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Sunday, 21 June 2015

साहित्य-मिलन

साहित्य-मिलन


साहित्य-सर्जन अनुपम विधा, उच्च मस्तिष्कों से संपर्क

अपना स्तर तब ऊर्ध्व, जागना पड़ता है पाने को झलक॥

 

मन मतंग सम फिरता है स्वछन्द, वन में करता चिंघाड़

मद-चूर, बल-महद, ऊँचा-कद, वृहद-काया व उद्दण्ड।

गर्व में वन-द्रुमों को तोड़ता, माना यही है शक्ति-प्रदर्शन

न ही चिंतन, न सोचा अपना-पराया, क्या हित था संभव?

 

माना शीर्ष विशाल मिला है, मस्तिष्क आकार भी समृद्ध

महद काया है संहति अनुक्रम में, केवल प्रश्न कैसे प्रयोग?

जन्म-उद्देश्य कुछ तो है, अभिभावक-वंशाणुओं से मिला

कुछ चेतना तो जन्म से, बाह्य परिवेश से भी महद मिला॥

 

स्व-प्रबोध है कठिन, नेत्रहीन अजान कि क्या संभव दर्शन

बहु-चेतना तो तम में लुप्त, कुछ अंश ही देख सकते हम।

प्रबंधन-शिक्षा में 'जोहारी-विंडो' पढ़ते, दर्शाए ज्ञान कोष्टक

'मात्र मैं, मात्र अन्य, मैं व और, तथा मैं व और भी न', ये हैं कोष्ट॥

 

मेरा ज्ञान-अधिकार एक सीमा तक, चेष्टा कुछ बढ़ाए अग्र

अन्य कर सकते मार्ग-दर्शन, चूँकि बहु विषय बुद्धि-बाहर।

जगत में तमस अनंत विस्तृत, बावजूद इसके मैं करता यत्न

क्या निदान ऋतु पार जाने का, मालिन्य तो फिर मृत्यु सम॥

 

'असतो मा सद गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर मा अमृतम् गमय'

स्व-चेष्टा असत्य-कालिमा व क्षणभंगुरता से निर्गम को अग्र।

इस क्षुद्र तन में कौन सहायक संभव, नन्हें मन की हो प्रगति

बहुत मेरे जैसे या निम्न, पर कुछों ने विकास किया सन्मति॥

 

जिन ढूँढ़ा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठी, मैं बौरी ढूँढ़न गई रही तीर बैठी'

मन-तहों को पलटने की प्रक्रिया से ही, कुछ आशा दिखती।

अनेक विषयों में हम अगम्भीर हैं, क्षीण ही होगा तो परिणाम

दबाव से कायांतरण, अभ्यास से हो जाता जड़मति सुजान॥

 

कौन ले जाता है मनन-चिंतन, सम्पर्कों से आत्मानुभूति किन

तब सत्य-दर्पण हमें दिखाऐ, आहूति से संभावना है परिचय।

कौन वे उच्च मन-प्रणेता, तपस्वी हैं, करें मन संग वज्र प्रयत्न

प्रयास से देख अंदर व बाहर, करें मन को परिपक्व-निर्मल॥

 

यौवन बचा, कसरत कर, बलशाली बन, युद्ध हेतु तैयार रह

निज को सबल रखना, क्षीणताओं को ही तो करना है कम।

मन की ताकत शरीर से अधिक, और बढ़ाए महद संकल्प

दोनों स्वस्थ-द्रुत रखकर ही, मानव विकास किंचित सम्भव॥

 

नर-प्रयास से कुछ रचना बनी, मिलकर पुस्तकालयों में सजी

कुछ साहित्य-चर्चा पत्रिकाओं में, पोथी भिन्न विषयों पर लिखी।

रचयिता लगा दते समस्त शक्ति, लेखन -समय उसका निचौड़

माना गोएथे कथन `कुछ भी नूतन नहीं', फिर भी सबका स्व-प्रयोग॥

 

मैं जो अभी सोच रहा, क्या और भी सोचते या बस मेरा ही क्षेत्र

माना विचार भी एक जैसे पनपते, तभी तो बनती है सोच एक।

मैंने ऐसा विचारा, उसने भी, देखो मस्तिष्क एक ढ़र्रे में सोचते

फिर भी बहु समय अलग होता, हम को अपनी पहचान देते॥

 

यह दर्शाता अल्पता मनन-क्षेत्र में, मानसिक-कर्मों के कई रंग

कितने ही जन वर्तमान में जीवित, कितने आकर चले गए पूर्व।

अनेक संभावनाऐं भविष्य में भी, उतरेंगी पीढ़ियाँ प्रक्रिया विचार

चेतना बस मानव तक न, पर किसे फुर्सत लें अन्य- समाचार॥

 

जब अन्यों को सुनते-पढ़ते हैं, असहमत होते भी बृहद से संपर्क

जीवंतता बढ़ती ज्ञानी-मिलन से, आत्म-विभोर हो जाता है मन।

तर्क कर सकते हैं उन विषयों पर, जिनसे कभी हुआ था परिचय

पर अज्ञात-अध्यायों पर मूक ही रहते, जानते हैं नवीन बिलुकुल॥

 

साहित्य हमारे समाज का दर्पण, माने न माने यह रेखा मन की

होवों आत्मसात यथा-अधिक संभव, प्रगति-द्वार खुलेगा तब ही॥



पवन कुमार,
21 जून, 2015 समय 18:10 सायं
(मेरी डायरी दि० 7 मई, 2015 समय 9:15 से )  

Saturday, 6 June 2015

तन-दुखन

तन-दुखन 


मन-क्षुधा तृप्ति है इस अकिंचन की आवश्यकता

कई दिन यूँ ही बीत गए, कुछ बतियाना ना हुआ॥

 

इस शरीर - पीड़ा का भी, नितांत पृथक है गणित

आती यकायक, संगिनी बनी रहती दीर्घ काल तक।

पर दर्द से पुराने रिश्ते अनुभव देते हैं अति-विचित्र

जब तक स्वयं पर न आता, पर-पीड़ा प्रतीत तुच्छ॥

 

