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Thursday, 14 April 2016

नवयुग तारक

नवयुग तारक


एक महापुरुष भारत-धरा पर अवतरित हुआ, बाबाओं के देश

छाप छोड़ी स्व-व्यक्तित्व की, मानवता कृतज्ञ-उऋण है निर्लेष॥

 

भारतवासी तो सदा मननशील, चराचर विश्व के जीवन-मरण प्रश्न

स्व- भाँति परिभाषा देते रहें, कुछ को सुहाता अन्यों को अनुचित।

'वसुधैव कुटुंबकम' सिद्धांत पुरातन, प्राणी समन्वय से ही जी पाता

'आत्मवत सर्व-भूतेषु' सर्व-भेद निर्मूल-सक्षम, यदि आचरण में होता॥

 

मनुज सुविज्ञ मानव-जाति एक-स्वरूप का, तभी तो प्रतिदिन निर्वाह

आम नर को निज कुल-गर्व पूर्वाग्रह भूल, सर्व-सहयोग का है आग्रह।

जीवात्मा एक परम-पुञ्ज का ही बिंदु, सब में दीप्त अंतः-बाह्य प्रकाश

परस्परता अनिवार्य प्रति-पग, जीव समाज-वासी - एकांत मात्र ह्रास॥

 

सर्व-भाव सर्व-प्राणी स्वतः निहित, प्रयोग उपयुक्त आवश्यक काल में

दुर्गुण - सुगुण हमसे चिपके हैं सदा, अपनी भाँति से व्यक्त विचार में।

उत्तम-विकृत एक स्थिति-प्रयुत परिभाषा, मूल्यांकन स्व-रूचि अनुसार

प्रत्येक विवेचन कर्म-स्वभाव का, निष्पक्ष ही सक्षम व्यक्तित्व परिणाम॥

 

सदैव असंख्य-कोटि जीव धरा पर विचरण करते हैं, लें लघु मन गान

गीत गाते स्व-धुन में, अनेक कर्ण-प्रिय तो कुछ अनर्गल-बेसुरी तान।

अनुलोम- विलोम समगुण अनुरूप समूह, प्रत्येक न सब हेतु हितकर

स्वार्थ एक प्रमुख जीव-विकार, मनुज बह जाता है लघु-तृष्णाओं पर॥

 

तथापि मानव एक ही जाति, यह सत्य भुलाकर कुछ स्वार्थ-आचरण

सर्व-प्राकृतिक संसाधन हों स्व-कर, हर जीव-अजीव पर आधिपत्य।

कुछ प्रयास से आगे बढ़ गए, भौतिक-सांस्कृतिक प्रतिभा विकसित

जीविका के निर्मल-नियम निर्माण, निज-जीवन तो न्यूनतम ललित॥

 

भागम-दौड़ परस्पर प्रतिस्पर्धा-आकांक्षा, स्व-कुल का ही पूर्ण-उत्कर्ष

अन्य छूटें न पीछे- न प्राथमिकता, निज संसाधन वृद्धि में बुद्धि प्रयुक्त।

निज एक विचारधारा सी बनाई, हमीं श्रेष्ठ अन्य निकृष्ट ही अतः त्याज्य

कुछ नियम स्व-हित ही निर्मित, सम्मुख-थोप दिए वृहद मनुजता पर॥

 

विश्व-क्रीड़ा ऊर्जा-सदुपयोग की, क्या उपकरण निकट प्रयोग भरपूर

विशाल पृथ्वी है धन-धान्य बाँट रही, उठ-खड़ा हो कर निर्धनता दूर।

है संघर्ष विचार-धाराओं का स्वाभाविक, प्रत्येक का स्व-विधि प्रज्ञान

क्यों हार मान जाते मन सस्ते में, आवश्यक नहीं तुम ही हों अनजान॥

 

वृहद-कोष प्रकृति द्वारा प्रस्तुत, निवेदन सभी से शिक्षित बन पढ़ लो

नर को विश्लेषण की योग्यता प्राप्त, प्रयास कर अनुपम निकाल लो।

जब विवेकी बने यदि जीवन में, सर्व-मनुजता हित-तत्व निकाल लोगे

महापुरुष स्वार्थ से अग्र-कदम, सर्वोत्तम-अनुसंधान का यत्न रखते॥

 

हर देश-काल में हैं युग-पुरुष अवतरण, गीता-महावाक्य उद्घोषित

जब-२ धर्म की ग्लानि है, प्राणी कष्ट-त्राण हेतु जन्म होगा स्वाभाविक।

नर कदापि न है विपत्ति-मुक्त, सदा एक साँसत हटी तो दूजी सम्मुख

रामबाण है `संकट कटें मिटे सब पीरा -जो सुमिरे हनुमत बलबीर'

 

मनुज ज्ञान-प्रमाद स्वरूप अंधकूप-पतित, बहुदा उचित पथ न सूझे

तब सक्षमों का मुख ताकते, विडंबना से बाहर करो - हम भी उबरें।

ये कौन बनते सुयोग्य या पैदा होते, कौन शक्ति यत्न कराती अक्षुण्ण

तन-मन क्षीणता त्याग सफल रूपांतरण, न अन्य लेंगे सतही पतन॥

 

