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Monday, 27 July 2020

बरखा -बहार

बरखा -बहार 
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सुवासित सावन-शीतल समीर से उर है पुलकित, मेरा मन झूमे 
पर संग में  तो प्रियतमा नहीं है, दिल उमस कर ठहर जाता है। 

तरु शाखाऐं-पल्लव झूम रहें, कभी ऊपर-नीचे, कभी दाऐं या बाऐं 
एक अनुपम सी गति-प्रेरणा देते, देखो आओ बाहर स्व जड़त्व से। 
हम जग-अनिल से रूबरू, पूर्ण-ब्रह्मांड का आनंद निज में समाए 
निश्चित प्रकृति-सान्निध्य में वासित, संभव सुनिर्वाह में सहयोग करें। 

दिन-रैन, प्रातः-शाम-मध्याह्न के प्रयत्न-साक्षी, निहारते खुली कुदरत 
सर्वस्व झेलते देह  पर, सुख-ताप-शीत-चक्रवात का सीधा अनुभव। 
कोई घर तो न मनुज भाँति, अनेक छोटे-बड़े जीवों को देते बसेरा हाँ 
अनेक चिड़ियाँ-गिलहरी, कीड़े-मकोड़ों की शरण, नर्तन जीवों का।   

सावन में पवन की दिशा पूर्व से पश्चिम है, गर्मी-ताप से अति-राहत 
     आर्द्र-परिवेश से पर्णों को सुकून, उष्ण-कर्कशता से थे झुलसे वरन।     
ग्रीष्म से तो रक्त-द्रव ही शुष्क, अल्प भूजल, स्पष्ट क्षीणता-चिन्हित 
हाँ यथासंभव छाया-पुष्प-फल देते, निज ओर से न छोड़ते कसर। 

पावस-ऋतु तो अति-सुखकारी, अनेक बीजों को प्राण-दान लब्ध 
वरन पड़े बाँट जोहते, कब जमीं पर पनपने का मिलेगा अवसर। 
बहुतेरी मृत घास-फूस, खरपतवार आदि, वर्षा आते ही स्फुटित 
हरितिमा रुचिर, वरन निर्जन सूखे तरु, नग्न पहाड़ियाँ ही दर्शित। 

अब उदित मृदु-मलमली तीज, गिजाई-अग्निक, जो पूर्व में थे लुप्त 
अनेक कंदली - छतरियाँ दर्शित, जिनमें खुंभी भी कहलाते कुछ। 
जहाँ भूमध्य रेखा निकट सारे वर्ष वर्षा है, हरियाली की सदाबहार 
नीर-बाहुल्य से जीवन-विविधता समृद्ध, सूखे को हरा करता जल। 

वर्षा में ही वन-महोत्स्व, सिद्धता नन्हें पादपों के मूलों में निकट जल 
एक-२ कर चहक से उठते, ऊष्मा-पानी चाहिए बढ़ जाते एक दम। 
भू-लवण मात्रा वर्धित, एक से अन्य स्थल को खनिज बहने से गमन 
मृदा-गुणवत्ता पूरित, स्वच्छता होती, हर रोम खोलकर रिसाव जल। 

अति-ऊष्मा तप्त प्राणी-पादप को अति चैन, मन-आत्मा पुलकित 
शस्य-श्यामला वसुंधरा, समृद्धि-प्रतीक, हर रोम से तेज स्फुटित। 
लोगों की कई चाहें जुडी रहती, बरखा आई तो तीज, मेले-त्यौहार 
लोग एक-दूसरे को बधाई देंगे, मेल-जोल से तो बढ़ेगा प्रेम और। 

वर्षा एक जीवंत-ऋतु, सर्व स्वच्छता-प्रणाली को देती नव आयाम 
सारा कूड़ा-कचरा बह जाता, पहुँचने में सहयोग अंतिम मुकाम। 
सरिताऐं तो उफान पर होती, नहरों में भी पानी छोड़ दिया जाता 
धरा में जल-रिसाव, सरोवरों में एकत्र नीर पूरे साल काम आता। 

 प्रचुर खाद्य शाकाहारियों हेतु, दुधारू पशुओं में वर्धित दुग्ध-मात्रा 
घास-चारा खाओ न कमी, पहले  चरवाहे-पाली करते थे चराया। 
गड्डों में पानी-मिट्टी एकत्रित, लगता  समतल सी हो जाएगी पृथ्वी
सब भेद विस्मृत, कहीं-२ बाढ़ आने से लोग होते कठिनता में भी। 

कभी धूप -छाँव, बहुरूपी मेघ दर्शित, इंद्रधनुष छटा बिखेरता 
पक्षी-कलरव सुनाई देते, सतत हर्ष प्रकट कर ही देते अपना। 
धराधर मूसलाधार बरसते, प्रखर प्रहार, भागकर  होता बचना 
पथों में पानी प्रभृत, गड्डों का अंदाजा न, हो भी जाती दुर्घटना।  

सुदूर मेघ-यात्रा, वाष्प सोखते, ऊष्मा से नभ में अत्युच्च उठते 
वहाँ वे शीतल होते व अवसर मिलते ही बरस जाते, रिक्त होते। 
प्रकृति के खेल निराले हैं, यदा-कदा धूप में भी बारिश हो जाती 
मेघ देख वनिताओं को प्रिय-स्मरण, खिन्न हो मन मसोस लेती।  

कालिदास-कृति मेघदूत अनुपम, कथा-सुव्याख्यान  यक्ष-विरह 
उन्हीं के काव्य ऋतु-संहार में पावस का एक रमणीक विवरण। 
दादुर टर्राते, भ्रमर मधुर गुनगुनाते, जुगनूँ  अँधेरे में टिमटिमाते 
प्रफुल्लित मयूर नर्तन करते हैं, सरोवर  पूरित शुभ्र कुसुमों से। 

