं कदम॥

 

यहाँ प्रतिक्षण नवनीत ही है, आवश्यकता बस पहचान की

यूँ तो हमें एक जैसा ही लगता हैं, यथार्थ में पर सही नहीं।

हर श्वास यहाँ नया है, पुराने का निरन्तरता में सु-आगमन

सर्व-अवययों में प्राण-दान, कुछ तोड़कर ही नव-निर्माण॥

 

फिर क्यों न मचलूँ, निज लघु-मन की चिंतन-विस्तृतता में

आकाश में घटनाओं का चक्र अति-विशाल, बुद्धि-पार है।

जिन तारों को आज देखते हैं, वे अति-पूर्व का है प्रतिबिम्ब

प्रकाश गति माना सर्वाधिक, पर दूरी भी तो अति-विपुल॥

 

जिन विषयों को हम आज सोचते, उनका बीज़ है पुरातन

धीरे-२ घटित होता जाता, समय आने पर होता मुखरित।

अभ्यास हम मन में करते, और अति कुछ रखते छुपाकर

सोचते बहुत कुछ हैं, कम बोलते व कर्म में अति-निम्नतर॥

 

हम अपने में एक संसार लिए, शायद बाह्य से अधिक ही

माना कि न प्रकटीकरण है, कारण शायद कि आता नहीं।

जगत-विचित्रता को हम ही बढ़ाते, स्वयं के साथ ही रहते

जितना खोजा उससे अधिक पाया, मात्र गोता लगाने से॥

 

उस वृहदता के अंश हम भी हैं, पर कितना महसूस करते

कैसे प्रवेश करें और सीखे मार्ग, इस पर विचार तो करते।

मैं पाता सब डूबे हुए, बाह्य-आँखें खुलीं पर अंतः झाँकती

वे खोजती निज-बारीकियों को, व समस्त से बात करती॥

 

मन की आँखें खुली बहुत हैं, तथापि दृश्य तो अति-महान

जितना देखो उतना कम है, और चर्चा तो कठिन-नितांत।

हम फिर मन को दौड़ाते रहते, सीखने को नित नई विधा

निरत करते स्वयं-सुधार, वचन को कुछ आत्म-कविता॥

 

बनूँ निपुण और स्वयं का साथी, ऐसी मन में प्रबल आशा

विचरूँ बहुत व देखूँ-समझूँ, इस सबकी है यही कामना।

निज-संसार को संपूर्णता से जानूँ, अनेक विद्या हैं अनुपम

मूढ़-सम ना जीवन बीते ही, कुछ खोजो सीखने का मन्त्र॥

 

माना कि तुम बहुत विशाल हो, पर सब ही अन्धकार में हैं

प्रकाश आया तो भी कुछ दृश्य, जो अतीव विस्मयकर हैं।

कुछ तो समझ न आता, बस यह कलम चला ही लिखती

स्व-नादानियों से जूझती, अति-कठिन से सामना करती॥

 

जितना चला उतना कष्टकर ही पाया, कुछ मार्ग न हैं सूझे

लगा कि सर्वस्व ही अज्ञान, और प्रक्रिया का तो पता न है।

बुद्धि भी विशेष ज्ञान-पुस्तकें छोड़कर, स्वयं से ही लड़ती

फिर लघु-२ ज्ञान से ही, अति-दूरी पूर्णता से पटा करती॥

 

क्यों चला मन-राह, इस प्रश्न का उत्तर समझ आता नहीं

यह कलम चल रही, क्या कह रही, सब बातें रहस्य की।

मेरे मन की क्या है औषधि, कुछ ज्ञान यदि यह पा तो लें

नित्य नवीन मृदुल-सुर निकले, तभी तो कुछ नूतनता है॥

 

मैं कहाँ से चला था व पहुँचा कहाँ, क्या हूँ उचित मार्ग पर

बात प्रारंभ थी चहुँ ओर की, पर खुद में ही हो गया लुप्त।

मैं इससे निकलना तो चाहता ही, ज्ञान मार्ग में बढ़ना पर

वही राह दिखाता है, वर्धन-शक्ति अतिरिक्त अंतः-गमन॥

 

यह विश्वास करूँ यदि मन-उदय है, तो विकास भी संभव

प्रयास उस हेतु जितना चाहिए, उतना कर्म तो है वाँछन।

नहीं रुकना मनन-ज्ञान पथ पर, चाहे बाधा हो अति-महद

उलझन से जूझना है मानव-फ़ितरत, नव-प्रयोग वाँछित॥



पवन कुमार,
१४ सितम्बर, २०१४ समय १७:१३ 
( मेरी डायरी दि० १० मई, २०१४ सुबह ०९:५२ से )

