Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Wednesday, 30 March 2016

न मात्र वाग्वीर

न मात्र वाग्वीर 

मात्र वाग्वीर ही नहीं है लक्ष्य, वचन परिवर्तन कर्म -सुफल में

देव-स्तुति जैसा निरूपण, सामंजस्य मनसा-वचसा-कर्म में॥

 

कातरता त्याग -आरूढ़ हो शुभ कर्म, तन-मन-बुद्धि निर्मल

मातृ मेदिनी सम विशालोर हो, सर्वस्व धारण व सहन निर्द्वन्द्व।

कितनी सहज वृत्ति समाई, समस्त-वैभव प्रत्येक को उपलब्ध

माना जीव पर निर्भर ग्राह्यता, श्रेष्ठ की तरफ से सब पुत्र सम॥

 

नेत्र खुलना कब हो सम्भव, वाग्देवी-कृपा से हृदय है विव्हलित

करुणा-सागर उमड़ पड़े मन में, मानवता में ही पूर्ण-समर्पित।

हृदय-विशालता इतनी तो हो संभव, सर्वस्व ही उसमें अनुभूत

प्रखरता कर्त्तव्य-परायणता में है, सदा-सहयोग मंगल अनुरुप॥

 

क्या है वह देवी का अवलोकन, निज-तुच्छता का मन से त्याग

स्व वक्ष-स्थल प्रदीप्त सुवृत्ति से, प्रशांत हो साक्षात्कार निर्वाण।

क्या बृहत्तर लक्ष्य ही प्राण-कसौटी, प्रयोग सुलभ मन से प्रयास

निज-उच्चता प्रभागी, मुनि-ऋषि-अन्वेषक-नायक सा कयास॥

 

न मात्र है चिंतन-मनन, यंत्र-तंत्र, कर्म दर्शित हो भाव-भंगिमा में

विधाता-ऋण जीव पर सदैव है, सदुपयोग वाँछित हर विधा में।

विस्तृत दूर-दृष्टि पर गांभीर्य वर्तमान में, पूर्वगतों की शिक्षा संग

दूरी मिटे सब काल-स्थान बंधन की, परम-शिव से रहें दिगन्त॥

 

न स्तुति-यशोगान ही लक्ष्य, गुण-धारक क्षमता है व्यक्तित्व सार

कितना निरूपण सक्षम, अनेक नर सफल हैं मन-बुद्धि विस्तार।

किंचित पूर्ण विराम दुष्प्रवृत्तियों पर, जड़-शृंखला बंधन से मुक्ति

स्व-समर्पण पूर्णता-कर्मठता में, निमज्ज हो ही समेकित भुक्ति॥

 

मेरी क्षीणता है प्रथम चरण ही बाधा, मन में ही न सुपोषित वचन

कर्म तो अग्रिम अवस्था ही, कैसे प्रारम्भ हो -दीक्षा है अनुपलब्ध।

कुसंस्कार-बंधन तो पूरे तजित नहीं, अमल न मेरा यह देह-प्राण

इंद्रिय-शासन तो दुर्बल अवस्था में, सामान्य बुद्धि सम ही बाण॥

 

क्या मनन है वाग्वीर शब्द पर ही, बाणभट्ट-लिखित आत्म-कथा में

त्रिपुर-भैरवी अन्य-दर्शनाकांक्षी, पर तत्सम बिन न उपाय पदा में।

तुम महाशक्ति-प्रतीक, कृतार्थ हूँगा दर्शन से - त्रिपुर सुंदरी भुवन

करुण-धारा, अनुराग-आभा, चमक स्नेह-स्निग्धता है मोहिनी रूप॥

 

तुमसे न त्रिपुर-भैरवी लीला रुद्ध, न थमा सकते महाकाल कुंठनृत्त

न बाधा शूलपाणि मुंडमाल रचना में, न कृत आत्मसात देवी सम।

बनो सच्चा, सत्व-सत्य जितना दे सको, समझो प्रजा-कष्ट अपने ही

छोड़ो प्रपंच, कर्म-सुफल तभी है, निःशेष भाव से चरण-स्पर्श ही॥

 

मोहिनी रूप भीत मृग-चपल नेत्र, शरच्चन्द्र-मुख सम है आह्लादित

बिंब सम ही आताभ्र अधरोष्ठ, चन्द्र-गंध से सर्वांग हैं आमोद-मुदिर।

करुणा-अश्रु सिक्त मनोहर-उदार दृष्टि है, मोह लेती सर्व अंतःकरण

अंतः शामक दृष्टि ही, अमृत-स्रावी वाग्धारा, अनन्य आभा है निर्मल॥

 

विधाता सौंदर्य-भंडार विपुल, शेष है कुसुम-सायक रचना भी पश्चात

अपूर्व-विराट, सौंदर्य-समृद्धि श्रेष्ठ की, समर्थ कर्तुम अकिंचन-उद्धार।

कालिदास ने प्रेम देवता को, वैराग्य-नयनाग्नि से नहीं कराया था भस्म

बल्कि पार्वती-तप से सौंदर्य-हाथों प्रतिष्ठित करा, शिव हुए आविर्भूत॥

 

जो भस्मित था वह आहार-निद्रा सम, जड़ शरीर विकार्य-धर्म मात्र ही

दुर्वार था पर न देवता, छुपा स्व-तप में, न सुफल मात्र कामशर से ही।

योगी संभला, अनुचित जान पड़ा अपदेवता का अनाधिकार हस्तक्षेप

यावत गगन से मरुद क्रोधशमन पुकारें, मदन कपोत-कर्बुर परिणत॥

 