इस वेला में आनंद में झूमना हर प्राणी-मन की होती फितरत
कलम का भी एक निश्चित संग, माँ वाग्देवी-कृपा आवश्यक। 
रिक्त पलों में एक गुरु ब्रह्मांड-रूप वर्षा पद्य था चिर-इच्छित
कलम चले तो मृदु फूँटेगा, फिर यथासंभव दिया ही है लिख। 

पवन कुमार,
२७ जुलाई, २०२० सोमवार १०:१७ रात्रि 
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३ अगस्त, २०१७, वीरवार, ९:२० बजे प्रातः से )  
 

Wednesday, 22 July 2020

मन-पावस

मन-पावस 
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प्रातः वेला बाहर मद्धम वर्षा हो रही, शाखा-पत्तों संग वृक्ष रहें मुस्कुरा 
कुर्सी में बैठा खिड़की से अवलोकन करता, यह पृष्ठांकन कर हूँ रहा। 

मनोद्गार-अभिव्यक्ति हेतु हुनर चाहिए, सुघड़ता कहने की कोई बात 
दूर समुद्र-जल मेघ द्वारा आकर-बरसकर कराता बड़प्पन अहसास। 
सुदूर से पवन आ खुशनसीबी बख़्शती, हाँ न कहती कि बड़ी हूँ स्वयं 
माँ प्रकृति सर्वस्व देते भी मौन रहती, दिल से तो अहसानबंद हैं सब। 

बाहर वृष्टि अंतः मन आर्द्र, सब बरसें, निर्मल-जल करता प्राण स्पंदन 
 वारि बिन मलिनता-ऊसरता थी व्याप्त, अब जल तो जाती आशा बन। 
मैं भीगा अंदर-बाह्य से, सरोबार, पर विभोर मन से नहीं हुआ है संपर्क
बस उसी पूर्व-बोझिलता में ही लुप्त, नूतन से परिचय हो तो होऊँ पूर्ण। 

यह धराधरों का पर्व, ऊपर गगन में मेघ विपुल आकारों में लदे से पड़े 
कुछ अद्भुत आकृतियाँ रचित, पर बादल गतिमय रूप बदलते रहते। 
कुछ धूल-पानी से ही तो निर्मित हैं, चलते-२ थकते भी, करते हैं विश्राम 
अब देखो मेघ शावक सा लघ्वाकर, कभी लड़खड़ाता सा बुजर्ग  सम। 

बारिश तो है पर मन विचार न फूँट रहें, पुनः जगा हूँ पौना घंटा सोकर 
आशा कि कुछ उत्तम विचारित हो, कलम अपने से यात्रा कराती पर। 
सब दिवस तो एक जैसे न  होते, सबमें नूतनता है अपनी भाँति की हाँ 
निहारकर मुस्कान-कला आनी चाहिए, सब उत्तम है सीखो सराहना। 

एक भूरी चिड़िया नीड़ से निकल आ बैठी, गर्दन घुमाकर ऊपर देखती 
 खंभे पर एक कबूतरी बैठी  है, चोंच से अपनी देह को खुजला सी रही। 
निकट भवन-कोण में कपोत बैठा, पंख फैलाकर सुखाने का करे यत्न  
अब ये भी बारिश में भीग जाते, सर्दी-गर्मी-आर्द्रता सब करेंगे अनुभव। 

 घर के बाहरी गेट के बाऐं स्तंभ पर दो, व दाऐं पर एक कबूतर आ बैठे 
गर्वित सी ग्रीवा तनी, कुछ सोच से रहे, खिड़की से मुझे झाँकते लगते। 
सब निमग्न आत्म में क्यूँ बाहर की चिंता, बदलती रहती निज ही शक्ल 
अब पंख फैला उड़ कहीं ओर जा बैठे, एक स्थल रहता कौन टिककर। 

सोचूँ इस पावस में मन तन इतना विभोर हो जाए, धुल जाए सब कुत्सित 
इस ऊसर भू में भी कुछ बीज उगें, और जीवन-संचरण हो प्रतिपादित। 
मन के सब भ्रांत पूर्ण नष्ट हो जाऐं, निर्मल में कुछ स्पष्ट सा हो दर्शित सब 
कई चुनौतियाँ समक्ष हैं, दृढ़ हो सुलझाऊँ, अकर्मण्यता से तो गुजार न। 

ऊर्वर बनूँ अनेक अंकुर उगें, तरु बनें, वसुंधरा धन-धान्य में सहयोग हो
कुछ भूखों की क्षुधा मिटें, पल्लव मुस्कुराऐं, आश्रय दें जीव-जंतुओं को। 
सुफल प्रकृति-अंश, सुख-दुःख सम्मिलित, योग सुखी परिवेश निर्माण में
जहाँ शक़्कर-मधुरता सब आ जाऐंगे, कर्कशता से अच्छे भी भाग जाते।

मैं भी  ऊर्वर माँ-उदर से अंकुरित, तात ने अंड में अपने बीज डाले 
दोनों समर्थ थे अंकुरण-प्रक्रिया में, तथैव कई जग-विस्तृत मेरे जैसे। 
पर हमारा क्या योगदान जग-निर्वाह में, कुछ घौंसले बनाऐं भले बन 
खग विश्राम करते चूजों को चुग्गा दे सकें, सुकून-जिंदगी हो बसर। 

