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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 20 May 2018

निकटस्थ - हित

निकटस्थ - हित 
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सभी निज संगठनों से जुड़े रहते, शांत रह समाज हेतु करते काम 
घर-कार्यालय माना प्रधान, पर यहीं नागरिक-दायित्व रूकता न। 

जिस परिवेश में हम जन्म लेते, उसके प्रति लगाव एक प्रवृत्ति सहज 
माना संपूर्ण ब्रह्मण्ड एक कुटुंब ही, निकटस्थों को समझते अधिक। 
हर परिवेश सदस्यों का श्रम-श्वेद माँगता, सुप्रबंधन तो सर्वत्र वाँछित 
जब अपने निर्धन-दुर्बल-दुःखी तो, निस्संदेह अति  त्याग आवश्यक। 

लोगों का अपनों से कुछ विशेष स्नेह ही, जितना हो सके आगे दो बढ़ा 
वृहद-जग की न्यूनतम अपेक्षाऐं भूलते, बंधुओं में ही खोए चाहते रहना। 
घर-संबंधी व कार्यालय को एक सा, अपनों को चाहिए अधिकतम लाभ
अन्य भाग्य कोसते, वह उच्च पदासीन है अपनों को ही फायदा दे रहा। 

चलो कुछ भाई-भतीजावाद भी, अधिक ही दया-दृष्टि क्षेत्र-जाति-धर्म पर 
 पर सार्वजनिक नर को न लोभ उचित, संविधान प्रदत्त कर्त्तव्य यह एक। 
निजों का ध्यान भी न अति बुरा, स्वास्थ्य-शिक्षा-विकास हेतु कमसकम 
यदि सक्षम तो स्वयं पथ ढूँढ़ लेंगे, तेरी  भूमिका मुख्यतया मार्गदर्शक। 

जीवन का सत्य-लक्ष्य अधिकतमों में  सकारात्मक परिवर्तन करने का 
लोग पढ़-लिखकर सुयोग्य बनें तो अपनी जिम्मेवारी खुद सकेंगे उठा। 
कब तक रहेंगे वे वैसाखियों पर, खड़ा ही होना सिखला दो सहारे-निज
 जन-स्थापित कई संगठन हैं पर-सहायतार्थ, अधिकतम कर्त्तव्य-पालन। 

माना घर-जीविकार्थ पूर्वेव अपेक्षित, तथापि कुछ ऊर्जा वाँछित अन्यार्थ 
लघु उपकार से भी महद-हित, डूबते को तिनके का सहारा है वरदान। 
जितना संभव हो उतना कर दो, तुम भी अनेक सहायताओं से ही वर्धित 
कुछ समन्वय कर चलो जहाँ संभव, अन्यों  संग अपने भी प्रगति-पथ।   

हर स्तर पर सदा न्यूनाधिक राजनीति, तुमको काम करना चाहिए आना 
कमसकम नियमानुसार लाभ भी दोगे तो अति जन-कल्याण हो सकता। 
मात्र रुदन-शिकायतों से न हल, सकारात्मक कर्म-परिणाम से ही श्लाघा 
एक समय मिला महादान हेतु, थोड़ा सोचो व सहायतार्थ चरण दो बढ़ा। 


पवन कुमार,
२० मई, २०१८ समय 00:0७ मध्य रात्रि 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १४ जून, २०१७ समय ९:४६ प्रातः से ) 

Sunday, 6 May 2018

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका
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अन्वेषण प्रक्रिया से एक शब्द-यात्रा, प्राप्ति तो कुछ अग्र चरण  
सकल जीवन यूँ चिंतन में बीता, ठहर क्यूँ न उठाता अनुपम। 

चारों ओर ध्वनि-नाद गुंजायमान, मैं कर्ण होते भी न श्रव्य-सक्षम  
अंतः से कुछ भी निकल न रहा, यूँ मूढ़ भाँति प्रतीक्षा करता बस। 
इतना विशाल विश्व सर्व-दिशा ध्वनित, पर मैं तो मात्र सा निस्पंद 
कुछ तरंगें तो मुझमें से भी उदित, सुयोग हो बात बने किञ्चित। 