किशोरी पार्वती कोमल उर झुंझला गया था, स्व-सौंदर्य के बाँझपन से

तब दूर करने की कोशिश इस रूप-वंध्यता को, कठिन तपस्या ही से।

प्रथम दर्शन-प्रेम बाह्य-रूपाकर्ष, पर क्षणभर में वज्रपात -सर्व विफल

कालि प्रसन्न हैं कुमार-संभव में त्याग-तप विधि से, मोह-ममता त्यक्त॥

 

नहीं नर व उसका विश्व सर्वस्व, और भी हैं दृश्यमान उस सौंदर्य-पार

भासमान विश्व-अंतराल में अन्य शाश्वत सत्ता, संकल्प मंगल-लाभ का॥



पवन कुमार,
३० मार्च, २०१६ समय २२:१७ रात्रि 
( मेरी जोधपुर डायरी दि० २८ जनवरी, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)

Friday, 25 March 2016

एक गीत

एक गीत 

गीत बना, सुर में गाऊँ, संग ही साज भी बजाऊँ

सुरीली मन-तान बना, तेरा रहमत-गीत सुनाऊँ॥

 

तू तो सबको पूर्ण ही देखे, गहराई में भी है झाँके

तब मेरी भी पहचान तो दे, आकर दर्पण दिखा।

कैसे हो वह मेरे पास भी, इसी बात की है चिंता

सदा संग में रहना चाहूँ, अंतः को बाहर निकालूँ॥

 

बंद पड़ा है मेरा डब्बा, व चाबी इसकी तेरे निकट

खोल दे तो दर्शन होवें, तब जानूँ कैसा है उज्ज्वल।

नहीं आवश्यक है, कि मैं अच्छा-भला ही होऊँगा

पर तेरे संग निज-निवास की, कुछ छाप पाऊँगा॥

 

निज अंतःमन के रत्नाकर में, डुबकी कैसे लगाऊँ

डरकर बैठा हूँ बाहर, न साहस जब कर ही पाऊँ।

होगी आत्मा मेरी पुलकित जब, तब दर्शन हों प्रभु

बैठा बाहर अन्त्यज की भाँति, कैसे मैं प्रवेश पाऊँ?

 

कैसे संभव होगा तेरा सुदर्शन, इसी सोच में हूँ बैठा

मैं तो हूँ नितांत ही रीता, आकर इसको भर के जा।

अनुकंपा करो फिर तो अपनी, इसे भी बना दो श्रेष्ठ

तैरुँ मैं भी जग-वैतरणी, तेरे में ही जाऊँ पूर्ण मिल॥

 

न ज्ञान कोई है -डोलूँ यूँ ही, नहीं समय का ही मान

शरण में तेरी आया प्रभु, करना इसका भी ध्यान॥



पवन कुमार,
25 मार्च, 2016 समय 18:47 सांय 
( मेरी डायरी 5 नवंबर, 2012 समय 11:10 से )

Saturday, 12 March 2016

सोच - अग्रसर

सोच - अग्रसर 
-------------------

प्रातः चार बजे का समय है, आज जल्दी जाग गया हूँ। थोड़ी देर उनींदा रहने के पश्चात उठकर कुछ करने का निश्चय किया है क्योंकि मात्र लेटे रहने से कुछ विशेष प्रगति नहीं होने वाली है। जिंदगी नाम है ठोसता का, संजीदगी का, नियम का, वस्तुओं को अपने पूर्ण-प्रभाव में लाने का, और कार्यान्वयन में पारंगतता लाने का। नाम एवं ख्याति अगर मानव अपने चलते कमाता है तो किञ्चित यह उसके समय एवं ऊर्जा के उचित कार्यान्वयन को साधुवाद होगा। केवल बोलने मात्र को इति-श्री समझ लेना और यह कि सब कुछ उचित चल रहा है, स्वयं को बाह्य रूप से प्रसन्न कर लेना, छलावा देना मात्र है, जबकि सत्यता कुछ और ही होती है। जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। अगर सोचें कि हमें चाँद-सितारों को छूना है तो विश्व की समस्त शक्तियाँ आगे बढ़ाने में मदद करेंगी। निश्चय ही आरम्भ-कर्ता का भाग्य (beginner's luck) सबके संग है अर्थात जो कोशिश करता है उसकी प्रकृति, विश्व, भगवान सब मदद करते हैं। हमारे समस्त बंद द्वार खुलने लगते हैं जब संजीदा होकर आगे बढ़ने में स्वयं को लगाऐंगे। निश्चित ही कोई भी वस्तु इतनी आसानी से सुलभ नहीं हो जाती - उसके हेतु प्रयत्न तो करना ही पड़ता है। अपने को वचन दो कि हिम्मत कर जिंदगी को अग्रसर करेंगे और वास्तव में इसे मूर्तरूप करोगे। हमारे कार्य व जीवन का मूल्यांकन अभी भी कुछ लोग कर रहे होंगे और आगे भी करते रहेंगे। हम उस तुला में कैसे खरे उतरेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताऐगा लेकिन अभी अपेक्षित है कि बिना बाधित हुए अपनी दिशा चलते जाइऐ और कभी भी स्वयं को दीन-हीन श्रेणी में पतित न होने दो। शुभ वचन-कर्मों का संग करिए, फिर एक नया सवेरा समीप होगा जिसमें सबको सम्मान के साथ जीने का अवसर प्राप्त होगा। अपना ही नहीं, अपने आसपास कार्य करने वालों का भी कल्याण करें। कोशिश करें कि अदने से अदने कर्मी को भी उचित पारिश्रमिक मिलें, उसको भी आपके संग कार्य करना अच्छा लगे और वह उचित निर्वाह कर पाऐ। अपने साथ ही अच्छाई की अपेक्षा न करें अपितु स्वयं आगे बढ़कर अन्यों संग सद्-व्यवहार एवं सम्मान से बात करें। कोशिश मनुष्य को बहुत आगे ले जाती है अतः सुनिश्चित करें कि कभी भी प्रयास कम न हो। अपनी वाणी पर संयम रखें और उसे सुमधुर बनाऐं क्योंकि यही हमें मित्र या शत्रु में परिवर्तित करती है। लेकिन आपके प्रेम से बोलने का अर्थ अन्य ऐसे ही हलके में न लें। आपकी गंभीरता, शीघ्र एवं उचित कार्य कराने की मंशा को समझने में लापरवाही न लें अतः सचेत रहें। अर्थ है कि सबसे अच्छा व्यवहार करे और उनसे भी ऐसी ही आशा करें। अपने को समय-2 पर जाँचे-परखे और सच्चाई पर कहाँ खड़े हो, इसका मूल्यांकन करें। आपकी गुणवत्ता सदा वर्धित हो, ऐसी आशा है। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार, 
12 मार्च, 2016 समय 14:37 अपराह्न 
(मेरी डायरी 12 मई, 2006 समय 4:05 ब्रह्म-मुहूर्त)        