अनेक कर्मठ हैं सदैव कार्यशील, अनेक संस्थाओं में सहयोग कर रहे 
उनका योगदान चिरकाल तक अविस्मरणीय, बड़ों के काम भी बड़े। 
कदापि न सकुचाना चाहिए, जितना बन सके कोशिश हो अधिकतम 
उलझाना सरल, सुलझाना कठिन, पथ से पत्थर-काँटें हटाना उत्तम। 

जग-आक्षेपों की न चिंता, लोग  चिल्लाते रहेंगे हमें तो निर्वाह कर्त्तव्य
जीवन-पथ संकरा पर दूर ले जाऐगा, सिखाएगा असल-जीवन लक्ष्य। 
सब संशय मिटाना प्राथमिकता, प्रखर चाह ऊँचा उड़ना चाहता यह 
ओ दूर के राही औरों को संग ले, अकेला न छोड़, कई अंग गए बन। 

ऐ पावस, मन प्रमुदित व कर्त्तव्य-परायण कर, प्रेरणा-स्रोत बनें तेरे गुण 
 कुछ जग-नियम समझने लगा हूँ, बड़े डंडे खाए हैं योग्य बना तब कुछ। 
उत्तम संस्मरण करता रहूँगा, दूर तक जाना, आभारी अनेक चीजों का 
रुकने न देना यात्रा, प्रार्थना  मेघदूत के यक्ष सम अनेक भाव दिलाना। 

कवित्व तो न, हाँ कलम जरूर घिस लेता, शायद यहीं से प्राप्त मृदुता 
आशा यह पावस प्रबल मन-शक्ति देगी, जो कर्म मिला उत्तम दूँ निभा। 

पवन कुमार, 
२२ जुलाई, २०२० बुधवार, समय ८:४२ बजे प्रातः 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २५ जुलाई, २०१८ बुधवार, ९:५२ बजे प्रातः से )

Saturday, 18 July 2020

मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक 'महाकवि कालिदास विरचित'

मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक 'महाकवि कालिदास विरचित'


प्रिय मित्रों, यह बताते हुए मुझे अत्यधिक हर्ष हो रहा है कि ज़ोरबा बुक्स, गुरुग्राम (हरियाणा) के माध्यम से मेरी प्रथम हिंदी अनुवाद पुस्तक 'महाकवि कालिदास विरचित' दिनांक १० जुलाई, २०२० को प्रकाशित हो गई है। यह पुस्तक प्रकाशक के आउटलेट, अमेज़न, फ्लिपकार्ट व किंडल पर उपलब्ध है। यह एक महाकवि कलिदास के संस्कृत में महाकाव्यों 'मेघसंदेश, कुमारसंभव व ऋतुसंहार' के दुसाध्य अनुवाद कार्य है जिसको मैंने अपने शब्दों में हिंदी में लयबद्ध पद्य में पुनः अंकन करने का प्रयास किया है। ये कार्य इस ब्लॉगर साइट पर भी उपलब्ध हैं लेकिन संपूर्ण कार्य पुस्तक में एक स्थान पर संकलित हैं। मुझे पूर्ण आशा है कि मेरे प्रिय पाठक मित्र इस पुस्तक को पढ़ेंगे और टिप्पणियों सहित उत्साहवर्धन करेंगे। धन्यवाद।

पुस्तक निम्न लिंक्स पर उपलब्ध है :

Monday, 13 July 2020

घर-बाहर

घर-बाहर 
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मेरी दुनिया क्या है, परिवार जहाँ जन्मा या वह जहाँ वर्तमान में रह रहा 
अनेक शिक्षण-कार्य स्थलों में दीर्घकाल, घर के अलावा भी कई आयाम। 

देखना चाहूँ  कितना घर या बाहर, क्या प्रतिबद्धता काल -अनुपात में माप 
या कुछ पक्ष औरों से महत्त्वपूर्ण, गुणवत्ता का  मात्रा से कहीं अधिक भार। 
सब पक्षों का स्व प्रभाव, मानव सुस्त तो भी दुनिया निज कर्म करती रहती 
हर निवेश का स्वभाव अतः कुछ  न गौण, सहयोग से ही दुनिया बनती।  
 
क्या सोचूँ जितना मनन करूँ, दायरा बढ़ता या  सिकुड़ता जाऐ आत्म तक 
माता-गर्भ में अकेला था पर कुछ  परिपक्व हो, बाह्य -ध्वनियाँ लगा श्रवण। 
जन्म-पश्चात तो सब तरह का कोलाहल, शांत मन पर निरत हथौड़े बरसते 
परिजन-संबंधी, पड़ौसी-गाँव वाले, मामा-चाचा, बुआ, चचेरे-फुफेरे-ममेरे। 

 नर की निज तो न मौलिकता, यहीं से अन्न -जल-शिक्षा ले प्रभावित रहता 
कुछ तंतु तो पृथक मनों में, स्वभाव-गुण, विविध तौर-तरीक़े लेते अपना। 
बाह्य नज़र में तो सब एक जैसे  होते, पर  अनेक विरोध पाले रखते अंतः 
विविधता एक जीव पहलू, स्वीकृति में न दोष, पर अभी दायरे पर मनन। 

कह न सकता पूरे गाँव को जानता, असंभव भी, जाने गए संपर्क वाले ही 
मुझे भी अनेक जानते होंगे, कुछ  ऐसे  होंगे जिनसे कभी बात ही न हुई। 
कुछों को पसंद या नापसंद करते,  लेकिन कुछ रिश्ता तो बना ही रहता 
रिश्तेदार आते या मैं जाता, निकटस्थ गली-सड़क का कुछ प्रभाव होगा। 