नर शिशु क्षीण ही होता, गृह-कुल-समाज परिवेश सहायक घड़न में

पर सबको नहीं सम परिस्थितियाँ उपलब्ध, उतने में ही संतोष करते।

कुछ न संतुष्ट मात्र बहलावे से, क्या सत्य-सम्पदा- ज्ञानार्थ यत्न करते

दुर्दिन निवारण महद प्रयास से, न थक-हार बैठ जाना विपदाओं से॥

 

क्या मार्ग सौभाग्य-निर्माण का, मात्र देव-स्तुति या निरत स्व-प्रयास

सदुपयोग हर क्षण मनोरथ- प्रयोग का, न भ्रान्तियों का ही कयास।

समस्त शक्तियाँ मुष्टि-बद्ध करके, वे पथिक दूर आकाश- मार्ग के

स्व-संग विकास बृहदतर मानवता का, कर यत्न निकलो दुर्दिन से॥

 

जिसने स्व को योग्य-कर्मठ बनाया, होंगे सक्षम ध्रुव-पार गमन के

अध्येता मन-निग्रहों के, क्या सार्वजनिक हित - अपना दम लगाते।

विद्या-ग्राही खुला मन-मस्तिष्क धारण, हर पहलू पर मनन-सक्षम

न कुंठा-रोष निम्न परिवेश से, वर्धन अग्र-पंक्ति, अंतिम-असहन॥

 

कौन सकल मनुजता एक-जुट देखता, सब प्रश्नों का हल-निदान

नर स्वतः सक्षम अति-काष्टा, निर्मल नाथ मिले तो और बलवान।

चिरकाल से पुरुष भयभीत निज-विद्रूप से, बंधुओं से अधम-भाव

उनसा न दिख-बन सकता या नियम क्रूर प्रयासरत रखने बाहर॥

 

क्यों अधो मनो-वृत्ति पनपी काल में, स्व-दुर्बलता या बाह्य-शोषण

स्व मृदुल-गुण क्यों न देखते, क्षीणता भी तो करो प्रयास से बाहर।

व्यर्थ विकार मन में न रखना, अन्य बढ़े हैं मनोभाव द्वारा ही प्रबल

 सब में वही है परमात्मांश, दुर्बल मानकर निज को न करो विव्हल॥

 

त्वरित अपेक्षा है तन-मन सामर्थ्य, हँसी- उपहास स्थिति से उबार

जग देता मान सबलों को ही, निर्बल को परिहास या दयनीय भाव।

कब तक मुख ताकते रहोगे अन्यों का, अपनी भी लो स्थिति सुधार

बनो शक्तिवान मयूख-विकरित सूर्य-सम, तेज का सब लेंगे लाभ॥

 

बालक भीम बना महामानव धरा पर, सर्व-मनुजता सम-अधिकार

बुद्ध सम कल्याणक जीव- प्रकृति विकास, सब बढ़ें पूर्ण-साकार।

सामान्य नर-सहायक, पीड़ा देखी-समझी चिंतन कैसे हो परित्राण

निज विवेक-ज्ञान से संविधान समावेश, मनुजता पर बड़ा उपकार॥

 

शिक्षा सबकी प्राथमिकता, अंध-कूप से निकास का बड़ा हथियार

स्व-संघर्ष से ज्ञात होगी वाँछित गति, तुच्छ-वर्तमान तो न स्वीकार।

संगठन एक प्रबल योग शक्ति, लोहा ले सकते विपदा किसी से भी

समाज समरसता-प्रेम प्रादुर्भाव हो, लड़ने से मात्र स्व का ह्रास ही॥

 

दिव्यता तुम्हारे तन-मन पूर्वेव ही, क्यों व्यथित व्यर्थ-प्रताड़नाओं से

दक्ष शिक्षक सर्व-मनुजता हितैषी समक्ष, क्यों न प्रयास मुक्ति जैसे?

बंधन समस्त टूटने को तत्पर, तुम बस खड़े हों - दिखेगी परम राह

बाबा यह नवयुग तारक है, तंत्र-शक्ति दी सबको -नहीं शब्द मात्र॥


पवन कुमार,
दि० १४ अप्रैल, २०१६ समय १०:३३ प्रातः
(मेरी डायरी दि ० 9 मार्च, 2016 समय 8:40 प्रातः से)

Sunday, 10 April 2016

मन-सितार

मन-सितार 


कुछ सुर फूँटें व गीत बने, नाद-संगीत हो सर्वत्र विकिरित

मन-रेखाऐं शब्द बन ही जाऐं, अनुपम योग से अविस्मृत॥

 

मधुर सुर तो नित सजने ही चाहिऐं, इस जीवन-स्पंदन हेतु

हर तार झंकृत हो जाए, मन-सितार के प्रचुर उपयोग हेतु।

जीवन के हर मर्मांग का, यहाँ हो पूर्ण मनन-चिंतन निरंतर

कुछ भी नहीं छूटे जो संगीतमय हो, तन-मन पूर्ण समर्पण॥

 

इस देह-वीणा का एक मन-तार, एकदा तो आकर झनका तू

मैं सुनूँ संगीत तो इसका, कितने शिथिल-सुबद्ध हैं इसके तंतु?

एक उपयुक्त कर्षण वाँछित है हर तार में, हेतु संगीत-स्फुरण

किंतु पूर्व साजो-सामान देखूँ,-बाजन-गायन हो उपरांत तब॥

 

कौन हूँ, कहाँ से आया, क्या प्रयोजन, काज करना क्यों कब

किसको समर्पित हो, कैसे करना, प्रश्न अनेक हैं अनुत्तरित?

