Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday, 7 December 2019

महद तंतु

 महद तंतु
-------------


अवकाश दिन संध्या काल, कुछ मनन प्रयत्न से सुविचार आए 
आविर्भूत हो मन-देह, सर्वत्र विस्तृत दृष्टिकोण से सुमंगल होए। 

बहु श्रेष्ठ-मनसा नर जग-आगमित, समय निकाल निर्मल चिंतन 
 उन कृत्यों समक्ष मैं वामन, अत्यंत क्षुद्र-सतही सा ही निरूपण। 
कोई तुलना विचार न संभव, मम काल तो स्व-जूझन में ही रत 
शायद प्रथम श्रेणी प्रारूप, चिन्हित-विधा अपरिचय, अतः कष्ट। 

प्रकृति देख नव-विचार उदित, शब्द-बद्ध कर विश्व-सम्मुख कृत
स्व-विस्मृति उपरांत ही निर्मल-संपर्क, शब्द-रचना हुई सर्वहित। 
मनुज के निर्मल रूप से ही ऊर्ध्व-स्तर, मृदु बनो उठे स्वर-लहरी 
 कालजयी ग्रंथ समाधि-रूप ही चिन्त्य, यति वृहद-मनन सक्षम ही। 

कुछ तो एकांत-चिंतन है महानुभावों का, मन उच्च-द्रष्टा यूँ तो न 
जग-अनुभव उर-रोपित, सर्वमान्य उद्धरणों द्वारा निज-उद्घोष।
अति-विपुल मनन, सर्व-ब्रह्मांड हो निज-कर, कई वर्ण-सम्मिलित 
विनीत-शैली, नर-कष्टों से करुणा, सर्वोदय हो सके यही योजित। 

कैसे विपुल-कथाऐं उनके मन-उदित हुई, वे भी  थे सामान्य नर
 किञ्चित आदि तो तत्र भी अल्प से ही, सततता से पार दुर्गम पथ।
दीर्घ-चिंतन एक विशेष में, सर्व-उद्वेग शमित व उच्च-स्तर लब्ध
विषय-प्रकृति दृढ़-पाशित, सब चरित्र स्व के  प्रारूप समाहित।

उस उच्च-अवस्था गमन प्रयास, पर कब लब्ध यह तो प्रकृति-कर
मन निर्मल, सततता हो ध्येय, कुछ नव-प्रारंभ हो सके यही जप।
पूर्व में तो धृति ही न थी उदित, संभव किसी महद रचनार्थ प्रयास
दैव सम प्रारब्ध का भी निज काल, आशा यह हो शीघ्रातिशीघ्र।

प्रयास-मति इन क्षणों की आवश्यकता, अध्याय से हो मधुर संपर्क
निज-हस्त आ सकें कोई महद तंतु, जिससे सफल हों अग्र चरण।
अनेक कथाऐं सदा विस्तृत दृश्यों में, बस एक पकड़ों दो परिभाषा
कोई न कर में कलम पकड़ाऐ, स्व-यत्न से ही सुलेखन-आकांक्षा।

उद्योग-प्रणेता, एकाग्रचित्त बन एक आदि करने का कर संकल्प
फूटेंगी नव-कोंपलें तुम रुक्ष तरु पर ही, अविचलित भाव तो भर।
जो असहज अभी दर्शित, वही देगा पथ जिसपर होगे तुम गर्वित 
एकाग्र-चित्त से दृष्टि-विस्तृत करो, अनेक विषय होओगे विस्मित।


पवन कुमार,
७ दिसंबर, २०१९ समय १०:३२ सायं
(मेरी डायरी ०१ दिसंबर, २०१९ सायं समय ९:१९ अपराह्न)

Thursday, 21 November 2019

संभव उदय

संभव उदय
--------------


कितना ऊर्ध्व शिशु उदय संभव, इस मनुज के अल्प वय-काल 
चेष्टा से ही संपूर्ण कार्य परिणत, अनुरूप परिस्थिति मात्र सहाय। 

देश-काल में एक समय अनेक जन्म, आवागमन का ताँता सतत 
सबका तो निज समय व्यतीत, पर क्या उच्च स्तर से भी संपर्क ?  
मानसिक-भौतिक की उच्च श्रेणी से निष्णात घड़ित विद्वान-समृद्ध
उन्नत स्तर तो कुछ ही जन्म से, उनमें से अत्यल्प ही पाते सँभल। 