स्कूल शुरू तो नया  परिवेश, बाहरी शिक्षिकाऐं, छात्रों का निज परिवेश 
पर सब बैठ शिक्षिका की बात सुनते, अंतः प्रवेश करता कुछ सम रस। 
वही पाठ्य- पुस्तकें व माहौल, विविधता  में एकता-सूत्र पिरोने का यत्न 
परीक्षा-प्रश्न,  प्रार्थना-खेल, डाँट-डपट, गपशप, बाह्य भी माहौल एक।  

घर आगमन बाद वही माँ-बाप, सहोदर-पड़ोसी, स्कूल को भूलने लगते 
पशु-पेड़, घर - बगड़, घेर-गंडासा, मार्ग-तालाब, सदैव प्रभावित करते। 
खाली हुए तो मित्रों संग खेलने लगते, घर के पास या कभी गाँव के गोरे 
वर्षा में मस्ती, भैंस की पूँछ पकड़ जोहड़ में, गिल्ली-डंडा, पिट्ठो खेलते। 

स्कूल से अलग  गृह परिवेश, छुट्टियों में मज़े होते, कई दोस्त बन जाते 
पेड़ों पर चढ़ते, बड़ की बरमट नमक लगाकर खाते, कभी कच्चे आम,
बेर-जामुन-अमरूद-लसोडा-शहतूतों की खोज में कभी यूँ घूमते रहते। 
साइकिल चलाना सीखते, कैंची से डण्डा फिर काठी और पीछे कैरियर
सब मिल महद रोमांच भरते, सीखते जाते, दुनिया होती रहती विस्तृत। 

गाँव से नगर के बड़े स्कूल गए, कई पृष्ठभूमियों के स्टाफ़, छात्र-शिक्षक  
कोई इस या अन्य गाँव का, शहर या निकट क़स्बे का, धनी  या निर्धन। 
कोई पैदल या  साइकिल से आए, बस-ट्रेन तो कोई ऑटो-स्कूटर से ही 
 कोई समीप या  दूर से, छात्रावासित, अधिकांश आते- जाते घर से ही।   

लघु-बड़ी कक्षाऐं स्कूल में, सबको न जान सकते, धीरे-२ प्रवासी वरिष्ठ 
हम भी बड़ी कक्षाओं में बढ़ते, खंड बदलते, नव मित्रों से प्रेम-परिचय। 
कोई जरूरी न सब पसंद ही, अनेकों से उदासीन या नापसंद भी करते 
शिक्षकों का भी अतएव व्यवहार, उनके विषय में निश्चित राय बना लेते। 

बचपन में कितने ही मित्र संपर्क में आते, सारे कहाँ याद रह पाते हैं पर 
जिनके संग खेलें-पढ़ें, एक व्यवहार था, आज स्मृति-पटल से हैं विस्मृत। 
कह सकते हैं मानव के वृहद भाग के साथ रहकर भी, पराए से ही रहते 
अन्यों के ज्ञान विषय में सीमित ऊर्जा, असमर्थ अनेक संपर्क निर्माण में।  

कॉलेज गए विलग ही परिवेश, अनेक स्थानों के छात्र-छात्राऐं व शिक्षक 
 कोई परिचित भी मिल जाता, अन्यथा खुद से ही बनाने पड़ते कुछ मित्र। 
फिर पहुँचने हेतु किसी वाहन का प्रबंध, पुस्तकें-कॉपी-पैन  व जेबखर्ची 
दोस्तों संग सिनेमाघरों में फिल्म की लत पड़ जाती, पढ़ाई गौण हो गई।  

फिर जैसे-तैसे कुछ पढ़े, जैसा भी परिणाम आया फिर नए संस्थान गए 
वहाँ माहौल और बड़ा विचित्र, कई वहम टूटते, पर संपर्क बनता शनै। 
सीनियर-जूनियर मिलते, जिंदगी में एक छवि बनाते लोग लेते उसी सम 
शनै अनेकों से लगाव-गुफ़्तगू, खेलते-गाते व पढ़ते, पूरा हो जाता समय। 

अतएव कार्यस्थलों पर अनेकों से भी मिलन, व्यक्तित्व में लाभ है रहता 
घर के अलावा  भी निज जग, सब अपने हैं बस संजोना आवश्यकता। 


पवन कुमार,
१३ जुलाई, २०२० समय ८:१४ बजे सायं
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी  दि० १२.०६.२०१९ समय ८:५१ प्रातः से )  

Monday, 29 June 2020

ख़ानाबदोशी-खोज

ख़ानाबदोशी-खोज
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एक ख़ानाबदोश सी  जिंदगी, निर्वाह हेतु हर रोज़ खोज नए की
सीमित वन-क्षेत्र, कहाँ दूर तक खोजूँ, शीघ्र वापसी की मज़बूरी। 

कुदरत ख़ूब धनी बस नज़र चाहिए, यहीं बड़ा कुछ सकता मिल 
अति सघन इसके विपुल संसाधन, कितना ले पाते निज पर निर्भर। 
पर कौन बारीकियों में जाता, अल्प श्रम से ज्यादा मिले नज़र ऐसी 
दौड़-धूप कर मोटा जो मिले उठा लो, भूख लगी है चाहिए जल्दी। 

मानव जीवन के पीछे कई साँसतें पड़ी, चैन की साँस न लेने देती 
क्या करें कुछ विश्राम भी न, होता भी तो बाद में न रहता ज्ञात ही। 
मात्र वर्तमान में ही मस्त, भोजन जल्द कैसे मिले ज़ोर इसी पर ही
घर कुटुंब-बच्चे प्रतीक्षा करते, आखिर जिम्मेवारियाँ तो बढ़ा  ली। 

