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Monday, 1 October 2018

आत्म-परिष्कार

आत्म-परिष्कार
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कौन उत्कृष्ट रूप स्व से संभव, मार्ग निज-उज्ज्वल करें दर्शित
कैसे देह-मानस कायांतरित ही, क्या वृद्धि की सीमा किञ्चित? 

कैसे 'सुंदरतम मन' प्राप्ति, धरा भाँति सम-असम धारण सक्षम 
कैसे प्रमाद त्याग सुवृति हेतु, जीव  चेष्टा पराकाष्टा करें ग्रहण। 
कैसे मन निर्मल चिंतन कर सकता, अनुपम रूप संभव विचार 
किन उत्तम गुणों का हृदय प्रवेश, सहज बन सकें निज-धाम। 

कौन सिखा सकते, मात्र न समक्ष मन-देह अपितु दिव्य स्वरूप 
भिज्ञ न तो निज क्षीणता-दीनता से उठ, भव्य ओर करें प्रस्थान।  
कब वह समय निकलेगा स्वयं हेतु, होगा सर्वश्रेष्ठ से साक्षात्कार 
अप्रतिम कृति समक्ष जब निज से युग्म, उस क्षण का ही इंतजार। 

मानव की वे कौन सी श्रेणियाँ, जिनको कह सकते हम उत्तम 
उत्तम वर्ण-जन्म, रंग-रूप, रहन-सहन, उत्तम कर्म-विचार।  
उत्तम परिवेश, साध-संगति, खान-पान, गुणी-जन का सानिध्य 
उत्तम मनन-चिंतन, उत्तम व्यवहार-आजीविका व आचरण। 

इसी उत्तम पर चिंतन अद्य, क्या है प्रचलित 'उत्तम' व अन्यों का 
दस्यु हेतु चोरी व्यवसाय ही उत्तम, उससे ही चलती आजीविका। 
क्या मात्र सतही आदर्श - नाम उत्तम, या प्राणी निर्वाह करते भी 
जग में सब भाँति जीव, सर्वत्र जन्में, कार्य-सोच विचार करते ही। 

क्या जन्म हमारे निज-कर, अभिभावक चयन भी न अधिकार में  
पुनर्जन्म वाद छोड़ दें, कैसे जन्म विशेष परिवेश, रूप-काल में। 
चलो मान लो नर-नारी मिलन से, कुछ संतान  जन्म तो होंगे  ही 
लेकिन तुम कहाँ अवतरित है अज्ञात, बस एक में चेतना फलित। 

जग में कोटिशः योनियाँ, सतत प्राणी जन्म, किंचित काल में नष्ट भी 
स्वतः प्रक्रियाधीन अनवरत, प्रजातियाँ भिन्न कारणों से विलुप्त भी।  
कैसे जीव निर्माण, यहाँ नहीं तो वहाँ कहीं, पर कुछ तो बड़ा पचड़ा 
वैज्ञानिकों की भी अपूर्ण-व्याख्या, धार्मिकों में प्रचलित कई कल्पना। 

पौराणिक ग्रंथों में जीव-जंतु बातें करते, जैसे भाषा समझते परस्पर 
संवाद सम से स्तर का, कोई विभेद न, कमसकम विचार-स्तर पर।  
उसको छोड़ दें आज भी अनेक प्राणियों में परस्पर संवाद विद्यमान 
पालतु पशु-पक्षी  शब्द समझ लेते, हम भी हाव-भाव से लेते जान।  

वनचर-व्यवहार देख हमारी प्रतिक्रिया, प्रकृति में हैं वे अति-बुद्धिमान 
यह और बात भिन्न-प्रकटीकरण, पर किस स्तर पर उन्हें आँकते कम। 
माना नर में  गुरु-बुद्धिबल, संचय-सभ्यता-उपकरण से बदला परिवेश 
प्रक्रिया में बहु मानसिक-संरचनाऐं जनित, निज ढंग बजाते ढोल सब।  

विविधता प्रकृति-जातियों में, यहाँ तक कि एक-अभिभावक संतानों में  
सभी की रुचि में विविधता, क्यों न हो प्रकृति में तो रस -भाव है अनेक। 
सबकी दृष्टि अपनी, घर से बाहर निकलते ही मिलते प्राकृतिक रूप नव 
भाँति-२ अनुभव-संसर्ग, निज सम आँकन, प्रतिक्रिया के भी बहु रूप।  

निर्माण-विविधता सदा अवश्य ही, चाहे एक ही अभिभावक-युग्म द्वारा  
कालक्रम में खानपान, सोच-विचार व मानसिक-शारीरिक परिस्थितियाँ
इसके अतिरिक्त गर्भाधान में भिन्न वंशाणु-प्रकटीकरण व भ्रूण-विकास। 
एक अभिभावक-युग्म में निश्चित जीन-पूल, पर संतानों में विलग स्थापित 
यही भेद रूप-गुणों में, अन्य-अभिभावकों, भिन्न प्रजातियों में अधिक ही।  

मेरा प्रश्न कि सब निज में पूर्ण, यहाँ यह वहाँ वह, इसमें कैसा उत्तम-निम्न 
जन्म पर तो न अधिकार, हाँ कुछ संपन्न जगह जन्में तो समझ लेते सुभग।  
इसमें भी न अपुण्य, क्योंकि कुछ जीवन तो अपेक्षाकृत सरलता से चलते 
जब बहु जीव अति-संघर्ष में, यदि बेहतर परिवेश तो  उत्तम कह सकते। 