संपन्न-राजकुल जन्मा बालक, पूर्वज-योग्यता प्राप्त हो न आवश्यक 
प्रायः अपघटित कभी वृद्धि भी, निज प्रयास-परिस्थिति भाग अहम।  
कालिदास के रघुवंश में दिलीप-रघु, दशरथ-राम की गुरुता दर्शित
पश्चाद वाले शनै सुख-ऐश्वर्य में मस्त, व महान वंश हो गया विनिष्ट। 

उच्च महत्त्वाकांक्षी कुशल-चेष्टालू ही चाहिए, महत्त्वपूर्ण है प्रतिपल 
मुफ्त में न यश-श्लाघा प्राप्त, यदि भी तो अप्राकृतिक बस अनर्थ। 
योग्य तो बनो एक पद-स्तर के, हो मन में कुछ स्व-आश्वासन भाव 
हाँ अनेक कृत्रिम आत्म-मुग्ध, लघु मूढ़-कूप में ही लगाते छलाँग। 

किससे है निज  तुलना, एक स्तर देखोगे तो ही पाटन-दूरी ज्ञात 
कितनी ऊर्जा-वृद्धि  वाँछित, चरम-स्तर चूमने का लक्ष्य महान। 
अधुना काल में अनेक विज्ञान-अविष्कार, संचार-क्षेत्र अति-प्रगति 
वीडियो-दूरदर्शन, सोशल-मीडिया, अचरज-करतब सतत कई। 

कलाकार अति परिश्रम करते, उच्च अवस्था तो स्वतः ही न प्राप्त
अडिग यावत न वाँछित फलन, पूर्ण झोंके बिना तो न कोई बात। 
खेल-प्रतिभाऐं कठोर अभ्यास-परिश्रमी, अनुशासित लाभार्थ कुछ 
व्यर्थ तज ध्येय में रूचि, ऊर्जा-संघनन से सहसा विक्रम-पौरुष।  

क्यों मद्धम अवस्था में ही मुदित, जब खुले अनेक प्रगति-आयाम 
त्याग अति निद्रा-तंद्रा, घातक निम्न-प्रवृत्ति, तब  अति-दूर छलाँग। 
किसी दिशा बढ़ लो स्वरूचि अनुरूप, भाँति-२ के कुसुम-विस्मय 
अपने को कुछ प्राप्त ही, व्यर्थ सुस्ती छूटे व मिलें विकास आयाम।

अवसर मम  चेष्टा का ही स्वरूप, चलेंगे तो चक्षु दूर तक दर्शन
मन में  नवीन विचार, कई संभावनाओं का नृत्य-गायन प्रस्तुत। 
यदि कुछ जँच जाता, अग्र बढ़कर होता उस हेतु प्रयास आरंभ 
प्रगाढ़ इच्छा - बंद कपाट भी खुलें, लहरों से भीत तीर ही तिष्ठ। 

अपरिचित से तो सत्य-डर, शनै-२ आयाम सीख लो तो सौहार्द 
यह यथोचित प्रशिक्षिण, परिचय से पूर्ववत विस्मय लगे सहज। 
भय तो कुछ पलों का ही, उस पार ही तो खुलता विकास पथ 
प्रथम पग तो किंचित कष्टकारी, अभ्यस्तता से सुहानी पवन। 

अनेक व्यवधान, मन-अरुचि, आवश्यक कृत्य, और अन्य कभी 
शीघ्र निबट, मन सहज, कुछ विश्राम से गुणवत्ता-क्षमता वृद्धि। 
लक्ष्यार्थ जुट जाओ, थोड़ा-२ बढ़ने से ही है महद दूरी जाती पट
पूर्ण-स्पंदिन न अकस्मात, कई शनै-प्रक्रियाओं का ही है फल। 

सर्वपल न एक सम, मन जम जाता कभी चाहकर भी न प्रबल 
मन-देह नैसर्गिक प्रक्रिया, दैनंदिन क्षमताओं में वृद्धि-अपघट। 
फिर भी प्राण  चलित, अगर मन में प्रगाढ़ इच्छा है तो गतिमान 
जब दिशा लक्ष्य-इंगित तो क्यूँ डरना, पूरा न तो कुछ ही प्राप्त।  

