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Saturday, 8 August 2015

विकास-सिद्धांत

विकास-सिद्धांत  





गणना-पत्रक है समक्ष, तब क्यूँ सशंकित परिणाम उपलब्ध से

जीवन-स्पंदन एक शनै प्रक्रिया, लेकिन माप तो होगा कर्म से॥

 

कर्म-विज्ञान पर बहु-चिंतन हुआ, हर जीव का भाग्य करते तय

ज्योतिष-बात छोड़ भी दी जाए, तो क्या मंथन हो सकते विषय?

कहते सब कर्मों का ही फल होता, हम जो भी हैं प्रारब्ध-स्वरूप

कैसे अन्य- भविष्य जाँचन सक्षम हैं, जब अपने में ही न सक्षम?

 

भिन्न भौतिक-मानसिक स्थिति हैं, प्राणी-जग में कौन निर्धारक

कितने हम स्व-भागी वर्तमान में, परोक्ष परिस्थिति या परिवेश?

कितना चिंतन वाँछित स्व-स्थिति हेतु, कितना सुधार संभावित

कितने जन-समूह परिवर्तन में सक्षम, अतिश्योक्ति अन्य रीत॥

 

उदाहरण किसी विशेष नर का ही लें, मानो है अशिक्षित-निर्धन

ऊपर से अपाहिज़, भिक्षुक सम, मन में नहीं कोई विशेष उमंग।

सदैव भाग्य कोसता, परम-असंतुष्ट, पाता अपने को बड़ा विवश

कौन कारक उत्तरदायी अवस्था हेतु या स्वयं में ही बस दोषित॥

 

एक पशु-प्रवृत्ति ने भंग की मर्यादा, हुआ तब अवाँछनीय-जन्म

यदि स्वभाविक वैवाहिक बंधन से है, इसे कहा जाता सामान्य।

एक मनुज का अनेक से संपर्क संभव, माना सत्य में है सीमित

कितनी ही बार नस्ल-समन्वय, गुणों का बहुत होता है विस्तार॥

 

'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा'-विश्व सत्य-रूप

कहीं कोई मिल गया व बनी सृष्टि, या फिर विधाता का है व्यूह।

मानव समूह कहाँ से कहाँ विस्थापित हैं, भिन्नों से हुआ सम्पर्क

जीव-जंतु स्थान परिवर्तन करते हैं, बहुत तरह का होता मिलन॥

 

कितनी प्राकृतिक-कृत्रिम दुर्घटना- व्याधि करती हैं बहु- हटाव

कितनी ही अकाल-मृत्यु हैं होती, कितने ही असमय गर्भपात?

कितने जन्में शिशु काल-गर्त समा जाते, अण्डें लिए जाते ही खा

फल कच्चे तोड़े जाते, बीज़ न बनता, रुद्ध है अग्रिम संभावना॥

 

यहाँ तो इसके अनेक कारण हैं, नहीं तो और भी परोक्ष प्रभाव

जो भी है क्या वह भाग्य-प्रदत्त या सकारात्मक कारक-समन्वय।

विश्व में अनेक रूप उपलब्ध हैं, क्या वे सफलों का ही जमावड़ा

जो नहीं वे प्रतिभागी न बनें, किंचित क्या वर्तमान ने है पछाड़ा?

 

यहाँ सतत युद्ध है, कुछ पिछड़-बाहर हो गए, नए आए मैदान में

उन्हें सहयोगी परिस्थिति मिली, तभी तो अति-सफ़ल हो निकले।

यह क्या खेल स्वतः ही चालित, या अन्य-संचालित सोचा-समझा

प्रजा का क्या मान लेती ही सिद्धांत, जो विद्वानों ने दिए हैं बता॥

 

सूक्ष्म दृष्टि से ज्ञात है डार्विन का 'सतत प्राकृतिक चयन' सिद्धांत

अब बहु- कारक प्रभाव हैं, जैसे जलवायु-विकिरण-काल-स्थल।

शनै स्वरूप भी बदलते रहते, जीव प्रारंभ से बहु-विकसित भिन्न

 किंतु सब हैं एक निरंतरता के मिश्रण ही, जुड़े आपस में अभिन्न॥

 

मेरा प्रश्न है जो अभी लिख रहा हूँ, अपने से या दैवी प्रेरणा कुछ

परिस्थिति ने ऐसी प्रेरणा दी है, या अन्य कारक बहु-महत्त्वपूर्ण?

क्या अन्य आइंस्टीन शक्य है, यदि न होता अमुक संयोग-जनक

या विलोम कारण होते, अपढ़ रखते, परिवेश निखरण में अक्षम॥

 

क्या कोई अन्य स्थान ले सकता, ब्रूसली की जगह और आ पाता

या उसका दैवी चुनाव, परिस्थितियाँ स्वयमेव करती मिलाप या।

अनेक तरह के मिलन संभव हैं, यह कारक हटा तो आ गया दूजा

हर मसाले का एक विशेष स्वाद है, यह खाने पर ही चलता पता॥

 

इतना बड़ा जीवन रण-स्थल, जीवित प्राणी तो ही हैं सौभाग्यशाली

परिस्थितियाँ भी विचित्र हैं, उसकी परवरिश पूर्णतया बदल जाती।

नृप का लड़का राजा बनता, प्रजा को सिखाए ही सेवक-धर्म पाठ

धनी बहु-माया बटोरें, समृद्धि न सांझी, अन्यों का छीने अधिकार॥

 

