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Monday, 20 June 2016

नाम-चिंतन

नाम-चिंतन 


एक उन्मुक्त अभिलाषा मानव-मन की, सर्वश्रेष्ठ से सीधा जुड़ाव

तभी तो नर नाम ईश्वर पर रखते, माना उनके हैं प्रत्यक्ष अवतार॥

 

भारत में कितने ही नाम-गोत्रों का संबंध तो देवों से जुड़ा है लगता

विशेषतया उच्च-वर्ग लोगों ने सु-नामों पर, एकाधिकार सा किया।

बहु तो न ज्ञात सामाजिक स्थिति का, तथापि एक ओर झुके लगते

अधुना युग में सब नव-नाम अपनाते, सब भाँति के प्रयोग हो रहें॥

 

गणेशन, विनायकम, मुरुगन, विश्वनाथन, सुब्रमण्यम, कार्तिकेयन,

गंगाधरन, महादेवन, सदाशिव, परमशिवम, दक्षिणमूर्ति, नटराजन।

ईश्वरन, नारायणन, सत्यनारायणन, करुणाकरण, विभूतिनारायण,

स्वामीनाथन, वेंकटेश्वर, नरसिंहम, हरिहरन, रामचंद्रन, जगन्नाथन॥

 

संपूर्णनारायण, करुणेश, प्रभु, राधाकृष्णन, श्रीनिवासन, भास्करन,

वेंकटरमन, गोपालन, रंगनाथन, सच्चिदानंद, राजगोपाल, आनंदन।

स्वामी, कृष्णन माधवन, मोहनन, राघवन, शेषशायी, अनंतनारायण,

करूणानिधि, थिरुमल, कलानिधि, नांबियर, राजराजा, धराधरन॥

 

अय्यर, सेनानी, राजर्षि, शेषन, कृष्णामूर्ति, नारायणमूर्ति, चिदांबरम

धरनीधरन, लिंगेश्वरन, सुंदरम, चक्रवर्ती, सदगुरु, व अनेक हैं अन्य॥

 

भारत में नामकरण संस्कार शिशु का, हेतु अनन्त योग-संभावना

ज्योतिषी जाँचते पूर्वजन्म व भविष्य, क्या-२ उसके भाग्य में बदा।

समृद्ध-समर्थों को अच्छे नाम, शास्त्रोक्त नाम भी बँटे जन्मानुसार

निर्धन-निम्नों के नाम भी निम्न, श्रेष्ठ शब्दों पर न विशेष अधिकार॥

 

पर क्या जिजीविषा मानव-मन की, युग्म सीधा ईश्वर से करने की

क्या यह गुण-ग्रहण की इच्छा या नाम से प्रभुता सिद्ध करने की ?

निज कुल का ईश्वर-योग, किंचित उन्हें भी उसी श्रेणी में रख देगा

पूर्वज महान-स्तुत्य थे, हम भी योग्य, अतः अन्य सम्मान से देखें॥

 

पुराने काल में नाम भी वर्गीकृत, जिससे दूर से ही पहचान हो ज्ञात

किससे कितना है संपर्क वाँछित, आचार-व्यवहार के नियम तय।

कुछ पूर्ण-स्वच्छन्द सर्वाधिकार युक्त, कुछ को हैं सीमाऐं दिखा दी

किसी को सर्व पूर्ण-पनपन मौकें, अन्यों हेतु बलात दमित-प्रवृत्ति॥

 

ये ईश्वर पर कैसे नामकरण हैं, नरों ने समय-२ पर मनन से बनाऐं

नामों का जन्म एक घटना है, चिंतन से जुड़ते गए शतों-सहस्रों में।

ईश्वर सर्वव्यापी ही है तो, हर कण पर उसकी उपस्थिति की मुहर

सर्वभूमि गोपाल की ही तो, सबका उसपर बराबर का अधिकार॥

 

पर ऐसा न था सत्य जग में, हर पहलू पर अधिकार-कर्त्तव्य बताऐ

कुछ तो किंचित अतीव हैं स्नेह-पात्र, अन्य अति-दूरी पर रखे गए।

कुछ तो है दृष्टिकोण बाँटने वालों का, अपनों को तो लाभ ही मिले

मैं ही नियन्ता, बुद्धि-शक्तिमान, अपने से बचे तो अन्यों को मिले॥

 

कौन निर्धारक कर्मगति का -मानव, प्रारब्ध या अदम्य ऊर्ध्व-शक्ति

माना कारक भी बाधक, क्या भाग्य पर रुदन-उद्विग्नता बात अच्छी?

राजधर्म या प्रजा में आश्रमों का कठिन निर्वाह, सेना-पुरोहित सचेत

रहो सीमा में, सुपाठन- सुव्यवसाय स्व-क्षेत्र, अन्यों का है तो निषेध॥

 

क्या थी बलात प्रगति-निरोध, या दमितों को निम्न रखने का स्वभाव

या अंध-विश्वास में डूबे है रहना, वास्तविक उन्नति हेतु कर्म-अभाव?

क्यों वे व्यक्त-असमर्थ, कम से कम अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर

एकता-अभाव व युक्ति-असमर्थता, स्पर्धा से भय, बलशाली समक्ष॥

 

एक को सर्वाधिक, दूजे को कम, फिर और कम, अतएव वर्गीकरण

अन्तिमों को कुछ नहीं, या लो बची जूठन, बाँटे अपने-२ को है अन्ध।

जिनको कुछ मिला - समझे वंचितों से सौभाग्यशाली, कुछ तो हैं श्रेष्ठ

विषमता है प्रजा-प्रचलित, सर्व चेष्टा-दृष्टि प्रभुओं को करने में संतुष्ट॥

 

जब इतने बटाँव है तो विरोध स्वाभाविक, मार तो ही पड़ेगी क्षीण पर

वह मज़दूर हाशिए पर खड़ा है, जैसे उसके रक्त से ही जगत-पोषण।

माना मानव ने बलि- प्रथा को दिया अन्य-रूप, शोषण अधिकार-नव

देह-कर्म उनका- लाभ हमारा, अन्न-धन वे पैदा करें, फल खाऐं हम॥

 

