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Sunday, 7 December 2014

निवृत्ति

निवृत्ति 


कुछ बड़ा करना चाहता, पर नहीं होती हिम्मत

अधूरा काम पड़ा बहु दिनों से, फिर भी शिथिल॥

 

मन है कुछ व्यथित-आंदोलित, यही गत दिनों से

किसी भी विषय में यह लगता नहीं, चाहकर भी।

'निकमार अध्ययन-लोंग पेपर', समक्ष अधूरा पड़ा

किंतु चाहते हुए भी, न जाने क्यूँ निष्क्रय हूँ रहता॥

 

क्यों न है आरंभ-पूर्ण करने की अति प्रबल इच्छा

कब तक अमूल्य जीवन-क्षण, सुस्त रहूँ बिताता?

जीवन तब चलता रहेगा, बिना निज संग लिए भी

सत्य परिणाम तो ज्ञात बाद में, पड़ेगा पछताना॥

 

कल तिब्बती Tuesday Lobsang Rampa की

पुस्तक 'The Third Eye' पढ़कर समाप्त की,

हर शब्द-पंक्ति से, क्रियान्वयता-शिक्षा मिलती।

कभी-२ आजकल, पातञ्जल-योगदर्शन हूँ पढ़ता

फिर भी बहुत क्रिया-सुधार दृष्टिगोचर न होता॥

 

मैं क्या विशेष चीज़ हूँ, ज्यादा न समझ पाया

शायद मन, अन्य कर्म-समन्वय न कर पाया।

कैसा जीवन हूँ, जो निरुद्देश्य ही जिए जा रहा

प्राथमिकता अजान, न काम किया जा है रहा॥

 

हर ऊँचाई पहुँचाने हेतु, तैयारी करनी पड़ती

वरन नीचे पड़े रहोगे, ठोकरें खाने ज़माने की।

इतना आसान भी तो न, जग-सफर का रास्ता

सुस्ती वाले तो, अति मद्धम ही करते हैं जिया॥

 

क्यों न कर्म-गुणवत्ता, उत्तरोत्तर सुधर ही रही

कब निज में गर्वित हूँगा, तेरे स्तर में है वृद्धि ?

तेरी करबद्धता-निष्ठा, अन्य योग्य पहचान लेंगे

कब विश्व हेतु, भरोसे-काम के एक जन होगे?

 

मैंने शुरू किया था, प्राण-सफ़र यह अकेला

चाहत संग कि कोई पथ-साथी मिल जाएगा।

बाहर निकल देखा तो, मिलें सब मेरी तरह ही

हरेक दूजे से, होड़ सी में आगे निकलने की॥

 

कुछ तो निश्चित ही हैं, साफ़ नीयत के मानव

कुछ पूर्वेव तय करना चाहते हैं, अपना भाव।

चाहे समक्ष विषय ही उनसे न हो संबंधित भी

फिर भी वे अपना महत्त्व-ज्ञान, जता ही देंगे॥

 

फिर मैं तो एक मूक-बधिर सा, देखता जाता

अपने पर होने वाली खोजों को, दूसरों द्वारा।

बन गया परीक्षण-वस्तु guinea pig इनका

फिर निज इच्छा, विचार, शक्ति कुछ भी न॥

 

मैं किस कदर चीखा था, सुनी ही किसने पर

मुझे तो बाहर से ही, चुप करा दिया गया कुछ।

कोई विचार न है, बस अंदर से घुट सा हूँ रहा

जैसे अपनी ही नियति पर, आँसू से रहा बहा॥

 

यह जीवन-क्षेत्र एक बड़ा विशाल है, सुना था

पर आकर देखा तो, अति-संकुचित ही मिला।

यहाँ हर एक पुरुष का एक संसार है लघु सा

उसी में ही बस, जैसे-तैसे मैं जिए-बिता रहा॥

 

निज पाशित सा, चक्र-व्यूह में है असमंजसता

और घिरा पाता हूँ, काली -घनी घटाओं द्वारा।

कब मुक्ति होगी भीत स्थिति से, न पता कुछ

क्योंकि सर्वस्व-नियंत्रक तो, कोई है ही और॥

 

छोटा मन व चिल्लाना, औरों को नहीं है सुने

वे तो शायद इसे, मजाक-विषय समझने लगे।

जानते कि यह जैसे, कार्य करने की मशीन हो

मशीन-चालक, जैसा चाहता, वैसे चलाता है॥

 

पर समझ नहीं उनको, यह भलमानसत ही है

निष्ठा किसी की पर, कटाक्ष करना न चाहिए।

यदि आदर न कर सकते, तो भी क्यों अनादर

फिर बिन किसी रिश्ते के भी, उत्तम लगेगा॥

 

बहुत बार यहाँ खुद को, घोर पाता हूँ एकाकी

क्योंकि कही बातें सबको अच्छी नहीं लगती।

फिर किस को कहूँ मैं, दिल की कहानी इस

लगता है, लोग तो मज़े लेने के लिए तिष्ठ हैं॥

 

कहानियाँ सुनी थी, आज स्वयं एक बन गया

पर मूर्ख इतना कि, लिख भी नहीं पा हूँ रहा।

अन्य-टिप्पणियों से शायद, निज जाँचने लगा

कभी संजीदगी से तो, स्व-विवेचन न किया॥

 

ज़िगर भी था सीने में, अब गया वो कहाँ पर

धड़कनें तो, कभी-२ ही सुनाई हैं देती अब।

पर इसका मतलब तो कुछ और ही होता है

पर यह उस तरह से बोलता भी क्यों नहीं है?

 

इसको निज बात कहने का पूरा अधिकार है

पर इतना शीघ्र मायूस-बुजदिल क्यों हो गया?