निर्धन-लाचार निश्चितेव बाधित, पर उसे बनना होगा मन-साहसी

रुग्ण-अपंग-हतोत्साहितों के प्रति, जग का कर्त्तव्य है सहानुभूति।

जीवन अनमोल है, सब आदर करें, व करें चेतना अति-विकसित

अमर फल है तुम्हारे संग, करो प्रयोग, स्वयं का ही बहु- दायित्व॥



पवन कुमार,
8 अगस्त, 2015 समय 16:31 अपराह्न  
( मेरी डायरी दि० 13.05.2015 समय 8:40 प्रातः से )

Tuesday, 28 July 2015

मेरा सामान

मेरा सामान 


मेरा बहुत कुछ कीमती सामान तुम्हारे पड़ा है निकट

कृपया सूची तो उवाच करो, और रखने का उद्देश्य॥

 

बस थोड़ा सा सामान देकर, तूने इस जगत में भेजा

बहुत कुछ अनिवार्य तो, अपने पास ही रख है लिया

इसमें क्या तेरी मन-मंशा है, क्यों न परिचय कराता?

मेरा अपना कुछ नहीं, जो दत्त है वह भी तो पास तेरे

तू ही जानता कितना महद, अभी मेरी योग्यता में है?

 

देगा किंचित देखकर सामर्थ्य, व प्रगाढ़ मन-आकांक्षा

किंतु अभी तो मात्र खिलौने से ही, जा रहा हूँ बहलाया।

कितना योग्य और ग्राह्य, और कितने हेतु ही हूँ सुपात्र

तूने आँका तो है उचित ही, पर नहीं विदित परिणाम?

 

तू रहस्यमयी, मैं बुद्धि-शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा-अंध

सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, व प्रकाश भी है अदर्शित।

क्या वज़ूद-कैसे हो प्रयोग, नियम तो तूने बताए हैं नहीं

मारा धक्का बिन योग्य किए, यह तो कोई न्याय नहीं॥

 

माना किंचित प्रयास से, किया है स्व को अल्प-शिक्षित

पर महद पूर्ण ज्ञान व अनुभव, मुझसे तो दूर है बहुत।

माना सभी प्रारंभ स्थिति से ही, शुरुआत करते हैं निम्न

तो क्या अमुक का स्तर बढ़ाने का नहीं होता है नियम?

 

योग्य गुरु नज़र न, कोई बताता तो भी समझ अपूर्ण

बस समय बिता लिया, शिष्य को अनाड़ी दिया तज।

शिष्य अज्ञानी-मूढ़, धरा पर बोझ सा, अपने में मस्त

न अधो-स्थिति ज्ञान ही, निज को ढ़ोए जा रहा बस॥

 

कितनी संभावनाऐं ही भरी हैं, तूने इस मानव-शिशु में

कम से कम मुझे उनका, कुछ सुपरिचय तो करा दे।

बहुत दार्शनिकों को मैं विचारता हूँ, पल्ले तो पड़ता न

क्या यह क्रमबद्ध ज्ञानार्जन-पथ है, व सोच-फलीभूत?

 

बहुत प्रबुद्ध तूने भेजे फिर यहाँ, जिन्होंने छाप है छोड़ी

मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकंपा नहीं।

न ज्ञात वह विश्व स्व-संचालित है या तेरी रहमत-प्रेरणा

पर कुछ तो समझते हैं ये काल-चक्र व भूल-भलैया॥

 

माना बहुत विविधताऐं हैं, सबके मनन-मंतव्यों में उन

तथापि तो उन्होंने सुपरिभाषित करने का किया प्रयत्न।

परन्तु वह भी तो नहीं है, एक संपूर्ण ही ब्रह्म का चिंतन

तो भी पार जाने की जगी एक इच्छा, देती है सामर्थ्य॥

 

स्वार्थ-वृत्ति आरूढ़ है, पर कारक हैं भू-लौकिक स्थिति

नर चाहे मनन-स्थिति में हो, नहीं दूर होती है कुप्रवृत्ति।

रत निज हित साधन को, सर्व-विकास को है तिलांजलि

नियम-कानून अनुरूप हैं, शक्ति-सम्पन्न-प्रभावशाली॥

 

कुछ तो मनीषियों का दर्शन ऐसा है, व अनुचर सहयोग

ऐसी जग-व्यवस्था निर्मित है, जो उनके ही हो अनुरूप।

फिर भी हैं बहुत निःस्वार्थी जन, चिंतन सर्वलोक हिताय

समाहित हैं जिनमें, सबको आगे बढ़ाने के निर्मल भाव॥

 

विश्व में दर्शन की बहु-धाराऐं हैं, परिभाषित निज ढ़ंग से

बना दिए अनेक समूह इन्होंने, कड़ी स्पर्धा अनुचरों में।

हरेक मनुष्य उतावला ही है, मनवाने अपने को सर्वश्रेष्ठ

सत्य आचरण तो देखा नहीं है, व्यर्थ अभिमान-ग्रसित॥

 

क्या यह विश्व संचालित, स्व-चलित या कुछ योग्य-युक्ति

कौन से हैं वे नियम, जो इस जग को नियम-कानून देते

फिर कोई चाहता हो या नहीं, सब चराचर वहीं पर बहें।

पर कितने आदर्श- प्रवाहक, सर्व विश्व-व्यवस्था हेतु यत्न

माना पाशित जकड़नों में, शुद्ध जानते भी रहते भीक॥

 