क्या यह लाभ-तंत्र, झूठ-फ़रेब चलन या है वास्तविक श्रम-पारितोषिक

निर्धन- मज़बूरी का अमानवीय लाभ, लपकने को बैठे कुछ ही अन्य।

कौन तय करे दाम कितना हो, शासकीय या माँग-पूर्ति की क्रिया बस

या व्यवसायी-साहस जो दूर ले जाए, दुर्लभ-वस्तुओं का मूल्य अधिक॥

 

क्या है यह परम से जोड़ने की प्रवृत्ति, माना वह नाममात्र तक सीमित

चरित्र-व्यवहार कितना मिलता आदर्श से, या वह भी है मात्र कल्पित।

या वे भी थे सहज मानव सब भाँति, सभी तरह के गुण - दोष से युक्त

बस नरों ने गुण- अतिश्योक्ति की, व सबसे ऊपर कर लिए हैं स्थित॥

 

वर्तमान में भी हैं योग्य, सत्य धरातल पर न सही कमसकम प्रसिद्धि में

वे कितने महान, मानव-विफलताओं से परे या विज्ञापन भाव बढ़ाए हैं।

या कुछ परिस्थितियों का समन्वय, जो मनुष्य को दिलाऐ यश- सम्मान

तब कैसे भावी पीढ़ी महिमा-मंडन करेगी, साक्षात ईश-श्रेष्ठ लेगी मान?

 

सुयोग्य तो निज प्रतिभा-निर्मित, चाटुकार-स्वार्थी संग, लगें शेखी बघारने

सामान्य को ही ईश्वर-कृत माना, शनै वे भी निज को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे।

कितने दंभी-ढोंगी बैठे हैं, हाट में सजा-सजाकर अपनी विज्ञापन-दुकान

साक्षात ईश्वर से ही उनका सीधा रिश्ता, कृपा बरसेगी हमारा है बखान॥

 

सब कुछ चलन आधुनिक संचार माध्यमों पर, उनको है मिलता शुल्क

जितनी प्रसिद्धि उतने श्रद्धालु होंगे, अल्प जुड़कर ही तो भरेगा कलश।

फिर भक्त-जमात एक बड़ा राजनीतिक बल, जो चुनावों में होता प्रयोग

नेता व प्रचारक का है सु-समन्वय, दुकान चलने दो, तुम लो फिर लाभ॥

 

वह कौन सा काल आया है इस जग में, जब तथाकथित देवता थे विचरते

चार युग तो बता दिए हैं स्मृति-ग्रन्थों में, किंतु कितना सत्य कोई न जाने।

प्रश्न का अधिकार मानव को मिला है, और विज्ञान-धारणा उनको नकारे

यहाँ बहुत-कुछ लिखा बस अतिश्योक्ति, मानव सर्व-काल प्रवेशित कैसे?

 

फिर विभिन्न पंथ-मान्यताऐं, अनेक वृतांत, क्या है नितांत सत्य व असत्य

माना विश्वासी की संस्थाओं में सत्य-निष्ठा भी, क्या मान ही लें सारा जग?

पर स्वार्थी निज-ग्रंथों को ही शाश्वत घोषित करते, विरोध तो नहीं सहन है

या तो अपने में ही मस्त रहो, न हम तुमको छेड़ें - उलझो न तुम हमसे॥

 

मैं अमुक वहाँ पर इस कुल-स्थान जन्मा, मेरा संपर्क सर्वोपरि ईश्वर से

मेरा आराध्य, उसपर पूर्णाधिकार, कोई अन्य आकर न धृष्टता दिखाए।

ईश्व को तो स्वार्थ-वश वर्गीकृत किया, यह मेरा रूप अन्य से न मतलब

फिर तेरे गणेश की ऐसी-तैसी, मेरा गणेश ही होगा सर्वप्रथम विसर्जन'॥

 

यह क्या खेल निष्ठा- विश्वास-रूढ़ियों का, सत्य अज्ञात फिर भी हैं उलझे

कुछ तंत्र-कर्मकांड बता दिए स्वार्थियों ने, श्रद्धालु उन्हें अकाट्य मानते।

अनेक लघु पंथ पनपे हैं नर-समूहों में, बस निज-परिधि निर्मित वहीं तक

किंतु कितना विस्तार मानव-मन संभव, सिकुड़ना तो है अर्ध-विकसित॥

 

और क्या है प्रश्नकरण-प्रवृत्ति, हेतु मानव का सर्वांगीण विकास व उद्भव

जब वर्तमान ही सहज न लगता, विरोधाभास खोलते हैं परत दर परत।

क्या है यह सब मनीषियों का निर्मल- चिंतन या स्वार्थ-निर्वाह लुब्धों का

या घोर तम में ही मात्र सन्तुष्टि, मूढ़ता-ज्ञानाभाव निकृष्ट श्रेणी में रखता॥

 

यद्यपि साहित्य दर्पण है मनन का, पर प्रश्न कितनी संभव है मानव-थाह

क्या जन- भावनाऐं कर्ता में, कुछ विवेकशील भी या अंधानुकरण मात्र।

या बस एक ढ़र्रा सा बना लिया, समस्त तीज-त्यौहार मनाते समझें बिन

सभ्यता-प्रयोग एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, पर क्या इच्छा ही सत्यान्वेषण?