यह तन-दुखन तो अपने तक ही, रहता सीमित न

बाधित करता सकल प्रक्रियाओं का प्रवाह सहज।

फिर मन तो इसका अग्रज ही, सहायता में आवत

 वह इसके तर्पण में लग जाता, सकल कर्म छोड़त॥

 

नर-मन क्या है, तन-अहसासों को करना अनुभव

 सर्व ज्ञानेन्द्रि उसी के पास जाकर ही, लेती निर्णय।

हालाँकि विवेक से वह संयत होने में सक्षम है होता

 किंतु है तो शिशु ही, अनुज-क्रंदन से घबरा जाता॥

 

कैसे रह सकता एक स्वस्थ, जब जुड़वाँ है अस्वस्थ

दोनों ही एक काया -वासी, एक-दूसरे में गुँथ-मुथ।

हाँ ढ़ाढ़स तो अवश्य बढ़े, हेतु निर्गम विकट स्थिति

आरोग्य-लाभ है प्रक्रिया, समय अनिवार्यता उसकी॥

 

जब तक परस्पर ही समर्पित, गूढ़ हेतु समय न होता

प्रथमतः हो गृह अग्नि-उपशमन, यही है प्राथमिकता।

जब होगा निर्मल-स्वस्थ मन-तन, सुनहले अग्र-कृत्य

क्योंकि रिक्तता से ही, अन्यों हेतु मार्ग मधुर-मिलन॥

 

मैं भी गुजर रहा ऐसे दौर, तन-अस्वस्थता से मन बंद

कई दिन बीते, मनोरचना का न हुआ है कोई चित्रण।

उन मन -क्षणों के भाव भी, दमित होकर ही गए रह

चाहते भी शब्द-रेखांकित अशक्य, एक हानि है यह॥

 

तन का स्वास्थ्य-लाभ, मन-बुद्धि को भी देता है विश्राम

दोनों शनै सामान्य स्वरूप में, आने का करते हैं प्रयास।

पर तब तक तो मस्तिष्क-कोष्ठों में, पीड़ा का अनुभव

दोनों मिलकर तो स्थिति को, और बना देते हैं विकट॥

 

मेरा प्रश्न इस मन-मंदिर के आराध्य से, अनुनय-विनय

कैसे वह सुदर्शन कराएगा, रूप उस कृष्ण का समग्र?

कौन खींच सकेगा, फिर उस परमानुभूति का सुचित्रण

कितने मानव-मन के आयाम संभव हैं, चित्रण से इस॥

 

क्यों अर्ध-खिले रहते हो, न मुस्कुराते मन-सुन्दरता से

क्यूँ मन में अवरोध रखते हो, उसे निर्मल न कर पाते।

वितृष्णा-प्रलोभन किञ्चित, संपूर्ण वर्णन से है रोक लेता

सर्वदा छुपे रहते-डरते हैं, अपने से ही घबराया रहता॥

 

क्या दर्शन परम संभव, मनुज स्वयं कर सके अनुभूत

कैसे सर्व-व्यापकता दर्शन, किंचित भी न हो अस्पृश्य।

समस्त आयाम जग के, पाऐं विस्तृतता में अपना अंश

सह-संपादन से नर, स्व गुरु-स्वरूप का करे दर्शन॥

 

कैसे कलाकार ने सृष्टि संरचना की, चेतन-कृष्ण के संग

प्रत्येक जीव-अवतार हमसे जुड़ा, गुजरे हैं सब अनुभव।

हम उनमें और वे हममें, आवश्यकता केवल समझने की

उससे भी अधिक व्यापकता, मनन व शब्द-चित्रण की॥

 

कौन हैं वे महामानव समग्र, मिलते एवं लाभान्वित करते

हमें झकझोरते, जगाते, दुर्बलता-निवारण का यत्न करते।

उत्तमात्मा सजग कर्त्तव्यों से, सदा परम आव्ह्वान करती

निर्मल स्पंदन से विश्व-विचार को अग्रसर- ऊर्ध्व करती॥

 

माना अभी भी यह तन-दुखन, नश्तर बीच-२ में चुभोए

तथापि मन से है विनती करके, बात कुछ आगे बढ़ाए।

पुनः करूँ प्रारम्भ उम्दा-लेखन, सहेज कर रश्मि-ज्ञान

जगा दूँ अपने कबीर को, कुछ राह देखूँ खोल आँख॥


पवन कुमार,

6 जून, 2014 समय 16:38 अपराह्न 
( मेरी डायरी 20 अगस्त, 2014 समय 8:50 प्रातः से )

Saturday, 23 May 2015

निरोध-कर्म

निरोध-कर्म 


कैसे समझे कार्यशैली, यह जग अपनी प्रकृति से चलता

सब पात्र यूँ मात्र बदलते रहते, नवीन पुरातन हो जाता॥

 

आशा थी कि यह नव-शिशु लाएगा, नव-संभावनाऐं कुछ

वह तो तनु-निर्मल, पावन-जिज्ञासु, ग्रहण करेगा ही शुभ।

नवप्राणन, उच्च-शुभ परिवर्तन, हर कोई जीवन में चाहता

जीव का विकासवाद, नव-पीढ़ियों में है नूतन-गुण भरता॥

 

दुर्लभ प्राण हर पीढ़ी का, आया बनकर सफल प्रतियोगी

कितने जीव नष्ट हो जाते, माता के गर्भ-धारण समय ही।

सक्षम को मिलता सौभाग्य, रहेगा माँ संग गर्भ-काल तक

सुरक्षा कवच में विकास करता, अमुक रूप में निर्गमित॥

 

वह प्रतिबिंब अभिभावकों का, होता शुक्राणु-अंड संयोग

माता-पिता के वंशाणु, प्रतिस्थापित हो करेंगे तब उद्योग।

कहीं तात कहीं मात के गुण दर्शित, पर आधे-आधे होता

अभिभावक ही रचना करते स्वरूप, भ्रूण विकसित होता॥

 

बनते माता-पिता के भोजन-जल से, उनके गुण करें ग्रहण

माता-गर्भ सुपरिवेश, शिल्प-शाला, जहाँ निर्मित होते सब।

निर्माण प्रक्रिया पर एक पूर्ण नज़र, व मूर्त विकसित होती

बाहर प्रेषित है जग में श्वास लेने, जीवन हो सुफल भुक्ति॥

 