खुद से गुत्थम-गुत्था तो हो, निकालो निष्कर्ष

जीवन यूँ सदा शिकायत करने का नहीं नाम॥

 

निश्चलता छोड़ कमान संभालो, चल पड़ो रण

और अर्जुन भाँति डटे रहो, लक्ष्य के लिए निज।

मत सोचो फिर कभी निराशा-दौर नहीं आएगा

फिर तुम्हें अपने अंदर से कृष्ण जन्मना होगा॥

 

युद्ध होगा तो विनाश भी, अच्छा-बुरा दोनों आऐं

पर जीवन तो नाम, पाने-खोने व होने को खड़े।

किसको कितना समय, कि औरों के लिए सोचें

यहाँ तुम स्वयं अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही हो॥

 

लड़ाई न है किसी और से, द्वन्द्व तो निज ही संग

हार में भी निज जीत है, जीते तो जीत ही जीत।

महत्तम प्रतिद्वंदिता स्वयं ही, आपत्ति भी खुद से

सब शत्रु अंतः-छुपे, लोग प्रायः अन्यत्र खोजते॥

 

कब तक समझाऊँ तुम्हें, विश्राम भी दो कार्य को

पैरों पर सीधे खड़े हो, सबल चलना शुरू होवो।

परमुखापेक्षी न, छोटी चींटी भी निज सहारे जीती

 फिर पूरे हट्टे-कट्टे, दुर्बलता से सबलता पहचानो॥

 

मानूँ उत्तम नर शांत बैठ, कार्य-समर्पित होगे जब

मानो श्रेष्ठ होगा, तुमने किसी का किया अपहित न।

आत्म-विश्वास तो जग करे, विश्वासघात निज-वंचन

 बड़ा निर्देशक बैठा, सर्व-गतिविधियाँ रहा अंकण॥

 

प्रयास न छोड़ों, बात ढ़ंग-समझ व कहो दृढ़ता से

समझ लो पाप न, और भी तो दायित्व -निर्वाह है।

आधुनिक सबल, सकल बल- पुञ्ज तू, अपाहिज न

डरना तो ईश्वर से या बुराई-कुटिल चालों से निज॥

 

अन्य भी स्वयं-पीड़ित तुम सम, कुछ नहीं बिगाड़ेंगें

समझेंगे तव दृष्टिकोण, सहारे को हाथ वे बढ़ाऐंगें॥

धन्यवाद, अच्छे विचार रख खुद पर करो विश्वास।

आशावादी बनो, तुम्हारा होगा अवश्यमेव कल्याण॥


पवन कुमार,
07 दिसम्बर, 2014 समय 20:48 रात्रि
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 19 अगस्त, 2001 समय 01:55 अपराह्न से )

Monday, 24 November 2014

आत्म -मन्थन

आत्म -मन्थन 
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कितनी अच्छी बात होती अगर तुम भी अच्छे होते और मुझे साथ लेकर सारे ब्रह्माण्ड की सैर कराते।  मुझे दिखाते कि देख ले तू भी, इतना विस्तार है इस सारी सृष्टि का, कल्पनातीत। अगर देखते-2 जीवन भी बीत जाए तो कोई हानि न होगी। मैं तो वैसे भी बिलकुल आम ज्ञान वालों की श्रेणी में हूँ, कोई खिवैया ऐसा मिले  जो कि मेरी भी नाव उस पार लगा दे तो बहुत अहसान हो जाएगा। कोई गुरु ऐसा मिल जाए की रास्ता बतला दे और हिम्मत भर दे तो जीवन की कुँजी समझ में आ जाए। बिलकुल बोझिल, थका देने वालों थोथे और बेकार विचारों से बाहर ले जाकर, जहाँ जीवन्तता का साम्राज्य है उसकी ओर प्रस्थान करवा दे, तो जीवन का मज़ा ही आ जाए।  पर उस सिरजनहार को कोई मुझसे मिलवा तो दे। मैं आनंद बन जाऊँ और बुध जैसा गुरु मिल जाए। मैं मीरा बन जाऊँ और कोई रैदास उस गोपाल से मेरा सम्पर्क करा दे। मैं कबीर बन जाऊँ और  प्रभु को सब ओर देखने की प्रवृत्ति ही बना डालूं। मैं नानक बन जाऊँ ओरे हर प्राणी में हरि-दर्शन करने लगूँ।  मैं शंकर बन जाऊँ और अद्वैत का भाव मेरे में घर कर जाए। मैं न्यूटन बन जाऊँ और संसार के समस्त नियमों की गुत्थी एक-2 करके सुलझती चली जाए।  मैं एडीसन बन जाऊँ, जो इतना धैर्य रखता हो कि कम से कम इन हज़ार प्रयोगों द्वारा तो प्रकाश का बल्ब नहीं बन सकता। ऐसा कैसे होगा कि तुम मुझे इस महात्माओं के चरण-धूलि से मिलवा दो और मेरा कल्याण हो जाए।

जीवन की गुत्थी, जो बुरी तरह से उलझी पड़ी है, समझने की इच्छा मेरे अंदर घनी हो जाए और सफलता सामना हो। क्या मैं अपने जीवन को एक आदर्श मानकर इसे जीने की कोशिश नहीं कर सकता। तू मेरे साथी, तू मेर्री बात तो सुन, तू मुझसे बात क्यों नहीं करता ? मेरे  अंदर ऐसी कौन सी कमी है जिसे मुझसे साँझा नहीं कर सकता। मेरी दुर्बलताओं से तुझे इतनी सहानुभूति क्यों है, क्यों नहीं तू मुझे उनसे आत्मसात करा देता ? क्यों नहीं तू मुझे मेरे ही सामने नंगा कर देता और मेरा दर्पण मुझे दिखा देता और भले ही अहसास करा देता कि मैं कितना वीभत्स हूँ। तुम तो अपने को मेरा दोस्त कहते हो न। फिर कैसे दोस्त हो तुम, क्या अपने इस मित्र पर तुम्हें बिलकुल दया नहीं आती ? इसकी यह हालत देखकर क्या तुम्हारा कलेजा फट नहीं जाता ? तुम तो मुझको मेरे से ज्यादा जानते हो, मेरे निष्क्रिय दिमाग की एक-2 तह का तुम्हें भली-भाँति पता है। मेरे अंदर जिस जीवनी शक्ति का अभाव है तुम उससे भली-भाँति परिचित हो तो मुझे मेरा दर्शन करा दो, ऐ मेरे मित्र। अगर तुम्हे लगता है कि मैं सचमुच बीमार हूँ तो मेरा इलाज़ करा दे।