 

कैसे सत्य, किसके सत्य, क्या, क्यों, कितना ही है अध्ययन-अनुसंधान

क्या हर संभव पक्ष का सत्य-अवलोकन, या जो समक्ष चलाऐं हैं काम।

फिर कौन अन्वेषी दुर्गम राहों के, किसमें साहस सूक्ष्मता में करें प्रवेश

कौन उपकरण, गुरु-सहायक, मनन-दिशा संग में, हम भी बनाऐं पंथ॥

 

पर मानव-मन है अति ढोंगी-चतुर, निज स्वार्थ-पूर्ति हेतु है उक्ति बनाए

उसको न अर्थ है पूर्ण सत्य-उचित से, बस जैसा बन सके, काम चलाए।

वह बिदकता है अपने से समर्थतरों से, जो हाँ में हाँ मिलाऐ वही उत्तम

कहता यह अन्य तो अविवेकी-दोषपूर्ण हैं, दूर रहो-रखो इसमें ही हित॥

 

किंतु क्यों हम बोलते हैं अन्य के विरोध में, अच्छे हो जब तक संग ही

जरा हटें तो विरोधी मान लिया, मन-वाणी-कलम से उनकी ही बुराई।

किंतु कब तक खुद को ही समझाऐं, जब दर्द हो रहा तो क्या न कराहें

उसकी स्थिति तो न समझ-जानते, निज समय तो बस उसी में है बीते॥

 

माना सबसे न कहते भी, पर अंदर ही अंदर तो युद्ध चलता ही रहता

कष्ट तो हैं जब नर नीर-क्षीर विवेकी, सत्य-स्थिति को ज्ञान-यत्न रहता।

मात्र आत्म-मुग्ध या दत्त नाम रूप मानने से, बहु-विकास हैं न सम्भव

प्रयास-वृद्धि, अस्वीकार विशेषण, `मन से जय ही निज सत्य-विजय'



पवन कुमार, 
20 जून, 2016 समय 23:54 म० रा०  
(मेरी डायरी 20 जून, 2015 समय 10:50 प्रातः से) 
    

Sunday, 12 June 2016

संचार-रूप

संचार-रूप  


बहुत जनों ने संस्थान हैं बनाए, जगत को करने अपना सर्वस्व दान

सदा संग्रह करते हैं प्रत्येक अनुपम को, उपलब्धि हेतु एक स्थान॥

 

हमने मान लिया तथाकथित क्षुद्र मानव, मात्र स्वार्थी न है वरन क्या

गूगल पर एक क्लिक से ही, लाखों परिणाम क्षण में थे सकते आ?

अनेक सदा रखते जाते, विभिन्न वेबसाइट्स पर सर्व-अवलोकनार्थ

अनेक नूतन विचार-दृश्य-लेख-फ़िल्म- समाचार सर्वदा उपलब्ध॥

 

कौन ये नर जो सदा निरत रहते, बाँटने हेतु निज सर्व मनन-विज्ञान

पूर्व एक-दो किताबें घरों में होती थी, अब खुला पूर्ण ब्रह्मांड-वृतांत।

ज्ञान या तो कुछ मस्तिष्कों में सीमित, या कुछ पुस्तकों में था व्यक्त

पर कैसे हो संपर्क-आत्मसात, आम जन की थी एक दुविधा महद॥

 

अब विश्व-वृतांत उपलब्ध नेट पर, पहले अत्यल्प में ही क्रय-सामर्थ्य

अनेक महाजन-जीवनवृत्त, विचार, यूँ सस्ते में न थे कदापि उपलब्ध।

हाँ खोजी-अन्वेषक तो उस समय में भी चेष्टा से, कुछ लेते थे ही ढूँढ़

पर इतनी सुलभ ज्ञान-लब्धता तो, कभी किसी ने कल्पना की थी न॥

 

अब नर रत निज-पांडित्य बाँटने में, होड़ लगी हेतु अधिकतम पाठक

इसमें कुछ विशेष लोभ नहीं उनका, बस अच्छा लगा व किया प्रस्तुत।

अब पाठक भी क्या करें, पढ़ें या छोड़ें, सोशल-मीडिया है बहु-विस्तृत

यथा ट्विट्टर, ब्लॉगर, फेसबुक, व्हाट्सअप आदि ध्यान खींचे हैं बहुत॥

 

अनेक अज्ञात ई-मेल, कहाँ-२ से पता ढूँढ़ कुछ अद्भुत करते प्रेषित

तुम ध्यान दो या मत देखो, ध्यानाकर्षण हेतु आते ही हैं रहते सतत।

प्रजा ने तो फेसबुक पर लाइक हेतु साइट्स खोली, पोस्टस उपलब्ध

लाभ तो ज्ञान मुफ्त-उपलब्ध, पर प्रश्न कितना हो पाते हैं लाभान्वित॥

 

अनेक भाँति के प्रभाव हो रहें मन पर, समस्त-जग है कारक हम पर

टीवी-रेडियो, समाचार-पत्र, टेलीफोन, संदेश-पत्रिका, मेल व पुस्तक।

गत के सौ वर्ष पूर्व रेडियो-टीवी आने के बाद हुई संचार-क्रांति आरंभ

पर २५-३० वर्ष पूर्व इंटरनेट पश्चात तो ज्ञान-प्रसार दिशा गई है बदल॥

 

सब दूरी खत्म, संचार अति सस्ता, एक गरीब भी लाभ है उठा सकता

इंटरनेट संग मोबाइल फोन हस्त-उपलब्ध, ब्रह्मांड साथ लिए घूमता।

ऑनलाइन फॉर्म- परीक्षा से, अनेक भौतिक कष्टों से मिला है निवारण

बैंकिंग-प्रणाली अति सहज-सुलभ हुई, प्रजा को मात्र लाभ ही लाभ॥

 

स्थान- दूरी समाप्त, समय की बचत व संचार कुछ क्षणों में ही सम्भव

अब हर संस्थान, विश्व-विद्यालय, व्यक्ति-चरित्र की जानकारी उपलब्ध।

जहाँ चाहो वहाँ अवसर ले सकते, व उनकी न्यूनतम अपेक्षाऐं भी ज्ञात

बहु सफल-सुयोग्य बनने के अवसर, बस बनो स्फूर्त व करो कोशिश॥

 

आवागमन-मुश्किलें अल्प, मोबाइल ध्वनि-मैसेज से ही करते हैं संपर्क

नेट पर ही जाँच-ऑर्डर बुक कर सकते, भुगतान सुविधा भी है लब्ध।

भावी समय में मोबाइल पर ही और सुविधाऐं मिलेंगी, अतीत-कल्पना

मानव-जीवन और सुविधा-निकट, बस लाभ लेने की चाहिए है इच्छा॥

 

अनेक विशेषज्ञ, विश्व एक ग्लोबल-विलेज, गूगल के सर्जई व लैरी पेज,

फेसबुक- जुकेरबर्ग, एप्पल-स्टीव जॉब्स, माइक्रोसॉफ्ट- बिल गेट्स।

अनेक तकनीशियनों ने निष्ठा-कर्म से, सब ज्ञान-संगीत धारा दी बदल

पुराकाल सम ज्ञान न गुप्त-सीमित, है सार्वजनिक भले हेतु उपलब्ध॥

 