पर स्व-यश व बस प्रभु-समर्थन से, प्रजा को नहीं लाभ

हम ही योग्य-गर्वित व नृप-भूप हैं, प्रयत्न स्व-हित साधन

अन्य क्षुद्र-तथैव ठीक, जबकि प्रकृति-साधन हैं सर्वहित।

यहाँ `अपनी ढ़फ़ली अपना राग', सब मुग्ध हैं अपनी धुन

चाहे मालूम हो या नहीं, वे जीवन धकाने में हैं पूरे व्यस्त॥

 

पर कुछ नर तो बस निज समूह-उन्नति में ही प्रयासरत

उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन।

क्यों मानूँ वह चिंतक-लेखन, जब वह न है सार्वभौमिक

सारे कायदे जब अपने हित ही में, स्तुति है नाम-निज॥

 

क्या उन जैसा बनना चाहता हूँ या उद्देश्य और महत्तर

या मैं बन सकता सर्व-हितकारी, व आम-जन सेवक।

पर कौन ये दार्शनिक-साध्य हैं, क्या कुछ गुणवत्ता भी

या रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति बहुदा ही॥

 

कितने सुयत्न ही करते, इस जग को सुंदरतर घड़ने में

और परिश्रम से समुचित आत्म-ज्ञान को ही बखानते।

न इच्छा फिर श्लाघा की, न ही अनेक शिष्य बनाने की

जिसे उचित लगे साथ हो ले, फिर सूफियाना तो है यही॥

 

किंतु मैं किस श्रेणी का जन्तु, प्रभु जरा परिचय करा दो

निकाल बाह्य बवाल दिखा सब, मेरी साधना पूर्ण करो।

 क्या- कितना है सम्भव, अनुपम जीवन-स्तर व परमार्थ

 तब क्या वह उच्चतम-स्थिति, जिसके ऊपर नहीं पार॥

 

फिर सीखूँ वे पाठ जो हैं, वर्तमान स्थिति से अग्र-समर्थ

अतः उलाहना प्रथम आरंभ से है, इस रचना में इंगित।

मेरा सब सामान व वस्तु-संभावना तो है, तेरे पड़ी पास

फिर यदि मुझमें कुछ छिपा भी तो, इससे मैं अंजान॥

 

अतः तुमसे अनुनय है, कि मेरा वह सामान लौटा ही दो

माना सब कुछ तेरा ही, कुछ प्रयोग चाहता मैं भी तो।

क्या हदें हैं मेरी, मैं भी तो जानूँ, व कितना तू सकता दे

एक बावरा बना रख दिया, यह तो अन्याय संतान से॥

 

विचरूँ यहाँ-वहाँ एक विमूढ़ सम, न कभी ध्यान लगा

करता है कड़ी मदद-प्रतीक्षा, पर तुम्हें समय न मिला।

मेरा अध्ययन कुछ बताता है, परंतु चिंतन तो अलग ही

अधिकांश समझ न आता है, अतः विस्तार सीमित ही॥

 

अति-फैलाव पर मेरा आँचल-लघु व सामंजस्य-अभाव

फिर कैसे विकास हो, इस परम तत्व को दो प्रयास?

समय सीमा है व ऊर्जा परिमाणित, उसपर चेष्टाभाव

कैसे बदलाव हो सार्थक दिशा, इसकी कोई दृष्टि न॥

 

चाहता बढ़ूँ एक चिंतन-मार्ग प्रभु, बुद्धि निर्मल दे बना

न बनने देना बस स्वार्थी, यह जगत और सम बनाना।

कर्त्तव्य-चिंतन व श्रम-आहुति, हर मानव को दक्ष बना

तज सब विरोध, हो सर्व-विकास, श्रेष्ठ सहयोगी बना॥

 

मेरे विवेक भी हो कुछ उपयोग यहाँ, ऐसा शख़्स बना

न रुकूँ पथ में मौला, इस भौतिक तन से आगे है जाना।

तपा दूँ यह तन-मन, बना राहुल सांकृत्यायन सा यात्री

वृतांत इंगित एक महद प्रयास, वह स्तुत्य है निश्चय ही॥

 

 

न बस अनुभव किंतु मृदु-चिंतन, व आलोचना अभय

नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी है, बाँटा विस्तृत-अर्जित।

क्या है उचित चिंतन-प्रेरणा, कुछ निर्भीक हो सकूँगा

होगा प्रयास कुछ में तो, जीवन में महत्तर फूँकने का?

 

माना पूर्व ही समर्थों को, न हो खास आवश्यकता तव

तो भी क्षीण नर बहुतेरे, विकास का ताक रहे हैं मुख॥

  

पवन कुमार,
28 जुलाई, 2015 समय 23:54 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से )

Saturday, 18 July 2015

परस्परता

परस्परता 


विघ्नेश्वर, दुःख-भंजक, कष्ट-हर्ता, दीनदयाला, गुरु, मसीहा

पालक, उत्प्रेरक, अवतार, सहायक, मित्र व संबल-दीना॥

 

कष्ट हमारे नित के अनुभव, दुःख होता जब क्षीण है शक्ति

आकस्मिक कुछ बवाल आ जाता है, अज्ञात कैसे हो मुक्ति?