क्यूँ रिक्तता मन-देह प्राण में, चाहकर भी न कुछ मनन-अक्षम 
क्या कोई गति ही न है, कोलाहल में सर्वथा भी न लगता दिल। 
उससे पृथक न कोई प्रलोभन, वर्तमान क्षण भी स्व तक सीमित 
हर दुविधा निज-हल ले आती, चिर-काल से मुझसे न बना पर। 

क्या कुछ शून्यातीत होते हुए भी, अंतः-स्वर निकलने हैं संभव 
स्व  को समझा ही न पाता, कैसे क्या घटित, जानना कठिन।  
यह क्या है स्व-क्षेत्र, न सुलझती मस्तिष्क-ग्रंथि की प्रहेलिका 
 स्वयं अपार, बहु-साँसते जग की, कई पेंचों से विकट-सामना। 

कितना सिकुड़ जाता स्वयं में,  अतिरिक्त संवाद न संभव भी 
न जग-ज्ञान, कैसे जन परस्पर-संवाद, मैं तो खड़ा एकाकी ही। 
दिवस-काल में कुछ शब्द संचार, जगत-चलन को आवश्यक 
कुछ निश्चित कर्त्तव्य भृति-कुटुंब हेतु भी, निर्वाह तो अनिवार्य।  

उसमें न अति-रूचि,  करना विवशता, स्व में खोया  चाहता 
निज-मूढ़ता में इतना तल्लीन हूँ, व्यग्र होते भी पाता सांत्वना। 
निष्ठ अज्ञात परम-तत्व खोज में, कब सान्निध्य, फिरूँ भटकता
अति-विडंबना न ध्येय-ध्यान, क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ न पता। 

विचित्र स्थिति क्या ऐसा भी, अचेतना में ही समग्र वय व्यतीत 
मति-कर्मशाला में तो अनेक निज-मग्न, क्या खोजते न प्रतीत। 
जग आभासित कि मतिमंद हैं, वरन आगे बढ़ न करते संवाद 
सत्य अंतः-स्थिति वे जानें, बाहरी तो लगा सकते बस कयास। 

क्या अवस्था स्व-तल्लीनता की, कुछ न सूझे तथापि रहना चाहता 
न बहिर्दर्शन-इच्छा, जितना संकुचन संभव, उतना प्रयास करता। 
जीवन-चिंतन  विज्ञान में न महद रुचि, इस दशा में ही परमानंद  
न ईश-प्राप्ति ही इच्छा, जी लूँ इन पलों को भरपूर यही कवायद। 

क्या इस सम स्थिति से कुछ निष्कर्ष संभव, या मात्र नदी सम प्रवाह 
उद्गम-उद्भव-संगम अन्य अपनों से,  या जलनिधि में निश्चित विलय। 
किसी भी उसकी एक अवस्था में, पर न कोई स्पंदन चलित सहज 
 किस जीव-विकास प्रक्रिया की अमुक अंश-यात्रा, कथापि ज्ञात न। 

कौन नियंत्रक इस मन-देह-प्राण का, क्यों स्थिति में रखना चाहता इस 
क्या अपेक्षाऐं उसकी न मालूम प्रयोजन हितकारी अथवा समय-व्यर्थ। 
कर्म तो बहु-प्रकार के शक्य थे इन पलों में, इसमें ही धकाया गया क्यों 
क्यों रह-२ वैसे भाव उभरते, सदुपयोग हो तो कुछ काम की बात हो। 

अनेक विद्वद-जनों के ग्रंथ समक्ष, न जानता वे भी ऐसा करते अनुभव
पर लेखन-संवाद जग-समक्ष विलग ही, ज्ञान विशेष  अन्य  प्रयोजन। 
न प्रतीत कि गुण-ग्राह्य हूँ, इस स्थिति से क्या किसी  को होगा ही लाभ
पर यहाँ न तो और हैं निज ही न पता, बस चल रहें इसी में है आनंद। 

अब लेखन-अंत ओर बढ़ना होगा, पर  सिलसिला मन में चलित सतत  
आओ इसे महका लें, शरद-पूर्णिमा निकट-गत, चंदा की प्रखर चमक। 
 भाँति-२ के पुष्प खिलने शुरू हो रहें,  हाँ पतझड़ का अपना आनंद भी 
जब झड़ जाऐंगे पुरातन तो नवोदित, नव-जीवन से ही निकलेगी सृष्टि। 