Sunday, 6 March 2016

मानव-भूगोल

मानव-भूगोल 


क्या है मानव का भूगोल, विभिन्न किस्में दिखती एक साथ

कैसे आवागमन भूमण्डल पर, आज विश्व बना एक गाँव?

 

भिन्न क्षेत्रों में देखें तो बहुत विषमताऐं प्राणी-जन में मिलती

अपनी तरह विकसित, शारीरिक रचना विशेष प्रकार लेती।

छोटी भिन्नताऐं एकदम दृष्टिगोचर, अपने से किञ्चित दूरी ही

लोग शक्ल देख बता देते कहाँ से, सबकी निज शैली होती॥

 

पूर्व काल व आज भी, अधिकांश विशेष रहते हैं एक स्थल

अनेक बार परिवेश सीमित है, बाह्यों से दूरी रहती निश्चित।

लोगों ने समूह बना लिए, अपनों से अधिक अंतरंग-सम्पर्क

माना सबकी शरीर-मन प्रक्रिया सम, तथापि दूरी है महद॥

 

प्राणियों से क्षेत्र निर्माण है, सरलता से बाह्य को न अनुमति

ये अपने या पराए, अन्यों से तो बस कटुता-स्पर्धा ही रहती।

निज-संस्कृति ही समृद्धतम, दूजे समूह तो असभ्य-कुत्सित

पर सर्वश्रेष्ठ-सुवर्णपन की भावना से, भेद-वृद्धि ही अधिक॥

 

यहाँ अपने क्षेत्र-मार्ग, देश-लोग हैं, उन्हीं में जीना व मरण

उन्हीं से निरंतर संपर्क, एक साँझी सोच हुई है विकसित।

खानपान-वेशभूषा, घर-आँगन, औजार व खलिहान-बाड़े

अपने जंगल-मवेशी, खेत, प्रकृति-गाँव, बस इसी में घुसे॥

 

माना आपसी-कलह भी, लोकाचार में सब अच्छाई- बुराई

दंड-शास्त्र, व्याभिचार- स्वच्छता, क्रोध-प्रेम, चोरी-सच्चाई।

माना एक जगह रहते भी, मानवों में विशेष प्रकृति पनपती

तदानुसार व्यवहार करने लगते, चाहे वह असामाजिक भी॥

 

जग में सब जन हैं, कुछ क्रूर-लुब्ध, उदार, विनम्र-विद्याग्राही

सन्तुष्ट, बहुदा मुखरित, कुछ मिथ्या-भाषी व सदा आडंबरी।

मनस्वी, परंतप, क्रोधी, कार्य-दक्ष, स्वत्व रक्षण की जिम्मेवारी

प्रमादी-व्यसनी, पेटू तो अल्पहारी भी, व्रती-तपी, सदाचारी॥

 

फिर भिन्न स्वरूप लिए हुए भी हैं, वे एक कुटुंबी से ही होते

एक-दूजे को सहन करते, यदा-कदा फटकार भी लगाते।

सब जानते हुए भी नज़र-अंदाज, समूह को एकजुट रखते

माना अपना ही सब कुछ यहीं, उसी हेतु वे समर्पित रहते॥

 

नदी के पार, संकरी घाटी, पर्वत बसेरा, जंगल में घर-गाँव

समुद्र में टापू, दूरी अधिक, यातायात सीमित, डेरा- मैदान।

बहुत प्राकृतिक कारक वास्तव में, अन्यों से है अलग बर्ताव

प्राणी-समूहों ने दुनिया बना ली, वहीं सब चल जाता काम॥

 

फिर कुछ तो कारण स्वतः, जनों की भी सीमित आकांक्षाऐं

अपने नियम बनाऐ हैं, किससे-कैसा व्यवहार और अपेक्षाऐं।

विवाहों के एक जैसे नियम-विधान हैं, कहाँ कन्या देनी-लेनी

किनसे अंतरंगता सहमति बनानी है, किनसे दूरी ही रखनी॥

 