माना कि माता-गर्भ में, किंचित होती विसंगतियाँ यदा-कदा

व्याधि या कुपोषण से, कभी भ्रूण असमय मृत्यु-ग्रास होता।

कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ भी, भ्रूण-हत्या बढ़ावा दे अनुचित

कल्याणक विज्ञान-तकनीकों से, लुब्ध स्वार्थी करते अहित॥

 

 

कुछ शिशु गर्भ में ही वधित, अवाँछनीय गिरा दिए हैं जाते

नित्य गर्भ-निरोधक उपाय, बहु-संभावित जीव हटाए जाते।

कदाचित यह उचित भी, वसुधा पर जनसंख्या हेतु नियंत्रण

कुछ युवा सुख-उपायों से, भ्रूण-भार से चाहें मुक्ति-जरूर॥

 

शायद मानव ने ही प्रजनन को, युवा-सुख से किया पृथक

प्रकृति में अन्य जीव, नव-जीवन हेतु ही इसे करते प्रयोग।

न होते ह्रास नित्य-वासनाओं में, रक्षा वीर्य-ऊर्जा की करते

यह सब हेतु स्थान, अतिरिक्त संख्या-निर्धारित आदतों से॥

 

प्रकृति-लब्ध मनुज को, सदा युवा-सुख लेने की स्वतंत्रता

दुर्भाग्य, किंचित सुख क्षण हेतु वह अपने को है खपाता।

माना ये क्षण सदा, नव-जीवन संभावनाओं से पूरित होते

कुछ अन्वेषित उपायों से, जन्म-संख्या नियंत्रित हैं करते॥

 

निश्चित ही हम नव-जीवन रोधक, बहु-संभावना रोक देते

शायद भरने को उनमें अनुपम गुण, होंगे हमारे ही जैसे।

भाग्यशाली ही लेते जन्म यहाँ, किञ्चित बड़ा उत्सव होता

कुछ को अनमने से स्वीकारते हैं, जीवन-वृद्धि यत्न होता॥

 

वह नवजीवन आ गया है तो, क्या उससे हम आशा करते

अभिभावक तो किंचित उनको सर्वशक्तिमान- बुद्धिमान,

समस्त कर्म- सार्थक व निपुण बनाने की कोशिश करते।

यहाँ माता-पिता चाहे जैसे भी हों, संतान हेतु सुयत्न करते

शिक्षित-सबल, धनी, विवेकशील-सुयश कामना हैं करते॥

 

सबका प्रयास आदर्श समाज, यद्यपि वयस्क स्व-कर्म हीन

पर संतान हेतु उत्तम ही सोचता, करेगा कुछ अच्छा महीन।

पर यह तो आकांक्षा ही है, बाह्य वातावरण भी अति-विस्तृत

घर-बाहर के सब अनुभव, घन छाप छोड़ते नव-शिशु पर॥

 

कैसे हो पूर्ण-विकास, जब अभिभावक व बाह्य-परिवेश क्षुद्र

उनकी माना शिशु मंगल-कामना, पर न सुधार स्व-आचरण।

वही व्यवहार शनै शिशु में प्रवेश होता, गहन प्रभाव है जमाता

उसकी प्रकृति भी बनती पूर्वों जैसी, जिनसे अधिक न आशा॥

 

फिर क्यों शिशु दोषी, जब नहीं वयस्क-जग नियमन सुधार

बड़ा हो दोष-कदाचार लिप्त, अमर्यादित हो करे बलात्कार।

क्या नहीं सबका कर्त्तव्य, बनाना परिवेश तब एक सुगुणालय

फिर उन सबमें भी उत्तम निकलेंगे, अंकुश अवाँछितों पर॥

 

जैसे हम हैं शिशु बनाते, क्यूँ न आदर्श-परिवेश में निवेश

जिसमें वयस्क संहिता-प्रतिबद्ध, और निर्मल सोच वर्धन।

हम क्यों मौका ही दें, उस बालक को बनने को अपराधी?

बहुत कुछ यहाँ वयस्क-समाज देन, वह बस है सहभागी॥

 

कुछ तो अन्वेषण चाहता, क्यों अपराध-प्रवृत्ति चारों ओर

क्यूँ कुचेष्टा मनन करता है, एक बालक बनते-२ किशोर?

दिन-प्रतिदिन देखते-सुनते, कई बलात्कार- हत्या मामले

बहुदा घृणा होती है मानव की अधम-गति और सोच से॥

 

क्यों बस दुर्बल-दमित पर, पूर्णाधिकार की ही नर-प्रवृति

जबकि ज्ञात है, वे सब भी हाड़-माँस के पुर्जे एवं सुकृति।

क्यों समझते हैं जो हम चाहें वही हो, व हमारी मानें सब

जब अपने से बलवान समक्ष, तो सबकी जाती नानी मर॥

 

असभ्य-पाश्विक शैली हैं, क्या यही अनुपम मानव-कृति?

कहाँ गई है सोच उनकी, स्वयं को उच्च समझना प्रवृत्ति।

बड़प्पन असंभव कुत्सित सोच से कि, अन्य तुमसे हैं निम्न

अधिकार ही उनकी बुद्धि-देह, धन-सोच, साधन-श्रम पर॥

 

 

बड़ा वो है जो बड़े कर्म करे, जन्म से कोई न होता महद

महाभारत के यक्ष-प्रश्न शायद नहीं सुने, निर्वाह में असल।

भ्रांत-अंध, मूर्ख-दृष्टि, अज्ञान-वाहक स्व को कहते सबल

न ज्ञान विज्ञान-दर्शन का कोई, न ही विवेक-सुव्यवहार॥

 

क्यों न समाज धिक्कारता उनको, क्यूँ समूह पक्ष में आते

क्यूँकि अपना, सब अनुचित भुला, लठ ले खड़े हो जाते।

कितनी पीड़ा होती मन में, सोचा है पीड़ित-समूह में भी

क्यों न खड़े हों वे भी स्वाभिमानी, मरने-मारने तब सीधी?