जिंदगी है तो  कई अपेक्षाऐं भी जुड़ी, बिन चले तो जीवन असंभव
फिर क्या खेल है प्राण-गतिमानता, निश्चलता तो मुर्दे में ही दर्शित। 
किसे छोड़े या अपनाऐं, सीमाऐं समय-शक्ति, प्राथमिकताओं की 
सर्वस्व में सब असक्षम, हाँ क्रिया-वर्धन से कुछ अधिक कर लेते।  

दौड़ शुरू की तो देह  दुखती, सुस्त तो व्याधियाँ घेरती अनावश्यक
 व्रत करो तो कष्टक अनुभव, बस खाते रहो तो पेट हो जाता खराब। 
 पूर्ण कार्यालय प्रति समर्पित तो घर छूटे, सेहत हेतु भी होवो संजीदा 
घर-घुस्सा बने रहे तो बाह्य दुनिया से कटे, बस उलझन करें क्या ? 

अकर्मण्य तो अपयश पल्ले, करो तो जिम्मेवारियाँ सिर पर अधिक 
शालीन हो तो लोग हल्के में लेते, सख़्ती करो तो कहलाते गर्वित। 
ज्यादा खुद ही करो तो  अधीनस्थ निश्चिंत हो जाते, काम हो  जाता 
अधिक दबाओ तो रूठ जाते, थोड़ा कहने से भी  मान जाते  बुरा। 

 कटुता का उत्तर न दो तो कायर बोधते, समझाओ तो डर अनबन का  
सहते रहो तो अन्य सिर पर धमकता, जवाब दो तो लड़ाई का खतरा। 
संसार छोड़े तो भगोड़ा कहलाते, चाहे वहाँ भी न मिलता कोई सुकून 
जग में रहना-सफल होना बड़ी चुनौती, हर मंज़िल माँगती बड़ा श्रम। 

सुबह जल्दी उठो तो मीठी नींद गँवानी, पड़े रहो तो विकास अल्पतर 
यदि मात्र कसरत में देह तो बलवान, पर दिमाग़ी क्षेत्र में जाते पिछड़। 
जब वाणिज्य में हो तो झूठ बोलते, सारे चिट्ठे ग्राहक को दिखाते कहाँ 
शासन से बड़ा कर छुपा लेते हो, आत्मा एकदा भी न कचोटती क्या? 

कदापि न परम-सत्य ज्ञान में सक्षम, कुछ जाने भी तो सार्वभौमिक न 
जग समक्ष पूरा सच रखे तो अनेक लोग शत्रु बन जाऐंगे अनावश्यक। 
लोग खुद में ही बड़े समझदार हैं, जो अच्छा लगता वही सुनना चाहते 
बुद्धि को अधिक कष्ट न देना चाहते, आत्म-मुग्धता में ही मस्त रहते। 

धन तो  युजित आवश्यकता-क्षय से, विलास-सामग्रियाँ एक ओर रखें 
सदुपयोग भी एक कला, पहले दिल तो बने उत्तम दिशा में हेतु बढ़ने। 
जब स्वयं विभ्रम में, दुनिया की कौन सी चीज बदल देगी सकारात्मक
नकारात्मक तो खुद ही हो जाएगा, अंतः-चेतनामय क्रिया आवश्यक। 

एक तरफ नींद नेत्र बंद हो रहें, किंतु चेतन गति हेतु कर रहा बाध्य 
एक अजीब सा युद्ध खुद से ही, हाँ विजय उत्तम पथ की अपेक्षित। 
अपने में ही कई उलझनें, अन्यों के अंतः तक जाना तो अति-दुष्कर 
कैसे किसे कितना कब क्यों कहाँ समझाऐं, सब निज-राह  धुरंधर। 

अभी प्राथमिकता स्व से ही उबरने की, चिन्हित तो कर लूँ पथ-लक्ष्य
  बड़ा प्रश्न कर्मियों की सहभागिता का, सब तो यज्ञ-आहूति में आए न। 
बहुदा लोग तो बस समय बिताते हैं, तेरी इच्छा में क्यों सहभागी बनें 
जब तक बड़ा हित न दिखता, क्यों अपने को तेरी अग्नि में झोकेंगे। 

कुछ मेधा हो तो जग समझोगे, अपने ढंग से बजाते लोग ढ़फ़ली 
   किसी भी बड़ी परियोजना हेतु, कर्मियों का मन से जुड़ना जरूरी। 
वे उतने बुरे भी न बस कुछ स्वार्थ, व्यर्थ पचड़ा न चाहते, दूर रहो 
तुम यदि अग्रिम तो यह सफलता, कि अधिकतम अपना समझे। 

चलिए यह थी ख़ानाबदोशी खोज, खुद से जैसा बना खोज लिया 
यह पड़ाव था पूर्ण दिवस-यात्रा शेष, आशा वह भी उत्तम होगा। 
बुद्ध ने मध्यम-पथ सुझाया, हाँ कुछ तो ठीक है हेतु आराम-गुजर 
पर क्या चरमतम तक पहुँच सकते, उसकी खोजबीन जरूरत। 

परम  गति चाहते हो तो होवो पूर्ण-समर्पित, इसमें अतिश्योक्ति न
परिश्रम उत्कृष्ट श्रेणी का, मात्र दूजों को ही देख न रुदन  उचित। 
माना कुछ अन्य संग लगा दिए, उनका तुम पूरा साथ-सहयोग लो 
वे भी तेरी शक़्ल देखते, कुछ जिम्मेवारी देकर फिर नतीज़ा देखो। 