मुझे शायद इस संसार में ज्यादा अच्छी तरह जीना नहीं आता क्योंकि मैं अभी तक बहुत अधिक संसारी नहीं बन पाया हूँ। पर यह सब मेरे लिए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कीं मैं स्वयं। मुझे तो तुमसे हँसने, मुस्कुराने की कला सीखनी है, मुझे तो तुमसे रोना भी सीखना है। मुझे तो तुमसे संवेदनाओं को कैसे अनुभूत किया जाता है, यह भी सीखना है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि संसार में कितने रस हैं और उनका कैसा स्वाद है ? मैं हर प्राणी में गुरु ढूंढने की प्रवृत्ति कैसे डालूँ , यह मुझे बता। मैं अपने ही अनुभवों को क्या अपना गुरु बना सकता हूँ,  इसका मुझे ध्यान दे। इस संसार में मेरी कोई जगह होगी, वह क्या है, इसमें मेरी क्या भूमिका है, मुझे बतला दे। मुझको तो आज मेरे से मिलवा दे, तेरा बड़ा भारी अहसान होगा मुझ पर। मैं आज अपना सामना करने के मूढ़ में हूँ चाहे इसमें मेरी हार ही क्यों न हो। मुझे तो यह समझना ही है कि जीवन ऐसे व्यापन होने वाला ही नहीं है जब तक की उसमें जीवंतता का स्पंदन नहीं होगा। फिर अगर चाहे जितनी विताड़नाओं, मुसीबतों का सामना करना पड़े, मुझे इसकी चिंता नहीं है। पर मुझे अपना वज़ूद समझाना ही है और अब की बार मैं हार नहीं मानने वाला हूँ। 

मेरे भाई, तुम यह समझ लो कि तुम इस दुनिया में अकेले नहीं हो। तुम्हारे जैसे करीब छः सौ करोड़ तो मनुज ही हैं इस जग में और तमाम थल, नभ और जल  प्राणी अलग से हैं। इनको जीव कहा जाता है क्योंकि इनमें जीवन है, ये लोग चल-फिर सकते हैं, अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते हैं और जीवन को जीते हैं। ये अपनी खाने-पाने  व्यवस्था अपने आसपास के वातावरण से कर लेते हैं और विभिन्न परिस्थितियों में अपने को संतुलित करने की कोशिश करते हैं। तुमने देखा होगा कि इनमे कुछ प्राणी ऐसे हैं जिनकी क्रियाओं में ज्यादातर समानता रहती है। हालाँकि कुछ पुस्तकों या फिर 'डिस्कवरी चैनल' की कुछ फिल्मों में तुमने उनके जीवन को जीते हुए देखा होगा, फिर भी तुम उसे पूरा नहीं तो नहीं समझ सकते। इन सबसे अलग मानव हैं जिसने अपने जीवन में कहीं तरक्की कर ली, जीवन में सफलताओं की गगन-चुम्बी शिखरों को आलिंगन किया है। पर इस सारे प्रोसेस में उसका जीवन बहुत जटिल बन गया है, वह अपने ही बने हुए किले में बंद है। वह अपने चारों ओर सुरक्षा का कवच खड़ा करता है और उसी में फँस कर जाता है।

अतः यह मानव के साथ शायद त्रासदी ही है कि वह कुछ सोचता ज्यादा है, इसी प्रक्रिया में चारों ओर तमाम बड़े-2 दैत्य और उपकरण आ खड़े हुए हैं। इसी प्रक्रिया में उसने अनेक नियमों, कायदों, सभ्यताओं और धर्म इत्यादि को चारों ओर खड़ा कर लिया है। अपने क्षेत्र की रक्षा की प्रवृत्ति सब प्राणियों में देखी जाती है, इसी लिए उसने बड़े-2 आयुध बना लिए हैं, सेनाऐं खड़ी की है। लोगों को बहला-फुसला, डरा-धमका, लालच इत्यादि देकर आतंकवाद जैसे भयंकर अजगर को मानव के सामने खड़ा कर दिया है। हम दूसरों से अच्छे हैं और अन्य निकृष्ट हैं अथवा और हमारे से श्रेष्ठ क्यों हैं? इस तरह के प्रश्न अपने आपसे करने बजाय, इसको केवल तुलनात्मक दृष्टि से लेते। जब कि यह घृणा, द्वेष तथा बदले की भावना में लिया जा रहा है, मेरे साथ भी तो होगा यह हम भूल गए है। हाँ जब भी मेरे साथ कोई अन्याय होता है तो मैं विचल उठता हूँ और फिर समस्त संसार को अपना शत्रु समझने लगता हूँ। फिर जब मैं ऐसा स्वयं ऐसा करता हूँ तो कोई बात नहीं। फिर सब मनुज तो एक जैसे नहीं हैं, सबमें किसी बात पर प्रतिक्रिया आवश्यक नहीं है कि एक जैसी ही हो। कुछ जबकि ऐसे विषयों को केवल मज़ा लेने के लिए करते हैं, अन्य उसे बड़े ही सहज भाव से लेते है तथा अन्य हो सकता है कि इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनशील हों और एक समझदारी पूर्वक व्यव्हार करते हैं।

अतः हम सब सब एक होकर भी एक नहीं है। हाँ, हमारा सबसे ऊपर और नीचे का व्यव्हार एक जैसा है जबकि बीच की स्थितियाँ बदली हैं पर फिर भी इतना निराशा का भाव नहीं होना चाहिए। हर एक रात के बाद सवेरा हो ही जाता है। वे मनुज हैं, जिन्हें अपने कर्त्तव्यों का अहसास तो है। वे मनुज भी अच्छे हैं जो अन्यों को देखकर भी अपनी जिम्मेवारियों के प्रति संवेदनशील हैं। अतः महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी कोशिशों में रहें, दूसरे की भावनाओं की कुछ कद्र करें, केवल अपनी ही बात नहीं बल्कि उनकी भी परिस्थितियों को ध्यान में रखें। अपनी प्रतिक्रिया करे लेकिन उससे कभी किसी के प्रति अनादर का भाव न हो। सबको अपना जीवन अपने ढंग से जीने का अधिकार है और वे कैसा सोचते हैं, तुम्हें ज्यादा सरोकार नहीं होना चाहिए जब तक कि वह तुम्हारे लिए कोई बहुत कठिनाई पैदा न करे। 

तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण मुख्यतया तुम स्वयं होने चाहिए। तुम्हे अपने जीवन की चिंता अधिक होनी चाहिए।  तुमने स्वयं को सुधार लिया तो मान लो कि तुम इस संसार का बहुत भला कर सकते हो। क्योंकि यदि तुम बिगड़े हुए हो तो ज्यादा नुकसान कर कर सकते हो। फिर तुम दूसरों के लिए भी उदहारण बन सकते हो और अपने जीवन को सफल बन सकते हो। पर प्रश्न है कि सुधारना क्या है - पातंजल योगदर्शन में आता है कि यम, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान, ये क्रिया-योग हैं। अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता। तपस्या का अर्थ है-विषय-सुख का त्याग अर्थात कष्ट सहन के साथ जिन कर्मों से आपात सुख होता है उन कर्मों के निरोध की चेष्टा तप है। तपस्या है प्राणायाम, ईश्वर को कर्म फल का अर्पण आदि। पर्णवादि पवित्र मन्त्रों का जप अथवा मोक्ष-शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय है। ईश्वर प्रणिधान है- परम गुरु ईश्वर को समस्त कर्मों का तर्पण अथवा कर्मफलांकांशा का त्याग।  

असली बात है कि तुम स्वयं अपना अध्ययन करो, इसके लिए जो भी मानव को समझने के लिए जो भी सामग्री उपलब्ध होती है, उसे प्राप्त करो। महापुरुषों के कथन को ध्यान देकर देखो, जानने की कोशिश करो कि उनका क्या अर्थ है और उनका क्या प्रयोजन है और फिर यदि वह तुम्हारे को जँचता है तो अपने जीवन में प्रयोग करो। पर याद रखो कि जीवन इतना भी बड़ा नहीं है कि तुम मूर्खों की भांति समय गँवाते रहो। जीवन में बड़ा करने के लिए बड़ा बनना पड़ेगा। जीवन की पूरी तरह से जीने की कोशिश करो। अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास करो। अपनी वाणी को मधुर बनाओ और न किसी को कभी भी हानि पहुँचाने की कोशिश करो। अपने जीवन की कुछ योजना करो- कल का तुम्हारा जीवन कैसा होगा और तुम कैसा चाहते हो। क्या तुम आज से उसमें सुधार चाहते हो तो उपाय कौन से सुझाते हो। संतुलित होकर तुम यदि ऐसा व्यवहार करोगे तो कोई वजह नहीं कि कहीं हार का सामना करना पड़े। आंशिक सफलता या विफलता पर बस बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अपने प्रति ईमानदारी बरतो फिर परवाह नहीं करो कि कोई कैसा सोचता है। क्योंकि समझ लो कि यह तुम ही हो जो स्वयं पर कुछ अंकुश लगा सकते हो। हाँ प्रकृति का नियम है - ठीक की ठीक ही परिणीति होती है हालाँकि थोड़ा सावधान होने की आवश्यकता है। किसी से दुर्व्यवहार मत करो लेकिन जब दूसरे सीमा से आगे बढे तो सख्ती से उसे बोल देना चाहिए।  डरना किससे है- वह परमात्मा सबका ध्यान रखना वाला है। 

पवन कुमार,
24 नवम्बर, 2014 समय म ० रा ०  00:39
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 08 अगस्त, 2001 समय 17:47 अपराह्न से )    

Saturday, 8 November 2014

कुछ प्रकृतिमय

कुछ प्रकृतिमय  


इस प्रकृति में रमना चाहता, सब चराचर अपना बनाना चाहता मैं

इन चिड़ियों की चीं-चीं, गिलहरियों की गिटगिट, भोर-सौंदर्य में॥

 

मैं निकलता प्रातः भ्रमण को, तो खग-वृन्द की किलकारियाँ होती

कभी फुदकती, कभी उड़ती, मीठे गीत सुनाती और हैं इठलाती।

पूँछ हिलाती, एक डाल से दूजी पर उड़ती, कभी आपस में लड़ती

कभी भूमि, शाखा पर पत्तों में छुपी, या सूखे ठूँठ पर हैं बैठ जाती॥

 

कभी दाना चुगती हैं, गर्दन घुमा बाऐं-दाऐं देखती चौकन्नी से बड़ी

कभी सुस्त प्रतीत, सत्य में विपरीत, दर्शन से ही प्राण सा हैं भरती।

मोर- कोतरी, तोते- मैना, सोनचिरैया, चिड़ियाँ हैं काली-भूरी- हरी

कभी बाज दर्शित, उल्लू- नीलकंठ, एक काला बड़ा भी है पक्षी॥

 

कोयल-कठफोड़वे-कबूतर आदि, औरों को न जानूँ -पहचानता

पर क्षेत्र समृद्ध खग-विचित्रता में, व पक्षी-प्रेमी के लिए है अच्छा।

खेतों में सफ़ेद बगुले गर्दन उच्च किए, चलते शहनशाह की भाँति

कई टिटहरियाँ भूमि पर बैठी कुछ चुगती, और फिर उड़ जाती॥

 

इन पक्षी-मित्रों से कुछ हिल-मिल सा गया, रोज नया रोमांच होता

उनसे बात करने की कोशिश करता, शायद निकले कुछ कविता।

क्रोंच-पक्षी क्रंदन ने, अनपढ़ वाल्मीकि को बना दिया जगत-कवि

और अद्भुत रचित उनकी कलम से, धरोहर है संपूर्ण जगत की॥

 

कभी घास चरता नीलगाय-झुंड दिखता, अभी तक छः-सात देखी

बड़े-नयनों से देखती, खतरे पर बड़ी छलाँग लगा दूरी तय करती।

बड़े आनंद से हैं चरती, जुगाली करती, आदमी देख चौकन्नी होती

अनेक वृक्ष यहाँ ऊँचे-नीचे धरातल में, विशाल क्षेत्र में वे विचरती॥

 

बहु खरगोश-गिलहरियाँ हैं विचरते, यह प्राकृतिक निवास उनका

विश्व-विद्यालय भूमि-क्षेत्र लगभग ५५० एकड़ है, प्रायः ऊसर सा।

यहाँ अधिकतर बालू-रेत के टिब्बे हैं, और कुछ जगह समतल भी

देसी-काबुली कीकर, जांटी-जाल पेड़, झाड़ी-बेर विस्तारित भी॥

 