क्या मानें प्राणी-मङ्गल या पूर्व-जन्म फल, या मात्र पेरमुटेशन-कंबीनेशन 
प्रोबेबिलिटी (अनुमान)  सिद्धांत सर्वत्र लागू, पर जन्म-श्रृंखला पृथक न। 
न मानता वहाँ स्वर्ग में जीवन हेतु, एक लंबी पंक्ति लगी देहों में प्रवेशार्थ 
तथापि विशेष देह कैसे प्रवेशित, पहेली अद्भुत, हल किसी के पास न। 

चलो मान लेते हैं विज्ञान का सिद्धांत, चेतना भी जन्म का ही एक पर्याय 
जब जन्म मिलता है, उसी संग जुड़ जाता यथोचित मस्तिष्क विचारार्थ।  
मस्तिष्क हमारा देह-नियंत्रक, सोच-विचार अनुभव का रखता विवरण 
इस बिन हम अप्राण, इसके अवसान पर ही तो हो जाता हमारा मरण। 

मान लें देह-प्राण-चेतना ही पूर्ण-जीवन प्रारूप, हम इन सबसे ही पूर्ण 
एक बिन दूजा अधूरा है, सब मिलकर ही बनाते हमारा पृथक वजूद।  
हम एक व्यक्तित्व  बन जाते हैं, स्व-संप्रभुता बनाते पृथक नाम लेकर 
सबमें निज भाँति धातु पृथक रूप से जुड़ी, विविधता में न निम्न-उत्तम।  

प्रकृति में अति-विचारित आचार न दर्शित, योजना क्रम ही सर्व-गति पर  
यह नैसर्गिक गुण-प्राधिक्य, निज वंशाणुक्रमानुसार करते सब आचरण।  
माना एक प्रजाति विशेष में किंचित भेद भी, पर सब अपने में आनंदित  
हाँ दैनंदिन जीवनार्थ पेट-भरण सतत संघर्ष, पर तारतम्य सा भी निर्मित। 

मात्र आवश्यक ही लेना, अनावश्यक न मारा-मारी अन्यथा विश्व-ध्वंस 
'जियो और जीने दो' सिद्धांत स्वतः प्रचलित, प्रकृति में यहीं रहते सब।  
प्रकृति वक्ष-स्थल से ही सबको भोजन-प्राप्ति, सबकी ही यह बड़ी मातृ 
चाहे न समझे इस व्यवहार को, सबको देती, संततियों से न विगलाव।  

जब प्रकृति माँ से ही सब भरण-पोषण, मनुज ही क्यों स्व -घोषित श्रेष्ठ 
हाँ यदा-कदा पशु-शील से क्षुब्ध, प्रज्ञा-निर्मित  किए सब भाँति नियम। 
पर यदि हम पशु-योनि में होते तो क्या चरित, क्या संभव था उनसे श्रेष्ठ 
स्वयं में तो हिंस्र सब जंतुओं को मार रहें, व कहते  सबसे धीमान हम।  

 नर रूप में अन्य प्राणियों प्रति क्रूरता, अन्य  ओर धर्म-विज्ञान प्रवचन  
अनेक उपासना-ढंग, सृष्टि-माता पूजन, पर भिन्न रूपों का असम्मान। 
लोगों ने गोष्टी से कुछ आदर्श बना दिए,  जिससे सुलभ सबका निर्वाह 
लेकिन दबंग निज भाँति ही आँकते, जो   ठीक लगता वैसा आचरण।  

कथित उच्चों के निज-नियम, खाने के और दिखाने के और हाथी-दंत  
पर आदर्श तो सर्व-हितैषी, यदि सुचिता से प्रयोग तो बड़ा भला संभव। 
यह भी मनुजों का चलन, कुछ दबंग अन्यों पर प्रभुत्व हेतु बनाते नियम 
हम श्रेष्ठों का ऐसा ही चलन, निम्न हो, दबकर रहो, जो कहें करों पालन।  

'दमन आदेश' उनका उत्तम, चूँकि दबंग - मजे लेते, अनाचार भी श्रेष्ठ 
तुम बौद्धिक दृष्टि से अति  पीछे हो, मान लिया करो  जो हम कह रहें।
अनुकरण  न करो तुम हमारी श्रेष्ठता का, जो नियम बनाऐं, मौन  सहो
   तुम सम न हमसे किसी भी श्रेणी में, बेहतर होगा स्व-औकात में रहो।  

हम हैं समस्त ब्रह्मण्ड-स्वामी, ईश -अवतार, तुम अधम-जन्म चर 
हम पूर्वेव विद्वान, इतिहास-गौरव, तुम अपढ़-गँवार व गर्त-काल।
हम सुयोग्य, तुमको न चिंतन-आलोचना-प्रतिकार का अधिकार। 

सब आदेश जग-निर्वाह में हैं, निर्बल को चोट भी अधिक ही लगती 
ऊपर से उत्तम-निम्न विशेषण, जीव करें भी तो क्या, कैसे हो प्रगति। 
जब कुछ दमित रखे जाऐंगे, कैसे होगा विकास उनका पूर्ण देह-मन 
वाँछित उचित परिवेश पूर्ण-पनपन को, दुत्कार तो रखेगी अल्पतर। 

तथापि प्रकृति प्रदत्त सब श्रेणियों को निज भाँति विकास कर्तुम मार्ग  
अपनी  रुचियों से वे प्रगति कर सकते, क्षीणताओं से पा सकते पार।  
माना  संघर्ष है  यहाँ जानमाल का, पर और भी तो आगे बढ़े हैं बहुत 
फिर क्यों अटके अपने ही दाँव-पेंचों में, उठ खड़े हो प्रगति लो कर।  