खुद से ही कई अपेक्षाऐं जुड़ रही हैं, अच्छा भी है तभी तो  सुधरोगे 
 कुछ योग्य शरण में आओ, सीखने के जज़्बे बिना कैसे आगे बढ़ोगे। 
खुद से श्रम में कमी न हो,  सहयोगियों को भी पूर्णतया जोड़ लो पर 
कोशिश वे भी संगति से उपकृत हों, योग्यता बढ़नी चाहिए निरंतर। 

सुभीते जीवन-चलन हेतु आवश्यक, नीर-क्षीर भेद करने का प्रज्ञान 
फिर उचित हेतु कष्ट लेने में भी न झिझको, झोंक दो विक्रर्म तमाम। 
तन-मन विक्षोभ की किंचित भी न परवाह, सब आयाम बस लक्ष्य के 
प्रक्रिया में अति ताप-दबाव सहना पड़ता, गुजरे तो आदमी बनोगे। 

एक अत्युत्तम लक्ष्य बना लो जिंदगी का, अभी समय है पा हो सकते 
विगत से भी सक्षम बने हो, कमसकम मन-बुद्धि-देह तो साथ दे रहे। 
किसी भी क्षेत्र में  संभव है उन्नति, जग तो अपना करता रहेगा काम 
तेरा कर्मक्षेत्र ही है कुरुक्षेत्र-युद्ध, पर जीतना तो है लगाकर ही जान। 

मंथन हो जय-संहिता के शांति-पर्व सम, भीष्म -व्याख्यान राजधर्म   
जीवन-सार संपर्क दैव  से प्राप्त, पर सदा उत्तम हेतु रहो कटिबद्ध। 
जीवन में सब  तरह के पक्ष सामने आते, पर न डरो बस चलते रहो 
जीवन समेकित ही  देखा जाएगा, अविचलित हुए कर्मपथ में बढ़ो। 

धन्यवाद कलम ने आज यह यात्रा कराई,  इसी ने बड़े कर्म करवाने
यही मस्तिष्क की कुञ्जी, कर्मक्षेत्र में बढ़ने को यही प्रेरित करती है। 
कल्याण इसी से होगा इतना तो विश्वास, समय बस प्रतीक्षा रहा कर 
इसका संग, न कोई ग़म, जहाँ ले जाएगी जाऊँगा, सब होगा उत्तम। 


पवन कुमार,
२९ जून, २०२०, सोमवार, समय ६:१७ सायं  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ९ अगस्त, २०१७ मंगलवार, ८:०७ बजे प्रातः से) 
   

Monday, 15 June 2020

प्यार-प्रेम पथ

प्यार-प्रेम पथ
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हम क्यूँ जल्दी करते, आपसी रिश्तों का भी न कोई ध्यान 
खुद में ही सुबकते रहते, कई खुंदकें दिल में रखी  पाल। 

अंततः इंसान हैं कौन, क्यों अपनों से मन की न सकते कह 
परस्पर के सुख-दुःख में सम्मिलन की होनी चाहिए पहल। 
क्यों सदा अपेक्षाऐं ही कि कोई निज आकर ही करे सलाम 
या पहल से तो छोटे हो जाऐंगे, जग के नाज़ो-नखरें अजीब। 

कई वहम पाल रखे मन में, दूजों की साधुता तो ख़्याल में न 
निज दर्द कहने का भी न साहस, अंदर से ही सुबकते बस। 
खुलकर ख़ुशी में न मुस्कुराते, यदा-कदा बस औपचारिकता 
नेता-अभिनेताओं के तो भक्त, पर निकटस्थों से है बिदकना। 

इतनी नीरसता क्यूँ जीवन में, क्यों न कोई बाल-मुस्कान सराहें 
इतना दिल कि भतीजे-भांजे, रिश्तेदार के बच्चों को प्रेरणा दें। 
परस्पर कद्र करनी चाहिए, पर बड़ाई करने भी साहस चाहिए 
दिल क्यूँ है संगदिल, जमाने संग बहो, शायद खुश रह सकते। 

क्यूँ अपेक्षाऐं जग से, शायद चाहते कि किंचित और अच्छा हो 
आशा कि बंधु खूब  तरक्की करें, खरा न उतरने  पर है क्षोभ। 
पर खुद कितना उन हेतु झोंकते, निवेश हिसाब  से ही उत्पाद
सफल निर्वाहार्थ सहयोग माँगता, खुंदकी से तो  बस खिंचाव। 

ये कैसे रिश्ते औपचारिकता भी न, साधन बाँटना  बात ही और 
कभी खट्टे-मीठे बोल भी न, शिकायत निर्वाह करना भी सीखें। 
क्या ज्ञानेद्रियाँ बस अनुभव हेतु, या अपने भाव भी कर दें प्रकट 
कहना-सुनना सहज प्रक्रिया, संवादहीनता निस्संदेह ही मारक। 

यूँ जीवन बीत रहा स्व-खिंचन में ही, पर शिकायतें भी न ज्ञात
बस कुछ उल्टा-सीधा सुन रखा, कई भ्रांतियाँ हैं स्व-निर्माण। 
एक सहज रिश्ता जो  सुलभ संभव, यदि मन-अहंकार  त्याग 
न कभी बात न लेना-देना, हमें क्या वे अपने को सोचते बड़ा। 

हम प्रेम पालें, परस्पर आदर करें, मन की बताऐं उनकी सुनें 
जीवन सदा भागता ही, क्यों न कहीं ठहर कुछ पल बाँध लें। 
आपसी लाभ भी लेना चाहिए, प्रयोजन हेतु बहिर्चरण जरूरी 
सीखना जरूरी जग  से निबटने हेतु, एक पथ प्यार-प्रेम भी। 