किसका प्रणेता है, कैसा स्पंदन, एक मूढ़ता उस अखंड से

आत्मसात परमानुभूति में, सर्वस्व समर्पण महद- लक्ष्य में॥

 

कौन वह है वीणा-निर्माता, प्राण-प्रतिष्ठा से बना योग्य-बजने

कब तक चलेंगे ही ये तार, मधुर संगीत फूटेगा झनकार से?

कौन हैं बजैया- सुनैया, करें किस प्रयोग के कौन विश्लेषण

कौन साधक-साधन, कितने अभ्यास से जनित न्यूनतम श्रेष्ठ?

 

अपनी तान साधी बने हैं तानसेन, हरि भजा तो बने हरिदास

हरेक सुर को क्रम से रखकर, बनाऐं हैं अनेक रागिनी-राग।

आचार्य भातखंडे ने संगीत-सुर घड़ साधकों को किए प्रस्तुत

भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, बिस्मिल्लाह से अनेक दिग्गज॥

 

प्रकृति में संगीत सर्वत्र है, नदी-कलकल में, पवन-सिरहन में

मेघ-गर्जन में, वर्षा पिटर-पिटर में, शिशु -खिलखिलाहट में।

विहंग नाद में, मयूर पीहू-२, सारस क्रंदन में, पिक कूँ-कूँ में

शुक टें-२, काक काँव-२, गोरैया चीं-२ में, कपोत गुटर-गूँ में॥

 

मतंग- चिंघाड़ में, केसरी-दहाड़ में, गो-महिषी के रम्भाने में,

दादुर-टर्राने, शाखामृग की गिटगिट में, अश्व हिनहिनाने में।

गर्दभ के रेंकने, श्वान के भौंकने में, विडाल की म्याऊँ- २ में

भालू की हुल-२ में, मेष की मैं-२ में, शृगाल की होऊ- २ में॥

 

भ्रमर- गुंजन में, मक्षिका भिनभिनाने में, मत्सर-गुनगुनाने में

मूषक मंद किट-२, कीट की शिट-२ में, अजा मिमियाने में।

वानर की चटर-पटर, नीली-व्हेल के गहन प्रखर सुर-गीत में

जलव्याघ्र गुरगुराहट, सांड की दहाड़ में, बुलबुल गायन में॥

 

सागर-ऊर्मियाँ उठने में, द्रुम के हिलने में, पल्लव सिहरने में

शैलों के टकरने, पर्वत-पाषाण गिरने से, बयार के बहने में।

हस्त-घर्षण में, द्वार बंद करने, पात्र टकरने, प्यालें खनकने में

कुट्टिम पर चलने से, शुष्क केशों में कंघी, वातयंत्र चलने में॥

 

कक्षा चहल- पहल में, सखी बतियाने, मित्र फुसफुसाहट में

रसिक- काव्य में, मनीषी चिंतन, प्रेमियों के धीमे संवाद में।

उँगलियाँ मटकने में, दामिनी कड़कने, चूड़ियों की खनक में

नुपुर-खनखनाहट में, देवालय- घंटियों, विवाह के मृदंग में॥

 

युद्ध नगाड़े, रथ-गमन शोर, वायुयान डयन, पर-फड़फड़ाने

पिपहरी-तान में, गिटार-तार, बाँसुरी-धुन में, बीन लहरने में।

श्वास-आवागमन में, कलम-कागज घर्षण, डायरी सरकने में

संगीत तो सर्वत्र फैला है, बस अनुभूति कर लूँ स्व-संगीत से॥

 

अन्य प्रयोग विस्तरित हों, होने दो मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
१० अप्रैल, २०१६ समय २१:00 रात्रि 
(मेरी डायरी २४ फरवरी, २०१५ समय १०:३० प्रातः से)

Wednesday, 30 March 2016

न मात्र वाग्वीर

न मात्र वाग्वीर 

मात्र वाग्वीर ही नहीं है लक्ष्य, वचन परिवर्तन कर्म -सुफल में

देव-स्तुति जैसा निरूपण, सामंजस्य मनसा-वचसा-कर्म में॥

 

कातरता त्याग -आरूढ़ हो शुभ कर्म, तन-मन-बुद्धि निर्मल

मातृ मेदिनी सम विशालोर हो, सर्वस्व धारण व सहन निर्द्वन्द्व।

कितनी सहज वृत्ति समाई, समस्त-वैभव प्रत्येक को उपलब्ध

माना जीव पर निर्भर ग्राह्यता, श्रेष्ठ की तरफ से सब पुत्र सम॥

 

नेत्र खुलना कब हो सम्भव, वाग्देवी-कृपा से हृदय है विव्हलित

करुणा-सागर उमड़ पड़े मन में, मानवता में ही पूर्ण-समर्पित।

हृदय-विशालता इतनी तो हो संभव, सर्वस्व ही उसमें अनुभूत

प्रखरता कर्त्तव्य-परायणता में है, सदा-सहयोग मंगल अनुरुप॥

 