यह जग विशेषकर मानव अति-स्वार्थी, तुम भी आत्म-परिष्कार  करो 
अति-ज्ञान प्रस्तुत आम नर हेतु भी, हाथ-पैर मारकर सीमाऐं बढ़ा लो।  
ज्ञान ऐसे न, 'बहुत कठिन है डगर पनघट की', चेष्टा से निश्चय ही वृद्धि
पनपन संभव, उत्तमता से योग तब कह सकोगे प्राण को परिभाषा दी।  

सब समय बिताकर जा रहें, पर कुछ पद-चिन्ह दीर्घ-काल हेतु छोड़ते  
सीखो उन महाजनों से चेष्टा-वृद्धि, अनेक निर्मल-जन सहायतार्थ हैं बैठे। 
उत्तमता तो निस्संदेह प्रवेश जब निर्मल-चिंतन शुरू,  सर्व-हित में नीयत
तव सानिध्य से यदि कुछ जीवन सकारात्मक संभव, फिर तुम भी धन्य।  

उत्तम-मस्तिष्क सबके विषय में सोचे, विशाल-अंश सब हेतु काम करता 
सबसे जुड़ा अपृथक भाव से, परम-जीव-प्रकृति-ब्रह्माण्ड का नित-वासी।  
सबके लाभ में उसका हित, प्रेरणामय मार्ग, कुछ  जीवन निश्चय ही मृदुल 
बस चल पड़ो बहु-उद्देश्यार्थ पथ में, उत्तम-चिंतन भी जाओगे ही विदित।  


पवन कुमार,
१ अक्टूबर, २०१८ समय २२:२९ रात्रि  
(मेरी डायरी १२ दिसंबर, २०१६ समय ११:४५ प्रातः से)

Saturday, 18 August 2018

सुमति - दान

सुमति - दान
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 सुमति दीन्हों, विवेक अग्रसर, सयंमित साहसी अदमित
नीर - क्षीर विवेचन कौशल, वक -हंस पहचान विदित। 

अंतरतम दृश्य सक्षम, मेरे गुह्य रिपुओं को करो समक्ष 
सामना हो  स्व-दुर्बलताओं से, विजित हों सर्व-विधर्म। 
सत्य-आत्मसात, निर्मल  बुद्धि का परम-स्तर अनुभव 
पैमाना अनुसंधान यावत,  सब-सत्व का  सार संग्रह। 

मनुज दीर्घ काल से उच्च-स्वर्ग गमन  कामना में लीन 
वहाँ कल्पित ऐश्वर्य-सुख, युवा, क्षुधा-वृद्धि सदा नवीन। 
जग जीवन में व्यस्त, समस्त रोग-भोग अंग-अंग लिप्त 
मुक्ति कामना भी सीमा,  प्रलाक्षन आवागमन -रिक्त। 

ऊर्ध्व दीप-शिखा, विरल तेज बल, ऊर्जा-उष्मा विकिरित 
स्व-बल ही स्थिति-परिवर्तन सक्षम, सुगति सामर्थ्य-कृत। 
कौन उत्थित ब्रह्माण्ड स्पर्श को, विपुल दूरी पाटन प्रयास 
दिव्य-तेज़ अनुभव तन-मन, विश्राम   न किञ्चित विधान। 

सुख-साधन, सुविधाऐं अल्प-हितैषी,  मनस्वी-ध्येय अत्युच्च 
दीन-विश्व स्व-कृत विघ्न-चिंतित, लिप्त  आडंबर-आसक्त। 
सब विवरण, प्रयुक्त भाषा ज्ञात सर्वत्र, तथापि चरित्र मद्धम 
विकास सुधारार्थ संभव, जब मनुज विचारता अति-समृद्ध। 

क्या कल्पना का उच्च-स्तर, पग-पग श्रेष्ठ हेतु मनन गति 
समाधि-अवस्था तक कितने गम्य, या वह भी मति-कृति। 
किसका चरित्र इतना उज्ज्वल, श्रेष्ठतम मानव-रूप स्पर्श 
दिगंत विचरण, निष्कर्ष मर्म, जीव हितार्थ कृत सब कर्म। 

पातञ्जल-योगदर्शन में सूत्र समाधि हेतु यम,  नियम, आसन,
प्राणायाम-धृति, प्रत्याहार-धारणा, ध्यान चरण अति-दुष्कर। 
कितने तो प्रथम सोपान पर अटके, अंतिम छोर और दुर्लभ
  तथापि कुछ उच्च-प्रयास से  गमन-संभव  बनाते कई चरण।

हर धर्म संयम, कर्मकांड, आचरण बताता परम हेतु संभव 
पर दिक्दर्शक अल्प मात्र, प्रायः नर यत्र-तत्र आडंबर-लिप्त।
मूल आचरण न बदलाव है, अतः कदापि न सत्य से परिचय
  दूर लक्ष्य प्रयास अल्प, फिर भी सोचे मुझे मिले हिमालय।    

लेखन के सत्य-निरूपण का क्या मार्ग, सुभीते हेतु परिष्कार 
यह मात्र डायरी तक न सीमित, अपितु है सुधार का माध्यम। 
मनन उत्तम पर आचरण विकृत, बहु-कल्याण  न संभावना 
यदि रत होगे द्वि-सामंजस्य में, परम-यश साध्य है निकटता। 