पर मानव-चेष्टा है बुद्धि प्रयोग की, जगसंख्या हो रही वर्धित

घर-गाँव-खेत क्षेत्र अल्प पड़ता है, सभी को करने समाहित।

बहुदा दुर्भिक्ष-बीमारी, बाढ़-भूकम्प सी आपदाओं से हैं कहर

 करती मनुज को विक्षिप्त, कुछ वैकल्पित को करता है बाध्य॥

 

कठिन जलवायु, जीवन-निर्वाह, शत्रु-प्रकोप, व साधन-अल्प

बनैले जीवों से असुरक्षा, भोजन-कमी, जीविका-अनुपलब्ध।

जीव-समूह विशेषकर नर बाध्य, कुछ बदलाव सकारात्मक

 इच्छा तो न पर जीवन अनुपम, बचाने का करना होगा यत्न॥

 

यूँ मानव विव्हलित होते हैं, और अपना देश-घरबार छोड़ते

तब अन्य-सम्पर्क में आते, नई जलवायु से परिचित हैं होते।

तन-मन पर तो असर है ही, नए कारकों का अधिक प्रभाव

अनुकूलन स्व-समय है, प्राचीन छोड़, नव-संसर्ग अनिवार्य॥

 

विभिन्न समूहों में नर-नारी संपर्क से, गुणों का आदान-प्रदान

निश्चित सिलसिला यूँ चलता है रहता, नस्लों में होता बदलाव।

अन्यान्य गुण परस्पर मिश्रित हैं, यूँ आबादियाँ एक-सार होती

तथापि समूहों में पूर्व-गुण आधिक्य, नाक-नक्श में झलकती॥

 

काफी पुरा-समय से आबादियाँ, स्थान बदल हुई हैं विस्तरित

स्थलों में विभिन्न जन-समूह हैं, भिन्न होते भी दिखते एकत्रित।

फिर नर-महत्त्वाकांक्षा से भी देश-विदेश में भ्रमण-अभियान

कुछ वहीं ठहर-बस गए, नव-गंतव्यों संग मेलजोल परवान॥

 

जहाँ अच्छे संसाधन-उचित जलवायु, वहाँ तो बहु-विस्थापन

जनसंख्या अधिक विकसित हुई, हुनरों को बाँटती निर्बाधित।

परस्पर-विधाऐं विस्तृत होने -बाँटने से, पनपे हैं संस्कृति उच्च

नर मन-क्षेत्र विकसित होता, लघु से निकल महद-सम्मिलित॥

 

कितने समूह यूँ हिलमिल गए हैं, नव-संस्कृति का अति-प्रभाव

पुराना लगभग विस्मृत सा ही, नए देव-गिरजे, स्थापित संवाद।

समस्त ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड, व मेक्सिको-उत्तरी अमेरिका में

विभिन्न यूरोपियन व अन्य समूह बसें, अब एक अलग राष्ट्र हैं॥

 

पुराने मूल देशों को याद भी न करते, मात्र नए ही जीवन-वृत्त

मूल नर-समूह इंडियंस या अन्य, न देते कहीं दिखाई हैं अब

नव-अधिकृत पूरा भूभाग, प्राकृतिक संसाधनों के स्वामी हम।

अफ्रीकी काले जन- समूह बलात लाए, हेतु खेत-घर के काम

योषिताओं से गोरों के संबंध, व शनै रूप-स्वरूप में बदलाव॥

 

यद्यपि शोषितों में सम रक्त प्रवाह, स्व-श्रेष्ठता भाव शोषक में

विरोधाभास है, मिथ्या-अभिमान, अन्य निम्न व हम ही श्रेष्ठ हैं।

पुरा-काल से भिन्न नस्ल-संपर्क, कमोबेश एक से अनुवांशिक

 हाँ कुछ प्रभागों में जहाँ संपर्क अल्प, अभी भी स्व-गुण प्रधान॥

 

देखो सकल दक्षिणी अमेरिका राष्ट्रों में पुर्तगाली-स्पैनिश भरे

मूल-आबादियों को युद्ध-विजित किया, स्वयं स्वामी बन बैठें।

उनसे ही संपर्क कर हुई मिश्रित जातियाँ उत्पन्न, मूल से विलग

अनादिकाल से स्वरूप बदलते रहें, रहेंगे, मानव के बस में न॥

 

यह मानव-स्थान बदलाव बहुत पूर्व से, महान दूरियाँ तय की

भिन्न जलवायु बदलाव धरा पर, महा हिमकाल या महा-वृष्टि।

बहु- आबादियाँ नष्ट हो गई, अन्यों ने स्थान बदल जान बचाई

नई जगह जा शनै आत्मसात हुए, जैसे मूल यहीं के निवासी॥

 

अपने भारत को ही अनेक जातियों ने, आकर बनाया स्व-गृह

अनेक गुण परस्पर आदान-प्रदान हैं, रोटी-बेटी हुआ बाँटन।

फिर भी आर्य-अनार्य का भेद, बहुत समय तक न पट पाया

लोग पूर्वाग्रहों में या स्व को पाते उपेक्षित, विकास में बाधा॥

 

स्वीकारो स्व को प्रकृति-उपहार, अन्य प्राणी-समूहों ही सम

यथा वन में बकुल-आम-नीम-नारिकेल-खजूर व अन्य वृक्ष।

सभी निज गुणों से विकसित, आदर करिए कुछ है विशेषता

भिन्नता भी न त्याज्य, पता करो क्या उचित लिया जा सकता॥

 