क्या है वह देवी का अवलोकन, निज-तुच्छता का मन से त्याग

स्व वक्ष-स्थल प्रदीप्त सुवृत्ति से, प्रशांत हो साक्षात्कार निर्वाण।

क्या बृहत्तर लक्ष्य ही प्राण-कसौटी, प्रयोग सुलभ मन से प्रयास

निज-उच्चता प्रभागी, मुनि-ऋषि-अन्वेषक-नायक सा कयास॥

 

न मात्र है चिंतन-मनन, यंत्र-तंत्र, कर्म दर्शित हो भाव-भंगिमा में

विधाता-ऋण जीव पर सदैव है, सदुपयोग वाँछित हर विधा में।

विस्तृत दूर-दृष्टि पर गांभीर्य वर्तमान में, पूर्वगतों की शिक्षा संग

दूरी मिटे सब काल-स्थान बंधन की, परम-शिव से रहें दिगन्त॥

 

न स्तुति-यशोगान ही लक्ष्य, गुण-धारक क्षमता है व्यक्तित्व सार

कितना निरूपण सक्षम, अनेक नर सफल हैं मन-बुद्धि विस्तार।

किंचित पूर्ण विराम दुष्प्रवृत्तियों पर, जड़-शृंखला बंधन से मुक्ति

स्व-समर्पण पूर्णता-कर्मठता में, निमज्ज हो ही समेकित भुक्ति॥

 

मेरी क्षीणता है प्रथम चरण ही बाधा, मन में ही न सुपोषित वचन

कर्म तो अग्रिम अवस्था ही, कैसे प्रारम्भ हो -दीक्षा है अनुपलब्ध।

कुसंस्कार-बंधन तो पूरे तजित नहीं, अमल न मेरा यह देह-प्राण

इंद्रिय-शासन तो दुर्बल अवस्था में, सामान्य बुद्धि सम ही बाण॥

 

क्या मनन है वाग्वीर शब्द पर ही, बाणभट्ट-लिखित आत्म-कथा में

त्रिपुर-भैरवी अन्य-दर्शनाकांक्षी, पर तत्सम बिन न उपाय पदा में।

तुम महाशक्ति-प्रतीक, कृतार्थ हूँगा दर्शन से - त्रिपुर सुंदरी भुवन

करुण-धारा, अनुराग-आभा, चमक स्नेह-स्निग्धता है मोहिनी रूप॥

 

तुमसे न त्रिपुर-भैरवी लीला रुद्ध, न थमा सकते महाकाल कुंठनृत्त

न बाधा शूलपाणि मुंडमाल रचना में, न कृत आत्मसात देवी सम।

बनो सच्चा, सत्व-सत्य जितना दे सको, समझो प्रजा-कष्ट अपने ही

छोड़ो प्रपंच, कर्म-सुफल तभी है, निःशेष भाव से चरण-स्पर्श ही॥

 

मोहिनी रूप भीत मृग-चपल नेत्र, शरच्चन्द्र-मुख सम है आह्लादित

बिंब सम ही आताभ्र अधरोष्ठ, चन्द्र-गंध से सर्वांग हैं आमोद-मुदिर।

करुणा-अश्रु सिक्त मनोहर-उदार दृष्टि है, मोह लेती सर्व अंतःकरण

अंतः शामक दृष्टि ही, अमृत-स्रावी वाग्धारा, अनन्य आभा है निर्मल॥

 

विधाता सौंदर्य-भंडार विपुल, शेष है कुसुम-सायक रचना भी पश्चात

अपूर्व-विराट, सौंदर्य-समृद्धि श्रेष्ठ की, समर्थ कर्तुम अकिंचन-उद्धार।

कालिदास ने प्रेम देवता को, वैराग्य-नयनाग्नि से नहीं कराया था भस्म

बल्कि पार्वती-तप से सौंदर्य-हाथों प्रतिष्ठित करा, शिव हुए आविर्भूत॥

 

जो भस्मित था वह आहार-निद्रा सम, जड़ शरीर विकार्य-धर्म मात्र ही

दुर्वार था पर न देवता, छुपा स्व-तप में, न सुफल मात्र कामशर से ही।

योगी संभला, अनुचित जान पड़ा अपदेवता का अनाधिकार हस्तक्षेप

यावत गगन से मरुद क्रोधशमन पुकारें, मदन कपोत-कर्बुर परिणत॥

 

किशोरी पार्वती कोमल उर झुंझला गया था, स्व-सौंदर्य के बाँझपन से

तब दूर करने की कोशिश इस रूप-वंध्यता को, कठिन तपस्या ही से।

प्रथम दर्शन-प्रेम बाह्य-रूपाकर्ष, पर क्षणभर में वज्रपात -सर्व विफल

कालि प्रसन्न हैं कुमार-संभव में त्याग-तप विधि से, मोह-ममता त्यक्त॥

 

नहीं नर व उसका विश्व सर्वस्व, और भी हैं दृश्यमान उस सौंदर्य-पार

भासमान विश्व-अंतराल में अन्य शाश्वत सत्ता, संकल्प मंगल-लाभ का॥



पवन कुमार,
३० मार्च, २०१६ समय २२:१७ रात्रि 
( मेरी जोधपुर डायरी दि० २८ जनवरी, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)

Friday, 25 March 2016

एक गीत

एक गीत 

गीत बना, सुर में गाऊँ, संग ही साज भी बजाऊँ

सुरीली मन-तान बना, तेरा रहमत-गीत सुनाऊँ॥

 