जैसा भी जहाँ मुझे पूर्णातिरेक रहना  चाहिए, निज में तो है परमानंद 
स्व-आत्मसात औरों के श्रेयस बोध में  मदद,  सदुपयोग में लो अतः। 
अग्र-सहज स्थिति मिलन दैवाधीन, अनर्थक-संवाद दूरी अति-सुभीता  
अज्ञात ज्ञान-मिलन कब किस क्षण, अभी रस में, ऐसे ही रहना चाहता। 

चलो चलते कहीं दूर यात्रा, अपने में भी अनेक क्षेत्र-विचित्रताऐं पूरित 
परिचय हो जग भी देख लूँगा, संपूर्ण  प्रयास है स्व-संवाद व प्रबोध। 


पवन कुमार,
६ मई, २०१८ समय १९:१२ सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० १८ अक्टूबर, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)

Saturday, 28 April 2018

निज-निर्णय

निज-निर्णय 
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लोगों से सीखना ही होगा, निर्भीकता से निज बात कहना   
लोग चाहे पसंद करें या नहीं, जो जँचता प्रस्तुत कर देना।  

उक्ति है  'Always Take Sides', जो एक को मनानुरूप लगे 
हम सदा उचित न सोच पाते, पूर्वाग्रह-आवरण ओढ़े रहते। 
बहुदा एक मन बनाते, परिस्थिति-परिवेश-शिक्षण अनुसार 
वही सर्वोचित, परिणत भी न चाहे यावत लगे न बड़ा झटका। 

कौन उचित देख सकता, भावुक होकर विषयों में जुड़े रहते 
पता न क्या सोच रहें, किसी ने मन की कह दी, साथ हो लिए। 
सदृश-संपर्क सदा सुखद, कोई किञ्चित हटे रिपु सम प्रतीत  
विषम विचार-धाराओं से छद्म युद्ध, हर स्व में उचित घोषित।  

अद्यतन भारत में गुरु-वाद, विमुद्रीकरण ५००-१००० रु० के नोटों का
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई ठीक कहे समझकर, या यूँ ही हाँ।  
नेता जनों को बहुदा प्रलोभन देते, सत्य में क्या लाभ हो सब अज्ञात 
कुछ समय हेतु मन प्रसन्न, सत्य भी कि सदैव न रह सकते निराश। 

आम जनता को तो सब्जबाग दिखाए जाते, चुनावों में जुमले सुनते  
नितांत असंभव बात को भी लोग प्रायः सत्य मान विश्वास कर लेते। 
वक्ता भी जाने न हाथ उसके, तथापि अभी तो बस निर्वाचन-जीत   
आगे का देखा जाएगा, लोग भूलेंगे, आ जाऐंगे जीवन में वास्तविक। 

पर क्या अग्रिम संभावना न अन्वेषण, विरोध तो होता हर विषय का 
नेता बड़े फैसले ले लेते हैं, कुछ स्वार्थ भी, सरल भी है मिथ्या संभव। 
वे भी तो एक मानव ही, उनसे भी होती सब तरह की भूले-अपराध  
पर क्या हाथ धरे बैठे, शक्ति में हो कुछ परियोजनाऐं करो साकार। 

जग ने कुछ तो कहना है पर करो जो सार्वजनिक हित में लगे उचित
जरूरी न सहयोगी-प्रशंसक सदा ही खुश, उनकी भी तो सोच-निज। 
विरोधी-वार्ता को तो छोड़ दो, हर कदम पर है स्वार्थ-कुचक्र ही दर्शन 
कुछ उचित तर्क भी संभव, अतः समझना, अपने से भी उठना ऊपर। 

क्या सक्षम उचित-जाँचन में, जबकि विषयों का अति अल्प-ज्ञान है
फिर जिंदगी में कुछ जोखिम तो लेना होगा, होने के लिए उठ खड़े। 
हर पहलू में है अच्छाई-बुराई, हर महद प्रयोग का सदा मूल्य एक  
वह अहम को भी देना पड़ता, दुनिया भूलों का हिसाब लेगी माँग। 

किसको छोड़ता जग, अति-पूर्व मृत को भी तंजों से जिलाए रखता 
हर महान पर भी चरित्र-दोषारोपण, सामान्यों की तो करें बात क्या। 
इतिहास-पुराणों, महाकाव्य-ग्रंथों में, सब तरह के चरित्रों का बखान 
माना लेखक का भी एक मंतव्य, पर प्रजा भी का निज-ढ़ंग विचार।  