यह बाँटन-प्रवृत्ति पूर्व भी थी कुछ में, पर इतना सहज-साहचर्य न लब्ध

एक टॉपिक पर मिलें अनेक विचार-शोध, खोलता रचनात्मकता-द्वार।

सच ही तो है मस्तिष्क भी उपलब्ध ज्ञान पर ही, करता टिप्पणी-मनन

माना सूचना-बहुलता अतिरिक्त बुद्धि-भार, किंतु लेता निज अनुरुप॥

 

और अधिक विभिन्न विषयों में अपनी प्रवृष्टि करो॥


पवन कुमार,
12 जून, 2016 समय 19:06 सायं 
(मेरी डायरी दि० 3 मार्च, 2015 समय 10:24 बजे प्रातः से)       

Sunday, 29 May 2016

देश-समाज

देश-समाज 


गाँव- देश- समाज, जगत के कूचे, पृथक ढ़ंग से हैं विकसित

सबके निश्चित स्वरूप हैं, एक विशेष रवैया उनसे निकसित॥

 

सब छोटे-बड़े टोलों के स्वामी, निज भाँति धमकाते-गुर्राते हैं

सब निज-वश ही करना चाहे, विरोध-स्वर न सहन करते हैं।

हमारा परिवेश सबसे उत्तम है, सब इसको हृदय से स्वीकारें

यदि विसंगति तो भी सर्व हेतु सहो, सर्वोपरि समाज-सेवा है॥

 

माना संपर्क यदा-कदा बाह्य से भी, कहे अपने तो ये रिवाज़

हमारे विषयों में हस्तक्षेप न करो, तुम क्या करते, न मतलब।

निज विचार-विश्वास-रूढ़ि, कानून स्वीकृत हैं, हम स्व-मस्त

चाहे दंभी-निर्दयी-असहिष्णु, पर निज-आलोचना न स्वीकृत॥

 

जनों ने बनाया एक सोच का ढ़र्रा, कितना दोषपूर्ण न है विचार

विद्रोही चुपके से स्वर उठाते, प्रबल तंत्र उन्हें न देता परवान।

यदि ईष्ट-देव, श्रेष्ठ-पुरुष, श्रुति-पर्व, रिवाज़ दबंगों को स्वीकार

सम्मान प्रदत्त, अन्यथा सर्व विवेक-कर्म कर दिए जाते नकार॥

 

छोटे गाँव के बगड़-मोहल्ले, उनमें विभिन्न जातियाँ, गौत्र, कुल

निज संबंधी-घर-कुटुंब वहीं हैं, सदस्यों की सोच-विचार पृथक।

छोटे कस्बों से जुड़ें गाँव, बाह्य-दृष्टि से सबके तौर-तरीके भिन्न

गाँव विशेष से कुछ निर्धारित, नाम सुनते ही समक्ष एक चरित्र॥

 

एक गाँव-वासी को दूसरे में जाकर, न है सहन स्व-कमी कथन

निज-प्रतिष्ठा सबसे प्रिय, कोई अन्य अनर्गल बोले, नहीं सहन।

सबमें कुछ तो बदलाव होता, एक सम न है लोगों का व्यवहार

स्थल-काल, नर का विशेष परिवेश, सबको कमोबेश स्वीकार॥

 

निज जलवायु-वनस्पति-पर्वत, रेगिस्तान-फसल-पशु व आराध्य

कौन जन यहाँ सफल बनें, कितना प्रभाव है एक अवसर प्रदान।

कितना ज्ञान-सम्मान यहाँ पर, या केवल बाहुबल को ही महत्त्व

बहु-कारक समन्वय है विचित्र, जितने टोले उतने विविध रूप॥

 

अनेक हैं गाथाऐं- संस्मरण- शैली, इतिहास एवं जागरूकता निज

त्रुटियाँ, बेवकूफियाँ, नादानियाँ, कुरीतियाँ, कुकर्म एवं हैं सुकर्म।

जानवर, विशेष वृक्ष, उनसे जुड़ी भ्रान्तियाँ, निज ही देवी-आत्माऐं

अपने चौराहें-मोड़ हैं, आँगन, कच्चे-पक्के पथ व खलिहान-गोरे॥

 

निज वयवृद्ध हैं, उनकी फटकार-कथाऐं, दूर-दृष्टि, हिताकांक्षा सर्व

मूँछों पर ताँव, गंभीर-विषय पांडित्य, निकट किंतु कितना प्रभाव।

कितना आपसी-आदर, क्या सब सोलह-कलाओं का लाभ उठाते

किंतु परस्पर बाँटते सुख-दुःख, सब गुण-दोष सुभाँति हैं समझते॥

 

सामूहिक-लोभ, परस्पर चूना लगाना, धोखाधड़ी, ईर्ष्या व अपवाद

निपुणता-चिंतन अनुरूप आचार-शैली, फिर अवसर देख बदलाव।

जब निज टोलों में ही कई भिन्न रूप, फिर अन्य तो हैं अति-पृथक

तथापि संपर्क तो अवश्य उनसे भी, वरन एक जगह न सकते रह॥

 

पुरुष- गाथा, जीव- विविधता, नर आचार-व्यवहार में हैं बहु-बदलाव

जन्म-शिशु-बाल-किशोर-युवा-अधेड़-वृद्ध व परम-सत्य मृत्यु-प्रस्थान।

फिर सब निज गति- क्रिया से चलते हैं, कुछ शनै तो या शीघ्र किंचित

प्रारब्ध-गंतव्य तो सबका एक ही, मध्य कैसा बीता, है जीवन-वृतांत॥

 

पर यह व्यक्ति तक सीमित न है, कैसे बड़े स्वरूपों में समाज-लक्षित

वे भी दूर से मुहल्ले ही लगते, कुछ एक सम विशेष चरित्र है दर्शित।

पर जैसे ही इकाई से ऊपर गए, समानता मिले, विरोधाभास भी होते

अनेक धर्म-शैली-बर्ताव-रंग-रूप-बोली, रीति-रिवाज़, क्षेत्र-लगाव में॥

 