तू तो सबको पूर्ण ही देखे, गहराई में भी है झाँके

तब मेरी भी पहचान तो दे, आकर दर्पण दिखा।

कैसे हो वह मेरे पास भी, इसी बात की है चिंता

सदा संग में रहना चाहूँ, अंतः को बाहर निकालूँ॥

 

बंद पड़ा है मेरा डब्बा, व चाबी इसकी तेरे निकट

खोल दे तो दर्शन होवें, तब जानूँ कैसा है उज्ज्वल।

नहीं आवश्यक है, कि मैं अच्छा-भला ही होऊँगा

पर तेरे संग निज-निवास की, कुछ छाप पाऊँगा॥

 

निज अंतःमन के रत्नाकर में, डुबकी कैसे लगाऊँ

डरकर बैठा हूँ बाहर, न साहस जब कर ही पाऊँ।

होगी आत्मा मेरी पुलकित जब, तब दर्शन हों प्रभु

बैठा बाहर अन्त्यज की भाँति, कैसे मैं प्रवेश पाऊँ?

 

कैसे संभव होगा तेरा सुदर्शन, इसी सोच में हूँ बैठा

मैं तो हूँ नितांत ही रीता, आकर इसको भर के जा।

अनुकंपा करो फिर तो अपनी, इसे भी बना दो श्रेष्ठ

तैरुँ मैं भी जग-वैतरणी, तेरे में ही जाऊँ पूर्ण मिल॥

 

न ज्ञान कोई है -डोलूँ यूँ ही, नहीं समय का ही मान

शरण में तेरी आया प्रभु, करना इसका भी ध्यान॥



पवन कुमार,
25 मार्च, 2016 समय 18:47 सांय 
( मेरी डायरी 5 नवंबर, 2012 समय 11:10 से )

Saturday, 12 March 2016

सोच - अग्रसर

सोच - अग्रसर 
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प्रातः चार बजे का समय है, आज जल्दी जाग गया हूँ। थोड़ी देर उनींदा रहने के पश्चात उठकर कुछ करने का निश्चय किया है क्योंकि मात्र लेटे रहने से कुछ विशेष प्रगति नहीं होने वाली है। जिंदगी नाम है ठोसता का, संजीदगी का, नियम का, वस्तुओं को अपने पूर्ण-प्रभाव में लाने का, और कार्यान्वयन में पारंगतता लाने का। नाम एवं ख्याति अगर मानव अपने चलते कमाता है तो किञ्चित यह उसके समय एवं ऊर्जा के उचित कार्यान्वयन को साधुवाद होगा। केवल बोलने मात्र को इति-श्री समझ लेना और यह कि सब कुछ उचित चल रहा है, स्वयं को बाह्य रूप से प्रसन्न कर लेना, छलावा देना मात्र है, जबकि सत्यता कुछ और ही होती है। जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। अगर सोचें कि हमें चाँद-सितारों को छूना है तो विश्व की समस्त शक्तियाँ आगे बढ़ाने में मदद करेंगी। निश्चय ही आरम्भ-कर्ता का भाग्य (beginner's luck) सबके संग है अर्थात जो कोशिश करता है उसकी प्रकृति, विश्व, भगवान सब मदद करते हैं। हमारे समस्त बंद द्वार खुलने लगते हैं जब संजीदा होकर आगे बढ़ने में स्वयं को लगाऐंगे। निश्चित ही कोई भी वस्तु इतनी आसानी से सुलभ नहीं हो जाती - उसके हेतु प्रयत्न तो करना ही पड़ता है। अपने को वचन दो कि हिम्मत कर जिंदगी को अग्रसर करेंगे और वास्तव में इसे मूर्तरूप करोगे। हमारे कार्य व जीवन का मूल्यांकन अभी भी कुछ लोग कर रहे होंगे और आगे भी करते रहेंगे। हम उस तुला में कैसे खरे उतरेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताऐगा लेकिन अभी अपेक्षित है कि बिना बाधित हुए अपनी दिशा चलते जाइऐ और कभी भी स्वयं को दीन-हीन श्रेणी में पतित न होने दो। शुभ वचन-कर्मों का संग करिए, फिर एक नया सवेरा समीप होगा जिसमें सबको सम्मान के साथ जीने का अवसर प्राप्त होगा। अपना ही नहीं, अपने आसपास कार्य करने वालों का भी कल्याण करें। कोशिश करें कि अदने से अदने कर्मी को भी उचित पारिश्रमिक मिलें, उसको भी आपके संग कार्य करना अच्छा लगे और वह उचित निर्वाह कर पाऐ। अपने साथ ही अच्छाई की अपेक्षा न करें अपितु स्वयं आगे बढ़कर अन्यों संग सद्-व्यवहार एवं सम्मान से बात करें। कोशिश मनुष्य को बहुत आगे ले जाती है अतः सुनिश्चित करें कि कभी भी प्रयास कम न हो। अपनी वाणी पर संयम रखें और उसे सुमधुर बनाऐं क्योंकि यही हमें मित्र या शत्रु में परिवर्तित करती है। लेकिन आपके प्रेम से बोलने का अर्थ अन्य ऐसे ही हलके में न लें। आपकी गंभीरता, शीघ्र एवं उचित कार्य कराने की मंशा को समझने में लापरवाही न लें अतः सचेत रहें। अर्थ है कि सबसे अच्छा व्यवहार करे और उनसे भी ऐसी ही आशा करें। अपने को समय-2 पर जाँचे-परखे और सच्चाई पर कहाँ खड़े हो, इसका मूल्यांकन करें। आपकी गुणवत्ता सदा वर्धित हो, ऐसी आशा है। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार, 
12 मार्च, 2016 समय 14:37 अपराह्न 
(मेरी डायरी 12 मई, 2006 समय 4:05 ब्रह्म-मुहूर्त)        

Sunday, 6 March 2016

मानव-भूगोल

मानव-भूगोल 


क्या है मानव का भूगोल, विभिन्न किस्में दिखती एक साथ

कैसे आवागमन भूमण्डल पर, आज विश्व बना एक गाँव?