माना स्वार्थ एक सीमा, बहुदा क्षीणता से बाहर आने का यत्न  
जरूरी न गृहकार्य पूर्ण ही, सलाहकारों पर भी अति-निर्भर। 
वे भी सब अपूर्ण, ज्ञान-अनुभव-विवेक सीमा में उपदेश करते 
जीवन तो सब भाँति, अपूर्णता हुए भी सब कार्य करने पड़ते। 

देश में एक महा बौद्धिक युद्ध, सबका विषय पर निज-मंतव्य 
पक्ष-विपक्ष में भक्तों-विरोधियों के सब संवाद हो रहें प्रचलित। 
न जाना चाहूँ गुण-अवगुण , पर निर्णय तो शासन द्वारा ले गया 
नकारात्मकता क्षीण हो, भविष्य मोदी को समेकित आँकेगा।

माना विशेषज्ञ उनके पास भी, पर विद्वानों की शिक्षा श्रेयस्कर
आस्था लेना जरूरी जबकि ज्ञात प्रबल वेग, हानि विफलता पर।
आपकी मंशा है पवित्र संभव, आमजन-सुविधा हेतु कुछ छूट थी
पर विशाल १२५ करोड़ जन, बहु अभाव-कष्टों में रहा देश जी।

तुलना अनुचित संपन्नों की निर्धनों से, जो अति-अभाव में जीते
लोगों का हक़ मार अनेक अमीर, कोई कहे तो दुश्मन लगते।
कहाँ से वैभव-साम्राज्य फूटता, क्या नेकी से ही कमाया पैसा
लाभ की भी हो सीमा, सच-झूठ बोल ही न उल्लू करे सीधा।

देश में विधि-राज्य होना आवश्यक, न्याय मिले खुशहाल सब
उत्तम नृप का तो निर्बल-हित मन, निस्संदेह समता वृद्धि कुछ।
यह न दानवीरता या अनुकंपा, सबको सम हक़ जो ईश भी चाहे
छोटे दड़बों में निर्धन-निरीह, कुछ प्रकाश हो तो सुकून मिले।

क्या मत कवायद में, लुब्ध-चाटुकार-पूर्वाग्रहियों की बात छोड़
सब निज ढंग से स्थिति-लाभ लेंगे, किंचित लाभ आम प्रजा को।
यह 'ऊँट के मुँह में जीरा', या अनावश्यक कष्ट में देना धकेल
समृद्धों पास तो सब उपकरण, निर्बलों को ही परेशानी महद।

चलो अल्प-कालिक दुःख भी झेलेंगे, यदि अग्र सुख-संभावना
पर जरूरी कि लूट-खसोट संस्कृति पर चाहिए विराम लगना।
 फिर बाँटना सभी में यथोचित, देश की खुशहाली सभी में बँटे
न्याय बड़ा शब्द यदि प्रयोगित, इससे विश्व-चित्र बदल सके।

मेरी मंशा ठीक चाहे तरीका न, न ही उस पर पूर्ण-विचार
जो किया जैसे बना, भाई सहयोग से ठीक करना आकर।
आँको जो उचित लगे, मंशा पर प्रश्न न हो, ठगा जा सकता हूँ
इतना बुरा न, दारिद्रय देखा, आज स्थिति में तो क्यूँ न सोचूँ।

मत तुलना करो अन्य पूर्वजों से, इस काल में हूँ काम दो करने
टाँग-खिंचाई प्रजातंत्र में जरूरी, तंज-तर्क उचित दिशा देते।
चाटुकार तो मरवा ही देंगे, प्रजा तुम सहारे सहयोग देना पूर्ति
प्रतिबध्दता समरस समाज प्रति, लोकहित में ही निज-उन्नति।

पवन कुमार,
२८ अप्रैल, २१०८ समय ११:२३ म० रा०
(मेरी डायरी दि० ३० नवंबर, २०१६ समय ९:२० प्रातः से)