माना सदैव तो सब पहलूओं हेतु तैयारी नहीं की जा सकती

पर आवश्यकता होने पर, सचेतता-आशा की जा सकती॥

 

समस्या महद है, स्व-बल अल्प, परमुखापेक्षी बन हल ढूँढ़े

विशेषज्ञ बैठे सहायतार्थ, बस सम्पर्क और शुल्क ही सूझे।

सभी कहीं न कहीं बाधित हैं, बहुदा अन्य ही बनते सहाय

बड़ा कारक-निदान, बुद्धि माँगे हैं समय-ऊर्जा व उपाय॥

 

दिन-प्रतिदिन रोधक लेते हैं परीक्षा, झझकोरते कि हो क्या

न अतिश्योक्ति या आत्म-मुग्धता, जग चैन न लेने है देता।

तमाम झँझट ऊर्जा माँगते, बली होना है आवश्यक कदम

एक-२ श्वास शक्ति पर निर्भर है, अतः चेष्टा ही अत्युत्तम॥

 

हम कितने दूजों पर निर्भर, समय आने पर ही ज्ञात होता

हर समस्या का पेंच, निदान उचित दिशा -निर्देश माँगता।

लोगों के पास जाओ, पक्ष बताओ तो किञ्चित बात बनेगी

जग न माने मात्र पैरवी, वहाँ आपकी प्रतिबद्धता दिखेगी॥

 

उलझ जाते, राह न दिखे, चेष्टा खोखली, बली भी बने क्षीण

बन्द द्वार, अंध-कक्ष, भय आक्रान्ता का, जन्म-मरण प्रश्न।

ऐसे में कोई ईश्वर-सहायक को ध्याऐ, इसमें क्या आश्चर्य है

मान लो एक-दूजे की आवश्यकता है, कभी तुम्हें या हमें॥

 

क्या अस्तित्व, स्व-अवलोकन व पर-सहायता आवश्यक

बड़ी शक्ति, निदान कठिन, बस स्व-बल से नहीं सम्भव।

बहुदा नरों से याचना न संभव, या उनके बस में न लगता

क्यों न माँगे बड़े दाता से, जो सब सुने या हम देते सुना॥

 

वह तो हम मूक आत्मा की गूँज, रो लेते हैं कम से कम

उससे जी हल्का हो जाता, होश आने लगता रोष -बाद।

चिंतक-मन संभावना समक्ष लाता, प्रस्तुत हो विमल-यश

बुद्धि सब दिशा हाथ-पैर मारे, समाधानार्थ प्रयास करत॥

 

ईश्वर तो स्व-अबलता प्रतीक न, माना चाहे जब हैं कष्ट में

देखते उस तरफ मुँह उठाकर, क्षीणता को समक्ष रखते।

ज्ञात तो न कितना है समाधान, स्व-चेष्टा ही लाती कुछ रंग

जीवन दाँव पर कुछ करना पड़ेगा, साँस सस्ते में न छूटत॥

 

दिगंबर सब दिशा-त्राटक है, स्व-अनुभूति समस्त से युग्म

न संकुचित वह मात्र स्वार्थों में, वृहत से आत्मसात-संगम।

सब उपाय उपलब्ध हैं निकट, जरूरत जाँचने- साधने की

विश्व तो परमानुभूति में ही व्यस्त, समस्या है तो निदान भी॥

 

'एक बीमारी की दारू दो बतलाई, दो की चार हैं दवाई,

दोनों हाथ पकड़ लिए कसकर, कुछ भी न पार बसाई'

विपत्ति हर जीव पर आती, श्रद्धा से कुछ समाधान-सच्चाई।

राम पर विपत्ति लक्ष्मण मूर्छित है, हनुमान सहाय लाए बूटी

पांडव-दुर्दिन, कृष्ण सुहृद, अर्जुन को गीता त्राणार्थ सुनाई॥

 

हम बन्दें पहचानते शनै, रंग बद होने पर भी करते विश्वास

कुछ असाधु लेते विवशता-लाभ, हम रह जाते लोक-लाज।

जगत विश्वास बल पर चलता, कुछ तो निस्संदेह हैं समझते

 हम अंतः से कितने पवित्र हैं, पैमाना इसका व्यवहार ही है॥

 

सुख में समझते स्व को श्रेष्ठ, किंचित ईश्वर को भी ललकार

माना वह भी एक कल्पना है, समाधान तो सदा आस-पास।

चित्रांकन होता नेत्र खुलने से ही, प्रेरणा लेना दूर-विस्तृत से

दिग्गज विस्मित करते बल से, छोड़ो-निकलो झंझावतों से॥

 

बनो सबल, वाणी- नियंता, संपर्क साधो, कोई काम आएगा

आज उन्हें, कल तुम्हें, सबको ही औकात होनी चाहिए पता।

परस्पर-हितैषी, समय-सहाय, मैं तुम्हें बीज़, वह देती फसल

अपेक्षा-मान, कभी सामना दुर्भावना से, पलायन तो शुभ न॥



पवन कुमार,
18 जुलाई, 2015 सायं 18:19  
(मेरी डायरी 21 मई, 2015 समय 8:44 प्रातः से)


Wednesday, 1 July 2015

शब्द-रचनावली

शब्द-रचनावली 
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एक शब्द पकड़ लो, जीवन भर लो, तब ब्रह्मांड समाना संभव

फिर ज्ञान-चेष्टा तो होनी ही चाहिए, अनुपम तो निकला स्वयं॥

 

एक शब्द दिया, मन्त्र बता दिया, उसमें संभव व्याख्या कर लो

एक नाम सुमर, ध्यान में लो, जीवन की काया- कल्प कर लो।

एक बिंदु दिया, नज़र गड़ाओ, सकल समक्ष ऊर्जा वहाँ समा दो

संपूर्णता भी दिख सकती है वहाँ, यदि ज्ञान-बिंदु इंगित कर लो॥

 