न चाहिए कोई मानव-विरोधाभास, चरम-प्रगति हेतु हो प्रयत्न

यह जन्म बड़े भाग्य से मिला है, थोड़ी चेष्टा कर बना लें मधुर।

अनुरोध है और करो मृदु मनन, जानने की कोशिश तह तक

भिन्न संस्कृति-कला आयाम झझकोरो, परीक्षा सा वातावरण॥



पवन कुमार,
6 मार्च, 2016, समय 10:03 प्रातः 
(मेरी डायरी 22 मार्च, २०१५ समय 10:20 प्रातः से )

Sunday, 28 February 2016

उद्योग बृहत्तर

उद्योग बृहत्तर


किस भाँति लिखूँ जब तन-मन, दोनों ही नहीं स्वस्थ

तन पीड़ित, मन बोझिल, सुस्त एवं है अल्प-चिंतक॥

 

तथापि इच्छा है, हिम्मत कर स्व को करूँ सुस्थापित

तब सर्व दुखन-पीड़ा भूल, कर कुछ स्वस्थ-चिंतन।

माना निज की अल्पता से, सहानुभूति ही है किंचित

 पर फिर भी यूँ ही न छोड़ सकता एकाकी-अन्त्यज॥

 

माना शक्ति क्षीण ही, लेकिन कुछ है कर्त्तव्य-चमक

कहती चले चलो तुम, अग्र-मार्ग मैं दिखाऊँगी स्वयं।

जरा सी पीड़ा से वीर-हिम्मती, माना न करते हैं हार

फिर तूलिका है ही, जो देती सदा निर्भयता-साहस॥

 

मैं यूँ विराम सी अवस्था में था, पिछले कई दिनों तक

हिम्मत कर के, कार्यालय-कर्म तो शनै किया आरंभ।

किंतु प्रातः भ्रमण, व्यायाम व लेखन तो हैं पूर्ण बाधित

 चाह कर भी लेखन नहीं कर पा रहा हूँ पुनः शुभारंभ॥

 

मस्तिष्क का ऊपरी भाग, दर्द को कराता है अनुभूत

काया-अंग अपनी पीड़ा के प्रतिक्षण हैं चुभोते नश्तर।

रह-२ कर मन-बुद्धि, अजीब-अहसास से रूबरु होते

 क्षीण अनुभव कराते, किंचित विश्राम से न ठीक होते॥

 

फिर भी साहस कर, कुछ पठनरत हूँ अबाधित सतत

राहुल सांकृत्यायन का 'जय-यौधेय', 'स्वामी घुमक्कड़'।

दोनों लेखन पूर्ण, कुछ अल्पज्ञों को राह दिखाने समुचित

 राहुल स्वस्थ-चिंतक हैं, वृहद-ज्ञानकोषी व हितैषी दीर्घ॥

 

स्व है सर्व-मनुजता को समर्पित, बाहर तम से निकाले

अंध को नेत्र दे, विश्व के चलन-संचालन के पेंच बताते।

कैसे कुछ समर्थों ने मानवता बनाई है दासी स्वार्थवश

 बहु-नर समूहों को अभाव-जीवन गमन किया विवश॥

 

महद साहस की बात है कहना, जो मंथन-दर्शित सत्य

अतिश्योक्ति तो बहुत करते हैं, स्व-स्तुति में ही व्यस्त।

 ज्ञानार्जन भी उचित, उससे अधिक सर्व-हित में प्रयोग

सर्वस्व यहाँ सर्वजन का है, अधिकारी समस्त साधन॥

 

कुछ व्यवस्था बनाई समर्थों ने, थोप दिया मनुजता पर

कुछ विरोध होते रहें, पर विषमता फिर भी निर्बाधित।

कुछ महानर अवतरित होते, बोझ न्यून का यत्न करते

फिर भी स्वार्थी मन न मरता, बस शरीर चोले बदलते॥

 

नर-दुर्बलता स्व शत्रु-प्रबल, अन्य को भी करती पीड़ित

भाड़ में जाए अन्य सब, यहाँ तो सर्वोपरि हैं अपने हित।

अति-आनंद स्व की सादगी में, जब निज के होकर जीते

अन्यों को आत्म सा समझे, सर्व-कल्याणार्थ प्रेरित होते॥

 

मानव प्रगति है मन के प्रयत्नों से, और चेष्टा सच्ची साथी

यह सफलता लाती निकट, मानव का कद भी बढ़ाती।

संगियों में सम्मान मिलता है, अनुजों को प्रेरणा उपलब्ध

निज-जीवन तो सुफल ही है, अतः लाभ ही लाभ शुभ॥

 

मेरी इस मन-गुम्फा से बाहर, निकास का मार्ग दिखा दे

इस पीड़ित मन-देह का कष्ट-क्षोभ हटा, स्वस्थ बना दे।

एक विचक्षण सा मनोचिंतन, कुछ तूलिका तो चलवा दे

कुछ शुभाक्षरों का कर आह्वान, सार्थक-मधुर घड़वा दे॥

 

फिर समर्थ सतत सुलेखन में, जब होते अकाल-असहाय

तब कौन प्रेरणा संग रहती, प्राण-शक्ति फिर देती साथ।

बनते सबल सर्वदा मन से, यूँ ही कष्ट में नहीं लड़खड़ाते

निर्विघ्न चलते जाते बुद्धिमता से, लक्ष्य में गतिमान रहते॥

 

अतः यथाशीघ्र स्व-स्वस्थ करो, सोचो कुछ उद्योग बृहत्तर

जीवन है चलने का ही नाम, बीते क्षणों का चित्रांकन कर।

विराम नहीं यहाँ, चलते रहोगे तो कुछ सुख अवश्यंभावी

स्व तो निश्चित ही सुधरेगा, संभावना अन्यों की प्रगति भी॥


पवन कुमार,

28 फरवरी, 2016 समय 21:25 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 19 जुलाई, 2014 समय 10:50 प्रातः से)

Saturday, 20 February 2016

उलाहना

उलाहना 
-----------

मेरा बहुत सा सामान तुम्हारे पास पड़ा है 
बता दो इसकी सूची व किस उद्देश्य से है ? 