 

भिन्न क्षेत्रों में देखें तो बहुत विषमताऐं प्राणी-जन में मिलती

अपनी तरह विकसित, शारीरिक रचना विशेष प्रकार लेती।

छोटी भिन्नताऐं एकदम दृष्टिगोचर, अपने से किञ्चित दूरी ही

लोग शक्ल देख बता देते कहाँ से, सबकी निज शैली होती॥

 

पूर्व काल व आज भी, अधिकांश विशेष रहते हैं एक स्थल

अनेक बार परिवेश सीमित है, बाह्यों से दूरी रहती निश्चित।

लोगों ने समूह बना लिए, अपनों से अधिक अंतरंग-सम्पर्क

माना सबकी शरीर-मन प्रक्रिया सम, तथापि दूरी है महद॥

 

प्राणियों से क्षेत्र निर्माण है, सरलता से बाह्य को न अनुमति

ये अपने या पराए, अन्यों से तो बस कटुता-स्पर्धा ही रहती।

निज-संस्कृति ही समृद्धतम, दूजे समूह तो असभ्य-कुत्सित

पर सर्वश्रेष्ठ-सुवर्णपन की भावना से, भेद-वृद्धि ही अधिक॥

 

यहाँ अपने क्षेत्र-मार्ग, देश-लोग हैं, उन्हीं में जीना व मरण

उन्हीं से निरंतर संपर्क, एक साँझी सोच हुई है विकसित।

खानपान-वेशभूषा, घर-आँगन, औजार व खलिहान-बाड़े

अपने जंगल-मवेशी, खेत, प्रकृति-गाँव, बस इसी में घुसे॥

 

माना आपसी-कलह भी, लोकाचार में सब अच्छाई- बुराई

दंड-शास्त्र, व्याभिचार- स्वच्छता, क्रोध-प्रेम, चोरी-सच्चाई।

माना एक जगह रहते भी, मानवों में विशेष प्रकृति पनपती

तदानुसार व्यवहार करने लगते, चाहे वह असामाजिक भी॥

 

जग में सब जन हैं, कुछ क्रूर-लुब्ध, उदार, विनम्र-विद्याग्राही

सन्तुष्ट, बहुदा मुखरित, कुछ मिथ्या-भाषी व सदा आडंबरी।

मनस्वी, परंतप, क्रोधी, कार्य-दक्ष, स्वत्व रक्षण की जिम्मेवारी

प्रमादी-व्यसनी, पेटू तो अल्पहारी भी, व्रती-तपी, सदाचारी॥

 

फिर भिन्न स्वरूप लिए हुए भी हैं, वे एक कुटुंबी से ही होते

एक-दूजे को सहन करते, यदा-कदा फटकार भी लगाते।

सब जानते हुए भी नज़र-अंदाज, समूह को एकजुट रखते

माना अपना ही सब कुछ यहीं, उसी हेतु वे समर्पित रहते॥

 

नदी के पार, संकरी घाटी, पर्वत बसेरा, जंगल में घर-गाँव

समुद्र में टापू, दूरी अधिक, यातायात सीमित, डेरा- मैदान।

बहुत प्राकृतिक कारक वास्तव में, अन्यों से है अलग बर्ताव

प्राणी-समूहों ने दुनिया बना ली, वहीं सब चल जाता काम॥

 

फिर कुछ तो कारण स्वतः, जनों की भी सीमित आकांक्षाऐं

अपने नियम बनाऐ हैं, किससे-कैसा व्यवहार और अपेक्षाऐं।

विवाहों के एक जैसे नियम-विधान हैं, कहाँ कन्या देनी-लेनी

किनसे अंतरंगता सहमति बनानी है, किनसे दूरी ही रखनी॥

 

पर मानव-चेष्टा है बुद्धि प्रयोग की, जगसंख्या हो रही वर्धित

घर-गाँव-खेत क्षेत्र अल्प पड़ता है, सभी को करने समाहित।

बहुदा दुर्भिक्ष-बीमारी, बाढ़-भूकम्प सी आपदाओं से हैं कहर

 करती मनुज को विक्षिप्त, कुछ वैकल्पित को करता है बाध्य॥

 

कठिन जलवायु, जीवन-निर्वाह, शत्रु-प्रकोप, व साधन-अल्प

बनैले जीवों से असुरक्षा, भोजन-कमी, जीविका-अनुपलब्ध।

जीव-समूह विशेषकर नर बाध्य, कुछ बदलाव सकारात्मक

 इच्छा तो न पर जीवन अनुपम, बचाने का करना होगा यत्न॥

 