योग, कुंग-फू, टाइको-वेण्डो, मार्शल-आर्ट, सिखाए शक्ति-केंद्र

जब सारा बल एक जगह होगा, निश्चित ही निपीड होगा अधिक।

दबाव से वस्तुऐं हिला करती, बदलती स्वरूप-अंदर तक कंपन

भू-गर्भ की ऊष्मा, लावा बहिर्गम, रूप दिखाता स्व का प्रचण्ड॥

 

बहुत सुसुप्त अवस्था में हो, किसी को क्या पड़ी बल आजमाऐ

तुम कुंभकर्ण- निद्रा शयनित, वहाँ कर्मठ कलाकर्मी कृति रचें।

जिन्होंने सुसंचित किया है आत्म, उनका निखरा मानस सुभीता

यह ऊर्जा-संग्रह एवं उचित प्रयोग, निश्चित ही देता उपयोगिता॥

 

किया मस्तिष्क एकाग्र तो, चिन्तन की सुरमयी लड़ियाँ फूटेंगी

निकलेगा उन पलों से सर्वोत्तम, समस्त जीवन की जो कसौटी।

हमें याद रहते सुघड़ता से बिताए पल, वे ही अपनी जमा-पूँजी

इस विवेक से प्रज्ञा पनपेगी, सुचित्र बनेगा अनुपम, विरल ही॥

 

एक शब्द से पुराण-ग्रंथ लिख दिए, ज्ञानीजन निकाले अनेक अर्थ

सब अपनी तरह से करे हैं परिभाषित, बहु-गूढ़ लिए हुए भावार्थ।

इतना तो उस शब्द-कर्ता ने भी न सोचा था, महद बनेंगे अध्याय

मेलकॉम ग्लैडवेल की 'द टिप्पिंग प्वायंट' सा, जब चीजें होती हैं वायरल॥

 

ईश्वर-ब्रह्म, अल्लाह-जीसस, बुद्ध-नानक-कबीर सब विचारोत्पत्ति

आज सबको ज्ञात, सर्व-प्रचलित हैं, वे अंग बन गए हमारी जिंदगी।

ये मंदिर-मस्जिद, किले विद्यालय, भवन-संसद, बस सोच की देन

वह न होता तो ये भी न होते, हो सकता बदले में कुछ अन्य लेन॥

 

जितने अविष्कार-अन्वेषण हुऐं, सबका आदि एक अल्प विचार

जुड़ाव होता गया मस्तिष्क-बिंदुओं का, प्रगति हुई पूर्ण आदाय।

कहाँ से बनते सब महाकाव्य-ग्रन्थ, आकाश- पाताल छेदन यन्त्र

कौन समर्थ उन्हें व्यापक सोच पाता, बढ़ाता है प्रयास अनवरत?

 

कैसे ये विचार सार्वजनिक हो जाते हैं, व चलते दीर्घ-समय तक

कैसे नव-तकनीक आती रहती हैं, व सदा बदलती रहें पुरातन?

कैसे सूक्ष्म रूप बरमट-बीज़, बन जाता है विशालकाय वट-वृक्ष

कितनी प्रक्रिया- सामग्री विकास हेतु, महत्त्वपूर्ण है आत्म पक्ष॥

 

ये कौन चमत्कारी बदलाव के, जो किंचित प्राकृतिक से पृथक

विचार-मंथन से नर समृद्ध हुआ, उसने ही प्रयोग किए हैं सब।

माना प्रकृति में जीव-जन्तु, वनस्पति, निर्जीव सब ही हैं सक्रिय

वे भी कारक जगत-स्वरूप बदलाव में, और भूमिका है महद॥

 

हम जानते मानवेतर जीव-जगत को भी, प्रकृति-प्रदत्त मस्तिष्क

वे करते प्रयोग स्व-योग्यता अनुरूप, सब भाँति क्रियाऐं उपलब्ध।

जंगल जाओ, देखो जीव-जंतु समन्वय, भोजन-श्रृंखला हेतु संघर्ष

आपसी क्रीड़ा-दुलार-परिवार बनाते हैं, दूजों से एक खास संबंध॥

 

औजार-यंत्र, बिल-गुफ़ा-खोखर, कोटर-नीड़ निर्माण है समझदारी

तुम्हें  कोई जीव तुच्छ न लगेगा, यदि उसकी पूर्ण क्रिया निहार ली।

एक वृक्ष का भोजन- तंत्र समझने में ही, पूर्ण जीवन बीत है सकता

नर स्व-देह तंत्र तो पूर्ण समझ न पाया, खुद को है धीमान कहता॥

 

प्रकृति में निर्जीव भी जो अचर दिखता, इतना तो निश्चल न होता

समस्त प्रक्रिया उस पर चलती रहती, सूक्ष्म रूप से बदले सदा।

नर समझता अजीव है, पर उनके अंतः-बहिः कितने जीव पनपते

समझो- देखो नृत्य पर्वत-नदी, मेघ-भूमि, वायुमंडल व भूगर्भ के॥

 

कथित १०००० वर्ष मानव-सभ्यता युग, पूर्व भी जगत रहा था चल

बहु बड़े जीव-वनस्पति, जलवायु, गुजरें काल-धरा के वक्ष-स्थल।

सर्वदा युक्ति-बुद्धि का खेल धरा पर, इसके जन्म-काल से चलन

नर जुड़ा अति पश्चात सब तंत्र में, प्रकृति से किए हैं प्रयोग पृथक॥

 

क्या कहें वर्तमान-स्वरूप को, स्वतः या विशेष कारक-प्रयोग

अगर वे तब भिन्न होते, तो क्या जुदा होता वर्तमान ही स्वरूप?