वय-मन उभय पूर्ण यौवन  में, वयस्क सी स्थिति है किंचित 
काल बीतता द्रुत गति, कब कर से फिसले चलता पता न। 
 जीवन है क्षण-भंगुर व्युत्क्रम  में, समस्त प्रकृति में यह खेल 
आवागमन अवश्यंभावी, प्राप्त समय में ही करो कुछ मेल। 

भ्रमर अपना गीत गुनगुनाता, लीन अपनी धुन में ही बस 
डूबा  एक परम-स्थिति में, नशा फिर मतवालों का यह। 
लैला-प्रेम में मजनूँ बना एक काफिर, मारा-मारा फिरत  
यदि मर्म ज्ञान अनंत प्रेम का, न दूरी बस आत्म-निकट। 

मैं यहाँ, महबूब वहाँ, जबरदस्ती संग घट रही इस मनुज 
मैं तड़पूँ यहाँ, वह तड़पे वहाँ और नींद मुझको आए न। 
आत्मा-मिलन तो सदा ही संभव, शरीर की दूरी है बेशक 
सर्व चेष्टा अंतरतम-मिलन की, मधुरता वहीं से निकसित। 

कैसे आए सलीका जीवन में क्षमतार्थ, गुणवत्ता-वृद्धि सतत 
आचार-संहिता बने, कर्म में ध्यान सदा, संगी हों सम्मिलित। 
एक-2 पूर्ण कार्य हेतु प्रेरणा जब अपने मन से आगे बढ़े सब 
क्या कोई दूजे पर प्रभाव जमाऐ, ज्ञात निज-जिम्मेवारी जब।  

मन चंगा तो कठौती में गंगा, क्यों न हो पाते पाक-साफ हम 
सदैव व्यस्त पर-छिद्रान्वेषण में, निज को हैं न करते स्वच्छ। 
क्यों मन का बाह्य में ही पतन, निज अंतः के अनेक व्यवधान 
सौरभ, सुरमय, द्रष्टा, सर्व-प्रेम  अविरोध, समुचित विकास। 

सब अपने को उत्तम  कहते, जिम्मेवारी कोई न  चाहता पर  
बड़ी सहजता से दूसरों पर  डाल देता, मैं तो लाचार हूँ बस। 
जहाँ कथन बनता वहाँ भी न साहस, अपना क्या जो मर्जी हो 
अपनी सेहत पर न  आँच आनी चाहिए, जो होता वह सो हो। 

कौन दायित्व ले जग चलाने की, निज-क्षेत्र स्वामी हर जन  
    क्यों इतना  आराम-पस्त, जब अनिच्छुक है घटित समक्ष।    
  चेतना  आवश्यक  है मन-प्राण में, जीवंतता स्व-क्षेत्र की हो 
क्यों अन्य तेरे ऊपर  करें  टिपण्णी, जब सुधार समय हो। 

उच्च लक्ष्य  निज-जिम्मेवारी, करो संगठित तन-मन ऊर्जा 
नभ-तारक चुंबन उत्कंठा, विशालोर हो मधुर प्रेरणा सदा। 
न कभी हो हीन-भावना ग्रसित, स्व अति-पवित्र रखो सहेज 
यही  तो सदा तुम संग जिए, मान करो इसका, करो प्रेम। 

निज आत्मा-उन्नति कितनी संभव, पराकाष्टा वृद्धि ही होगी 
प्रथम बनो अपने संग सहज, खोलेगी परिष्कार द्वार वही। 
स्वच्छ रखना, कलुषित न हो पाए, अधिकार में बहुत कुछ  
हल्का रखो उत्तम-ग्राह्य हेतु, दुनिया निज ध्यान लेगी रख। 

मन-कर्ता समस्त कर्मों का, अतः मनन अत्युत्तम - पवित्र हो 
हर भाव -कर्म पर एक नज़र हो, सावधानी से भ्रम से बचो। 
कैसे  नियंत्रण हो  सहज भटकावों पर, कैसे दृष्टि हो एकाग्र 
मनसा-वचसा-कर्मणा  श्रेयसार्थ, किञ्चित स्वयं से न दूषण। 

भाषा सयंमित, वेश  शालीन, चाल-ढाल में एक सुघड़ता 
जग इतना तो बुद्धिमान  है, अच्छे-बुरे में अंतर समझता। 
पर आचरण न मात्र बाह्य  मुखौटा, अपितु आदर निर्मित 
मानव-पहचान उसके  चरित्र से, यत्न से करो मर्यादित। 

आत्मा शरणागत, बनो सशक्त, सर्वोत्तम ग्रहण की चेष्टा 
चलो सकारात्मक दिशा में, चिंतन निर्मल रहे ही सदा। 
हर अवयव  प्रयोग, ढंग-आयामों से हो विकास सुमधुर 
गुणी-संगति शक्ति-निमित्त, उच्च दृष्टि ही बढ़ाएगी अग्र। 

धन्यवाद। और कोशिश करो परम से संपर्क की। 

पवन कुमार,
१८ अगस्त, २०१८ समय २३:३४ म० रात्रि 
(मेरी डायरी दि० ०१.०८.२०१५ समय १०:३५ प्रातः से )

   
  

Saturday, 14 July 2018

वय-वृद्धि क्रम

वय-वृद्धि क्रम 
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कालक्रम में जीव भोला न रहता, बाल्य के शौख-अंदाज उम्र संग लुप्त 
मुस्काता, खिलता-हँसता मुख, आयु की वीभत्स युद्ध-छाया में जाता छुप। 