चंद्र-मंगल आदि ग्रह चुंबन हेतु तो जरूरी फाँदना ही होगा गुरुत्व 
'निकास गति' से अधिक जरूरी, पुनः गुरुत्वाकर्षण से पतन वरन। 
कई विद्या-यंत्र-प्रक्रियाऐं सीखनी पड़ेगी, खगोलज्ञ करते अति-श्रम 
नासा, इसरो, रशियन स्पेस एजेंसी आदि, प्रयोगों से हैं होते सफल।

जन्म पर अदने से, पालन-पोषण-शिक्षण-स्वाध्याय से कुछ योग्य 
 परिष्करण एक सतत प्रक्रिया, जीवन संवारना है अपना दायित्व। 
लोहा तप्त रखना ही होगा, अवसर मिलते चोट, उपकरण फिर 
यंत्र सक्षम, पैदल से साईकिल, कार-वायुयान गतिमान अधिक। 

निश्चित ही भौतिक-मानसिक क्षमता-वर्धन से उच्च स्तर तक पहुँच 
जग में विशाल संख्या-प्रचलन, अल्प का ही उनसे आत्मसात पर। 
तन-कोशिका, मस्तिष्क-सूत्रयुग्म, केश-श्वास, प्रायः अगणित नक्षत्र 
पर सामान्य मन न सोचता, वह तो अल्प परिवेश में ही मस्त-व्यस्त।

पर महद-कर्मी दैनंदिन कार्यशैली में ही उद्देश्य हेतु पूर्ण समर्पित 
प्रेरणाओं का पीछे से सहारा, सुप्रबंधन प्रक्रियाओं का संग नित। 
कुछ शीघ्र ही अति-विकसित, जो असंख्य आजीवन भी असमर्थ 
कुछ तंत्र-विज्ञान जरूर इसके पीछे, किसी मंत्र से अग्र संवर्धित। 

अनेक चिंतक-प्रेरक-सज्जनों का प्रोत्साहन, पर सब श्रोता तो असम 
प्रवृत्ति 'खाया व मलरूप त्यागा', सुपाचन से न उपयोग हर अवयव। 
प्रचलित विचार-धाराओं व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ, नव-नियम स्थापन 
विश्व उनके पदचिन्ह चलता, उनका उद्देश्य मुख्यतया स्वहेतु ही पर। 

न्यूटन-आर्किमिडिज-एडिसन-आइंस्टीन-गैलीलियो-डार्विन से अनेक 
सुकरात-बुद्ध-कृष्ण-कबीर-हजरत-जीसस-लेनिन से हैं युग प्रवर्त्तक। 
व्यास-कालि, शेक्सपीयर- टेनीसन, टॉलस्टॉय-डांटे से  कवि-लेखक 
सिकंदर-चंगेज, अशोक-अकबर, सोलोमन-नेपोलियन से योद्धा-नृप।

पेले-ध्यानचंद, तेंदुलकर-फ्लेप्स, मुहम्मद अली-बोल्ट सी प्रतिभा-खेल 
विदुर-चाणक्य, मैकियावली, 'आर्ट ऑफ़ वॉर' के सुन तजू कूटनीतिज्ञ। 
ब्रूसली से स्फूर्त, बीरबल-चार्ली चैपलिन से विदूषक, निपुण जैफरसन  
प्लेटो-सिसिरो, अंबेडकर से विधिज्ञ, अर्थशास्त्री मार्क्स-आडम स्मिथ। 

अनेको-अनेक नाम उज्ज्वलित हैं विश्व में, जितने चाहो उतने लो खोज 
महामानव इस धरा पर सब ओर छितरित, आदर्शों की कोई कमी न। 
बिल गेट्स-वारेन बुफे-अंबानी, इलोन-मस्क, जुकेरबर्ग व स्टीव जॉब्स  
कैसे अल्प से इतने अधिक अग्र-वर्धित, कल्पना से ही खड़े जाते रोम। 

आज चिंतन-विषय स्व-वृद्धि, सब उन भाँति न तो स्व-रूचि अनुसार ही 
जीवन न मिलगा दुबारा, जो पूर्ण-उपयोग, कुछ ऊँचाई चूमो तुम भी। 