 

अति सहन करते ये त्रस्त जन तो, किंतु कदापि मूर्ख नहीं

बेहतर नागरिक सम रहना चाहते, अत्याचार न है नियति।

एक सोच उन्नत सबके हितार्थ हो, जरूरी है देश-विकास

वरन रह जाएगा असभ्य-अंध, अधम एवं संस्कृति-नष्टक॥



पवन कुमार,
23 मई, 2015 समय 15:00 अपराह्न 
( मेरी डायरी 13 जून, 2014 समय 9:59 प्रातः से ) 

Sunday, 17 May 2015

उद्गम-उद्भव

उद्गम-उद्भव


भाव-समग्र, उच्च मन-विचार, होवे प्रखर मानुष-आत्मबोध

समृद्ध स्व-जिजीवाषा जीवन की, पारितोषिक में हो प्रमोद॥

 

कानन-पिक की मधुर कुहुँ-२ से, सबका मन होता पुलकित

मयूर-नृत्य प्रिया आकर्षण को, उल्लास जगाए बन प्रमुदित।

देख शुक का अप्रतिम हरित सौंदर्य, व चित्तचोर बोली टें-टें

प्रकृतिमय उर-मन हो जाता, माँ गऊ देख वत्स की मैं-मैं॥

 

धरा आगोशित विपुल आकाश से, जैसे कक्ष में एक गुब्बारा

है अनुपम नीलिमा महा-छतरी की, मानो रक्षा-कवच प्यारा।

भास्कर, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, राशियाँ अनन्त दूर तक छितरित

हम बैठे दूरस्थ, मतिमंद, प्राकृतिक आश्चर्यों से अति चकित॥

 

नित्य नूतन प्रकृति का उद्भव है, सजीव बनाती मन-उत्कण्ठा

मन उबासी न रहे, महद से सम्पर्क, प्राप्त ज्ञान हो पराकाष्ठा।

हर नव दिन पूर्व से किञ्चित भिन्न, चन्द्र अपनी कला है सजाता

पल-२ अपने ही ढ़ंग का होता, मन भी हर क्षण भाव रचाता॥

 

मौसम बदलते ही रहते है, बाहर निकलते जलवायु परिवर्तन

स्थिति-प्रतिस्थापन भिन्न रूप, नव-पल्लव पुरातन का दर्पण।

जीव-२ में स्थूल-सूक्ष्म विविधता, हर पादप के पृथक किसलय

पादप-जीव विज्ञान अति सम्पन्न, खींचे अनायास करे मधुमय॥

 

प्रकृति प्रदत्त विविधता रहस्य, मनीषियों का है चिंतन-विषय

जितना मनन उतनी गहराई, वैज्ञानिक खोजे ब्रह्मांड-रहस्य।

कितने जीवंत पृथ्वी से और विश्व संभव, ज्ञान भी कैसे निर्मित

अतीत महा-धमाके से अद्यतन -यात्रा, यूँ इतनी न परिचित॥

 

स्तर-उच्च व दृष्टि दूरस्थ है, मस्तिष्क कक्ष प्रयोग बहुलता से

सरस रचना अति-मनभावन, जब सम्पर्क जग-विपुलता से।

उच्च शैल के शृंग पर गमन प्रवृत्ति, सदा जीवधारियों में रही

ऊँची देहली, उच्च-अट्टालिका, गगन चूमना अभिलाषा रही॥

 

उच्च मनोदशा है उन्नयन प्रतीक, ज्ञान-रन्ध्र खुले हुआ सम्पर्क

स्व-लघुता का महद में परिवर्तन, कायान्तरण है न कोई दर्प।

ब्रह्म को जो नर मनन कर सकता, परिधि नहीं बंधन करने की

कृत्रिम उद्भव तो अल्प-स्थायी ही, ज्ञान चेष्टा ही मुक्त करेगी॥

 

स्नेही, समभाव, एकीकार, विशालोर विश्व-रूप बनने में सक्षम

अपूर्वाग्रही, सर्व-हित विचारक, अविराम, चिंतक है श्रेणी प्रथम।

प्रतिमान वह समग्रता-भाव का, सकल जग उसमें सकता समा

हर जीव हेतु मृदुल भाव, समरेखी, कुंकुम सी शीतलता बरसा॥

 

प्रश्न महद है स्व निखरण का, अद्वितीय भाव विमल मन-तन

स्तुति-अभिलाषा न अधिक रूचि, बस परिष्कार हेतु ही यत्न।

अपने स्तर का हो एक ऊर्ध्व उत्थान, महद प्रयत्न, शक्ति-पुञ्ज

क्षीणक-बाधक-निन्दक को छोड़े, शांति-गृह बने हृदय-कुञ्ज॥

 

एक चरम-अवस्था समाधि जीवित, उच्च प्रवृत्ति जीवन लक्ष्य

बिंदु चक्षु मनोहर, दीनदयाल, अधमता त्याग व पुण्य-भक्ष्य।

मानव जीवन पावनता का उद्घोषक, संसृति है सबकी साँझी

त्रिवेणी-संगम पर मिले जन-समूह, कृषक-ज्ञानी और माँझी॥

 

तारणहार, उत्प्रेरक, मृदुल-भाव धर्ता, विकासोन्मुखी निर्मोही

वह विकसित सब विधा में अनुपम, विजित प्रयत्न से अद्रोही।

संचित सब ऊर्जा करता है, पर बाँट समर्थ सब शरणार्थी को

सब कुछ समर्पित है समग्रता हेतु, तन-मन-धन कृतार्थी को॥

 

विकसित मन उच्च-दशा प्रवेश, समुचित व्यवहार सबके संग

सबको स्वीकृत प्रतिभा-प्रतिबद्धता, न हो अनावश्यक तरकस।

परम सत्य इतना भी न सरल-सहज, समस्त अवरोध होना पार

दुत्कार समय की सबकी रग भाँजती, परीक्षा करती उपकार॥

 

अति महत्वाकांक्षा उच्च- परिणाम, स्नेहिल हृदय विश्व-कल्याण

जो लिया पुनः यहीं किया समर्पित, भाव पवित्र है परम ध्यान।

दिग्विजय सी सब कुचेष्टाओं पर, जितेंद्रिय भाव मन-देह उद्भव

तज शिथिलता ओ बुद्ध, विषाद पार जा, विप्लव लाँघ पा उद्गम॥



पवन कुमार,
17 मई, 2015 समय 17:23 अपराह्न
(मेरी डायरी 15 मई, 2015 समय 8:25 प्रातः से )   