जब देखें एक राज्य को ध्यान से, भिन्न क्षेत्र-जिलों में प्रारूपता विशेष

उनकी बोली-समृद्धि, साक्षरता-स्वास्थ्य, प्रगति-स्तर और लोक-प्रेम।

पर विविधता होते भी भिन्न अंगों में, राज्य इकाई मान लिया है जाता

अंचल से स्तर उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण आदि पर भी बहु-समानता॥

 

बड़ा लघु से ही निर्मित, स्थूलतया भाषा- साहित्य-देव-मंदिर एकरूप

जन भूल जाते अंतर्विरोध को, समूहों में आकर खो देते निज पहचान।

अंतः-ज्ञान कि हम मात्र उस वृहद का ही अवयव, न कोई विषमता है

बड़े पर्व, पीर-पैगंबर, मेले-उर्स में आकर, सब समाधिस्थ होना चाहें॥

 

देश-स्तर पर सूक्ष्मता से देखें तो समस्त संस्कृति एक सम ही दिखती

भूमि-लोग, जलवायु-संस्कृति, साहित्य-कला, प्रगति सबमें हैं सजती।

निवासी समृद्धि-सम्पन्नता पर ही गौरवान्वित, अपना राष्ट्र ही सर्वोत्तम

अन्य तो असभ्य, जन-विरोधी, विधर्मी, आतंकी-समर्थक व विवादित॥

 

निज पर्वत-शिखर, समुद्र, हवाऐं, वर्षा, विविध जीव, फसल-वृक्ष-फल

कष्ट-सुख, विजय- हार सब मिल बाँटें, तीज-त्यौहार मनाऐं एक संग।

सुवीर-नायक, रक्षक, खिलाड़ी, कवि-साहित्यकार, और विद्वान अपूर्व

वास्तु-भवन, विज्ञान, आचार-शैली, स्वास्थ्य, अतः गर्वानुभूति नैसर्गिक॥

 

पर सब राष्ट्र न देते हैं सम्मान, जनसंख्या अनेक स्थल अल्प-विकसित

सबको न सुपरिवेश तो सर्वोत्तम कैसे, पर देखो अन्यों ने विस्तार कृत।

नहीं विरोधाभास विश्वासों-पहनावे से, इतिहास का भी हो सम्मान कुछ

परंतु सार्वजनिक हित-विकास कैसे हो सम्भव, गहन मंथन है वाँछित॥

 

आवश्यकता है योग्य, विशाल-उर नायकों की, मानवता ही निज-अंग

माना कुछ स्थल दूषित-संकुचित हैं; दमित वातावरण, प्रजा अवदलित।

प्रबंधन न्यूनतम मानवीय स्तर संभव, जब सब करें ही सुरक्षित अनुभव

जीवन का इतना भी न अल्पमूल्य, कुछ स्वार्थ त्यागो उचित ही है सब॥

 

कौन ले तब दायित्व प्रबंधन का, अनेकों ने स्व-क्षेत्रों में तीर तान रखे हैं

अनेक स्वयंभू बन बैठे निज क्षेत्रों में, उनकी इच्छा का सिक्का चलता है।

कितने धर्म-नाम पर दबाना चाहते हैं, हम ही राज्य, नियम-कानून, विज्ञ

बड़े समृद्धों का जन-संसाधन पर अतिक्रमण, निर्धन मात्र दया-अधीन॥

 

क्यों है मानसिक-भौतिक-आर्थिक असमता, कैसे नर हो विकासोन्मुख

शिक्षा-स्वास्थ्य, भोजन-जल, बौद्धिक-विकास से हो सबका ही परिचय।

जब जीवंतता- पाठ पढ़ोगे तो, परिवेश संभव है हिताय-सुखाय सर्वजन

तब अधिक दायित्व-समर्थ, 'वसुधैव-कुटुंबकम' प्राचीन उद्गीत अंततः॥



पवन कुमार,
29 मई, 2016 समय 23:39 म० रा० 
(मेरी डायरी 28 जून, 2015 समय 10:48 प्रातः से)     

Sunday, 15 May 2016

सहिष्णुता

सहिष्णुता 


क्या पैमाना है निज-निष्ठा का ही, राष्ट्रभक्ति और देश-प्रेम का

बस कुछ संवाद पुनरावृत्त, लो हो गया अनुष्ठान सर्व-क्षेम का॥

 

क्यों एक मात्र सोच रखना ही इच्छा, विरोध तो नहीं स्वीकार

हमारा कथन ही सत्य, अन्यों को मनन-कथन नहीं अधिकार।

परिवेश निरत बस एक विचारधारा का, अन्य तो घोषित द्रोही

चाहे विवाद का मूल- ज्ञान न हो, पर संगठित हो उवाच सही॥

 

एक विशेष रंग- संवादों में ही, देश-प्रेम प्रदर्शन की इति-श्री

क्या दैनंदिन यथार्थ आचार है, उसमें तो श्रेष्ठता न झलकती।

प्रकृत्ति प्रदत्त सबमें मस्तिष्क है, अपनी सोच का भी महत्त्व

यावत न सार्वजनिक हित-बाधक, सहिष्णुता हो मूल-सत्त्व॥

 

सब समय की विचार-धाराओं में, दक्षिण- वाम रहता है सदा

 मस्तिष्क द्वि-कक्ष, दो लिंग, दो कर-पैर, सहकार टाले विपदा।

सभी को निजी सोच रखने की स्वतंत्रता, चाहे न हो सर्व-मान्य

चिंतन भी विकास- दौर से गुजरे, अनेक स्वतः होते अमान्य॥

 

क्या परिवेश किसी देश का, कैसे विज्ञ करते आचार-व्यवहार

 जब शिक्षा-अर्थ उन्मुक्त न होने दो, कैसे पनपेगा स्वच्छ प्यार?