पवन कुमार,
२१ नवंबर, २०१९ समय १८:३५ सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ नवंबर, २०१६ समय १२:३० अपराह्न से)   

Monday, 4 November 2019

ऊर्ध्व-जिजीविषा

ऊर्ध्व-जिजीविषा 
--------------------


अजीब सी हैं ये सुबहें भी, ख़ामोशी से बैठने ही देती न 
कुछ पढ़ो, प्रेरक लोगों में बाँटो, बैठो जैसा हो दो लिख। 

यह निज संग सिलसिला पाने-बाँटने का, कुछ करने का 
अन्य साधु उपयोग थे संभव, पर अभी वैसा जैसा भी बने।
बकौल रोबिन शर्मा प्रातः ५ बजे वाले क्लब में होवों शामिल
अभी तो खास न हो सका, तथापि जैसा बनता करता निर्वाह
कभी अवसर मिला तो शायद वह भी या और उत्तम होगा। 

न एकलक्षित, कुछ पूर्व सोचा सीधा लेखन पर आ जाओ 
मन बोला कुछ प्रेरक पढ़ो, व्हाट्सएप्प आत्मीयों में बाँटो। 
अवश्य कि पढ़कर ही अग्रेसित, बिन समझे तो है अनुचित
ट्विट्टर जोड़ता कुछ अनूठे व्यक्तियों से, छापते उत्तम नित्य। 

अनेक भली चीजें बिखरी सर्वत्र, वाँछित उठाने का इच्छा-बल 
माना लब्ध सीमित समय-ऊर्जा, तो भी सोचकर कुछ चयन। 
अनेक सहयोगों से ही सार्थक परिवर्तन, अन्यों हेतु भी उद्देश्य 
जीवन निजोपरि होना चाहिए, जब नहीं रहूँगा मेरे होंगे शब्द। 

कैसा दिग्गजों का जीवंतता प्रयास, बाद भी देह-प्राण गमन
क्या सहज पथ या व्यक्तित्व शैली, बलात तो बड़ा न संभव। 
न कोई होड़ आगे निकलने की, जिसकी जो समझ रहा कर
तथापि शक्ति अनुरूप क्रियान्वित, समयाधीन तो परिणाम।

विटप से अंकुर -पादप, फिर सुरक्षित-स्वस्थ  पूर्ण वृक्ष रूप
कई अवस्था, नित-संघर्ष, अनेक आत्मसात, निर्वाह कठिन। 
प्राकृतिक साधन, भला परिवेश है तो गति संभावना अधिक 
अन्यथा अनेक स्व ही हट रहें या हटाए जाते, निर्बल बेबस। 

कली-पुष्पन, सूर्योदय संग विकसन, साँझ ढ़ले पँखुड़ी निमील 
प्रकृति सुगंधि, परिवेश सुरुचिर-प्रयास, स्व ओर से न कसर।
नैसर्गिक या अदम्य प्राण-शक्ति, पूर्ण झोंकूँ हेतु जग-निखरण
यह हर अंतः-गुह्य, वे भली जाने अभी  स्वयं की करता बात। 

अवश्य सब निज भाँति कुछ कहते, ख़ामोशी-मस्ती मशगूल 
क्या उससे अच्छा था संभव या उनके व्यक्तित्व का प्रयत्न।  
कमतर प्रयास भी न, उपलब्ध ऊर्जा से  कर सकते अधिक 
जिजीविषा है ऊर्ध्व की, अनुपम-मिलान का प्रयास किञ्चित। 

कोई यत्र मस्त, कोई तत्र उसमें, निज प्रयास पूर्ण निखरण का 
प्रयास भी एक बड़ा शब्द, मन से जुड़ स्व से जूझना सिखाता।
जैसी स्थिति भी उत्तम करना, ऊर्जा सहेज कर जाना अनुपम
दिल से जुड़न निखरण-प्रक्रियाओं से, खुलें विकास के पथ। 

प्रथम अंतः-प्रेरणा ही, तभी प्रातः जल्द जग अन्न -जल प्रबंधन 
स्वजनों का ध्यान, तन को गतिमान रखने को उचित व्यायाम। 
पड़ोसियों-समाज से हो सहयोग, मेरा सा व्यवहार वे भी करेंगे
फिर बाँटूँगा तभी मिलेगा, स्व सहेजा  सबके काम का बनते। 

अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संग जुड़े, अपने में धुरंधर मान लो तुम 
यदि न करूँ तो भी भले-चंगे, किसके जाने से रुका यह जग। 
पर जीवन कैसे फलीभूत, अकर्मण्य रहकर यूँ बीत गया यदि  
औचित्य प्रमाण प्रथम आत्म से, अन्य भी आँकेंगे किसी भाँति। 

जग के सहज-चलन में सहायतार्थ, हृदय-गति समझनी होगी 
उचित संवेदन-उकेरन-व्यायाम से स्वयं प्रतिपादित यत्न-गति। 
ये चेष्टाऐं सक्षम स्व-निर्माण हेतु, नियम-कायदे तो सीखने होंगे 
कैसे महक सकती जग-बगिया, माली-पुष्प बन सहयोग करें। 

चलो मानते निज नितांत भी न चिंता, हूँ पूर्णतया जग-समर्पित 
जो भी हूँ इससे ही, इस हेतु व गणतंत्र भाँति इसका ही अंश। 
कोई न एक विशेष इकाई, स्वस्थित होते भी कण विश्व-ब्रह्मांड 
संभव योगदान सुनिर्वाह में, न झिझकूंगा, मेरी भी सीमाऐं हाँ। 

इस  कार्यशैली से ही पथ अग्रेसित, कालजयी न सही तो कुछ 
सब कालों में था, हूँ, हूँगा, पर अभी है बात चेतना आधार पर। 
इस संज्ञा-रूप जन्म का महद काल विसरण व हेतु ही प्रयास 
सब पूर्वज, अद्य सखा-सहयोगी, भविष्य के कर्मठ भी स्वरूप। 

एक वृहद में सब लुप्त, सागर में जल-कण क्या श्रेष्ठ या निम्न 
सर्व-मिलन से अनुपम जलराशि, सार्थकता में स्वयमेव निज। 
प्रति वाष्पकण सहयोग, वही पुनः-२ भिन्न रूपों में लौट आता 
जग-सुनिर्वाह में पूर्ण न्यौछावर, सार्थकता है अस्तित्व हमारा। 

कैसे हो सुबुद्धि-विसरण, यदि दक्ष तो क्या औरों में  सकता बाँट 
एक आयाम-योग से अन्य प्रभावित, पर सीमा में ही संभव काम। 
प्रयास से है सीमा वर्धन, जब चलोगे तो कुछ अन्य हो ही लेंगे संग 
अन्यथा भी भला आरोग्य हेतु, ज्ञान-प्रवाह ही तुम्हे बनाएगा उत्तम। 

सहज ही ये अनूठे शब्द उदित, मस्तिष्क में कुछ तो महाप्रयाण 
यह विपश्यना कैसे संभव, सुघड़-विचरण स्वतः ही है प्रस्फुटित। 
बुद्ध, सुकरात, महावीर की चेतना में भी रहे होंगे प्रयोग अनेक
कुछ असहज क्षण ही पकड़े होंगे, समेकित कर अनुपम बाहर। 

मेरा लेखन भी स्व से ही झूझना, चित्त हो निर्मल तो सब द्वेष बाहर
प्रयास जग हो मधुर-सुंदर, जितना बन सकेगा,  जान दूँगा लगा। 
दायित्व बहु-आयामों का इर्द-गिर्द, पूरा करने में न कोई हिचक 
कैसे हो गण-जीवन सुभीता, न मात्र  रुदन, संभावनाऐं तलाश। 

सेवी दिल से समझो अबलों प्रति दायित्व, सबकी अवस्थाऐं विभिन्न
वे भी कल्पतरु बनेंगे, शुभ्र सौंदर्य, सबकी मनोकामना पूर्ण समर्थ। 
पर तभी संभव जब निज का ही उभरन-प्रयास, फिर न कोई बवाल
तब स्वयमेव परस्पर संगी-प्रेरक, जग-आगमन होगा कुछ सार्थक। 


पवन कुमार,
४ नवंबर, २०१९  ७:४० सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २९ दिसंबर, २०१६ समय ८:२६ प्रातः से)  