Sunday, 1 April 2018

गहराई

गहराई 
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'गहराई' शब्द अभी मेरे जेहन में आया है और मैं सोच रहा हूँ कि इसे कैसे परिभाषित करूँ, कैसे इसे अपने साथ जोड़ूँ, और कैसे इससे अनुभूत होऊँ। 'गहराई' क्या है - यह मात्र अनदेखी भ्रान्ति तो नहीं है जिसकी दूर से ही कुछ कल्पना करके हम अपना कुछ अस्पष्ट सा निष्कर्ष निकाल लेते हैं या यह हमें उस स्थिति तक पहुँचने हेतु मजबूर या प्रेरित करती है और रहस्यों की एक परत खोलने में सहायता करती है। किसी भी शब्द का अपना एक वजूद है, हम उसे समझे अथवा नहीं यह अलग बात है। शायद हमें यह भी स्वतंत्रता है कि उस शब्द की अपने ढंग से परिभाषित करें या उसका प्रयोग अपनी सुविधा अथवा अपने तरीके से कहने के लिए करें। 'गहराई' वैसे तो परिमाणसूचक शब्द है लेकिन अभी मैं उसका एक शब्द मानकर ही उपयोग करना चाहता हूँ। 

मेरे लिए शायद 'गहराई' नाम की कोई वस्तु या तथ्य नहीं है और मैं त्रि-आयामी की जगह मात्र द्वि-आयामी धरातल पर ही रह रहा हूँ। यह शायद मेरा नेत्र-दोष है कि मैं तथ्यों की गहराई में जा ही नहीं पाता या कोशिश भी नहीं करता। शायद आँखों पर काला चश्मा लगाए बैठा हूँ जिसमे से रंगों की सुंदरता स्वतः मद्धम हो जाती है क्योंकि यह अति सहज स्थिति है जिसमे परिश्रम करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस जैसा है, जो सहज है, उसे देखते जाओ और जो थोड़ा बहुत समझ में आता है उसमे संतुष्ट हो जाओ। बड़ी सुविधा है विचार की आवश्यकता ही नहीं। बस जिए जाओ, ढ़ोए जाओ और बगैर कष्ट के संतुष्ट हो जाओ। 

परन्तु वाँछित स्थिति क्या है ? कैसे कोई बगैर ठीक से देखे उचित अनुमान या निर्णय ले सकता है? अगर ऐसा करते हो तो मूर्ख हो अथवा आत्म-तुष्टि, जो झूठी है, का भ्रम लगाए बैठे हो। फिर तुम्हारा क्या अस्तित्व या स्थिति है - ठीक या गलत? प्रश्न कठिन है लेकिन मनीषी कहते हैं कि कुछ पाने हेतु प्रयास करना पड़ता है, मोती उन्हें ही मिलते हैं जो गहराई में डुबकी लगाते हैं। अतः अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता है। केवल सतही धरातल पर रहने से कुछ नहीं मिलने वाला - दुनिया में विकास तभी हुआ है जब लोगों ने मेहनत की है, अपने को गलाया है और सुविधा छोड़ी है। तभी विकास संभव है जब उचित परिपेक्ष्य में देखना शुरू कर दे, उसके लिए चाहे सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी अथवा अन्य किसी उपकरण की सहायता क्यों न लेनी पड़े। बहुत मेहनत करनी पड़ेगी अगर अपना अथवा समाज या किसी भी आयाम को ठीक करना चाहते हो। गहराई तक ठीक जानने का रास्ता ढूँढना पड़ेगा और ठीक निर्णय लेने हेतु उसका प्रयोग करना पड़ेगा। 

पवन कुमार 
१ अप्रैल, २०१८ समय १८:०७ सायं 
(मेरी डायरी २६ मार्च, २००५ समय १०:२५ रात्रि से)   

Sunday, 25 March 2018

विद्यानग-पथ

विद्यानग-पथ 
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कितना बना वह शिक्षित, इसका पैमाना है क्या 
कुछ उपाधियाँ एकत्रित भी, पर क्या वे पर्याप्त ?

कितना शिक्षा-यत्न, कितना वास्तव में ही समझता  
कितनी फिर स्मृति ही, कितना आचार में ला पाता ? 
कितने अल्प सतही ज्ञान पर, यूँ इतराता है फिरता 
स्वयं को फिर विद्यानग समझता, एक घोर बचपना! 