सभी किसी स्तर पर एक काल, परिस्थिति अनुकूल ही मनन

कथित विकसित-कर्त्तव्य भी, उचित-समन्वय निर्माण सदैव॥

 

वैचारिक स्वतंत्रता हो सर्वाधिकार, उस पर संभव तर्क-वितर्क

कुछ आदान- प्रदान सिलसिला, शुभ मंशा से आदर-परस्पर।

सब मनुज स्व-कक्ष में रखना, क्यों तुम देते अंत्यज्य संज्ञा नाम

उच्च-भावना जन्म की सर्व-जन में, पूर्ण-भाव से ही कल्याण॥

 

विभिन्न काल-अवतरित विश्व-चिंतक, अनावश्यक सम सोच है

अनुसरण रुचि-परिवेश अनुरुप है, मन विकसित समय ही से।

मनीषी-चेष्टा भी पूर्ण-समाधान हेतु, पर सब न हो पाते आकृष्ट

सकल चिंतन तो सर्वदा अलब्ध, सत्य भी तो है मनन-अनुरुप॥

 

शिक्षणालय है एक विज्ञता-कुञ्ज, श्रेष्ठ-बुद्धि परिचित विधाओं से

हैं असम साहित्य-रूचि, एक काल-प्रगति, अमान्य कलाओं में।

क्या सब घोषित आचरण सटीक हैं, पूर्ण नियत-प्रशासन तंत्र में

विद्वान गहन सोचते हैं, सीमा-अतिक्रमण पर प्रश्न-चिन्ह लगाते॥

 

सब प्रजा यहाँ धरा-वासी, प्रत्येक का सम्मान हर की जिम्मेवारी

सबकी जान-माल सुरक्षा, स्वार्थ तज पूर्ण-पनपाने में भागीदारी।

निरंकुश नृप तो अनेक हुए हैं, आम-जन निर्धन का शोषण अति

दमन-प्रवृत्ति घातक, कुपरिवेश, अविकसित रह जाती संस्कृति॥

 

आओ मिल-बैठ करें विचार-विमर्श, सर्वोत्तम चेष्टा हेतु मंथन हो

हर मनुज का पूर्ण-भाव विकास हो, मात्र आडंबरों में न उलझो।

ऋतु-परिवर्तन सदा-काल की माँग, घोषित कर दो सब एकसम

आचार-शैली हो संचालित, अतिशय परस्पर- स्नेह वर्धन अयत्न॥

 

परस्पर सौहार्द-आदर भावनाओं का, सर्व मनुज-जाति एक ही

पर किंचित स्वार्थ छोड़ दो, सबके गृहों में हो समृद्धि-शांति ही।

पड़ौसी प्रति हो प्रेम का रिश्ता, सब एक से हैं मान लो हृदय में

तजो असमता-भेद प्रत्यक्ष आचार में, जुड़ेंगे सर्वांग देश-धर्म में॥

 

भारतीय संस्कृति अति-समृद्ध, अनेक भाँति विचारक अवतरित

जीवन एक स्थल न सिमटा, सर्व-दिशा देश-परिवेश से युजित।

शनै विश्व एक ग्राम में परिवर्तित, आपसी मेल-निर्वाह अनिवार्य

क्यों अविश्वास ले अश्वत्थामा सम शापित, प्रेम-मंत्र ही है यथार्थ॥

 

त्यागो घृणा, बढ़ाओ बंधु-स्नेह, स्व-जन द्रोह अति महद-संक्रमण

विशालोर बनो रविंद्रनाथ सम, विश्रुत-सम्मान, करो मृदुल चिंतन।

विश्व-बंधुत्व की बात करने वाला देश, यूँ आवेश में न सकता रह

सर्व-दायित्व, महावीर-संदेश 'जिओ और जीने दो' का अनुसरण॥

 

विरोध भी नहीं बुरा, पर अन्य को घृणित संज्ञाओं से न करो मंडित

ऐक्य-अनिवार्य संप्रभुता हेतु, अन्यथा कुविचार कर सकते खंडित॥


पवन कुमार, 
१७ मई, २०१६ समय २३:२० म० रात्रि   
(मेरी डायरी दि० १८ फरवरी, २०१६ समय ९:५१ प्रातः से)


Thursday, 14 April 2016

नवयुग तारक

नवयुग तारक


एक महापुरुष भारत-धरा पर अवतरित हुआ, बाबाओं के देश

छाप छोड़ी स्व-व्यक्तित्व की, मानवता कृतज्ञ-उऋण है निर्लेष॥

 

भारतवासी तो सदा मननशील, चराचर विश्व के जीवन-मरण प्रश्न

स्व- भाँति परिभाषा देते रहें, कुछ को सुहाता अन्यों को अनुचित।

'वसुधैव कुटुंबकम' सिद्धांत पुरातन, प्राणी समन्वय से ही जी पाता

'आत्मवत सर्व-भूतेषु' सर्व-भेद निर्मूल-सक्षम, यदि आचरण में होता॥

 

मनुज सुविज्ञ मानव-जाति एक-स्वरूप का, तभी तो प्रतिदिन निर्वाह

आम नर को निज कुल-गर्व पूर्वाग्रह भूल, सर्व-सहयोग का है आग्रह।

जीवात्मा एक परम-पुञ्ज का ही बिंदु, सब में दीप्त अंतः-बाह्य प्रकाश

परस्परता अनिवार्य प्रति-पग, जीव समाज-वासी - एकांत मात्र ह्रास॥

 

सर्व-भाव सर्व-प्राणी स्वतः निहित, प्रयोग उपयुक्त आवश्यक काल में

दुर्गुण - सुगुण हमसे चिपके हैं सदा, अपनी भाँति से व्यक्त विचार में।

उत्तम-विकृत एक स्थिति-प्रयुत परिभाषा, मूल्यांकन स्व-रूचि अनुसार

प्रत्येक विवेचन कर्म-स्वभाव का, निष्पक्ष ही सक्षम व्यक्तित्व परिणाम॥

 

सदैव असंख्य-कोटि जीव धरा पर विचरण करते हैं, लें लघु मन गान

गीत गाते स्व-धुन में, अनेक कर्ण-प्रिय तो कुछ अनर्गल-बेसुरी तान।

अनुलोम- विलोम समगुण अनुरूप समूह, प्रत्येक न सब हेतु हितकर

स्वार्थ एक प्रमुख जीव-विकार, मनुज बह जाता है लघु-तृष्णाओं पर॥

 