Saturday, 19 October 2019

जननी-कार्य

जननी-कार्य
--------------


 प्रकृति से एक मूर्त मिली, सब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि से युक्त 
खिलौना तो है सुनिर्मित, पर अज्ञात कैसे हो रहा है प्रयोगित। 

विधाता-बुद्धि है सशक्त, एक अच्छा कलाकार इतनी सामग्री 
अपनी ओर से न कसर, सब चर-चराचर उसी की कलाकृति। 
माना पूर्ण-निर्माण हर विधा में, यहाँ-कहाँ विसंगतियाँ भी कुछ 
कमोबेश सब हैं पूर्ण स्वतंत्र, चाहे तो आराम से जीवन व्यापन। 

विज्ञान भाषा में मानव व अन्य जीव-वनस्पति विकसित यहीं 
प्रक्रिया अति जटिल, विकास पर आज एक धारणा है बनी। 
विधाता या ईश्वर का न कोई स्थान, सर्व समय-परिवर्तन देन 
शनै-२ युगों बाद अद्यतन  स्वरूप, अग्र भी ढंग से ही निज।

कुछ कहो ईश या प्राकृतिक कारण, रचना हेतु जीव-मनुज
हम न मात्र उपकरण, सच वृहद चेतना का ही विपुल अंश।
स्वतंत्र मनन-विचरण हेतु, चाहे तो निज-स्थिति सकते बदल
जरूरी न बस एक जगह पड़े रहो, जग-भूमि तव  ही सब।

संघर्षशील बाह्य-वातावरण, वर्चस्व बचाने हेतु मारे फिरते
हमीं सर्व धन-संसाधन घेर लें, और कहाँ जाते न पता हमें।
व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत, पाटन-प्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष
मन में तो हूक चाहे न सक्षम, महत्त्वाकाँक्षा गुण नैसर्गिक।

कुछ जीव हैं तन-बली, दुर्बल-जीव भी युक्ति से हराते पर
खाली बैठा तो भूखा ही रहेगा, या अन्य द्वारा होगा भक्षित।
एक होड़ सी है श्रेष्ठता-सिद्धि की, येन-केन प्रकारेण सफल
सब तीस-मार ख़ाँ, पर बहुदा पराजय देख कम करते यत्न।

जग-चर्या की क्या कहूँ, प्रायः घुटती उदासीनता ही दर्शित
कुछ नर तो अति-त्वरित, पर अनेक तंद्रा से न बहिर्गमित।
देह-मन थकन एक शुल्क लेती, कथन से ही न सब संभव
नेत्र बंद तो कलम भी कंपित, कैसे भला ऐसे उम्दा उदित।

एक उत्तम उपकरण मुझे भी मिला, पर कैसे प्रयोग हो रहा
यह मैं हूँ या प्राकृतिक-चेतना, जो स्वयमेव रखे चलायमान।
क्या हूँ जो स्व ही चाहूँ, जब निर्माण-लक्ष्य बहुदा सार्वजनिक
यहाँ स्थिति भिन्न, बना तो लोकहित हेतु पर मैं मात्र स्वार्थरत।

किसका श्रमिक, किसको कार्यकलाप का लेखा-जोखा देना है
 मन चंगा पर कौन डंडा हाँकता, निज ढंग काम स्वछंद क्षण में।
निज-विश्व स्वयमेव निर्मित, समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले खड़े किए
अभी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा, सदा प्रेरित ही चेष्टा से।

किसके प्रभाव से अद्य-परिस्थिति में, उसमें मेरा कितना अंश
क्या यत्न, हाँ कोई न अपना कहेगा यदि समय कठिन घटित।
तथापि कुछ तो सराहनीय प्रयास, यदि सकारात्मक परिवर्तन
हर ईंट-जोड़ से ही गृह-निर्माण, निर्माता-निर्मित दोनों ही मैं।

विराट प्रश्न पूर्वैव-इंगित, क्या हूँ पूर्ण-स्वतंत्र, परतंत्र या मध्यम
दर्शनों के भिन्न निज-तर्क, पर सक्षम को कर्म के कई अवसर।
माना बहुत जग टाँग-खिंचाई, सत्य में लोगों पर होते भी जुल्म
तथापि नर में अदम्य-शक्ति, चाहे तो विश्व-भाग्य पलट सक्षम।