यूँ मानव विव्हलित होते हैं, और अपना देश-घरबार छोड़ते

तब अन्य-सम्पर्क में आते, नई जलवायु से परिचित हैं होते।

तन-मन पर तो असर है ही, नए कारकों का अधिक प्रभाव

अनुकूलन स्व-समय है, प्राचीन छोड़, नव-संसर्ग अनिवार्य॥

 

विभिन्न समूहों में नर-नारी संपर्क से, गुणों का आदान-प्रदान

निश्चित सिलसिला यूँ चलता है रहता, नस्लों में होता बदलाव।

अन्यान्य गुण परस्पर मिश्रित हैं, यूँ आबादियाँ एक-सार होती

तथापि समूहों में पूर्व-गुण आधिक्य, नाक-नक्श में झलकती॥

 

काफी पुरा-समय से आबादियाँ, स्थान बदल हुई हैं विस्तरित

स्थलों में विभिन्न जन-समूह हैं, भिन्न होते भी दिखते एकत्रित।

फिर नर-महत्त्वाकांक्षा से भी देश-विदेश में भ्रमण-अभियान

कुछ वहीं ठहर-बस गए, नव-गंतव्यों संग मेलजोल परवान॥

 

जहाँ अच्छे संसाधन-उचित जलवायु, वहाँ तो बहु-विस्थापन

जनसंख्या अधिक विकसित हुई, हुनरों को बाँटती निर्बाधित।

परस्पर-विधाऐं विस्तृत होने -बाँटने से, पनपे हैं संस्कृति उच्च

नर मन-क्षेत्र विकसित होता, लघु से निकल महद-सम्मिलित॥

 

कितने समूह यूँ हिलमिल गए हैं, नव-संस्कृति का अति-प्रभाव

पुराना लगभग विस्मृत सा ही, नए देव-गिरजे, स्थापित संवाद।

समस्त ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड, व मेक्सिको-उत्तरी अमेरिका में

विभिन्न यूरोपियन व अन्य समूह बसें, अब एक अलग राष्ट्र हैं॥

 

पुराने मूल देशों को याद भी न करते, मात्र नए ही जीवन-वृत्त

मूल नर-समूह इंडियंस या अन्य, न देते कहीं दिखाई हैं अब

नव-अधिकृत पूरा भूभाग, प्राकृतिक संसाधनों के स्वामी हम।

अफ्रीकी काले जन- समूह बलात लाए, हेतु खेत-घर के काम

योषिताओं से गोरों के संबंध, व शनै रूप-स्वरूप में बदलाव॥

 

यद्यपि शोषितों में सम रक्त प्रवाह, स्व-श्रेष्ठता भाव शोषक में

विरोधाभास है, मिथ्या-अभिमान, अन्य निम्न व हम ही श्रेष्ठ हैं।

पुरा-काल से भिन्न नस्ल-संपर्क, कमोबेश एक से अनुवांशिक

 हाँ कुछ प्रभागों में जहाँ संपर्क अल्प, अभी भी स्व-गुण प्रधान॥

 

देखो सकल दक्षिणी अमेरिका राष्ट्रों में पुर्तगाली-स्पैनिश भरे

मूल-आबादियों को युद्ध-विजित किया, स्वयं स्वामी बन बैठें।

उनसे ही संपर्क कर हुई मिश्रित जातियाँ उत्पन्न, मूल से विलग

अनादिकाल से स्वरूप बदलते रहें, रहेंगे, मानव के बस में न॥

 

यह मानव-स्थान बदलाव बहुत पूर्व से, महान दूरियाँ तय की

भिन्न जलवायु बदलाव धरा पर, महा हिमकाल या महा-वृष्टि।

बहु- आबादियाँ नष्ट हो गई, अन्यों ने स्थान बदल जान बचाई

नई जगह जा शनै आत्मसात हुए, जैसे मूल यहीं के निवासी॥

 

अपने भारत को ही अनेक जातियों ने, आकर बनाया स्व-गृह

अनेक गुण परस्पर आदान-प्रदान हैं, रोटी-बेटी हुआ बाँटन।

फिर भी आर्य-अनार्य का भेद, बहुत समय तक न पट पाया

लोग पूर्वाग्रहों में या स्व को पाते उपेक्षित, विकास में बाधा॥

 

स्वीकारो स्व को प्रकृति-उपहार, अन्य प्राणी-समूहों ही सम

यथा वन में बकुल-आम-नीम-नारिकेल-खजूर व अन्य वृक्ष।

सभी निज गुणों से विकसित, आदर करिए कुछ है विशेषता

भिन्नता भी न त्याज्य, पता करो क्या उचित लिया जा सकता॥

 

न चाहिए कोई मानव-विरोधाभास, चरम-प्रगति हेतु हो प्रयत्न

यह जन्म बड़े भाग्य से मिला है, थोड़ी चेष्टा कर बना लें मधुर।

अनुरोध है और करो मृदु मनन, जानने की कोशिश तह तक

भिन्न संस्कृति-कला आयाम झझकोरो, परीक्षा सा वातावरण॥



पवन कुमार,
6 मार्च, 2016, समय 10:03 प्रातः 
(मेरी डायरी 22 मार्च, २०१५ समय 10:20 प्रातः से )