'भूल गए तानमान भूल गए जकड़ी, याद रह गई नून-तेल-लकड़ी' तीन
प्रातः-जाग बाद दिवस संघर्ष में धकेले हैं, सर्व-दिन सुलझाने में लीन। 
उसकी त्रुटि कभी निजी, स्व पे क्रोध कभी उसपे, दर्शित कुछ तो कमी 
कभी विलंब,  अनुचित-निर्वाह, उपेक्षा, अवहेलना-असावधानी कभी। 

कभी दूजा सुस्त, पूर्ण न रूचि, डॉँट-फटकार, मनुहार का न लाभ भी 
बहु-विषय समक्ष फिर भी निश्चिंत, बस निज काम की बात में ही रुचि। 
विभाग का पूर्ण-दायित्व तो न व्यवहार-लक्षित, बस सुनो और रहो चुप 
नर अति-चतुर, संबंध भी अनुज्ञा, क्या अपेक्षा करें - मूल्य पहचान न। 

वय-वृद्धि संग मानव सठिया जाता, प्रचंड अग्नि अदर्शित नव-यौवन की 
बस जैसे चल रहा चलने दो, संसार हमसे भी पहले था, रहेगा आगे भी। 
आज कहीं पढ़ा कि 'बचपन की ख्वाहिशें आज भी मुझे खत हैं लिखती 
शायद बेखबर इस बात से कि वो जिंदगी अब इस पते पर नहीं रहती।'

बहुतों को बेफ़िकरा सा भी देखता, जो कुछ सामने आ जाएगा कर लेंगे 
कुछ तो जिंदगी की भागदौड़ न समझते, बस समय कट जाए जैसे तैसे। 
जितने प्राणी उतने चरित्र, सब अपनी भाँति विचित्र सा कर रहे आचरण 
कब वे भला तेरे ढाँचे में समाऐंगे, समन्वय न तो विरोध होगा आभासित। 

लोग प्रातः ही गुजर हेतु बहिर्गमन, चाहे संजीदा भी पृथक भाव से देखते 
लोग भूखे मर रहें, अपढ़-सुविधाहीन, पर धनियों को मतलब मुनाफे से। 
कार्य में एक उत्तम कर रहा, सभी तो उसकी प्रतिभा न पहचानते पर  
सबने निज उपनेत्र* पहने, तेरी प्राथमिकताओं से उनको न कोई अर्थ।

उपनेत्र* - चश्मा  

जीवन तो निश्चित ही संघर्षमय, इहलोक को समझाना इतना भी न सरल
सब विषय-तत्व सबकी प्रज्ञा में न आता, न ही किसी की चाहत  समझ। 
तेरे सरोकार तुम तक सीमित, हम करेंगे जितने से आजीविका अबाधित 
अधिक दबाओगे तो विद्रोह भी संभावी, इतने न दुर्बल हैं करें सब सहन। 

एक छद्म-युद्ध प्राणियों मध्य सदा निरत, चाहे बाह्य मुस्कान, जी-हुजूरी 
कौन सुनना चाहता प्रगीत पीड़ितों का, दर्द से बिलबिलाते रहते हैं ही। 
किसी ने काम बोला  तो है शत्रु लगता, चाहे स्व-कर्तव्य का ही हो अंग 
कुछ नर ही दायित्व सहर्ष लेते मन में क्या सोचते देखना अति-कठिन। 

स्व-दायित्व में कुछ करते भी दिखे, पर सच में उपस्थिति का अप्रभाव
त्रुटि सदा रहती, इधर-उधर देखते रहो, जैसे सीधा मुझसे न सरोकार। 
क्या तुम भाषण सुनने हेतु ही आते, बंधु निज-व्यक्तित्व की छोड़ो छाप 
कोई बलात न किसी से कर्म करा सकता, कहे-सुने से ही लो संकेत। 

वरिष्ठ-अवर सहयोगियों की समीक्षा, कुल मिला तव व्यक्तित्व-कसौटी 
संसार भी निज नेत्रों से देख रहा, सभी अरि न कुछ निर्मल-निष्पक्ष भी। 
आदर-प्राप्ति तो निज कर्म-काज से ही, सुलभ न मेहनत करनी पड़ेगी 
सफल जीवन-निर्वाह भी एक कला, यथा-शीघ्र सीखो उतना भला ही। 

प्रतिदिन-संघर्ष थकाता पर सुदृढ़ीकरण, यहीं कुछ हँसी भी सीखनी 
मूल स्वरूप को न भुला देना, सहज रहने से ही गुणवत्ता बनी रहेगी। 
एक स्मित वदन पर बनाए रखनी, आत्म व दूजों का भी करो सम्मान 
कर्कशता त्यागो संघर्ष एक सहज-नियम, मृदु भाव संजोए रखो अंतः। 


पवन कुमार,
१४ जुलाई, २०१८ समय २२:१० बजे रात्रि
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २५ अप्रैल, २०१८ समय ९:५९ प्रातः से )     


Sunday, 1 July 2018

कठिन मूल-भेदन

 कठिन मूल-भेदन
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सृष्टि-चलन एक महातंत्र, बहु कारक, सतत घटित, अनेक रहस्य विस्मयी 
कौन जग को पूर्ण मनन में सक्षम, प्राणी क्षीण-चिंतक, विचार मात्र सतही। 