Sunday, 10 May 2015

तमन्ना

तमन्ना 

ओ मेरी मन-गुंजन, कुछ मृदुल जीवन-स्पंदन कर दे

वसंत-सुरभि आ, यह मन-मस्तिष्क पुलकित कर दे॥

 

बैठा एक असमंजसता में, आकर कोई पुनः जगा दे

जाऊँ जाग, आऊँ होश, ऐसी कोई तू ललक जगा दे।

कुंडलिनी सोई पड़ी, उसकी शक्ति कोई दिखा दे

स्व-पहचान पा जाऊँ, आकर कोई दर्पण दिखा दे॥

 

महबूब-मिलन की तमन्ना, कभी आकर पूरी कर दे

प्रियश्री-मिलन के हर्ष-अहसास का परिचय करा दे॥

 

श्रेष्ठ उल्लास-ऊर्जा, प्रयास-बुद्धि का संयोग करा दे

निरत गतिमान-कर्मठ रहूँ, तू तन्द्रा को दूर भगा दे।

जीवन का सकारात्मक-जागृत पक्ष, कोई समझा दे

मन में रहे विवेक-चेतना, उत्साह को संगी बना दे॥

 

मैं तेरा व तू मेरा, आ सब भाँति के भेद ही मिटा दे

सब हृदय-दूरी पटे, सकल जग एक घर ही बना दे।

मम आकांक्षाओं को पर लगा, सब भीत दूर भगा दे

दुर्बलता का कर शमन, क्षमता का आकार बढ़ा दे॥

 

यूँ नहीं लेटा रहूँ एक शव सम, जीवन-सार समझा दे

किंकर्त्तव्य-मूढ़ता पूर्ण हटा, सब-कर्म याद दिला दे।

जीवन सार्थक तो तभी बने, प्रश्नचिन्ह चित्त से हटा दे

अन्य शेष रहें अहम-प्रश्नों का भी उत्तर समक्ष ला दे॥

 

करूँ जीवन-विस्तार, विभिन्न कलाओं का सार तू दे

श्रेष्ठ साधक बन जाऊँ, पूर्ण करूँ कुछ तो पसार दे।


पवन कुमार,
10 मई, 2015 समय 16:16 अपराह्न 
(मेरी डायरी 10 मार्च, 2013 सायं 6 बजे से )  

Sunday, 3 May 2015

विशाल-गोचर

विशाल-गोचर 


आरंभ उस विशालता के संग, जो सब ओर हैं व्यापत

ज्ञान-चक्षु खुलें, दर्शन-इच्छा, तथापि क्यों हैं कंगाल?

 

मन जुझारू, कलम हस्त में, ज्ञानेन्द्रियाँ साथ हैं दे रही

इतना सब यहाँ पर छितरित, बस एक नज़र उठानी।

अनेक आश्चर्य करें मन-चकित, छिपी है अति-गहनता

भाँति-२ प्रकृति कृत्य, जिनको मुश्किल है समझना॥

 

फिर भी कलम मद्धम चलती, कारण नज़र नहीं आता

या तो कोई तैयारी नहीं है, या फिर मन की विरामता।

तन्द्रा-समय तो नहीं यह, फिर दूर-दृष्टि क्यों नहीं जाती

जिज्ञासा-संबल लेकर क्यों न कुछ अनुपम कर जाती॥

 

विस्तृत करो सोच का जरिया, कर लो कुछ मूल ग्रहण

बुनो अपने लेखन का रेशम, धागों से मन के ही महीन।

पर बनो सार्थक, दिशा उचित और उसमें चलते जाओ

सीखो देखना-अनुभव, कुछ शब्दांकित अंकित करो॥

 

समय अति मूल्यवान है, तुम उचित में बढ़ा लो कदम

न अनावश्यक पुनरावृत्ति, सज्ज हेतु हो वाँछित समय।

निकलो इस अपक्वता से, कुछ पंक्तियाँ तो सार्थक बना

यही तो शुभारम्भ चरण, असली लेखन -आगे करना॥

 

आरम्भ किया है विस्तृतता से, जो हर ओर विद्यमान

कुछ विशाल शब्द-प्रयोग वाँछित, हेतु क्षण-सम्मान।

वसुंधरा है हमारी पवित्र माँ, और उसकी हम सन्तान

विशाल पटल है इसका, जिस पर होते कृत्य महान॥

 

बहु-उपकरण हमने प्रयोगे, आकाश का अज्ञात छोर

चलते जाओ, देखे जाओ, अनन्तता भरी है चहुँ ओर।

मात्र कुछ धारणाऐं हैं बनाई, कुछ सत्य तो ही निश्चित

पर अति-रहस्यमय, क्षुद्र बुद्धि ज्ञात करने में अक्षम॥

 

सूर्य है विशाल यहाँ, उसकी ऊर्जा से हमारा प्रादुर्भाव

वरन यहाँ न होते, न लेखनी, सच में वह पिता विशाल।

उसकी गति-ऊष्मा से ही, सर्व- जीवन धरा पर संभव

दिन-रात, गर्मी-सर्दी, मौसम, वसंत-वर्षा सब निर्भर॥

 

चन्द्रमा है हमारा मामा, चले है पृथ्वी के निकट-गिर्द

नित सुख-दुःख में भागी, दोनों की तो जुड़ी किस्मत।

एक समय ही जन्म हुआ, प्रेम बहुत करता भगिनी से

रात्रि-शीतल, चाँदनी देता, सौंदर्य अनुपम अपने से॥

 

सागर है बहुत विस्तृत, जिसके जल से हम प्यास बुझाते

इसके जल-वाष्प विचरण कर, धरा के हर भाग में जाते।

प्रत्येक पादप-प्राणी हेतु, भोजन-पानी का प्रबंध है करता

कदापि न आता गर्व में, निम्न रहकर भी कल्याण करता॥

 