तो क्या स्वयमेव भाग्य-विधाता, अमूल्य उपकरण मुझे प्राप्त
कुछ मूरतें विश्व-हित चिन्हित, निज न कुछ बस वेला-व्यापन।
पर जितना है समय-ऊर्जा, सार्वजनिक हित में होउपयोग-पूर्ण
कई भाग्य बदले यहाँ तुम भी सकते, चेतन हो लो कर्मठ-पथ।

माता-पिता पाल-पोस पाँव पर खड़ाकर गमित परम-धाम
क्या लक्ष्य था निर्माण का, या सब जैसे बस संतान उत्पन्न।
एकदा हास में माँ से कहा, स्वाद में पैदा किए इतने बालक
युवा-सुख में गर्भधारण, पर प्रमुख उद्देश्य रूप निज सम।

यही निरंतरता की अदम्य-इच्छा, जग-रचित अनेक प्रपंच
विवाह, यौन-संबंध, संतति-पोषण उसी प्रक्रिया में चरण।
अभिभावकों का संतान-मोह, यत्न से पाल-पोस बनाते अर्हत
हम कुछ दिवस के प्रहरी, भविष्य इनका ही व भी दायित्व।

सबको समय क्रीड़ा-मस्ती का, लड़ना-भिड़ना, लेने को पंगा
तुम्हें भी मिला ढंग से जीतो, न शिकायत सब प्रकृति समक्ष।
पर इसी स्वतंत्रता में है तव दायित्व भी, अपने हेतु ही न मात्र
जीव-निर्माण एक महद उद्देश्य हेतु, पर अपना मूल्य तो जान।

जिन वस्तुओं में तव है जीवंतता, शायद वही जीवन-मापदंड
सीमा महद करो अद्य लघु-कोटर से आगे, जग ही कार्य-क्षेत्र।
जहाँ जाओ अमिट छाप छोड़ दो, निज दृष्टि में ही कमसकम
जितना मुझसे संभव उतना तो किया, चेष्टा करूँ और उत्तम।

परियोजना की भी योजना, सर्व भाँति का वाँछित ऊर्जा-साहस
यदि वर्तमान से अग्र दर्शन-शक्ति, निश्चिततया परम-यश लब्ध।
लोगों को मिलाना प्रयासों में, उनका बल-संबल अति महत्त्वपूर्ण
पर पूर्ण-जागृति आत्म-जाग से ही, अन्यों का तो मात्र सहयोग।

पर नर-योग्यता में तुम श्रद्धा करना सीखो, वे कर देंगे अचंभित
मुस्करा कर श्लाघा-प्रेरणा-प्रोत्साहन से, काम निकलवा सीख।
वे तुमको सुपर्द काम लेना तेरा हुनर, माना सबमें कुछ तो कमी
बस ठीक कर पथ बनाते चलो, मंजिल निकट शीघ्र ही मिलेगी।

यह जीवन मेरा ही, स्वयं हेतु निर्मित, मैं संचालक, प्रकृति-दूत
बड़ी अपेक्षा, जननी-कार्यों में प्रयास-सहयोग हो, करो सार्थक।
देश-समाज-विभाग कर्मियों से विदित, दो एक उत्तम वातावरण
जब अन्यों को आदर  देना शुरू कर दोगे, बनोगे कुछ सार्थक।

एक उत्तम-स्थल रखा प्रकृति ने किंचित, पर अपेक्षित अति-महद
हर दिन महत्त्वपूर्ण त्वरित प्रक्रिया हेतु, कसौटी समय-सदुपयोग।
जिससे बात करनी हो करो, संसाधन-विकास, पूर्ण-उत्पादक स्थल
कर्मयोगी बन सब संगी-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम करो उन्नत।


पवन कुमार,
१९ अक्टूबर, २०१९ समय ५:५१ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० ३०.०३.२०१७ समय ९:०७ सुबह से) 

Monday, 30 September 2019

कलम-यात्रा

कलम-यात्रा 
--------------


चिंतन-पूर्व भी चिंतन, एकजुट देह-आत्मा समर्पित महद-लक्ष्य 
समय-ऊर्जा भुक्त, पर यथाशीघ्र मंजिल-प्राप्ति हेतु हो तत्पर।  