थोड़ा सा सामान देकर तूने जग में भेज दिया  
बहुत कुछ तो अपने पास ही रख लिया। 
क्या है तेरे मन की मंशा  
फिर क्यों न इससे परिचय ही कराता ?

मेरा क्या है निज जो दत्त है, या फिर तेरे पास भी 
 शायद तू ही जाने, कितना अभी योग्यता में है मेरी ?
देगा शनैः-२ देख सामर्थ्य व मन की प्रगाढ़-आकांक्षा 
लेकिन अभी तो खिलौनों से ही मन रहा हूँ बहला। 

कितना हूँ योग्य - ग्राह्यी, कितने हेतु सुपात्र 
कितना है आँका, उसका परिणाम तो नहीं विदित। 
तू रहस्यमयी मेरी बुद्धि शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा में तेरी 
सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, तव-प्रकाश भी दर्शित नहीं। 

क्या है यह वजूद, कैसे हो प्रयोग, नियम तो बताए नहीं 
मार दिया धक्का बिना योग्य किए, यह तो बड़ा न्याय नहीं। 
माना किञ्चित स्व-प्रयासों से, अल्प-शिक्षित किया स्वयं को 
पर कितना पूर्ण ज्ञान व अनुभव, बहुत दूर ही मुझसे तो। 

माना आरम्भ-स्थिति में तो, सबको प्रेषित करना ही होता  
फिर क्या दर्जों को आगे बढ़ने का भी नियम नहीं होता ?
कोई सुयोग्य शिक्षक भी तो नज़र नहीं आता 
कोई कुछ बताता है तो पूर्ण समझ नहीं आता। 

समय उसने बिता लिया, अनाड़ी छोड़ दिए शिष्य  
शिष्य भी फिर अज्ञानी, मूढ़ी है व अपने में ही मस्त। 
नहीं उन्हें अपनी अधो-स्थिति, अनाड़ीपन का ही ज्ञान 
धरा पर बोझ बने, अपने को यूँ ढोए जाते अजान।  

कितनी संभावनाऐं भरी हैं, इस मानव-शिशु में तूने 
कम से कम उनका तो परिचय मुझसे करा दे। 
बहुत दार्शनिकों को विचारता, पल्ले न पड़ता बहुत  
क्या मार्ग कर्म-बद्ध ज्ञानार्जन का, कैसे विचार फलीभूत ? 

प्रबुद्ध तो अनेक भेजे यहाँ पर, उन्होंने स्व-छाप है छोड़ी 
मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकम्पा नहीं। 
मुझे नहीं ज्ञात वह स्व-संचालित या तेरी प्रेरणा-रहमत 
कुछ सफल अवश्य ही, समझने भूल-भलैया, काल-चक्र। 

माना कि बहुत विविधताऐं हैं, उनके मनन-मंतव्य में 
फिर भी तो उन्होंने परिभाषित करने का किया यत्न है।  
शायद न हो वह भी पूर्ण ब्रह्म-चिंतन, माधुर्य 
तो भी पार जाने की जगी है इच्छा-सामर्थ्य। 

होती स्वार्थ-कुवृत्ति, स्व भौगोलिक-सामाजिक स्थिति से ही  
मानव चाहे मनन में ही क्यों न हों, प्रवृत्ति अति-दूर न होती। 
कुछ बह जाते स्व-हित साधन को, सर्व-विकास को तिलांजलि  
शक्ति-सम्पन्न प्रभाव छोड़ने में, नियम-कानून अनुरूप अवली।  

कुछ मनीषियों का चिंतन व अनुचरों का सहयोग 
ऐसी जग-व्यवस्था बनाते जो उनके हेतु हो अनुरूप। 
फिर भी हैं बहुत निस्वार्थी, चिंतन सर्वजन हिताय 
जिसमें निहित सबको अग्र-बढ़ाने का हो भाव। 

दर्शन की बहुत धाराऐं, अपने ही रंग से परिभाषित 
अनेक बना दिए समूह, स्पर्धा हुई अनुचर-विस्मित।  
हर एक अपने को श्रेष्ठ मनवाने को उतावला ठान 
चाहे असली आचरण देखा ही नहीं या व्यर्थ-अभिमान। 

क्या मानूँ कैसे इस जग की है संचालन प्रवृत्ति 
क्या है स्व-चलायमान या कुछ योग्यों की युक्ति। 
कौन है वे जो इसको नियम-कानून देते 
फिर हम चाहे न चाहे, उनमें ही हैं बहे। 

फिर कितने हैं वे परम आदर्श के प्रवाहक 
कितने उचित व्यवस्था देने का करते यत्न। 
सब समय अपना व्यतीत करते जकड़नों में,
 उचित जानकर भी बहुदा भीक ही रहते। 