कुछ मरूस्थल-वनस्पति सी यहाँ, और अधिकतर काँटेदार गाछ

यह भूमि पंचायत द्वारा दान है, तीन गाँव पाली, धौली और जांट।

तीन महाद्वार हरियाणा विश्व-विद्यालय ने बनाए, इन ग्राम-नाम से

सीमा-प्राचीर खींची चार वर्ष पहले, पर कुछ क्षेत्र विवाद-ग्रस्त है॥

 

कृषि-शून्य भूमि थी यह पूर्व, उत्तम शिक्षा उद्देश्य हेतु दी गई अतः

कुछ विचित्र विश्वविद्यालय बनेगा यहाँ, और क्षेत्र होगा विकसित।

शिक्षा-क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण, यहाँ अति विकास है अपेक्षित

लोग कृषि-पशुपालन पर ही निर्भर, अन्य व्यवसाय हैं आवश्यक॥

 

मैं प्रातः अकेला घूमता हूँ, प्रकृति में खो जाता, सोचती रहती बुद्धि

सुबह की धूप, खुला-आकाश, दूर तक हरितिमा में जाती है दृष्टि।

अति-स्वच्छ वायु, प्रदूषण-मुक्त परिवेश है, दूर नगर-कोलाहल से

 अब विश्व-विद्यालय के क्षेत्रपाल-कर्मी दिखते, व प्रेमी भोर-सैर के॥

 

रात्रि-निशा में प्रकृति से पूर्ण संपर्क, चंद्रमा अनुपम छटा बिखेरता

तारें मोटे-अति स्पष्ट, माना कृत्रिम प्रकाश से कुछ अवरोध होता।

क्षेत्र बहुत विशाल-समृद्ध, अतः सौभाग्यशाली कि हूँ प्रकृति-गोद

फिर निज समय, अध्ययन-लेखन के लिए काफी समय उपलब्ध॥

 

मैं गाना चाहता प्रकृति के संग, रग-रग में संगीत स्फुटित करना

एक-२ पल इसमें आह्लादित होकर, जीवन को महकाना चाहता।

चाहूँ अति संगीत-तानों से इस कलम द्वारा, कुछ रुचिकर हो जाए

समय का संपूर्ण उपयोग, जीवन सार्थक बनाने में सफल हो जाए


 

पवन कुमार,
08 नवम्बर, 2104 समय 17:07 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 10 अक्टूबर, 2014 समय 09:18 प्रातः से )
  


Saturday, 1 November 2014

शून्य-ध्वनि

शून्य-ध्वनि 


शून्यता-आलम, बुद्धि-खालीपन व चेतन निष्क्रिय

बैठा विमूढ़ कागज़ पटल, निहारता लेखनी-संघर्ष॥

 

बुद्धि-गुणवत्ता बहुत मंद, न रहा इसे सूझ कुछ भी

पर बड़ा स्थिति-आनंद, शून्यता परिलक्षित क्योंकि।

सदा एक सम तो स्थिति असंभव, निज शून्यता-रस

वही प्रतिक्षण, यथा-स्थिति न्यूनता का कराती बोध॥

 

वैसे कुछ अनावश्यक ही, स्वयं सदा रखना व्यस्त

कुछ क्षण सुस्ताने के भी, व हल्के मूढ़ में मस्तिष्क।

वे देते अनुभूति हर क्षण की गरिमा, भंगिमा व वेग

निज को स्वयं-निकट लाने में, होते सहकर्मी परम॥

 

प्रथम हम भूल जाऐं स्व को, और सकल जग-कर्म

बस गहन डूब जाऐं शंकर भाँति, शांति में निमग्न।

जब कोई वजूद ही न, तो परिभाषा भी अनावश्यक

बस डूबें, हिचकोले खाते, कभी बाहर-कभी अंदर॥

 

खो गए उस गहराई में, परिभाषा विशाल जिसकी

कुछ भी बाह्य ज्ञात नहीं, कुछ नए में विस्मृत हैं ही।

एक स्वप्न से में, निज टटोलने की करते हैं कोशिश

जहाँ तो बहुत अस्पष्ट है, मन भी नहीं देता विवेक॥

 

जहाँ प्रति अंग- मनन-उपक्रम की गति है मद्धम

वहीं त्राटक अपने ध्यान-मनन हेतु, है प्रयासरत।

जिज्ञासु चक्षु मात्र कागज़-लेखनी पर ही है केंद्रित

कर्ण किंचित धोखा देते, बाह्य -शोर लेते ही सुन॥

 

यहाँ इस कलम पकड़ी उँगलियों का ही है सहाय

कुछ प्रयास करती, बेचैनी बावजूद बढ़ती है अग्र।

मन तो निष्प्रद-निष्क्रिय है, अनुत्तीर्ण व ज्ञान-शून्य

वह भी बस देखता रहता, कैसे-क्या-क्यों घटित॥

 

इन एकाकी पलों में, जिंदगी कोई न है सुविदित

जैसे सो रहा हूँ मृत्यु- शैया, कभी न होने जागृत।

एक स्थिति जो परे है, प्रपंच- व्यवधानों से समस्त

छूट गए जग-झमेलों से, हेतु मुक्ति-रसास्वादन॥

 

अकिंचन, सहज-विरल, सरल-बालपन से ये पल

योगी मस्त स्वयं में, आंतरिक साम्राज्य में निज।

बहुत दर्शित तो न, परन्तु मात्र अनुभव ही निकट

बाह्य स्थिति महज़ स्पर्धा कराती, अंतः-प्रमाद न॥

 

इसका कुछ स्वाद लें, मन-मस्तिष्क विराम प्राप्त

जानकर निष्फलता ही, उसमें कुछ रंग तो लें भर।

विभिन्न स्थितियाँ- अनुभव, यहाँ भी महसूस होता

माना कि कम ही गति है, त्यों भी जहान अपना॥

 

प्रगाढ़ चिंतन स्थिति न, क्योंकि मात्र है अस्पन्दन

अपनी निष्क्रियता-स्थिति का तो है अलग आलम।

न चाहिए चिंतन ही अनुपम, रहना चाहता में इसी

जब इतना सहज है, तो बाह्य- ज्ञान की भूख नहीं॥

 