क्या कारक बनने-बनाने की प्रक्रिया विचारित, या स्व-चालित

क्या अन्य संभावना थी भिन्नता की, व फिर कैसा होता प्रारूप?

 

नर ने कुछ बुद्धि-युक्ति लगाकर, निज संख्या तो वृद्धि कर ली

सर्व प्राकृत-संसाधन अधिकृत, मानो और कोई न सुत-पृथ्वी।

सागर-पहाड़, सरिता-ताल, अरण्य-बीहड़ हटाने का है प्रयत्न

अनेकानेक बदलाव भू पर मौलिक स्वरूप से, इस दौर मध्य॥

 

प्राकृतिक परिवेश- शैली त्याग, किंचित नूतन समृद्धि कर ली

नर लुब्ध-प्रवृत्ति अति- मारक, अन्य-जीवन का प्रगमन सोची।

माना मुख से न भी कहता है, पर क्या वर्तमान परिवर्तन-दिशा

मैं प्रज्ञ-सबल-समृद्ध- कालजयी, जैसे चाहूँ-करूँ, मूढ़-धृष्टता॥

 

कुछ औजार, अस्त्र-शस्त्र पकड़ें, चढ़ बैठा माँ को करने रंजित

यदि माता अपढ़ व पुत्र शिक्षित, तो भी क्या बर्ताव सर्व-सम्मत।

हम नितांत कृतघ्न, जीव-विरोधी, खाऐं-गुर्राऐं व करें महा-विनाश

न कुछ सत्य ज्ञान सृष्टि-जनक का, फिर कुबुद्धि से जन्मे संताप॥

 

मानना तो पड़ेगा कि मानव चतुर, समस्त चेष्टा में स्वार्थ-पूरित

खेत, घर-ऑफिस, सड़क-फैक्ट्री बनाऐं, सबका छीना है हक़।

अब भी प्रयास है पूर्ण शेष-अतिक्रमण, विकास तरह से अपनी

तरु-पादप, जीव-जंतु विलुप्त नित, पर किसे चिंता है इनकी?

 

यदि यह न तो वह भी न होता, उसके बदले में कुछ और होता

पर इतना अवश्य वर्तमान तब आज जैसा बिल्कुल भी न होता।

यदि मनुष्य बुद्धि निर्मल कर ले, अनेक जीवों का निर्वाह संभव

उसके शिक्षित-समृद्ध होने का आशय, अन्यों का न है पराभव॥

 

आरंभिक मनन 'एक शब्द' से शुरू था, जो एक विचारोत्पत्ति

उसकी जगह कुछ और विषय होता, अद्य-बोध होता अन्य ही।

क्या संभावना थी जो आज लिखा है, फिर कभी फलीभूत होता

ऐसे ही कितने प्रयोग संभव, नर सोचता कुछ था कर सकता॥

 

मम प्रस्तुत भी कुछ विशेष पल-एकत्रण, लेखनी माध्यम-इंगित

सब विद्वद्जन निज को अपूर्ण कहते, ज्ञात है न पूर्ण-विकसित।

काल-रूप कैसे उजागर ही करेगा, कुछ भी कहा न जा सकता

पर किंचित हमारा न्यूनतम मनन-प्रयास, भरता एक संभावना॥

 

यह शब्द-मनन क्यों कैसे जन्मता, सत्य या मात्र मन-कल्पना

जितने डूबें, उतने ही उलझें, कोई प्रहेलिका- निदान न मिला।

क्या अंकुर भू-क्षिप्त करते समय, वृक्ष की है स्व-रूप कामना

या फल-संतति नैसर्गिक प्रक्रिया, किसका क्या होगा- न पता॥

 

जीव का धरा-आगमन व सुचारू जीवन, है अति- संघर्ष विषय

उस अमुक जीव से क्या-२ उपजेगा, और भी जटिल है जिरह।

अन्यों की क्या कहें आत्म अंतः भी, बुद्धि सक्षम है विविध रंग

फिर अंदर-बाहर सब एक से, पर संभावनाएँ निश्चित ही अनंत॥

 

हम भी हैं एक शब्द के स्वर-व्यंजन-अनुस्वार, विसर्ग-उपसर्ग

कितनी शक्यता महद रचने की, ज्ञान असाध्य न तो ही दुर्लभ।

विश्रुत इस मनन-यज्ञ में आहूति, चेष्टा उत्कृष्ट निर्माण हेतु करें

प्राण-गति निज प्रकार से, कुछ हटकर समझने का प्रयत्न करें॥

 

एक शब्द नहीं है तोता-रट्टा, अपितु संवाद महद व सदा संग

ज्ञान ज्योति और प्रखर हो जाती, चीर डालती अन्तःकक्ष तम।

गुरु मंत्र तो कुछ भी नहीं है पर, मनन युक्ति बढ़ाए संभावना

जब तक न बैठो अमृत न निर्गम, सब मिश्रित सा है अन्यथा॥

 