विशाल सृष्टि, बहुल-विस्तृत अवयव, चिर-दूरी मध्य, स्पष्ट संदर्भ भी न दर्शित 
सब अपनी जगह नन्हें जग में मशगूल, न स्वयं कष्ट चाहते, औरों में रूचि न। 
एक जड़त्व सा प्रकृति में, शेल्फ्स पर पड़ी पुस्तकें अपने से न कहती पढ़ लो 
काफी समय से सम-स्थिति में भित्ति पर लटका तार, न कहता ठीक कर दो। 

कह सकते कुछ वस्तुऐं निर्जीव, कुछ सजीव, उनमें भेद किञ्चित दृष्टि-गोचर 
जीवन-शास्त्र कृत अंतर सूचीबद्ध, प्राणी-जगत वनस्पति-जीव में है विभक्त।  
वे फिर विभिन्न श्रेणियों में बाँटे गए, जब तक स्पेसिस तक न हो जाय चिन्हित  
कुछ संबंध भी दर्शाया उनके मध्य, पर इतना बड़ा जग सर्व न संभव समझ। 

सब वृक्ष निज-स्थल तिष्ठ, हवा संग झूम लेते, प्राकृतिक सर्दी-गर्मी सहन करते  
स्पंदन सा तो है चाहे दर्शन असुलभ, पुराने पत्ते पीत होकर स्वतः पतित होते। 
नवांकुर प्रवेशित, फूल-फल निर्माण, शनै प्रक्रिया, ध्यान दें तो कुछ ज्ञान संभव 
अंतः गति-प्रक्रिया अति-जटिल, वैज्ञानिक लघु-रहस्य समझने में लगाते जीवन। 

हर निज में महारहस्य, मूल-भेदन कठिन, विज्ञान निश्चितेव प्रखर-जाँचन ग्राही
यहाँ तक कि एक रेत-कण में भी पूरी कायनात है, कई तत्वों का बना वह भी। 
कई भौतिक-रासायनिक क्रियाऐं उस या मातृ-घटकों पर, जिससे अद्य स्वरूप 
कौन मृदा कहाँ दबी, ठोस बनी, जल-वायु प्लावित, घर्षण से पाषाण बना कण।  

समक्ष काष्ट-फ्रेम की ग्लास जड़ित खिड़की, वर्तमान रूप में कहाँ इतना सरल 
किस्म, मूल तत्व, थोथी-ठोस, कितनी सीजन, साफ या गाँठे, बाहर से रंजित।  
इसके अंदर चिटकनी-हैंडल लगे, जोड़-कब्जें, एक घर्षणमयी गुण, कस लेते 
कील-पेंच भी अति-उपयोगी पुर्जे, लसलसे संग विभिन्न भाग परस्पर जोड़ देते। 

गिर्द भिन्न वस्तु-पदार्थ-तथ्य-स्थिति का अपूर्ण ज्ञान ही, जग तो और अति-विस्तृत 
भीत-पलस्तर, रंग-रोगन, फर्श-टाईलें, कुर्सी, सूती-गर्म वस्त्र, रजाई सब समृद्ध। 
देह-मन रचना, आंतरिक प्रक्रिया, कई छोटे-बड़े अंग, हर की पृथक बनावट-गुण 
कर्रेंट, मोबाईल-कम्प्यूटर, चश्मा-कलम, भाण आदि, निकट-समझ अति-विरल। 

फिर भी चलते है जितना बनता है, कोशिश करो, 
अपनी कमजोरियाँ जानने के बाद ही ताकत आती है। 


पवन कुमार,
०१ जुलाई, २०१८ रविवार, समय १८:१३ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २८ मार्च, २०१८ समय ९:४१ प्रातः से )  
   

Monday, 28 May 2018

सम्मिलित चेतना

सम्मिलित चेतना
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इस प्रकृति के बहु-आयाम, अति सघन-विस्तृत, प्रतिकण विचित्र रूप 
उसका सबसे गहन-संबंध, मनीषी का सर्व-ब्रह्मांड एकत्रण हेतु मनन। 

मानव भी बहु-संख्यक, अन्य जीव सम प्रकृति-हिस्सा, तदानुक्रम उत्पन्न
लाखों वर्षों  संग रह रहा, एक समन्वय सा बनाया तभी तो रहा जीवित। 
औरों का भी एक प्राण-दर्शन, अनावश्यक न किसी पर करते आक्रमण 
विकास-सिद्धांत के चयन की माने तो संघर्ष भी, नतीजा विफल-सफल। 

पुरा-काल से भिन्न-रूपों से गमन, कुछ लक्ष वर्ष पूर्व से वर्तमान स्वरूप 
यदि 'सम्मिलित चेतना' सी वस्तु सृष्टि में, मानव को पूर्वजों से ही प्राप्त। 
हममें सर्व जीव-भाव निहित, किंचित कुछ अनावश्यक, प्रयोग विस्मृत 
हर प्राणी निज का ही हिस्सा है, यहाँ तक निर्जीव में भी हमारे अवयव। 

मानव के क्या दृश्यमान, एक बाह्य-जगत जो नेत्र-गोचर, अनुभव संभव
एक भाग अंतः-चेतना का, जो मन-अंतः ही है चिन्तन - प्रतिक्रिया कृत। 
स्थूल दृष्टि-बुद्धि से जो समझ आए, कह देते, रहस्य-भेदन न पूर्ण-समर्थ 
अनेक निगूढ़ मानव-समझ परे आज भी, प्रयास से भी स्पष्टता होती न।  