उसके मन की क्या थाह, चेतना कहाँ तक पहुँचती 
क्या वर्णन-संवाद अन्यों से, निज संग कैसी दोस्ती?
किन विषयों पर गूढ़ संवाद, कहाँ उसे मिलता रस 
कहीं नर क्षीणता-उपहास, बनाता तो न हास्यास्पद?

क्यों रहता नादान व नहीं डूब जाता गहन अध्ययन में 
कुछ विद्या-अर्जन हो तो उचित संवाद भी लगे करने। 
अविद्या को तुम ज्ञान-दीप प्रकाश से किञ्चित हटा  दो 
कालिदास सम मस्तिष्क-कपाट को पूरा ही खोल दो। 

बुद्धि कोष्टक-द्वार अर्ध-बंद, नहीं है उनका पूर्ण प्रयोग 
कितनी उनमें संभावना,  कैसे खुले एक प्रश्न विशाल। 
किनका साथ  चाहिए, जो कुछ उत्प्रेरित कर तो सके 
कौन उत्तम-पथ गमन अथक, आत्म-जागृति करा दे ?

कुछ उल्टा-सुलटा सीख, विद्वता की करता कोशिश 
जब न है अभिज्ञान, तो क्यों नहीं करता मौन-धारण?  
उचित ज्ञान चाहे क्यों न हो अल्प, तथापि है सार्थक   
बुद्धि सागर तो विपुल, पर डुबकी-सामर्थ्य  सीमित। 

 शिक्षित होने की अभिलाषा, रूचि स्वाध्याय में नहीं पर 
कुछ लेखन-चेष्टा भी, पर बिना किसी विषय के प्रारम्भ। 
निरंतरता कुछ दिखती, पर भटकाव भी होता ही बहुत 
कैसे फिर शिक्षित-श्रेणी में, पठन-लेखन दोनों ही अल्प।

कैसे बने शिक्षित, मात्र कुछ विषय-भाषा लेखनी तो नहीं 
बहु-विषय व पुष्कल तथ्य, पर कुछ नर तो अति प्रवीण। 
हर एक तो विश्व लिए,  कितनों को हम जानने में सक्षम  
तथापि प्रयास संभव, यदा-कदा ही यह हूक लगती पर। 

सत्य ही पूर्ण-ज्ञान अति-दुष्कर, फिर किस स्थल हो यत्न
  कौन वे अभिरुचि-विषय, जहाँ हो महद ऊर्जा-विनिवेश।  
कैसे स्व-थाह बढ़ सकती, अन्यों के निकट आने से कुछ 
कैसे हो ज्ञान-वर्धन निज-धारा का, एक विचारणीय प्रश्न। 

देखूँ महामानवों को तो, वे भी न हैं सर्व-विषय पारंगत  
अतः सब मन-भ्रांतियाँ खण्डित, कर लो स्व-गर्व मर्दन। 
अडिग कुछ शैक्ष्य-शैली में, जो जानो औरों में बाँटो वह
होगा फिर सुधार गिर्द, और ज्ञान-मार्ग की बढ़ेगी राह। 

निज चरण-शोधन कर लो, अति-दूरी है सुधार दुर्धर  
जीवन-दुराह पर चलकर, संभावना बढ़ा लो सशक्त। 
विद्या-ग्रहण में निरत-उन्मत्त, यत्न से स्व-निर्मित सुभग 
जीवन माना अति जटिल, समझो कुछ बनाओ सरल। 

सुरूचियों को बढ़ा दे, शिक्षा का पाठ पढ़ा उचित कुछ 
अभी निद्रा-तंद्रा तंग कर रही, सोने को रही बाध्य कर। 
कुछ न सूझे उत्तम तो, फिर कभी चेतना का लेना संग 
निश्चय ही शिक्षित बन जाओगे, पर योग्य बना दे प्रथम। 

पवन कुमार,
२५ मार्च, २०१८ समय १८:२९ सायं 
( मेरी डायरी दि० ९ अगस्त, २०१४ समय ११:१५ बजे म०रा० से )  


Saturday, 24 February 2018

कर्त्तव्य-परायणता

  कर्त्तव्य-परायणता 

कितने दिन का चुग्गा-पानी नर का, न कोई कथन-शक्यता 
अति-दूरी होंठ एवं प्याले मध्य, जो खा लिया वही है अपना। 