चाह नहीं किसी विशेष शब्द की, पर हों प्रयोग विवेक से सब

जितना भी मनन-लेखन जीवन में संभव, हों सब चेष्टा एकत्र॥



पवन कुमार,
1 जुलाई, 2015 समय 18:56 सायं
(मेरी डायरी दि० 12 अप्रैल, 2015 समय 12:58 अपराह्न से) 

Sunday, 21 June 2015

साहित्य-मिलन

साहित्य-मिलन


साहित्य-सर्जन अनुपम विधा, उच्च मस्तिष्कों से संपर्क

अपना स्तर तब ऊर्ध्व, जागना पड़ता है पाने को झलक॥

 

मन मतंग सम फिरता है स्वछन्द, वन में करता चिंघाड़

मद-चूर, बल-महद, ऊँचा-कद, वृहद-काया व उद्दण्ड।

गर्व में वन-द्रुमों को तोड़ता, माना यही है शक्ति-प्रदर्शन

न ही चिंतन, न सोचा अपना-पराया, क्या हित था संभव?

 

माना शीर्ष विशाल मिला है, मस्तिष्क आकार भी समृद्ध

महद काया है संहति अनुक्रम में, केवल प्रश्न कैसे प्रयोग?

जन्म-उद्देश्य कुछ तो है, अभिभावक-वंशाणुओं से मिला

कुछ चेतना तो जन्म से, बाह्य परिवेश से भी महद मिला॥

 

स्व-प्रबोध है कठिन, नेत्रहीन अजान कि क्या संभव दर्शन

बहु-चेतना तो तम में लुप्त, कुछ अंश ही देख सकते हम।

प्रबंधन-शिक्षा में 'जोहारी-विंडो' पढ़ते, दर्शाए ज्ञान कोष्टक

'मात्र मैं, मात्र अन्य, मैं व और, तथा मैं व और भी न', ये हैं कोष्ट॥

 

मेरा ज्ञान-अधिकार एक सीमा तक, चेष्टा कुछ बढ़ाए अग्र

अन्य कर सकते मार्ग-दर्शन, चूँकि बहु विषय बुद्धि-बाहर।

जगत में तमस अनंत विस्तृत, बावजूद इसके मैं करता यत्न

क्या निदान ऋतु पार जाने का, मालिन्य तो फिर मृत्यु सम॥

 

'असतो मा सद गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर मा अमृतम् गमय'

स्व-चेष्टा असत्य-कालिमा व क्षणभंगुरता से निर्गम को अग्र।

इस क्षुद्र तन में कौन सहायक संभव, नन्हें मन की हो प्रगति

बहुत मेरे जैसे या निम्न, पर कुछों ने विकास किया सन्मति॥

 

जिन ढूँढ़ा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठी, मैं बौरी ढूँढ़न गई रही तीर बैठी'

मन-तहों को पलटने की प्रक्रिया से ही, कुछ आशा दिखती।

अनेक विषयों में हम अगम्भीर हैं, क्षीण ही होगा तो परिणाम

दबाव से कायांतरण, अभ्यास से हो जाता जड़मति सुजान॥

 

कौन ले जाता है मनन-चिंतन, सम्पर्कों से आत्मानुभूति किन

तब सत्य-दर्पण हमें दिखाऐ, आहूति से संभावना है परिचय।

कौन वे उच्च मन-प्रणेता, तपस्वी हैं, करें मन संग वज्र प्रयत्न

प्रयास से देख अंदर व बाहर, करें मन को परिपक्व-निर्मल॥

 

यौवन बचा, कसरत कर, बलशाली बन, युद्ध हेतु तैयार रह

निज को सबल रखना, क्षीणताओं को ही तो करना है कम।

मन की ताकत शरीर से अधिक, और बढ़ाए महद संकल्प

दोनों स्वस्थ-द्रुत रखकर ही, मानव विकास किंचित सम्भव॥

 

नर-प्रयास से कुछ रचना बनी, मिलकर पुस्तकालयों में सजी

कुछ साहित्य-चर्चा पत्रिकाओं में, पोथी भिन्न विषयों पर लिखी।

रचयिता लगा दते समस्त शक्ति, लेखन -समय उसका निचौड़

माना गोएथे कथन `कुछ भी नूतन नहीं', फिर भी सबका स्व-प्रयोग॥

 

मैं जो अभी सोच रहा, क्या और भी सोचते या बस मेरा ही क्षेत्र

माना विचार भी एक जैसे पनपते, तभी तो बनती है सोच एक।

मैंने ऐसा विचारा, उसने भी, देखो मस्तिष्क एक ढ़र्रे में सोचते

फिर भी बहु समय अलग होता, हम को अपनी पहचान देते॥

 

यह दर्शाता अल्पता मनन-क्षेत्र में, मानसिक-कर्मों के कई रंग

कितने ही जन वर्तमान में जीवित, कितने आकर चले गए पूर्व।

अनेक संभावनाऐं भविष्य में भी, उतरेंगी पीढ़ियाँ प्रक्रिया विचार

चेतना बस मानव तक न, पर किसे फुर्सत लें अन्य- समाचार॥

 

जब अन्यों को सुनते-पढ़ते हैं, असहमत होते भी बृहद से संपर्क

जीवंतता बढ़ती ज्ञानी-मिलन से, आत्म-विभोर हो जाता है मन।

तर्क कर सकते हैं उन विषयों पर, जिनसे कभी हुआ था परिचय

पर अज्ञात-अध्यायों पर मूक ही रहते, जानते हैं नवीन बिलुकुल॥

 