श्वास सहज, लेटा उलटे तकिए, बालासन-मुद्रा कुछ

उदर को बाऐं से सहारा, उसके स्वास्थ्य हेतु उचित।

बैठा यहाँ निज संग आने को, नहीं गया प्रातः-भ्रमण

सोचा यह भी महत्त्वपूर्ण, कमी पूरी करेगा व्यायाम॥

 

कैसा यह परवान-नशा चढ़ा, कुछ अन्य चाहता नहीं

अपनी स्थिति में मस्त, एक छोटी सी दुनिया बना ली।

उस कबीर सी फकीरी-बादशाही, तुलसी सी कल्पना

कोई संस्कार भी न हैं, रहें पीछे, छोड़ दिया अकेला॥

 

आश्चर्य, इसमें कुछ भी न पीड़ा, न ही कोई संकुचन

न कोई बाहर की लाज़-तंज, न दृश्यों का प्रसाधन।

न यहाँ प्रलोभन ही कोई भी, न अन्यों का डाह-डर

सकल ही निर्भीक यहाँ, मीरा पहुँची अपने कृष्ण॥

 

कहाँ खो गया है सब बाह्य, जिससे था प्रगाढ़ जुड़ा

निज न कोई वज़ूद, सब फक्कड़ सा उसमें रमा।

न चाहत या बहाना है, न प्रमुदित-दुखीपन कारण

सब एक सम ही विचरें, न है निम्न-उच्च का भेद॥

 

मैं आया इस स्थिति में, या किसी ने भिजवाया फिर

देने रोमांच इन पलों का, जब मस्तिष्क निद्रा-मग्न।

फिर यह कैसे संभव, व क्या इसका अर्थ बना कोई

क्या यह विचित्रता-गमन दिशा, या यूँ भ्रम-स्थिति॥

 

फिर भी मुझे नहीं जाना, किन्हीं बाह्य आकर्षणों में

यह अति सहज लगता, क्योंकि बहुत ही मधुर है।

मेरा मन ही मेरा सुहृद है, यही तो फिर अग्र बढ़ाता

वरन तो कथित चेतन क्षणों में, मात्र प्रमाद ही भरा॥

 

हम बहुत करते छलावा, इस बाह्य जीवन-निर्वाह में

कितने कर्कश बन जाते, और बकते बिन ही समझे।

न सुनना-कहना आता, फिर भी देखो संवाद में रहते

और अपने में गर्वित होते कि वाक-युद्ध में जीत गए॥

 

अति-न्यून समझते विषय, तथापि निज ज्ञान हैं बघारते

अन्यों को किंचित श्रेष्ठ पा, स्वयं को धिक्कार सा पाते।

अति-अवमूल्यन जीवन का, इसकी खोज-खबर नहीं

फिर जैसा है आया बिताया, न बहुत ही भली स्थिति॥

 

क्या इस परम-शून्यता का अर्थ, क्या ध्यान-स्थिति यह

कैसे समझे हम अन्तर को, क्या इसमें आशा है कुछ?

माना सहज योग-समाधि सी में, तो भी परमानुभूति न

न जानता कुंडलिनी-शक्ति, मस्तिष्क बस अवचेतन॥

 

पर फिर भी डूबा रहना चाहता, माना कि यही जीवन

नहीं भ्रमित करती हैं जंजीरें, न उनका ध्यान ही कुछ।

मैं तो फिर स्वयं में खोया, और आनन्दों की चाह नहीं

अकूत-शक्ति समाहित स्व में, चिन्ता का विषय नहीं॥

 

प्रयोग रहित व परिणाम-आशा, परस्पर विरोधाभास

कुछ जीवन -यत्न सीखने को, मन में अति अभिलाष।

तथापि असंवाद, निमग्न स्थिति में रहने का ही विचार

इसी शून्यता में अधिकाधिक प्राण-खोज का प्रयास॥

 

किस से कहे स्थिति अपनी, उन हेतु शायद हो विचित्र

इसको रोगी कहे या योगी, कुछ भी तो है न चिन्हित।

बुद्धि के खेल निराले यहाँ, अपनी धुन में यह ले जाता

हम बस वस्तु हैं इस हेतु और विभिन्न रोमांच कराता॥

 

कहीं डूबें-गोता लगाऐं, कहीं तैर कर आने का प्रयास

कभी करें सार्थकता-प्रयत्न, कभी मूढ़ता में जन्म ह्रास।

कहीं है सफल संवाद, लज्जा स्व-दुर्बलताओं पर कहीं

कहाँ से चले थे कहाँ पहुँचे, केवल इसे है सुध इसकी॥

 

पानी केरा बुदबुदा, इस मानुष की जात;

देखत ही छुप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।`

कबीर सम मनीषी भी, इसे अति क्षणिक ही पाते

सहज-सजग मनोध्वनि, इस जग को हैं बतलाते॥

 

एक-२ पल ऐसे अनुभव में बीते, यही मेरी कामना

इनको व्यर्थ गँवाने से तो, और भी घोर है निराशा।

कुछ अमूल्य पल ऐसे भी, जिनमें जाऐं पूर्णतः डूब

तब मन भी साथ देगा, रूहानी हो जाने को कुछ॥

 

उससे तो फिर परिमाण, कहाँ पहुँचे, क्या अनुभव

कितना समझा जीवन-स्पंदन, किया सार्थक कुछ?

कितना अंश समृद्ध हुआ है, आत्म-समीप जाने से

कुछ ज्ञान कण जुटा पाऐं, इस अन्वेषण अंतः के?