स्व-यश कामना व प्रभुओं का समर्थन 
बहुत आमजन को न देते सहारा-प्रयत्न। 
वे लघु, ऐसा ही रहने दो, हम योग्य-अभिमानी 
कयास स्व-हितार्थ, जबकि प्रकृति-साधन सार्वजनिक। 

अपनी ढफ़ली अपना राग, सब मुग्ध अपनी धुन 
चाहे ज्ञात हो या न, फिर भी जीवन धकाने में व्यस्त । 
पर कुछ तो अपने समूहों को बढ़ाने में प्रयासरत 
उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन। 

क्या मानूँ चिंतकों का चिंतन यदि न वह सार्वभौमिक  
जब सारे कायदे स्व-हित में ही, स्व-नाम की स्तुति मात्र। 
फिर क्या उन जैसा ही बनना चाहता या उद्देश्य महत्तर 
  क्या बन सकता आम-जन सेवक, स्वतः सर्व-जन निहित।  

कौन ये दार्शनिक क्या साध्य, है भी कुछ गुणवत्ता  
या फिर रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति ही। 
कितने उनमें सुयत्न करते, जग को रमणीय बनाने 
उसमें अपने परिश्रम से उचित ज्ञान को ही बखानते। 

नहीं इच्छा फिर श्लाघा की, न ही शिष्य बनाने की 
जिसे उचित लगे संग हों ले, यह विधा सूफ़ियाने की। 
किस श्रेणी का जीव हूँ प्रभु, मुझे मम परिचय दो  
निकाल बवाल से दिखा कुछ सत्य, मेरी साध करो। 

क्या अनुपम सम्भव है, क्या उसका कुछ मतलब 
क्या है वह परम-स्थिति, पार नहीं जिसके ऊपर। 
मैं सीखूँ वे पाठ जो मेरी वर्तमान स्थिति से हैं अग्र 
अतः उलाहना प्रथम पंक्ति से ही, रचना में है इंगित। 

मेरा सामान-संभावनाऐं, सब ही तो तेरे पास पड़ी  
यदि मुझमें ही छिपा दी, तो उसका मुझे ज्ञान नहीं। 
तुमसे यूँ गुजारिश, मेरा वह सामान दो लौटा 
सब तेरा, पर कुछ प्रयोग मैं भी करना चाहता। 

क्या हदें सम्भव मैं भी तो जानूँ, कितना देने में समर्थ  
बौरा बना रख दिया, अपनी संतान से है न न्याय। 
विचरूँ अत्र-तत्र मद सम, न कभी स्व में ध्यान ही लगा 
रहमत की करता प्रतीक्षा, पर तुमको समय ही न मिला। 

 अध्ययन कुछ तो बताता, पर चिंतन उससे अलग ही 
बहुत तो समझ असक्षम, अतः विस्तार बहुत सीमित ही। 
इतना फैलाव व मम लघु-आँचल, दोनों में न सामंजस्य
कैसे हो मेरा भी विकास, इस परम-तत्व को दो प्रयास। 

समय सीमित, ऊर्जा परिमाणित, उस पर चेष्टा-अभाव   
कैसे बदलाव सार्थक दिशा में, इसपर न दृष्टि-प्रसार। 
बढूँ चिंतन-मार्ग में प्रभु, अतः बुद्धि निर्मल दे बना 
पर न स्वार्थी तथाकथित सम, जग को ललिततर बना। 

कर्त्तव्य-चिंतन श्रम-आहूति, हर मनुज को बना योग्य 
दूर विरोध सर्व-विकास, उनमें निर्माण परस्पर सहयोग। 
मम विवेक का भी हो योगदान, ऐसा तू शख़्श बना 
न रुकूँ तेरे पथ में ओ मौला, भौतिक वपु से अग्र ले जाना। 

तपा दूँ तन-मन, दे प्रेरणा, बना यात्री राहुल सांकृत्यायन सा  
वृतांत चित्रण का इतना महद प्रयास, निश्चय ही है स्तुत्य। 
न मात्र अनुभव अपितु उचित-चिंतन, आलोचना सटीक-निर्भीक 
नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी, ज्ञान-विस्तृत अर्जित बाँटा विसरण। 

क्या उचित, चिंतन-प्रेरणा से, हो सकता कुछ निर्भीक मैं भी   
कर सकूँ प्रयास कुछ के जीवन में जीवन फूँकने का ही ?
माना बहुत समर्थ पूर्व से ही, उन्हें न तुम्हारी आवश्यकता 
तो भी मनुज बहुतेरे, विकास का मुख ताक़ रहे सदा।  

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
20 फ़रवरी, 2016 समय 22:42 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से)   

Saturday, 13 February 2016

निर्मल-स्पंदन

निर्मल-स्पंदन



ब्रह्म-मुहूर्त रात्रि अंतिम-प्रहर, मैं जागृत, अधिकांश जग है सुप्त

एकांत, प्रारंभ किया लेख संग चिंतन, मननशील होने को मुग्ध॥

 

निर्मल-मन निर्लेष-आत्मा, कोरा स्लेट-पटल, चित्रांकन अद्भुत

विचार-लेखा कैसे उकेरेगी, अज्ञात है पर प्रयास-अवस्था निरत।

किस क्षण बुद्धि-कोष्टक कर्मभूत होगा, कलम को संकेत उकेर

गति मिलेगी स्वतः निर्द्वन्द्व ही, स्पंदन-निरूपण से अनुपम मेल॥

 