पवन चले, श्वास मिला, सब जीवों में जीवन हुआ स्पन्दन

सड़ जाते वरन एक स्थल पर, इसकी कृपा से हैं स्वच्छ।

निरंतर बदलता वायु-मिश्रणों को, और है विकास प्रणेता

उपवनों की निर्मल हवा, सघन आबादी की जीवन-रेखा॥

 

जल से ही जीवन, इससे उपजे, हाँ स्थलचारी कुछ बिसरें

इस बिन हम संभव नहीं, तृषा स्वच्छ अम्बु से ही है बुझे।

अनेकानेक जीवों ने सब प्रकार से, उपयोग करने हैं सीखे

जीवन के हरेक आयाम में यह महत्त्वपूर्ण व सर्वोपरि है॥

 

अग्नि कहूँ या ऊष्मा-जनक, इसके बिन हम हैं निष्क्रिय

समस्त बाह्य-आन्तरिक क्रियाऐं, तो है ऊर्जा-संचालित।

जो कुछ हम ग्रहण करते, उनका विघटन आवश्यक है

हर जीवन में यह समाहित और प्रकाश का द्योतक है॥

 

भोजन प्रथम जीवन-जरूरत, इससे ही हम ऊर्जावान

बनाता सबल यह हमें सदा, विभिन्न रूप लेता परवान।

पोषण समस्त प्राणी-जन का, न हो सकते हम उऋण

हालाँकि प्रकृति इसे भी बनाती, हमारे लिए है अमृत॥

 

पर्वत हमारे उच्च खड़े हैं, लेकर अनंत जीवन-विस्तार

वनस्पति वहाँ, जीव-जन्तु कन्दराओं में पाते हैं विश्राम।

बन प्रहरी रक्षा करते, वर्षा-मेघों को आगे जाने ना देते

निज ऊपर हिम आवरण पहन, नदियों को जीवन देते॥

 

नदियाँ हमारी माताऐं, स्वच्छ जल से सब पोषण करती

सबमें जीवन पूरा भरती, जल-शीतल से प्यास बुझाती।

कृषक जन जोतते भूमि, इनका जल है सिंचाई-उपलब्ध

अति पवित्रता इनमें पूरित, शाश्वत का नर है आराधक॥

 

तारा-गण चहुँ ओर फैले, घन-विशालता आभास कराते

हम खुली रातों में तारें गिनते, पर फिर भी छोर न पाते।

दूरी अति व दृष्टि धूमिल हमारी, किञ्चित को ही देख पाते

सप्तर्षि ध्रुव तारे के संग, दिशाओं का कुछ पता लगाते॥

 

वृक्ष हमारे अभिन्न मित्र हैं, जो सबके लिए भोजन बनाते

साक्षात शिव इस धरा पर, अमृत दे कटु गरल पी जाते।

स्वच्छ वायु-छाया, फल-फूल देते व जीवन संभव बनाते

हम सदा ऋणी, अधिकाधिक रोपण-आवश्यकता पाते॥

 

प्राणी जगत जल-थल-वायु में विस्तृत, संख्या में अगणित

वे अनेक रूपों में विकसित, परस्पर से गहनरूप युजित।

सर्वत्र व्याप्त, बहु ढ़ंग व्यवहार, आदान-प्रदान से विकास

नित ढ़ालते परिस्थिति अनुसार, प्रकृति में सहज आभास॥

 

दूरी एक विशाल शब्द है, प्रथमतः यह पृथकता दर्शाता

ब्रह्मांड-विस्तृत अनंत-दूरियों में, अति-कठिन निपटाना।

बनाए हमने कुछ उपकरण, गणना हेतु यथाशीघ्र उचित

इकाई प्रकाश वर्ष तक, पर मानव गति अतीव है मद्धम॥

 

प्रकृति है हम सब की माता, समस्त चराचर क्षेत्र उसका

सब जड़-चेतन अवयव हैं, जिनको भिन्न रूपों में सँवारा।

अति महीन है उसकी कार्य-शैली, वह महानतम शिक्षक

यदि नेत्र खुले हों तो उसके दर्शन-रहस्य चहुँ ओर प्रखर॥

 

दिवस-रैन हमारे संग बँधे, जीवन को प्रदान बहु रंग-ढ़ंग

दिन में हम क्रियाशील हैं, रात्रि -आगोश में विश्राम तरंग।

दिवस है ऊर्जा का द्योतक, भास्कर तात दत्त उसकी शक्ति

अँधियारी निशा चन्द्र-तारों संग, अनुपम शांति-विचार देती॥

 

धूप-छाया का खेल है अद्भुत, जो प्रकाश-पुँज संग चलता

छितरते विभिन्न आयाम, अपने समय पर रमणीय लगता।

होते दुःख-सुख के पर्याय, जीवन के प्रत्येक क्षण में मिलते

वे प्रकृति-रंग हैं विचित्र, विभिन्न मात्राओं में अलग विचरते॥

 

जीवन-मरण प्रकृति का खेल, पुरातन नवीन किया जाता

छोड़कर सब झंझट जगत के, एकरूपता में मिला जाता।

बनना-मिटना है एक नैसर्गिक-क्रिया, जो अतीव है सुघड़

हम लघु सुखी-दुःखी-विस्मित, उसके लिए है स्वाभाविक॥

 

सुख-दुःख मन-भाव जो है, विकसित प्राणियों की प्रवृत्ति

कुछ मिल गया तो प्रसन्न, वरन तो निष्भाव या खिन्न ही।

सब कुछ घटित होता रहता, बहु-नियमों की परवाह नहीं

एक स्थिति जो बहुत क्षणिक है, बदलाव जल्द संभव ही॥

 

आरोह-अवरोह प्राण-द्योतक, हम विकसित-लघुकृत होते

कभी तो अति-उन्नति है, फिर समय-चक्र में पीछे हो जाते।

प्रयास करने से सर्वदा ताकत मिलती, अच्छा मार्ग है समक्ष

विभिन्न कारण प्रभावित करते, परिणाम उनके हैं अनुरूप॥

 

सुघड़ता-फूहड़ता यूँ जीवन-शैली, हम स्वयं ही रचनाकार

अगर कहें चेतन-अवस्था में, सोचकर कर्म को भली प्रकार।

फिर तंद्रा-प्रमाद को त्याजना ही, हमें विकासोन्मुखी बनाता

प्रश्न तो स्व से ही बहुत, यह सामान्य मन समझ न है पाता॥

 