यावत हम अशिक्षित-अपरिचित हैं, हमने पूछा नहीं किसी ने बताया न 
सारे अक्षर भैंस बराबर दिखते हैं, पढ़ना सीख लें तो कुछ निकले अर्थ। 
जबसे नर का विज्ञान-संपर्क, हर तह में जा ध्यान से देखना किया प्रारंभ 
अनेक वहम टूटे, मन भी विकसित व विकसित हुई जग-प्रक्रिया समझ। 

वैज्ञानिकों-तकनीशियनों को बहु ज्ञान, सामान्य-बुद्धि में न प्रवेश सुलभ
परीक्षण-दर्शनार्थ कुछ यंत्र बना लिए, सूक्ष्म-दूर की वस्तु-दर्शन संभव। 
कैसे एक वैज्ञानिक दृष्टि उत्पन्न हो, होना चाहिए एक खोजी-प्रयोगी मन 
फिर प्रयोग-विफलता पर न हारना, कोई सा भी तीर तो सधेगा उचित। 

अभ्यास व उचित-संपर्क महत्त्वपूर्ण, जो आजतक अज्ञात जानना संभव 
अनेक रहस्यों का पर्दा उठा है, व अनेक दिशाओं से हो रहे लाभान्वित। 
मन की विचक्षण-दृष्टि से साधनों के सहारे, गुह्य समझने का करो प्रयास 
अपढ़-अबूझ-भ्रमित जीवन अति-निम्न, सदुपयोग से बनो विपुल-समृद्ध। 

पवन कुमार,
२८ मई, २०१८ समय ००:४३ मध्य रात्रि 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २३ जनवरी, २०१८ समय ९:३९ प्रातः से)
    

Sunday, 20 May 2018

निकटस्थ - हित

निकटस्थ - हित 
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सभी निज संगठनों से जुड़े रहते, शांत रह समाज हेतु करते काम 
घर-कार्यालय माना प्रधान, पर यहीं नागरिक-दायित्व रूकता न। 

जिस परिवेश में हम जन्म लेते, उसके प्रति लगाव एक प्रवृत्ति सहज 
माना संपूर्ण ब्रह्मण्ड एक कुटुंब ही, निकटस्थों को समझते अधिक। 
हर परिवेश सदस्यों का श्रम-श्वेद माँगता, सुप्रबंधन तो सर्वत्र वाँछित 
जब अपने निर्धन-दुर्बल-दुःखी तो, निस्संदेह अति  त्याग आवश्यक। 

लोगों का अपनों से कुछ विशेष स्नेह ही, जितना हो सके आगे दो बढ़ा 
वृहद-जग की न्यूनतम अपेक्षाऐं भूलते, बंधुओं में ही खोए चाहते रहना। 
घर-संबंधी व कार्यालय को एक सा, अपनों को चाहिए अधिकतम लाभ
अन्य भाग्य कोसते, वह उच्च पदासीन है अपनों को ही फायदा दे रहा। 

चलो कुछ भाई-भतीजावाद भी, अधिक ही दया-दृष्टि क्षेत्र-जाति-धर्म पर 
 पर सार्वजनिक नर को न लोभ उचित, संविधान प्रदत्त कर्त्तव्य यह एक। 
निजों का ध्यान भी न अति बुरा, स्वास्थ्य-शिक्षा-विकास हेतु कमसकम 
यदि सक्षम तो स्वयं पथ ढूँढ़ लेंगे, तेरी  भूमिका मुख्यतया मार्गदर्शक। 

जीवन का सत्य-लक्ष्य अधिकतमों में  सकारात्मक परिवर्तन करने का 
लोग पढ़-लिखकर सुयोग्य बनें तो अपनी जिम्मेवारी खुद सकेंगे उठा। 
कब तक रहेंगे वे वैसाखियों पर, खड़ा ही होना सिखला दो सहारे-निज
 जन-स्थापित कई संगठन हैं पर-सहायतार्थ, अधिकतम कर्त्तव्य-पालन। 

माना घर-जीविकार्थ पूर्वेव अपेक्षित, तथापि कुछ ऊर्जा वाँछित अन्यार्थ 
लघु उपकार से भी महद-हित, डूबते को तिनके का सहारा है वरदान। 
जितना संभव हो उतना कर दो, तुम भी अनेक सहायताओं से ही वर्धित 
कुछ समन्वय कर चलो जहाँ संभव, अन्यों  संग अपने भी प्रगति-पथ।   

हर स्तर पर सदा न्यूनाधिक राजनीति, तुमको काम करना चाहिए आना 
कमसकम नियमानुसार लाभ भी दोगे तो अति जन-कल्याण हो सकता। 
मात्र रुदन-शिकायतों से न हल, सकारात्मक कर्म-परिणाम से ही श्लाघा 
एक समय मिला महादान हेतु, थोड़ा सोचो व सहायतार्थ चरण दो बढ़ा। 


पवन कुमार,
२० मई, २०१८ समय 00:0७ मध्य रात्रि 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १४ जून, २०१७ समय ९:४६ प्रातः से ) 

Sunday, 6 May 2018

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका

मस्तिष्क-ग्रंथि प्रहेलिका
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अन्वेषण प्रक्रिया से एक शब्द-यात्रा, प्राप्ति तो कुछ अग्र चरण  
सकल जीवन यूँ चिंतन में बीता, ठहर क्यूँ न उठाता अनुपम। 