मन-प्रेरणा तो प्राण-भूता, अवस्था परिवर्तन है अवचेतन से चेतन

नहीं सहन है स्व अल्प-प्रयोग, मिला मानव यंत्र एक अमूल्य भेंट।

असंख्य प्रयास-परिणाम से है उपस्थिति, कर्म हेतु वाँछित निर्देश

यह चालक-संचालक तुम्हीं हो, कर्त्तव्य-परायण हेतु परम-प्रवेश॥

 

क्या संभावनाऐं हैं इस निपुण-यंत्र में, प्रवर्धित मन-ऊर्जा ही प्रयोग

ज्ञान-चक्षु खुलें तो दर्शन को अनुपम, जगत-सौंदर्य संग है संयोग।

अन्याय-न्याय विस्तृत धरा-पटल पर, स्वार्थ-निस्वार्थ के कई खेल

प्रश्न किस परम-उद्देश्य में परिलक्षित, संचारण सर्व-हित से मेल॥

 

कौन हैं मनन उच्च-प्रक्षेपण प्रेरक, तज सब स्व-दुर्बलता तन-मन

आत्मा बन सके एक सक्षम परम सम, सर्वदा रत उद्योग निर्मल।

अनेक तप-लीन हैं अपने ईष्ट में, पाया वरदान तो न किया आदर

गर्व-मद-मोह-स्वार्थ-काम में लिप्त थे, मूल-श्रम हुआ असार्थक॥

 

तब क्या उद्देश्य मनन-कर्म का, सफल होते भी न आए भद्र-भाव

अपने ही वार में है फँस जाता, जगत से हटाने को देव लगते दाँव।

अनेक देवासुर-दृष्टांत समक्ष हैं, अनुपम वर मिला पर प्रयोग निकृष्ट

वही देव तब अरि हो जाते, पोसा अपयश, अतिरिक्त जीवन-वध॥

 

हम विद्या-ग्राही, कुछ विधि सीखते हैं, शस्त्र-शास्त्र का ज्ञानार्जन

किञ्चित हों प्रक्रिया में मृदुल-मन, पर क्या रहते हैं दीर्घ तत्सम।

जब `विनय ददाति विद्या', तो क्या अनिष्टचारी हैं अज्ञानी- अधम

 कितने समय एक रह सकता सत्व-भाव में, चरित्र का है दर्पण॥

 

स्व-विश्व बृहद का ही अंश, निज-दशा का अनुरूप प्रभाव प्रखर

सहायक बनो ललित-वृत्त निर्माण में, एक कुटीर सर्वार्थ सुखकर।

प्रत्येक अणु से सकल स्रष्टि-रचना, उपयुक्तता ही है मुख्य कारक

जैसा है मन-चित्रण, उकेरे तथैव, लक्षित होंगे कल्याण-सहायक॥

 

सब भगाने को तत्पर, करो कर्म-युद्ध, पर मंशा कुछ परम-फुहार

रोको स्वयं को, लगा लो बुद्धि, जीवन मिला तो कर्मठता-पुकार।

निर्बल तन-मन संग सदा भ्रमित, अनुरूप अलब्ध, कर्त्तव्य निर्माण

 आत्म-चिंतन संग योग हो सुप्रयत्न, मार्ग-प्रशस्त संभावना है अपार॥

 

जीव-प्रक्रिया है योग- वियोग की, हरक्षण लब्ध निर्णय को उपयुक्त

संचित क्या करते प्राण-गति में, अंत में जुड़ता चला जाता है सहज।

क्यों सदा विरोधाभास में ही गमन, स्व- मन इंगित करो लक्ष्य-परम

स्व-हित सर्वहित में निहित ही है, क्यों लुब्ध-प्रवृत्ति से लिपटो व्यर्थ॥

 

क्यों स्व लघुतर में ही प्रेषित, द्वार खुलें वृहद ब्रह्माण्ड अति-प्रस्तुत

एक-२ मण्डल प्रेरक हम अल्प का, स्मितमय बनकर बनें बेहतर।

स्व-उपार्जन कर्त्तव्य महद उद्देश्यार्थ, सार्थक-सिद्धि है नित्य वाँछित

महाजन- प्रभावित सामान्य अनुचरण, अवसर है, न करो निष्फल॥

 

माना स्व अत्यल्प, क्षण-भंगुर, निम्न-अज्ञानी पर दिशा तो करनी तय

तुम वृहद अनंत-काल वासी, इसी के अणुओं में रहोगे सदा-समय।

क्यों बनते संकुचित सदा रुदन-कुयत्न में, कभी पूर्ण झोंककर देखो

युद्ध स्व-संग उच्च शिखर चढ़ाई हेतु, न स्वीकार सड़कर मृत्यु हो॥

 

दृष्टि विकसित करो अनुपम-आनंद हेतु, नित्य-चेष्टा ही रखेगी समृद्ध

मत हों अपघटित लघु-मारक तृष्णा में, मुक्ति-द्वार खुलेंगे अनिरुद्ध।

असंख्य नर सदैव रत महद उद्देश्य, अंतः-प्रेरणा से विकास-सहयोग

आनंद अवश्यमेव प्रस्तुत होते रहेंगे, बस अडिग रहो सतत उद्योग॥

 

निर्मल-स्पंदन वसंत-मुकुल को ऊर्जा, विकसित सौरभ कुसुम-वैभव

संभालो वर्तमान वही मार्ग अनुपम, न अवरुद्ध होने दो प्रवाह सतत॥



पवन कुमार
13 फरवरी, 2016 समय 23:52 म० रा०  
(मेरी डायरी दि० 19 जनवरी, 2016 समय 5:54 प्रातः से)