अनेक हैं गूढ़ रहस्य-अध्याय यहाँ, सूक्ष्मता अतीव-व्यापत

विचार करते जाऐं, आते जाऐंगे, मस्तिष्क तो बहुत वृहद।

सीमित न हमारा मृदुल जीवन, आओ इसका सम्मान करें

यह एक सत्य साथी कल्याणक, अतः उचित निर्वाह करें॥



पवन कुमार,
3 मई, 2015 समय 15:10 अपराह्न
( मेरी डायरी 3 जून, 2014 समय 9:50 प्रातः से )

Wednesday, 29 April 2015

प्रकृति-प्रकोप

प्रकृति-प्रकोप


जब प्रकृति ही हिंसक हो जाए, तो धरा निवासी कहाँ जाएँ

बहुत क्षण कष्ट-कारक हैं, मानव सोच न पाता क्या करें?

 

वृहद धरा, सर्वत्र जीवन-स्पंदित, पर खतरें अनेक विस्तृत

माने या चक्षु बंद कर लें, हर अग्रिम श्वास पर प्रश्न-चिन्ह है।

कुछ क्षणों में ही सब बदल जाता, माना जीवन था न कभी

अनेक जीवन-गृह-सम्पदा नष्ट, महद क्षति सहनी पड़ती॥

 

क्या कभी ध्यान से, नित घटित प्रकृति-प्रकोपों को है देखा

जब स्वयं पर आए तो ज्ञात, कितनी छुपी हुई है विद्रूपता।

जो माँ पोसती है, धराशायी भी करती, जीव में न युद्ध-बल

हाँ प्रबंधन से कुछ राहत लाभ, प्रकृति से झूझना सा वरन॥

 

अनेक प्राकृतिक आपदा-कहर, धरा-स्थल पर चलते रहते

आज यहाँ घटा तो कल वहाँ, यह चक्र विस्तृत सर्वत्र ही है।

मौत के चँगुल से तो न कोई बच पाया, शाश्वत खेल हैं विद्रूप

हाँ पूर्व से आशंका कम है, पर कई कारण जुड़े जीवन संग॥

 

भिन्न स्वरूप- भूकंप, सुनामी, तूफ़ान, ज्वालामुखी-दावानल

ओला-वृष्टि, ट्रेन-वायुयान-पोत दुर्घटना, सड़क-हादसें नित।

महामारी-व्याधि, अकाल-भूस्खलन, अति-वृष्टि, प्रकोप-बाढ़

फसल-तबाही, अर्धपके-फल पतित, दुर्भिक्ष व जल-अभाव॥

 

लहर में फँसना, समुद्री जहाज़ डूबना, वज्रपात, मेघ-फटना

विभीषण जलवायु, शैल सरकना, व वृक्ष-पर्वत से लुढ़कना।

संसाधन-अल्पता, जीव-स्पर्धा व खूनी युद्ध बर्ताव है आपस में

मंशा कि सारा जग हम ही घेर लें, और सब जाए भाड़ में॥

 

विकिरण कुप्रभाव, वायु-प्रदूषण, विषैला-धूम्र, व है मेघ-धूसर

आँधियाँ, चुँधियाती-जलाती गरमी, सब जीवन होता ही त्रस्त।

सबको सुविधा न उपलब्ध, बहुजन तो रहता खतरों में सदैव

पर कोई भी पूर्ण सुरक्षित न है, हर कदम पर खतरे अनेक॥

 

अनेक कारक सदा कार्यरत ही, नर को कुछ न अधिक ख़बर

पता भी तो रोधक कर में नहीं है, असहाय से देखते रहते बस।

बस घटित हानि को यथा-संभव कम करना, कर्म है बन जाता

आपसी-संवेदना, कष्ट-बाँटना, आत्मीयता ही बस में है होता॥

 

क्या है प्रकृति का खेल, शक्तिशाली, पूरी धरा डालती हिला

तबाही होती है बड़े पैमाने पर, प्रतिक्रिया-समय नहीं मिलता।

लोग बेसहारा से देखते रहते, समक्ष इतना कुछ जाता प्रकट

मन मसोस खून के घूँट पीते हैं, विद्रोह-ताकत बिलकुल न॥

 

हम क्षुद्र परस्पर लड़ते, क्रोध-मद में गुर्राते, इठलाते बल पर

रूप पर रीझते, संसाधन-गर्व, प्रतिभा-लोहा मनवाने का यत्न।

बड़े युद्ध, साथ मरने-जीने की कसमें, परंपरा की बात करते

बाँध बनाते, सुरक्षा-उपाय अपनाते, प्रकृति-विजय दंभ भरते॥

 

अनेक असहाय-क्षीण -भोले, अल्प तकनीक ज्ञान, साधनाभाव

बस आसपास सिर छिपाने का यत्न, क्या सर्वोत्तम हो न ज्ञात।

कुछ गारा-पत्थर-लकड़ी, घास-फूँस व अतएव नीड़ से बनाते

पर एक कड़ा हवा-झोंका आता, गिरा घोंसला धराशायी हुए॥

 

कल हिमालय में बड़े भूकंप (रिचटर ७.९) से नेपाल-भारत में हानि अति

दिल्ली तक झटके अनुभव हैं, नेपाल में २५०० से अधिक मृत्यु।

भारत में ५० तक जन स्वर्ग सिधारे हैं, यह तो अनुमान ही है बस

स्थिति धीरे स्पष्ट होगी, वास्तविक नुकसान का पता चलेगा तब॥

 

मध्य-नेपाल लामजंग भूकंप-केंद्र था, समय १२:१८ बजे दोपहर

भारत-भू भी धमकी बंगाल-सिक्किम-बिहार-उत्तर प्रदेश-दिल्ली-हरियाणा तक।

लोग घबराकर घरों से बाहर आ गए थे, स्पंदन पहचान थी सुस्पष्ट

मैं घर पर था शीनू-शम्पू संग, इस प्रकृति-झूले को किया अनुभव॥

 