स्थल-विरक्तता, व्यक्ति-त्यक्ता, प्रायः सबसे निर्लेपता  भाव 
मानव छूटता जाता बंधनों से, या स्व-जिम्मेवारियों से दुराव। 
जगत के रासें इतने क्षीण भी नहीं, कि बैठे-२ हल  हो  जाऐं  
कहाँ के पाप कहाँ भोगने पड़ेंगे, न पिंड छूटे चाहे भाग जाए।

कुछ अनिकृष्ट हाथ पर हाथ धरे बैठते, पूर्व-चिंतित बुरा ही 
स्थिति ऐसी पैदा कि कलमुँही जुबान निज-प्रभाव लाएगी ही। 
 चेष्टा तंत्र पंगु करने की, न खुद करें औरों को भी करने देंगे न 
अवरों  पर पूर्ण-प्रभाव, वरिष्ठों की फटकार से भी अपरवाह। 

पलायनवादी प्रवृत्ति जग-कर्त्तव्यों से, पर स्वार्थों में न अल्पता 
दो दिवस भी विलंब यदि वेतन, गगन सिर पर सही उठाना। 
निज विभ्रम ज्ञान-अहंकार में विमूढ़, मनन एक हठी सा बस 
हम तो मरे तुम भी न बचोगे, ऐसों को बनाया प्रतिष्ठान-अंग। 

कर्त्तव्य-विमूढ़ता, शासन-विरोध, उत्तम अश्रव्य व स्व-मदांध 
न कोई परम का ज्ञान, स्व-अविश्वास और तर्क जैसे हैं सगर्व। 
घोर-नर्क स्थिति पर स्व-घोषित ज्ञानी, न किसी के योग्य-विश्वास
दुर्जन-मित्रता, सज्जन-दुराभाव, प्रकृति ऐसी कि अभी दे त्याग। 

यदि ज्ञान तो भी अकर्मण्य, कर्म वे जिनका फल नकारात्मक
बस निष्प्रयोजन कागज कृष्ण करते, समझते हम ही सक्षम। 
पर-दुरालाप न है उत्तम प्रवृत्ति, पर कष्ट होता जब आए बाधा 
क्या मात्र हो वेतन-ग्रहण माध्यम, संस्था-आदर क्यों न चिंता ? 

क्यों अपुण्य सोच सदा, क्यों ऐसी तुम्हारी तामसिक प्रवृत्ति  
क्यों न रचनात्मक, कुछ सुकर्म से छोड़ते निज-सुनाम ही ? 
क्या जीवन में सर्व-वंचना ही लेनी, या सुयशार्थ भी कुछ कर्म 
मत गँवा हीरक-जन्म को, जब जाँचा जाएगा तो बड़ा दुःख।  

निर्मोहीपन एक गुण, पर जहाँ से भृत्ति उस हेतु न चिंतन 
प्राथमिकता भय-वश की, पर रणछोड़ से तो कहाँ सिद्ध? 
हर समय शंका सब पर, माना सर्व-जग तेरे विरोध में ही  
कर्म-शील अधम, मन व्यस्त पर-निंदा काना-फूसी में भी। 

क्यों बुरा सोच सबका व निज-अहित, एक शैली सी गठन 
न तू आदर्श-प्रतीक, गजदंत खाने को और दर्शन के अन्य। 
बस यूँही जीवन-आयु बिता रहें, उस पार भी ठौर न मिलेगा 
संसार से सदा भागे फिरते हो, परलोक में भी पाओगे क्या ? 

 कुछ कर्मठता-प्रतीक बनो, सकारात्मकता का जीवन प्रवेश 
करो संचार अन्यों से जहाँ जरूरी, स्व-कर्त्तव्यों प्रति सचेत। 
क्यों अन्य कहें कार्य न करते, अपनी सुध तेरी  प्रतिबद्धता  
सम-स्थिति स्थापना तो  कर्म से ही, न कि से अकर्मण्यता। 

धीर-मन स्वामी बनो, किञ्चित अन्य आऐंगे श्लाघा हेतु तव
जग सत्य परिवर्तन चाहता, माना परोक्ष भी अनेक षडयंत्र।  
चुगली-स्वार्थ, सज्जन-विरोध, चलते कामों में रोड़े अटकाना 
सोचते हटाने हेतु, जबकि उचित वातावरण दायित्व उनका। 