सारी जग खिंचा पूर्वाग्रहों में, सुबह से शाम तक शिकायत ही 
सब रिश्ते कुछ खिंचे से, बाप को बेटे से, बेटी को माँ से ग्रंथि। 
वह भी कोई  समस्या है न, यदि दृष्टिकोण सकारात्मक-हितैषी 
 कर्मठता - नियति जरूरी, सहयोग लेन-देन में न झिझक ही। 

उत्तम जग-स्थल निर्माण  दायित्व सबका, आओ सहयोग करें 
कुछ गुण कार्य-निष्पादन मूल्यांकन विवरणी के भी अपना लें। 
पहल-शक्ति एक सुगुण, उसके बिना अनेक  बाधित  रहते हैं 
बाल-सारल्य त्याग वयस्क समझने लगें,  दुनिया से  कट गए। 

बस अपने को सिकोड़े जा रहें, दुनिया से भी कई शिकायतें 
चलो है सुधार-आवश्यकता, पर कौन रोकता न बढ़ो आगे। 
जग मात्र हम जैसों का जमावड़ा, कह दो यदि कुछ कटु भी 
शिकवा छोड़ वृहद-हित सोचें, सफलता हेतु खटना पड़ता । 

जीवन डिज़ाइन होना ही चाहिए, अनेक पहलू साधना माँगते 
क्यूँ इसे दोयम रखे, कुछ और हिम्मत करके दुनिया लाँघ दे। 
क्यूँ फिर अल्प-संतुष्टि, जब कई राहें खुलीं मंजिलों हेतु  बड़ी 
अभी समय है  व्यवधान लाँघो, सोचने में भी है ऊर्जा लगती। 

कभी यूँ ही मुस्कुरा दो, लोग इतने भी न कर्कश अर्थ न समझे 
संकेत भी लेने  आने  चाहिए, कोई फालतू  तुम ऊपर न पड़े। 
दुनियादारी एक अजीब सर्कस, बनो एक प्रशिक्षक-सुप्रबंधक 
अनेकों ने है परिवेश महकाया, देखना शुरू करो मिलेंगे बहुत। 

ऐ जीवन, कृपा करो, रहम-दिल बनाओ, सर्व-दर्द समझ सकूँ 
सर्वजग एक कुटुंब सा बने, एक माली भाँति हर पादप सीचूँ। 


पवन कुमार,
१४ जून, २०२० रविवार, समय १२:०० बजे म० रा० 
(मेरी डायरी १३ जुलाई, २०१८ समय ८:३४ बजे प्रातः से) 
 


Sunday, 31 May 2020

उत्तम-प्रवेश

उत्तम-प्रवेश
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खुली आँखों से स्वप्न देखना, किंचित बाहर आना तंद्रा से
  बस यूँ नेत्र खोलें, कितनी संभावनाऐं  हो सकती मन में।  

शिकायतें कई तुमसे ऐ जिंदगी, न खिलती, न रूप दिखाती 
कहाँ छुपी बैठी रूबरू न हो, तड़प रहा तुममें रहकर भी।  
जल में रहकर भी  प्यासा, यह तो कोई फलसफ़ा न है भला 
ऑंखें मीचे सोता रहूँ तुझे न मतलब, कैसा निभा रही रिश्ता। 

मेरा सोना क्या और जागना क्या, जब दोनों में ही न स्पंदन 
प्राण तो पूर्ण जिया ही न, कुछ पेंच फँस काट दिया समय। 
ऐसे कोई मज़ा आए न, सौ में से एक-दो नंबर पा लिए बस 
उत्तीर्ण हेतु न्यूनतम तो पाऐं, उत्तम-उत्कृष्ट स्थिति अग्रिम। 

यह जीवन क्या, कैसे जी रहा, कुछ समझ तो अभी न आया 
या कि कभी कोशिश ही न की, जैसे आया वैसे बिता लिया। 
 जब  यूँ तंद्रा मन-देह में, पूर्ण चेतना बिना तो अधूरा ही होगा 
कोशिशें भी कुछ अधूरी ही, इच्छा-स्तर  भी दोयम ही रहा। 

   कोई कुछ छंद-कुंद जोड़ देता, मैं अवाक्-विस्मित सा देखता     
निज का जैसे वजूद न, किसी ने कुछ बताया उधर हो लिया। 
जीवन-सलीका तो बड़ी दूर की बात, सुस्ती छूटे तो सोचूँ कुछ 
मौका-ए-जिंदगी यूँ भागा जा रहा, बीता तो क्या कहूँगा फिर। 

दिन-रैन आते-जाते, कभी गुनगुना देता, प्रतिक्रिया देता कर
पर क्या सत्य प्रक्रिया इस प्रवाह की, रहस्य-अर्थ तो ज्ञात न। 
जग क्या-क्यूँ समझे, शख्स को खुद का ही न पूरा पता जब 
    कभी प्राण-स्पंदन हो जाता है, पर है पूर्ण का अत्यल्प अंश।    

यदा-कदा की बेचैनियाँ कष्टकारक ही, कोई न चेतना वरन 
वैद्य ने बस दर्द कम करने की सूई दी, यह कोई ईलाज न। 
वैद्य रोग बताता भी न, जानता कि कोई ज्यादा लाभ न होगा 
इसकी काट अति कष्टमय, शायद संग लेकर मरना होगा। 

इस दुनिया में तो भेजा हूँ, मेरा भी यहाँ कुछ अधिकार होगा 
जहाज में धक्का मार घुसा दिया, बे-टिकट तो मिलेगी सजा। 
पास जुर्माने की दंड-राशि भी न है, न ही लेगा कोई जमानत 
न कुछ गिरवी रखने को ही पास, कैसे निदान होगा पता न। 