विपुल ऊर्जा भूगर्भ से त्वरित निकलती, भारी वस्तुऐं विशेष हिलती

सख़्त-ऊँचे, अल्प-तनयता, भू-जुड़ाव, प्रभाग-योग से निश्चित क्षति।

पुरा काल से मानव विदित, कुछ रोधक विधियाँ आविष्कारित भी

अभी प्रयोग करना शुरू हो गऐं, एक विज्ञान है भूकंप-प्राद्यौगिकी॥

 

बहु-जनसंख्या, निम्न आर्थिक स्थिति है, नर निज ढ़ंग से घर बनाते

निर्माण-पदार्थ, अल्प-समृद्ध तकनीक, सब सुरक्षित नीड़ न पाते।

मंद-आर्थिक कारणों से लोग, कई असुरक्षित भवनों में ही रह लेते

विज्ञ-समृद्ध सुरक्षित निर्माण करते, यथा-संभव खतरें कम करते॥

 

समय संग नव निर्माण-सामग्री व अनुसंधान, प्रयोग भी होने लगा

खतरा कुछ स्तर तक कम हुआ, पर यह कुछ ही अंश-मानवता।

हर भवन को भूकंप-रोधी बनाना, सरकारों की नीति होनी चाहिए

लेवें जिम्मा संरचना-निर्माण का, ताकि सर्वजन सुरक्षित रह सके॥

 

प्राकृतिक-आपदा प्रबंधन से विभाग सतर्क हैं, जब भी हानि बड़ी

पर आम समय में भी दुर्घटना निवारण-उपाय हो, महत्त्वपूर्ण अति।

समय रहते विपत्ति- बचाव हेतु लोगों को, सरकारें करती हैं सजग

जीवन-दुर्लभ, बचाव अति-महत्त्वपूर्ण ही, नियम हैं बुद्धिपूर्ण कदम॥

 

अनेक क्षेत्रों में प्राकृतिक प्रकोप-विपदाऐं हैं, अन्यों से अधिक कहीं

वहाँ विशेष प्रबंध होने ही चाहिए, समय रहते रक्षा हो सके ताकि।

जान-माल हानि का रोध-कम करना, प्रकृति संग जीना-सीखना है

हम सब भी इसके तन्तु,  समस्त प्रकृति-क्रियाओं में सहभागी हैं॥

 

अनेक कारण संग में कार्य करते, मेल से ही है एक स्थिति विशेष

प्रकृति हेतु कुछ भी नया नहीं, यह उसका दिन-रात का है खेल।

मानव बहुत क्षुद्र है इस कड़ी में, किंतु दुष्प्रभाव में सहायक बहुत

उसकी कुछ आदतों का दंड सब भुगतते, उपाय सावधानी अतः॥

 

समूह समस्याओं में नित उलझते हैं, नई आपदाऐं बढ़ाती ही कष्ट

सामान्य प्रवाह टूट जाता है, रोने-पीटने में ही फिर बीतता समय।

कुछ शठ-लुब्ध ऐसे में भी लाभ चाहते हैं, चालाकी से लूट-खसोट

मानव मन कभी बड़ा निर्लज्ज है, चिता पर भी खाने का है प्रयोग॥

 

प्रकृति ज्ञान, अचाही-रोकथाम, ठीक-स्थान चयन, तकनीकी ज्ञान

श्रेष्ठ भवन-रचना विधि, प्रबलन तंत्र, सामग्री प्रयोग व ज्ञान प्रसार।

कष्टक-तथ्यों प्रति संवेदनशीलता हो, उपायों का प्रयोग वास्तविक

कुछ रोधन तो क्षति में अवश्यमेव करेगा, मूढ़ता से हानि वर्धित॥

 

माना कुछ ज्ञानार्जन व आपदा-प्रबंधन, अनेक विषय अंधकार में

अनेक सूचना-पूर्वानुमान प्रजा को अनुपलब्ध ही, विपदा हैं बढ़ाए।

बहु-प्रजाति स्थायी नष्ट होती हैं, जान-माल की तो क्षति अपूरणीय

यह प्रकृति-खेल अबाधित है, रोध असंभव, पर बचाव संभव कुछ॥

 

कालातीत बहुत रूप बदलें पृथ्वी के, जीव-अनुरूप है समायोजन

यहाँ पर जो भी जन्मता, कष्ट में मरता, रह-२ कर फिर लेता जन्म।

नर ने प्रकृति से कुछ सामंजस्य बनाया, तुम्हीं में मरूँगा, हूँगा पैदा

अज़ीब हठी यह मनुष्य प्राणी भी, कुदरत से ही आत्मसात हो गया॥

 

किंतु यह है लुक्का-छिपी का खेल भयावह, प्रकृति व जीवन का

पर मानव कुछ समय बाद, कटुतम अनुभव भी भूलने है लगता।

फिर जी-जुटता जोड़-तोड़ में, वास्तविक स्थिति समझता बखूबी

हम हारेंगे भी तुमसे ही विधाता, अपना क्या-यहीं का चून-पानी॥

 

अंततः तो इसी पञ्चतत्व में मिलना है, क्या दो दिन आगे या पीछे

जीवन एक शाश्वत खेल प्रकृति में, खाकर थपेड़ें जीना ही सीखें।

अपने से बली शत्रु से हार बुरा न लगती, परिणाम तो पूर्व-विदित

समय संग सब घाव भर जाते, पर गर्व-स्थिति में आ जाते फिर॥

 

यहाँ रहो प्रेम से, विद्वेष-घृणा-मत्सर-मद शक्ति तो ही ज्वलनक

हर वर्ष प्रलय आती किसी रूप में, नर शेष से करता पुनरारंभ।

फिर चेहरों पर मुस्कान-प्रयत्न भी है, जो चले गए न आऐंगे फिर

आप मरे जग-प्रलय', जब तक जीवन है बहु-सम्भावना तब तक॥

 

प्रकृति जीवन-संघर्ष देख फिर मुस्कुरा देती, पता क्या है घटित

आओ मिल एक समन्वय बनाऐं, सामर्थ्य व कुदरती शक्ति-मध्य

करो बचाव-प्रयास यथासंभव, रहें सब तैयार जब हो आवश्यक॥



पवन कुमार,
29 अप्रैल, 2015 सायं 6:56
(मेरी डायरी दि० 26 अप्रैल, 2015 समय 10:18 से)