चारों ओर ध्वनि-नाद गुंजायमान, मैं कर्ण होते भी न श्रव्य-सक्षम  
अंतः से कुछ भी निकल न रहा, यूँ मूढ़ भाँति प्रतीक्षा करता बस। 
इतना विशाल विश्व सर्व-दिशा ध्वनित, पर मैं तो मात्र सा निस्पंद 
कुछ तरंगें तो मुझमें से भी उदित, सुयोग हो बात बने किञ्चित। 

क्यूँ रिक्तता मन-देह प्राण में, चाहकर भी न कुछ मनन-अक्षम 
क्या कोई गति ही न है, कोलाहल में सर्वथा भी न लगता दिल। 
उससे पृथक न कोई प्रलोभन, वर्तमान क्षण भी स्व तक सीमित 
हर दुविधा निज-हल ले आती, चिर-काल से मुझसे न बना पर। 

क्या कुछ शून्यातीत होते हुए भी, अंतः-स्वर निकलने हैं संभव 
स्व  को समझा ही न पाता, कैसे क्या घटित, जानना कठिन।  
यह क्या है स्व-क्षेत्र, न सुलझती मस्तिष्क-ग्रंथि की प्रहेलिका 
 स्वयं अपार, बहु-साँसते जग की, कई पेंचों से विकट-सामना। 

कितना सिकुड़ जाता स्वयं में,  अतिरिक्त संवाद न संभव भी 
न जग-ज्ञान, कैसे जन परस्पर-संवाद, मैं तो खड़ा एकाकी ही। 
दिवस-काल में कुछ शब्द संचार, जगत-चलन को आवश्यक 
कुछ निश्चित कर्त्तव्य भृति-कुटुंब हेतु भी, निर्वाह तो अनिवार्य।  

उसमें न अति-रूचि,  करना विवशता, स्व में खोया  चाहता 
निज-मूढ़ता में इतना तल्लीन हूँ, व्यग्र होते भी पाता सांत्वना। 
निष्ठ अज्ञात परम-तत्व खोज में, कब सान्निध्य, फिरूँ भटकता
अति-विडंबना न ध्येय-ध्यान, क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ न पता। 

विचित्र स्थिति क्या ऐसा भी, अचेतना में ही समग्र वय व्यतीत 
मति-कर्मशाला में तो अनेक निज-मग्न, क्या खोजते न प्रतीत। 
जग आभासित कि मतिमंद हैं, वरन आगे बढ़ न करते संवाद 
सत्य अंतः-स्थिति वे जानें, बाहरी तो लगा सकते बस कयास। 

क्या अवस्था स्व-तल्लीनता की, कुछ न सूझे तथापि रहना चाहता 
न बहिर्दर्शन-इच्छा, जितना संकुचन संभव, उतना प्रयास करता। 
जीवन-चिंतन  विज्ञान में न महद रुचि, इस दशा में ही परमानंद  
न ईश-प्राप्ति ही इच्छा, जी लूँ इन पलों को भरपूर यही कवायद। 

क्या इस सम स्थिति से कुछ निष्कर्ष संभव, या मात्र नदी सम प्रवाह 
उद्गम-उद्भव-संगम अन्य अपनों से,  या जलनिधि में निश्चित विलय। 
किसी भी उसकी एक अवस्था में, पर न कोई स्पंदन चलित सहज 
 किस जीव-विकास प्रक्रिया की अमुक अंश-यात्रा, कथापि ज्ञात न। 

कौन नियंत्रक इस मन-देह-प्राण का, क्यों स्थिति में रखना चाहता इस 
क्या अपेक्षाऐं उसकी न मालूम प्रयोजन हितकारी अथवा समय-व्यर्थ। 
कर्म तो बहु-प्रकार के शक्य थे इन पलों में, इसमें ही धकाया गया क्यों 
क्यों रह-२ वैसे भाव उभरते, सदुपयोग हो तो कुछ काम की बात हो। 

अनेक विद्वद-जनों के ग्रंथ समक्ष, न जानता वे भी ऐसा करते अनुभव
पर लेखन-संवाद जग-समक्ष विलग ही, ज्ञान विशेष  अन्य  प्रयोजन। 
न प्रतीत कि गुण-ग्राह्य हूँ, इस स्थिति से क्या किसी  को होगा ही लाभ
पर यहाँ न तो और हैं निज ही न पता, बस चल रहें इसी में है आनंद। 

अब लेखन-अंत ओर बढ़ना होगा, पर  सिलसिला मन में चलित सतत  
आओ इसे महका लें, शरद-पूर्णिमा निकट-गत, चंदा की प्रखर चमक। 
 भाँति-२ के पुष्प खिलने शुरू हो रहें,  हाँ पतझड़ का अपना आनंद भी 
जब झड़ जाऐंगे पुरातन तो नवोदित, नव-जीवन से ही निकलेगी सृष्टि। 

जैसा भी जहाँ मुझे पूर्णातिरेक रहना  चाहिए, निज में तो है परमानंद 
स्व-आत्मसात औरों के श्रेयस बोध में  मदद,  सदुपयोग में लो अतः। 
अग्र-सहज स्थिति मिलन दैवाधीन, अनर्थक-संवाद दूरी अति-सुभीता  
अज्ञात ज्ञान-मिलन कब किस क्षण, अभी रस में, ऐसे ही रहना चाहता। 

चलो चलते कहीं दूर यात्रा, अपने में भी अनेक क्षेत्र-विचित्रताऐं पूरित 
परिचय हो जग भी देख लूँगा, संपूर्ण  प्रयास है स्व-संवाद व प्रबोध। 


पवन कुमार,
६ मई, २०१८ समय १९:१२ सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० १८ अक्टूबर, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)