तेरा क्षेत्र किञ्चित अल्प-संख्यित, वे डराते-धमकाते बाहुबल से 
हम जैसे चाहे तुमसे व्यवहार करे, हम स्वामी क्यों नहीं सुनते। 
घुड़कियों से भय-प्रसारण मंशा, अन्य भी तो सेवा करते हमारी 
क्यों शासन-नाम से हमारी बात न मानते, यह तो बड़ी हेंकड़ी। 

हम मारे भी तुम न चीखो, जैसे कहा जा रहा मौन जाओ सुने 
मेरा प्रांगण मेरी न मानोगे, तुमको छोड़कर अन्य को ले लेंगे। 
अन्य की सब विसंगतियाँ सहन, तुमको सिखा देंगे कार्य-निर्वाह 
    हम चाहे मिथ्या-कर्म करें, तुम बस रखो अपने काम से काम।     

कैसा विरोधाभास जनमात्र में, चरम स्वार्थपरता भारी आदर्श पर 
असत्य वचन न लज्जा, मुक्ति हेतु उल्टी-सीधी युक्ति लगाए बस। 
पर-लाँछन पर स्वयं न सुकरणीय दान, बंधु तेरा भी अहित होगा 
मानो अति-हानि उठानी पड़ेगी, स्वयं रोपित तो काटना पड़ेगा। 

पवन कुमार,
२४ फरवरी, २०१८ समय १७:२४ अपराह्न 
(मेरी डायरी ३ जुलाई, २०१५ समय ९:४८ प्रातः से)   

Saturday, 10 February 2018

सुवीर

सुवीर 
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कुछ लघु ही किन्तु अनुपम, अल्प-शब्दों में आह्वानित 
भाव अति सूक्ष्म, अर्थ गूढ़ व पावन सुंदर का एकत्रण। 

पूर्ण मन का स्वामी और त्याग त्यज्य को हुआ सजग 
कुछ बुद्ध-दर्शन ग्रहण-प्रेरणित, कुछ अवस्था सुमधुर। 
लुप्त हुआ स्वान्वेषण में, पवित्र-पुष्कर में किया स्नान 
मिटें जहाँ सब व्याधियाँ, उस समाधि से साक्षात्कार। 

कुछ उच्च-अवस्था ज्ञान, इस निर्जीवी को मिला ध्यान 
न करेगा व्यर्थ स्वयं को, निज-स्थिति को प्राप्त मान। 
आगामी प्रतिक्षण को वह, सदुपयोग में अग्र बिताएगा 
कितना बेहतर संभव इससे, इसकी क्षमता बताएगा। 

मनन विमल व चिंतन-व्यापक, निरंजन-आशुतोष सम  
न कोई चाह मोह-बंधन की, सिद्धार्थ सम स्वयं-साधन। 
संग लेगा विश्रुत-मनीषियों का, जिन्होंने निज को समझा 
नहीं बनेगा भार वह धरा पर, कुछ सार्थक कर दिखाना। 

नहीं रुकेगा कठिन-अवरोधों से, दिशा उसने बना ली  
पूर्ण-सत्य पाने के उद्देश्य की, उसने चित्त में है ठानी। 
बनेगा कृष्ण सम योगी, जिसको परम-दर्शन का ज्ञान  
न करेगा प्रगल्भ मन-तन में, क्योंकि अंतर का प्रज्ञान । 

चल दिया राह पर वह लघु नर, उन्नत उसका मस्तक 
अन्वेषण उसकी चित्त-प्रवृत्ति, उद्देश्य उसका पवित्र। 
वह समझेगा इस तंत्र को और कुछ करने को उद्यत 
जीवन-ऋण चुकाने का समय, और न गँवाना अब। 

सबल मन का प्रेरक, जरूरी-वाँछित पर देगा ध्यान 
कुछ भी करने से पहले वह, करेगा उस पर मनन। 
बना ली उसने प्रवृत्ति ऐसी, जिससे शुभ ही निष्पादित 
सुवीर चला पथ अविरल सतत, अपने पूर्व से विलग। 

और मंगलकामना उसके लिए। 

पवन कुमार,
१० फरवरी, २०१८ समय  ११:०७ बजे रात्रि  
(मेरी डायरी दि० १४ जून, २०१४ समय १२:२५ दोपहर से )