Sunday, 28 February 2016

उद्योग बृहत्तर

उद्योग बृहत्तर


किस भाँति लिखूँ जब तन-मन, दोनों ही नहीं स्वस्थ

तन पीड़ित, मन बोझिल, सुस्त एवं है अल्प-चिंतक॥

 

तथापि इच्छा है, हिम्मत कर स्व को करूँ सुस्थापित

तब सर्व दुखन-पीड़ा भूल, कर कुछ स्वस्थ-चिंतन।

माना निज की अल्पता से, सहानुभूति ही है किंचित

 पर फिर भी यूँ ही न छोड़ सकता एकाकी-अन्त्यज॥

 

माना शक्ति क्षीण ही, लेकिन कुछ है कर्त्तव्य-चमक

कहती चले चलो तुम, अग्र-मार्ग मैं दिखाऊँगी स्वयं।

जरा सी पीड़ा से वीर-हिम्मती, माना न करते हैं हार

फिर तूलिका है ही, जो देती सदा निर्भयता-साहस॥

 

मैं यूँ विराम सी अवस्था में था, पिछले कई दिनों तक

हिम्मत कर के, कार्यालय-कर्म तो शनै किया आरंभ।

किंतु प्रातः भ्रमण, व्यायाम व लेखन तो हैं पूर्ण बाधित

 चाह कर भी लेखन नहीं कर पा रहा हूँ पुनः शुभारंभ॥

 

मस्तिष्क का ऊपरी भाग, दर्द को कराता है अनुभूत

काया-अंग अपनी पीड़ा के प्रतिक्षण हैं चुभोते नश्तर।

रह-२ कर मन-बुद्धि, अजीब-अहसास से रूबरु होते

 क्षीण अनुभव कराते, किंचित विश्राम से न ठीक होते॥

 

फिर भी साहस कर, कुछ पठनरत हूँ अबाधित सतत

राहुल सांकृत्यायन का 'जय-यौधेय', 'स्वामी घुमक्कड़'।

दोनों लेखन पूर्ण, कुछ अल्पज्ञों को राह दिखाने समुचित

 राहुल स्वस्थ-चिंतक हैं, वृहद-ज्ञानकोषी व हितैषी दीर्घ॥

 

स्व है सर्व-मनुजता को समर्पित, बाहर तम से निकाले

अंध को नेत्र दे, विश्व के चलन-संचालन के पेंच बताते।

कैसे कुछ समर्थों ने मानवता बनाई है दासी स्वार्थवश

 बहु-नर समूहों को अभाव-जीवन गमन किया विवश॥

 

महद साहस की बात है कहना, जो मंथन-दर्शित सत्य

अतिश्योक्ति तो बहुत करते हैं, स्व-स्तुति में ही व्यस्त।

 ज्ञानार्जन भी उचित, उससे अधिक सर्व-हित में प्रयोग

सर्वस्व यहाँ सर्वजन का है, अधिकारी समस्त साधन॥

 

कुछ व्यवस्था बनाई समर्थों ने, थोप दिया मनुजता पर

कुछ विरोध होते रहें, पर विषमता फिर भी निर्बाधित।

कुछ महानर अवतरित होते, बोझ न्यून का यत्न करते

फिर भी स्वार्थी मन न मरता, बस शरीर चोले बदलते॥

 

नर-दुर्बलता स्व शत्रु-प्रबल, अन्य को भी करती पीड़ित

भाड़ में जाए अन्य सब, यहाँ तो सर्वोपरि हैं अपने हित।

अति-आनंद स्व की सादगी में, जब निज के होकर जीते

अन्यों को आत्म सा समझे, सर्व-कल्याणार्थ प्रेरित होते॥

 

मानव प्रगति है मन के प्रयत्नों से, और चेष्टा सच्ची साथी

यह सफलता लाती निकट, मानव का कद भी बढ़ाती।

संगियों में सम्मान मिलता है, अनुजों को प्रेरणा उपलब्ध

निज-जीवन तो सुफल ही है, अतः लाभ ही लाभ शुभ॥

 

मेरी इस मन-गुम्फा से बाहर, निकास का मार्ग दिखा दे

इस पीड़ित मन-देह का कष्ट-क्षोभ हटा, स्वस्थ बना दे।

एक विचक्षण सा मनोचिंतन, कुछ तूलिका तो चलवा दे

कुछ शुभाक्षरों का कर आह्वान, सार्थक-मधुर घड़वा दे॥

 

फिर समर्थ सतत सुलेखन में, जब होते अकाल-असहाय

तब कौन प्रेरणा संग रहती, प्राण-शक्ति फिर देती साथ।

बनते सबल सर्वदा मन से, यूँ ही कष्ट में नहीं लड़खड़ाते

निर्विघ्न चलते जाते बुद्धिमता से, लक्ष्य में गतिमान रहते॥

 

अतः यथाशीघ्र स्व-स्वस्थ करो, सोचो कुछ उद्योग बृहत्तर

जीवन है चलने का ही नाम, बीते क्षणों का चित्रांकन कर।

विराम नहीं यहाँ, चलते रहोगे तो कुछ सुख अवश्यंभावी

स्व तो निश्चित ही सुधरेगा, संभावना अन्यों की प्रगति भी॥


पवन कुमार,

28 फरवरी, 2016 समय 21:25 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 19 जुलाई, 2014 समय 10:50 प्रातः से)