 

करूँ हृदय से प्रयास, हो विश्वास व समस्तता-बोध

निकले अंतः से तब सुधा, जिससे हो जीवन पुनीत।

तज प्रपंच सभी, अपनी युक्ति-संगति अंदर लगाऊँ

और ज्ञान-पथ पर बढ़, इस जीवन को धन्य बनाऊँ॥



पवन कुमार,
01 नवम्बर, 2014 समय 21:20 सांय 
(मेरी डायरी दि० 24 मई 2014, समय 9:30 प्रातः से)

Sunday, 26 October 2014

सफल जागरण

सफल जागरण 


दिन निकला और सुबह हुई, मन मेरा उन्मत्त हुआ

कैसे बेहतर बने सब कुछ, विचारने का मन हुआ॥

 

मेरी खूबसूरतियों की स्मृति, इस पल में हुई है प्रखर

उजला-उजला विभोर, प्रफुल्लता चहुँ ओर स्फुटित।

शब्द-समृद्धि व अपरिमित-आकांक्षा, सब ओर बिछीं

मैं उठ बैठा फिर खड़ा हुआ, सब पर्यन्त मुखर हुई॥

 

मैं उन्मादित-हर्षित मन में, यह जीवन का उजला पक्ष

विचारक-चिंतक मौलिक, और सब है संवाद सबक।

मेरी लघु-परिमिता विस्तृत हुई, ज्ञान चक्षु हुए हैं प्रखर

बहु-समृद्ध, विशाल-असीमित, नभ-तारक गण मुखर॥

 

मेरी व्याधियाँ-अतृप्तियाँ, संकुचन सब भाग से हैं गए

मैं बना सम्पूर्ण और ये पल, परब्रह्म से सम्पर्क किए।

मेरी शैली-रचना, मेरा मतवाला बौद्धिक चिंतक मन

मेरी विद्या-पुस्तकें-ज्ञान, सब कुछ तो हुए प्रज्वलित॥

 

मैंने तजी कुचेष्टाऐं, व दया-शुचिता को आमुख हुआ

व्यर्थ-संवाद छोड़, सबल-समर्थ-सार्थक ओर हूँ बढ़ा।

मैं बना वास्तुकार स्वयं का, भले ही विचार बाह्य कुछ

किंतु इस समक्ष पल में तो, स्व में ही फलीभूत बस॥

 

शायद मनुष्यत्व पा हूँ गया, एवं आत्म को जान गया

अपनी व्यर्थताओं को भुला, सुपक्षों ओर इंगित हुआ।

मैं जागा, जगत जागा, और समाधान हो गए सारे प्रश्न

सौभाग्यशाली बना स्वयं को, बढ़ा दूँगा अपने प्रयत्न॥

 

मन में उठी हिल्लोरें मेरी, मन कुछ हुआ है वयस्क

वर्धन उस ओर जहाँ, सीमाऐं हुई हैं समाप्त सकल।

सब मेरे और मैं सबका, कोई भी नहीं है विरोध-द्वेष

बना हूँ स्वयं का संगी, और सब ओर खड़े हैं प्रेरक॥

 

माना मन में ही निज, मनोरमा विस्तृत आगे कितनी

करूँ रसास्वादन मैं उनका, सब कुछ लिए मेरे ही।

जागा इस भाँति से हूँ, सर्वस्व ही अपना हो सा गया

मैं उठ खड़ा तन्द्रा से, बहु-विचित्रता से रिश्ता बढ़ा॥

 

मेरे सब डर दूर भाग गए हैं, और मैं जितेन्द्रिय बना

महावीर मेरा तन-मन, व सबलता का है पक्ष बढ़ा।

मोह हटा मम दुर्बलताओं से, अधमता क्षीण हुई सब

और मैं बना परम का साधक, अरिहंत से बढ़ा प्रेम॥



पवन कुमार,
26 अक्टूबर, 2014 समय 15:26 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 11 अगस्त, 2014 समय 07:00 प्रातः से )

Thursday, 23 October 2014

उज्ज्वल-पक्ष

उज्ज्वल-पक्ष 


कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते, जब वे भी हैं हाड़-माँस के

कैसे स्थापित प्रयत्नों में, बहुत अधिक दूरी तय कर जाते॥

 

मनस्वी-मन तहों तक जा, क्षीण आचरण-ईंट ठीक करते

बनते सतत प्रहरी स्वयं के, निज बेहतर की आशा करते।

प्राण उच्च-शिखर ओर इंगित हो, नहीं कुछ छोड़े कसर

 जगाकर निज क्षीण पक्ष, सतत अभ्यास से करते सशक्त॥

 

नहीं है आसान इतना भी, जब दुर्बलता अविश्वास जगाए

कौन छेड़े अनछुए पहलू, और क्यों मीठी नींद को खोए।

मानव के अंदर छुपे हुए हैं शत्रु, और उसे वे घायल करते

सतत युद्ध यूँ चलता है, कभी यह जीता कभी वह हर्षाए॥

 

स्व-पक्ष मज़बूत करना, मन-मस्तिष्क को करना दुरस्त

निकाल बाहर सब नकारात्मकता, आचार करना सुदृढ़।

जीवन की एक सु-शैली बना, जो भरी हो आत्म-विश्वास

 फिर अपना ही तो न, बल्कि संगियों को भी लेना साथ॥

 

यह जग स्वार्थ-मस्त है, केवल वर्तमान की परवाह करता

कभी भूत से भी प्रभावित है, तथापि अब की चिंता करता।

बहुदा परेशान सा रहता, निज क्षीणताऐं महसूस है करता

मन तो बदला न है, अन्य-दुर्बलताऐं भी निजी मान लेता॥

 

क्यों यह भ्रामक स्थिति ही, और सु-गंतव्य पर न है नज़र

मन के मीत को जगा, उसको बना ही मृदुल एवं स्नेहिल।

कैसे आगे बढ़ने के हों मार्ग, जिनका हैं अनुसरण करना

समस्त ज्ञान निकटता पर भी, इस समय अबोध हूँ पाता॥

 

बड़ी दूर पर एक तारा, मारूँ छलाँग और उसे लाऊँ तोड़

पर चाहिए महद प्रयास अनवरत, साहस ही कुँजी वाँछित।

इन जग-प्राथमिकताओं में तो, भरी हुई हैं बहुत अवाँछित

तुम निज समझो, और अर्जुन की भाँति करो मीन-लक्षित॥

 

अनेक अविष्कार, वृहद गाथा, जगत समझा स्वस्थ मन से

नहीं रहे पर-छिद्रान्वेषी, पर स्वयं को बहुत ही सुधारते हैं।

कैसे बनें अतिरिक्त भी योग्य, इसमें सब आहूति हैं डालते

जितना बन पाए उतना देते, नहीं अटकते या भ्रांत रहते॥

 

पर क्या उनका द्वंद्व न स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते

और अपने से उठकर विश्व में, कुछ सार्थक रचना करते।

कैसे बनें आत्म-विजयी, और कौन प्रेरणा कराती अद्भुत

नहीं मम में ही खोए रहते हैं, अपितु ठोस कर जाते कुछ॥

 