साहित्य हमारे समाज का दर्पण, माने न माने यह रेखा मन की

होवों आत्मसात यथा-अधिक संभव, प्रगति-द्वार खुलेगा तब ही॥



पवन कुमार,
21 जून, 2015 समय 18:10 सायं
(मेरी डायरी दि० 7 मई, 2015 समय 9:15 से )  

Saturday, 6 June 2015

तन-दुखन

तन-दुखन 


मन-क्षुधा तृप्ति है इस अकिंचन की आवश्यकता

कई दिन यूँ ही बीत गए, कुछ बतियाना ना हुआ॥

 

इस शरीर - पीड़ा का भी, नितांत पृथक है गणित

आती यकायक, संगिनी बनी रहती दीर्घ काल तक।

पर दर्द से पुराने रिश्ते अनुभव देते हैं अति-विचित्र

जब तक स्वयं पर न आता, पर-पीड़ा प्रतीत तुच्छ॥

 

यह तन-दुखन तो अपने तक ही, रहता सीमित न

बाधित करता सकल प्रक्रियाओं का प्रवाह सहज।

फिर मन तो इसका अग्रज ही, सहायता में आवत

 वह इसके तर्पण में लग जाता, सकल कर्म छोड़त॥

 

नर-मन क्या है, तन-अहसासों को करना अनुभव

 सर्व ज्ञानेन्द्रि उसी के पास जाकर ही, लेती निर्णय।

हालाँकि विवेक से वह संयत होने में सक्षम है होता

 किंतु है तो शिशु ही, अनुज-क्रंदन से घबरा जाता॥

 

कैसे रह सकता एक स्वस्थ, जब जुड़वाँ है अस्वस्थ

दोनों ही एक काया -वासी, एक-दूसरे में गुँथ-मुथ।

हाँ ढ़ाढ़स तो अवश्य बढ़े, हेतु निर्गम विकट स्थिति

आरोग्य-लाभ है प्रक्रिया, समय अनिवार्यता उसकी॥

 

जब तक परस्पर ही समर्पित, गूढ़ हेतु समय न होता

प्रथमतः हो गृह अग्नि-उपशमन, यही है प्राथमिकता।

जब होगा निर्मल-स्वस्थ मन-तन, सुनहले अग्र-कृत्य

क्योंकि रिक्तता से ही, अन्यों हेतु मार्ग मधुर-मिलन॥

 

मैं भी गुजर रहा ऐसे दौर, तन-अस्वस्थता से मन बंद

कई दिन बीते, मनोरचना का न हुआ है कोई चित्रण।

उन मन -क्षणों के भाव भी, दमित होकर ही गए रह

चाहते भी शब्द-रेखांकित अशक्य, एक हानि है यह॥

 

तन का स्वास्थ्य-लाभ, मन-बुद्धि को भी देता है विश्राम

दोनों शनै सामान्य स्वरूप में, आने का करते हैं प्रयास।

पर तब तक तो मस्तिष्क-कोष्ठों में, पीड़ा का अनुभव

दोनों मिलकर तो स्थिति को, और बना देते हैं विकट॥

 

मेरा प्रश्न इस मन-मंदिर के आराध्य से, अनुनय-विनय

कैसे वह सुदर्शन कराएगा, रूप उस कृष्ण का समग्र?

कौन खींच सकेगा, फिर उस परमानुभूति का सुचित्रण

कितने मानव-मन के आयाम संभव हैं, चित्रण से इस॥

 

क्यों अर्ध-खिले रहते हो, न मुस्कुराते मन-सुन्दरता से

क्यूँ मन में अवरोध रखते हो, उसे निर्मल न कर पाते।

वितृष्णा-प्रलोभन किञ्चित, संपूर्ण वर्णन से है रोक लेता

सर्वदा छुपे रहते-डरते हैं, अपने से ही घबराया रहता॥

 

क्या दर्शन परम संभव, मनुज स्वयं कर सके अनुभूत

कैसे सर्व-व्यापकता दर्शन, किंचित भी न हो अस्पृश्य।

समस्त आयाम जग के, पाऐं विस्तृतता में अपना अंश

सह-संपादन से नर, स्व गुरु-स्वरूप का करे दर्शन॥

 

कैसे कलाकार ने सृष्टि संरचना की, चेतन-कृष्ण के संग

प्रत्येक जीव-अवतार हमसे जुड़ा, गुजरे हैं सब अनुभव।

हम उनमें और वे हममें, आवश्यकता केवल समझने की

उससे भी अधिक व्यापकता, मनन व शब्द-चित्रण की॥

 

कौन हैं वे महामानव समग्र, मिलते एवं लाभान्वित करते

हमें झकझोरते, जगाते, दुर्बलता-निवारण का यत्न करते।

उत्तमात्मा सजग कर्त्तव्यों से, सदा परम आव्ह्वान करती

निर्मल स्पंदन से विश्व-विचार को अग्रसर- ऊर्ध्व करती॥

 

माना अभी भी यह तन-दुखन, नश्तर बीच-२ में चुभोए

तथापि मन से है विनती करके, बात कुछ आगे बढ़ाए।

पुनः करूँ प्रारम्भ उम्दा-लेखन, सहेज कर रश्मि-ज्ञान

जगा दूँ अपने कबीर को, कुछ राह देखूँ खोल आँख॥


पवन कुमार,

6 जून, 2014 समय 16:38 अपराह्न 
( मेरी डायरी 20 अगस्त, 2014 समय 8:50 प्रातः से )