Tuesday, 2 September 2014

पुनुर्द्भव

 पुनुर्द्भव 
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कल मैं मर गया था और उस मरने में जीने की कोशिश की थी।  क्या जीवन का महत्त्व है यह तो मरने के बाद ही पता चलता है। इस मरने में अपनी हस्ती भुला देना होता है, वह बन जाना है जिसका कोई वजूद नहीं होता। जब शून्य हो जाओगे तो अशून्य का भेद पता लगेगा। मिटने का मतलब अपने को संज्ञा शून्य कर लेना, अपने को अपने से हटा देना और जो कुछ नहीं है उसमें समा लेना। जो है उसकी खोज में अपने को मिटा देना और शायद उसी का भाग बना लेना। उसका बन जाने के बाद और कुछ जाने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वही तुम्हारा परम उद्देश्य है और वही धाम है, उसी में जाना सबकी नियति है। तुम जल्दी चले गए अपने को धन्य समझो क्योंकि जल्दी समझ आ जाएगी। आवश्यकता तो वो भी नहीं है लेकिन अनुभवहीनों से तो फिर भी बेहतर है। अनुभव मिट जाने का तुम्हें सिखाए जीवन का मोल, अपने जीवन का मोल ताकि जब वह तुम्हे मिले तो तुम उसका आदर कर सको और उसको पूरा जी सको। कृपा उस धाम की जो इसको फिर बार+म्बार सिखाएगा और कुछ योग्य बनाएगा। उसमें क्या समाना था और क्या तुम्हारा मिट गया था। क्योंकि तुम सब कुछ बाह्य भूल गए थे और केवल स्व निज में मनन था तो वह स्थिति तुम्हारी मिटने वाली ही थी। उसी अन्तरतम में डुबकी लगाने का परम उद्देश्य स्व का अन्वेषण करना है और अपने नज़दीक जाने का रास्ता है। फिर डुबकी लगाना क्या है और फिर उसमे प्राण गवाँ देना। क्या मैं बाहर खड़ा अपने निर्जीव को देख सकता हूँ और उसने क्या- 2 किया, उसका विश्लेषण कर सकता हूँ। मैं किन तत्वों का बना हूँ, चेतना का क्या आधार है। मेरी क्या मनोदशा है और मैं कैसे उसे सर्वोत्तम में परिवर्तित कर सकता हूँ। मेरी क्या गति है और कैसे मुझमें जीवित होने की भ्रान्ति होती है। कहाँ हूँ मैं, कैसा हूँ मैं, क्यों हूँ मैं, कब हूँ मैं, कुछ समझ भी पाता हूँ या फिर दिखावा करता हूँ। कुछ भी तो स्पंदन नहीं है, फिर जीवन शेष है ही कहाँ\ मैं अपने जीवित या मृत होने स्वाँग करता रहता हूँ लेकिन अपने को न जीवित और न मरने में पाया है। फिर भी कोई तो मेरी गति को जानता होगा।-शायद मैं इतना अनाड़ी हूँ कि उस ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं कर पाता। फिर भी संसार में धकेल दिया गया हूँ और जीवित होने का छलावा करता हूँ जबकि पता है कि कोई जीवन है ही नहीं। यह सब तो बाह्य है, अंदर सब शून्य है। शून्य में शून्य का वास है।       

मैं मस्तिष्क की पूरी शक्ति लगाकर यह पता करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैं क्या हूँ और कैसे अपने को अपने में महसूस कर सकता हूँ। शरीर में चेतना तो बाह्य ज्ञानेन्द्रियों का क्षेत्र हैं। अंदर का तो कोई क्षेत्र इंगित ही नहीं है। वे कहते है बहुत विशाल है और बाह्य से बहुत अधिक है पर मेरी स्थिति में मरने के बाद भी मैं जान पाया हूँ। हाँ, जब जीवित था तो बिलकुल ही पता नहीं था। अब मरा हूँ तो शायद ये प्रश्न करने लगा हूँ कि वह क्या हूँ और पता लगने लगा है कि मैं वह नहीं हूँ जो लगता है। मैं सूक्ष्म हूँ और करीब-2 शून्य हूँ और मेरे संसर्ग में भी कोई शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मैं हिलता- डुलता नहीं हूँ और बस पड़े -2 केंचुए सम मिट्टी में रोला करता हूँ। जैसी स्थिति आ जाए बाह्य अवस्था में उसी में समा जाता हूँ और कुछ देर के लिए उसमें व्यस्त हो जाता हूँ लेकिन अन्दर से जानता हूँ कि मेरी स्थिति शून्य की है और मैं उससे अलग नहीं हूँ। मैं और शून्य कोई अलग नहीं हैं और परिणति उस शून्य में ही होनी है। क्या मेरी शून्य की स्थिति मेरी सुप्तावस्था जैसी नहीं है। नहीं, क्योंकि स्वप्न तुम सुप्तावस्था में देखा करते हो और शून्य से बहुत दूर होते हो। स्वप्न तो तुम्हारे जीवन का ही प्रतिबिम्ब होता है और शून्य से अलग होता है। पर यहाँ प्रश्न सुप्तावस्था या स्वप्न और उससे भी महत्त्वपूर्ण शून्य का भी नहीं है बल्कि एक प्रश्न का उत्तर देना है कि जो चेतना अवचेतन शरीर, मन मुझमें भरा भरा गया है वह क्या है और उसका कैसा स्वरूप है। कैसे उसकी थाह खोज की जानी है, कैसे उसे अपने बहुत 2 नज़दीक पाना है और उससे भी अधिक अपना बना लेना है। उस प्रयास की खोज करनी है उन रास्तों को ढूँढना है जो मुझे वहाँ ले जाऐंगे। मेरी यह कोशिश केवल एक माध्यम है बल्कि असली उद्देश्य अपने वज़ूद को अहसास करना है। उस स्थिति में आत्मसात होना है जो मुझे अपना होने का अहसास करा दे। उस मृतावस्था से भी परम स्थिति में जाना है जहाँ फिर जीवन, मरण और अन्य बीच की स्थिति की आवश्यकता न हो। बस मैं होऊँ पर मेरा वह परम वज़ूद होवें जिसमें परम तत्व से साक्षात्कार हो जाए। बस बैठा हूँ जाना कहाँ है पता ही नहीं है। फिर भी चल तो पड़ा ही हूँ कहीं न कहीं तो पहुँचूँगा। विश्वास है कुछ जरूर होगा अच्छा ही होगा। 

धन्यवाद।
पवन कुमार, 
2 सितम्बर 2014 समय 23%18 रात्रि  
(मेरी डायरी 4 जनवरी 2009 समय रात्रि 9 बजे से )