तथापि मानव एक ही जाति, यह सत्य भुलाकर कुछ स्वार्थ-आचरण

सर्व-प्राकृतिक संसाधन हों स्व-कर, हर जीव-अजीव पर आधिपत्य।

कुछ प्रयास से आगे बढ़ गए, भौतिक-सांस्कृतिक प्रतिभा विकसित

जीविका के निर्मल-नियम निर्माण, निज-जीवन तो न्यूनतम ललित॥

 

भागम-दौड़ परस्पर प्रतिस्पर्धा-आकांक्षा, स्व-कुल का ही पूर्ण-उत्कर्ष

अन्य छूटें न पीछे- न प्राथमिकता, निज संसाधन वृद्धि में बुद्धि प्रयुक्त।

निज एक विचारधारा सी बनाई, हमीं श्रेष्ठ अन्य निकृष्ट ही अतः त्याज्य

कुछ नियम स्व-हित ही निर्मित, सम्मुख-थोप दिए वृहद मनुजता पर॥

 

विश्व-क्रीड़ा ऊर्जा-सदुपयोग की, क्या उपकरण निकट प्रयोग भरपूर

विशाल पृथ्वी है धन-धान्य बाँट रही, उठ-खड़ा हो कर निर्धनता दूर।

है संघर्ष विचार-धाराओं का स्वाभाविक, प्रत्येक का स्व-विधि प्रज्ञान

क्यों हार मान जाते मन सस्ते में, आवश्यक नहीं तुम ही हों अनजान॥

 

वृहद-कोष प्रकृति द्वारा प्रस्तुत, निवेदन सभी से शिक्षित बन पढ़ लो

नर को विश्लेषण की योग्यता प्राप्त, प्रयास कर अनुपम निकाल लो।

जब विवेकी बने यदि जीवन में, सर्व-मनुजता हित-तत्व निकाल लोगे

महापुरुष स्वार्थ से अग्र-कदम, सर्वोत्तम-अनुसंधान का यत्न रखते॥

 

हर देश-काल में हैं युग-पुरुष अवतरण, गीता-महावाक्य उद्घोषित

जब-२ धर्म की ग्लानि है, प्राणी कष्ट-त्राण हेतु जन्म होगा स्वाभाविक।

नर कदापि न है विपत्ति-मुक्त, सदा एक साँसत हटी तो दूजी सम्मुख

रामबाण है `संकट कटें मिटे सब पीरा -जो सुमिरे हनुमत बलबीर'

 

मनुज ज्ञान-प्रमाद स्वरूप अंधकूप-पतित, बहुदा उचित पथ न सूझे

तब सक्षमों का मुख ताकते, विडंबना से बाहर करो - हम भी उबरें।

ये कौन बनते सुयोग्य या पैदा होते, कौन शक्ति यत्न कराती अक्षुण्ण

तन-मन क्षीणता त्याग सफल रूपांतरण, न अन्य लेंगे सतही पतन॥

 

नर शिशु क्षीण ही होता, गृह-कुल-समाज परिवेश सहायक घड़न में

पर सबको नहीं सम परिस्थितियाँ उपलब्ध, उतने में ही संतोष करते।

कुछ न संतुष्ट मात्र बहलावे से, क्या सत्य-सम्पदा- ज्ञानार्थ यत्न करते

दुर्दिन निवारण महद प्रयास से, न थक-हार बैठ जाना विपदाओं से॥

 

क्या मार्ग सौभाग्य-निर्माण का, मात्र देव-स्तुति या निरत स्व-प्रयास

सदुपयोग हर क्षण मनोरथ- प्रयोग का, न भ्रान्तियों का ही कयास।

समस्त शक्तियाँ मुष्टि-बद्ध करके, वे पथिक दूर आकाश- मार्ग के

स्व-संग विकास बृहदतर मानवता का, कर यत्न निकलो दुर्दिन से॥

 

जिसने स्व को योग्य-कर्मठ बनाया, होंगे सक्षम ध्रुव-पार गमन के

अध्येता मन-निग्रहों के, क्या सार्वजनिक हित - अपना दम लगाते।

विद्या-ग्राही खुला मन-मस्तिष्क धारण, हर पहलू पर मनन-सक्षम

न कुंठा-रोष निम्न परिवेश से, वर्धन अग्र-पंक्ति, अंतिम-असहन॥

 

कौन सकल मनुजता एक-जुट देखता, सब प्रश्नों का हल-निदान

नर स्वतः सक्षम अति-काष्टा, निर्मल नाथ मिले तो और बलवान।

चिरकाल से पुरुष भयभीत निज-विद्रूप से, बंधुओं से अधम-भाव

उनसा न दिख-बन सकता या नियम क्रूर प्रयासरत रखने बाहर॥

 

क्यों अधो मनो-वृत्ति पनपी काल में, स्व-दुर्बलता या बाह्य-शोषण

स्व मृदुल-गुण क्यों न देखते, क्षीणता भी तो करो प्रयास से बाहर।

व्यर्थ विकार मन में न रखना, अन्य बढ़े हैं मनोभाव द्वारा ही प्रबल

 सब में वही है परमात्मांश, दुर्बल मानकर निज को न करो विव्हल॥

 

त्वरित अपेक्षा है तन-मन सामर्थ्य, हँसी- उपहास स्थिति से उबार

जग देता मान सबलों को ही, निर्बल को परिहास या दयनीय भाव।

कब तक मुख ताकते रहोगे अन्यों का, अपनी भी लो स्थिति सुधार

बनो शक्तिवान मयूख-विकरित सूर्य-सम, तेज का सब लेंगे लाभ॥

 

बालक भीम बना महामानव धरा पर, सर्व-मनुजता सम-अधिकार

बुद्ध सम कल्याणक जीव- प्रकृति विकास, सब बढ़ें पूर्ण-साकार।

सामान्य नर-सहायक, पीड़ा देखी-समझी चिंतन कैसे हो परित्राण

निज विवेक-ज्ञान से संविधान समावेश, मनुजता पर बड़ा उपकार॥

 

शिक्षा सबकी प्राथमिकता, अंध-कूप से निकास का बड़ा हथियार

स्व-संघर्ष से ज्ञात होगी वाँछित गति, तुच्छ-वर्तमान तो न स्वीकार।

संगठन एक प्रबल योग शक्ति, लोहा ले सकते विपदा किसी से भी

समाज समरसता-प्रेम प्रादुर्भाव हो, लड़ने से मात्र स्व का ह्रास ही॥

 

दिव्यता तुम्हारे तन-मन पूर्वेव ही, क्यों व्यथित व्यर्थ-प्रताड़नाओं से

दक्ष शिक्षक सर्व-मनुजता हितैषी समक्ष, क्यों न प्रयास मुक्ति जैसे?