मनन लाओ स्व से बाहर, बाह्य सौंदर्य भी कुछ अहसास हो

पर यह अनुपम जीवन-चिंतन, कैसे बाहर भी अनुभूत हो।

पकड़ लो कूची-कैनवास, ले रंग-रोगन उकेरें कुछ ललित

सौम्य रचना हो स्व के संग, अन्यों को भी कर दे रोमांचित॥

 

उपलब्ध जीवन के प्रत्येक पल से, यथासंभव बेहतर करना

वे चित्रण तो करते स्वयं का ही, बाहर तो केवल दिखावा।

कुछ हममें से देख लेते हैं, अन्यथा निज से किसे ही फुर्सत

जब उपभोग में ही व्यस्त तो, फिर सोचते उपयोगी हैं हम॥

 

किंतु मुझे यह कलम, कुछ अंदर से बाहर चाहिए मोड़ना

कब तक यूँ ही व्यथित रहोगे, जब बाहर भी आवश्यकता।

निकालो- उठाओ उपकरण प्रगति के ही, दो झोंक सर्वस्व

तब संभावना भी, कुछ सक्षमों की श्रेणी में आने की अन्य।

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
23 अक्टूबर, 2014 समय 17:02  
(मेरी डायरी दि० 4 अक्टूबर, 2014 ब्रह्म-महूर्त 4:48 से )

  

Saturday, 18 October 2014

यायावरी उत्कण्ठा

यायावरी उत्कण्ठा 


वह अद्भुत मन-नृप, खुली आँखों से विश्व-भ्रमण है करता

एक स्थल नयापन कम, पर घुमक्कड़ी ताज़ा रखती सदा॥

 

एक स्थान रहते-२ ही, हम वातावरण से सामंजस्य बनाते

प्रकृति से एक-रूप होते, अपने लिए कुछ स्थान बनाते।

सबसे जुड़ा तो तब भी न संभव, तथापि तो लगता निजत्व

अपनी छोटी सी दुनिया को ही, समस्त जग बैठते समझ॥

 

पर यायावरी घुमक्कड़ हेतु तो, सकल विश्व अपना क्षेत्र है

वे निकल पड़ते मन में साहस लिए, नवीन-संसर्ग करते।

उनका दृष्टिकोण सर्व-व्यापी, एवं मानवता-समर्पित होता

नए लोग-वातावरण से सम्पर्क, वृहदता को बढ़ावा देता॥

 

स्व तो अत्यल्प, ज्ञात होता जब गोता महासमुद्र में लगाते

आँखें विस्मृत हो जाती और नव-अनुभव रोमांच हैं बढ़ाते।

विचित्र नजारें मन आन्दोलित करते, व स्मृति प्रखर होती

सबसे जुड़ने की चाह, और अधिक स्फूर्तिवान है बनाती॥

 

दर्शन-सामर्थ्य सर्व ब्रह्मांड को, एवं प्रक्रिया समझना इसकी

सकलता में निज भागीदारी भी, पूर्ण विश्व-नागरिक बनाती।

कण-कण में विद्यमान अनंतता के, और उसे अनुभव करते

जीवन सभी का उनका ही है, इसी से सन्तुष्टि मिलती उन्हें॥

 

मेल-जोल अन्य सहचरों से, जीवन-यात्रा सुगम है बनाता

एक-दूसरे से सहयोग, प्रेम रिश्तों में और मधुरता लाता।

वे बनते एक-दूजे के पूरक, क्योंकि अति-कठिन है यात्रा

हिल-मिल जाते जल्द नव-प्रकृति में, सब एकसार लगता॥

 

जीवन भी अद्भुत यात्रा, अनेक रहस्यों से अवगत कराता

आकाश-पाताल-धरा सब ही तो, इस यात्रा का क्षेत्र होता।

ज्ञानेन्द्रियाँ सहायक इसमें, प्रबलेच्छा-निडरता अग्र बढ़ाती

विविधताऐं विस्तृत हर स्थल पर, प्रगति-सहायता करती॥

 

अल्प-जीवन पर जिजीवाषा अति-तीक्ष्ण, विश्राम न लेने देती

आंदोलित करा मन-प्राण, संपूर्णता निकट का प्रयत्न करती।

दिन-रैन नव विषयों का अध्ययन, नर-विस्तार से है अनुभूति

निज क्षेत्र कैसे बढ़े बौद्धिकता में, यही समस्त मंत्रणा होती॥

 

सभ्यता एक तुलनात्मक स्थिति, और निस्सन्देह मात्राऐं भिन्न

पर मानव मन तो अमूमन, सर्वत्र एक सा ही हुआ विकसित।

कुछ रखते खुले नेत्र-बुद्धि, करने को प्रकृति के मनन-बखान

माना सब सच न भी होता, तो भी अपने से करते हैं प्रयास॥

 

बहुत गहरा रिश्ता है सबका, आओ कुछ और सुहृद बनाऐं

नव लोग, साहित्य-क्षेत्र, कला-संस्कृति से हम संपर्क बनाऐं।

आओ बाँटें आपसी अनुभव, एवं परस्पर का जीवन महकाऐं

निज से समर्थतरों का सम्मान, दुर्बल-मदद को अग्र आऐं॥

 

बनो विशाल मन-स्वामी, रखो सब कृपणता-अधमता दूर

होवों निर्मल मनों के संगी, और कुछ दुष्टता तो करो न्यून।

बहुत जवाबदेही जगत में, आए हो हेतु किसी उद्देश्य-परम

निकल पड़ो मंज़िल की खोज़ में, ढूँढ़ने परिष्कार-उपकरण॥

 

राहुल सांकृत्यायन का 'घुमक्कड़-शास्त्र', आजकल पढ़ रहा

मानवता-प्रेमी यह महानर, सदा अग्रसरण प्रोत्साहन करता।

मैं भी खोजी बनूँ कुछ योग्य, अन्य नहीं तो अपनी ही नज़र में

तोड़ दूँ वे समस्त जटिलता-बंधन, जो कहीं भी जकड़े रखे हैं।

 

पवन कुमार, 
18 अक्टूबर, 2014 समय 22:23 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी दि० 8 अक्टूबर, 2014 समय 9:35 प्रातः से )