शायद देह-मन यंत्रणा सहनी होगी, जग में अधिक दया न 
या योग से कोई दयालु मिले, डाँट-फटकार से ही दे छोड़। 
तथापि निरीह ही, इस कष्ट से निबटा अग्रिम का होगा क्या 
कुछ योग्य-सुकर्म अनुरूप न बना, कैसे होगी अग्रिम राह। 

कुछ दया-डाँट, दर-बदर भटकना, मायूसी से क्या जीना यूँ
कोई सुयोग्य-कर्मठ क्यूँ न बनाता, जीवन-राह सीख जाऊँ। 
जीना वही जो  पूर्ण  जीया, हर रोम से जीवन हो मधु सिक्त 
अंतः-उत्तम तो तभी बाहर आएगा, अंतः-सुदृढ़ता से हित।  

कुछ खान-पान-सोच दोषित, इतनी तंद्रा तो कदापि न वरन
विज्ञान शिक्षा प्राण-प्रक्रिया के नियम, कोशिका रचना-क्षय। 
जाँचन-सामर्थ्य तो न मुझमें, सुशिक्षित भी न जो जाऊँ समझ
बाह्य विज्ञान अति जटिल, विश्व समझना भी न इतना सरल। 

कौन नियम पालन ग्राह्य-स्थिति हेतु, रग-२ से टपके संचेतना 
स्व-आत्मीयता, गुण-दोषों से सहजता, सदा न लड़ सकता। 
आत्म-आलोचना आवश्यक, ज्ञान पश्चात ही कुछ चरण संभव 
पर सोच-समझ पूर्णता पर लाओ, अपने को कर लो दुरस्त। 
  
कैसा भवंडर निर्गम न होने दे रहा, निकलूँ तो सोचूँ सुधार की
ज्ञानमय हूँगा तो स्थिति सुधरे, पर पूर्वार्थ अभी मात्र इच्छा ही। 
भोर हो तो दिखेगा चलने को, अभी रात्रि-तमस में अटका पड़ा 
मन-देह प्रभा व सामर्थ्य-उत्कंठा का संगम, शायद बने बात। 

यह जिंदगी मिली कुछ महद उद्देश्य हेतु, चाहे अज्ञात हो मुझे ही 
प्रथम दिन शाला गया शिशु अज्ञान, कि विद्या विद्वान बना देगी। 
सफलता-सोपान खुलेंगे व यश-कीर्ति अवसर प्रारंभ होंगे समक्ष 
जीवन तब सुघड़ ही गुजरेगा, बहुरंग खिलेंगे, हो पुलकित मन। 

यही प्रार्थना कोई उत्तम में प्रवेश करा दे, प्रशिक्षु शिक्षक का भले 
डाँट-फटकार, स्नेह या अन्य युक्ति से यह मूढ़ भी कुछ योग्य बने। 
अभी समझ न भावी परिणाम, शायद  कालक्रम में जाऊँ समझ 
यद्यपि ऐसा न दर्शित, तभी तो छटपटाहट, हूँ किंकर्त्तव्य-विमूढ़। 

इस क्षुद्र मन में इतनी पीड़ा, कैसे उपचार हो बुद्धि सोच न पाती 
सिमटा बस कलम-कागज पर ही, रह-२ हो जाता असहज वही। 
क्या करूँ यही समक्ष पल-स्थिति, कुछ पृथक तो तथैव उकेरूँगा 
पर लक्ष्य एक आत्मसातता का, वर्तमान मंथन विलग निकालेगा। 

चाह न अति विद्वान या समृद्ध होने की, उचित राह  पर्याप्त बस
गति पर कहीं पहुँचेंगे यदि दिशा हो, उपलब्धि बढ़ती उम्र सम। 
कुछ ढंग तो आए, साहसी कदम हों, योजना-परियोजना तो बने 
निस्संदेह उत्तरोत्तर सकारात्मक वृद्धि, बेचैनी दूर, मुख स्मित से। 

इतना तो अवश्य श्रेष्टतम से संपर्क हो, उन सम मन-बुद्धि बढ़े 
सबको पूरे विकास-अवसर, फिर क्यूँ अल्पता में ही अटके रहें। 
सत्य माना सब समरूप न बढ़ते, पर अनेक भी तो  आगे आए 
यदि प्रयास न तो कोई अन्य आएगा, तुम न तो अनेक पंक्ति में। 

सुचिंतन हो, नकारात्मकता पर विजय, हदों से कराएगी परिचय 
यह गंगा सलिल-प्रवाह सागर ओर, अति-विपुल से होगा मिलन। 
जब पूर्ण-पुष्पण होगा, तो सब वाँछित परिस्थितियाँ होंगी निकट 
इतनी जल्द हार मानने वाला भी न, अग्र बढ़ना न कोई संशय। 

क्या है इस कवायद का अर्थ, पर ऊर्जा-स्पंदन देता हेतु श्रेयस 
हर प्राप्ति माँगती निज मूल्य, समृद्ध बनो तो दे सको वाँछनीय। 
जीवन में प्रयास अति महत्त्वपूर्ण, दृष्टि उत्तम हेतु सततता रखो 
अग्रसर सुपग ही लक्ष्य पहुँचाते, अतः सर्व-इन्द्रि सुनिर्वाह करो। 


पवन कुमार,
३१ मई' २०२०, रविवार समय ५:२५ बजे अपराह्न 
(मेरी डायरी दि०  १८ अगस्त' २०१६, वीरवार समय ४:०५ बजे अपराह्न से)