बंधन समस्त टूटने को तत्पर, तुम बस खड़े हों - दिखेगी परम राह

बाबा यह नवयुग तारक है, तंत्र-शक्ति दी सबको -नहीं शब्द मात्र॥


पवन कुमार,
दि० १४ अप्रैल, २०१६ समय १०:३३ प्रातः
(मेरी डायरी दि ० 9 मार्च, 2016 समय 8:40 प्रातः से)

Sunday, 10 April 2016

मन-सितार

मन-सितार 


कुछ सुर फूँटें व गीत बने, नाद-संगीत हो सर्वत्र विकिरित

मन-रेखाऐं शब्द बन ही जाऐं, अनुपम योग से अविस्मृत॥

 

मधुर सुर तो नित सजने ही चाहिऐं, इस जीवन-स्पंदन हेतु

हर तार झंकृत हो जाए, मन-सितार के प्रचुर उपयोग हेतु।

जीवन के हर मर्मांग का, यहाँ हो पूर्ण मनन-चिंतन निरंतर

कुछ भी नहीं छूटे जो संगीतमय हो, तन-मन पूर्ण समर्पण॥

 

इस देह-वीणा का एक मन-तार, एकदा तो आकर झनका तू

मैं सुनूँ संगीत तो इसका, कितने शिथिल-सुबद्ध हैं इसके तंतु?

एक उपयुक्त कर्षण वाँछित है हर तार में, हेतु संगीत-स्फुरण

किंतु पूर्व साजो-सामान देखूँ,-बाजन-गायन हो उपरांत तब॥

 

कौन हूँ, कहाँ से आया, क्या प्रयोजन, काज करना क्यों कब

किसको समर्पित हो, कैसे करना, प्रश्न अनेक हैं अनुत्तरित?

किसका प्रणेता है, कैसा स्पंदन, एक मूढ़ता उस अखंड से

आत्मसात परमानुभूति में, सर्वस्व समर्पण महद- लक्ष्य में॥

 

कौन वह है वीणा-निर्माता, प्राण-प्रतिष्ठा से बना योग्य-बजने

कब तक चलेंगे ही ये तार, मधुर संगीत फूटेगा झनकार से?

कौन हैं बजैया- सुनैया, करें किस प्रयोग के कौन विश्लेषण

कौन साधक-साधन, कितने अभ्यास से जनित न्यूनतम श्रेष्ठ?

 

अपनी तान साधी बने हैं तानसेन, हरि भजा तो बने हरिदास

हरेक सुर को क्रम से रखकर, बनाऐं हैं अनेक रागिनी-राग।

आचार्य भातखंडे ने संगीत-सुर घड़ साधकों को किए प्रस्तुत

भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, बिस्मिल्लाह से अनेक दिग्गज॥

 

प्रकृति में संगीत सर्वत्र है, नदी-कलकल में, पवन-सिरहन में

मेघ-गर्जन में, वर्षा पिटर-पिटर में, शिशु -खिलखिलाहट में।

विहंग नाद में, मयूर पीहू-२, सारस क्रंदन में, पिक कूँ-कूँ में

शुक टें-२, काक काँव-२, गोरैया चीं-२ में, कपोत गुटर-गूँ में॥

 

मतंग- चिंघाड़ में, केसरी-दहाड़ में, गो-महिषी के रम्भाने में,

दादुर-टर्राने, शाखामृग की गिटगिट में, अश्व हिनहिनाने में।

गर्दभ के रेंकने, श्वान के भौंकने में, विडाल की म्याऊँ- २ में

भालू की हुल-२ में, मेष की मैं-२ में, शृगाल की होऊ- २ में॥

 

भ्रमर- गुंजन में, मक्षिका भिनभिनाने में, मत्सर-गुनगुनाने में

मूषक मंद किट-२, कीट की शिट-२ में, अजा मिमियाने में।

वानर की चटर-पटर, नीली-व्हेल के गहन प्रखर सुर-गीत में

जलव्याघ्र गुरगुराहट, सांड की दहाड़ में, बुलबुल गायन में॥

 

सागर-ऊर्मियाँ उठने में, द्रुम के हिलने में, पल्लव सिहरने में

शैलों के टकरने, पर्वत-पाषाण गिरने से, बयार के बहने में।

हस्त-घर्षण में, द्वार बंद करने, पात्र टकरने, प्यालें खनकने में

कुट्टिम पर चलने से, शुष्क केशों में कंघी, वातयंत्र चलने में॥

 

कक्षा चहल- पहल में, सखी बतियाने, मित्र फुसफुसाहट में

रसिक- काव्य में, मनीषी चिंतन, प्रेमियों के धीमे संवाद में।

उँगलियाँ मटकने में, दामिनी कड़कने, चूड़ियों की खनक में

नुपुर-खनखनाहट में, देवालय- घंटियों, विवाह के मृदंग में॥

 

युद्ध नगाड़े, रथ-गमन शोर, वायुयान डयन, पर-फड़फड़ाने

पिपहरी-तान में, गिटार-तार, बाँसुरी-धुन में, बीन लहरने में।

श्वास-आवागमन में, कलम-कागज घर्षण, डायरी सरकने में

संगीत तो सर्वत्र फैला है, बस अनुभूति कर लूँ स्व-संगीत से॥

 

अन्य प्रयोग विस्तरित हों, होने दो मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
१० अप्रैल, २०१६ समय २१:00 रात्रि 
(मेरी डायरी २४ फरवरी, २०१५ समय १०:३० प्रातः से)