मनन-विषय अहम प्रारंभ-नियम, पर यावत न तिष्ठ कुछ न निकस
एक चित्तसार, सुखासन-प्रकाश, देह-मन सहज, एकांत-निरुद्ध। 
अहं-त्याग, वृहद-संपर्क चित्ति, पठन-पाठन से भी बहु -एकाग्रता
मन पूर्ण-बल तत्काल संभव, जब एक यथोचित परिवेश मिलता। 

देखते ऊँट किस ओर बैठता, कहाँ-किस विषय मन की होगी यात्रा 
यही सखा-वाहन या पथ-प्रदर्शक, विस्मयों से चेतन-संपर्क कराता। 
कोई वजूद न यदि न पूर्ण-तत्पर, समय-ऊर्जा माँगती यात्रा न्यूनतम 
फिर थकन, मध्य-विश्राम, अग्रिम तैयारी, गंतव्य-अन्वेषण-संपर्क। 

सब चाहते सुखद-मनोहर, ज्ञानद-मधुर यात्रा, अग्रिम तो अल्प-ज्ञात 
न्यूनतम जोखिम भी जरूरी, उचित अपेक्षा, तैयारी बनाती सुयोग्य।
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही  रोचक-संपर्क
सब कुछ तो विश्व-थाती, न जानेंगे तो कैसे कुछ कर सकेंगे हित। 

पर यात्रा में भीषण-स्थल छोड़ते, गाइड रोचक-स्थल ही लाते प्रायः 
ज्ञान सर्वत्र पर मुख्य-स्थल संघनित, एकदा गमन से भी विषय ज्ञात।  
कथन-समझ सुलभता, संग्रहालय बनते, अधिकाधिक दर्शक-भ्रमण 
राजा-महाराजा, दरबारी-प्रजा की कथा, दर्शक भी रोमांचित होते। 

कौन आवास-गृह जाते गत-काल बाद, जब इतिहास से आए बाहर 
चाहे कितने ही निरंकुश-दुधर्ष, पर कुछ महत्त्वपूर्ण-चर्चित था नाम। 
महल-बावड़ी, अद्भुत पच्चीकारी उस नृप-निर्मित, सार्वजनिक अब
माना अनेक-सहयोग महद कृति में, नाम-गुणगान तो नेता का पर। 

दूर-देश पथिक हर सम-विषम से गुजरता, माना सुगमता तगाजा 
तथापि अरुचिकर आ ही जाएगा, आवश्यक न शुभ-संपर्क सदा।
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सर्व-विश्व भिन्न-रसज्ञता हेतु उद्यमित, किसी दूर-यात्रा चल पड़ो। 

एक झलक हेतु ही तो सब अन्वेषण, कब दर्शन हों भविष्य-गर्भ में 
 छवि अनुभव परम-दृश्य की, सब मौन-भिन्न ढंगों से प्रयास करते। 
जीवन-सार संभव चरम-अनुभूति से, सब मध्य-यात्राऐं हेतु ही उस 
जितने अधिक दृश्य-अनुभव, सत्यमेव चरम भी उतना श्रेयस्कर। 

कथन देव का उत्तम ही वहन, पर क्या परिभाषा उत्तम-अधम की 
  कुछ तो निस्संदेह शोभनीय, कुछ भीषण-दुष्कर, दुराह-कष्टकारी। 
जहाँ सुखी जलवायु-भृत्ति वहाँ बहु-संख्या, विषम स्थल प्रायः निर्जन
सब प्राण-देह हेतु अल्प कष्ट चाहते, सुगम जीवन हो कयास बस। 

पर खोजी को भीड़-भाड़ में अरुचि, इच्छा दुर्गम कौशल-आत्मसात
निज देह-मन पर कई प्रयोग, कितना आगे बढ़ सकें, पूर्ण प्रयास। 
न अति-संतुष्टि मात्र दैनिक खान-पान में, आगे बढ़ो चूम लो गगन 
सब सुख-साधन-ऐश्वर्य तज, एक फकीर सम  जीने में न हिचक। 

सर्व-विश्व निज तो विक्षिप्त-वनवासी, भीषण-त्रस्तों से क्यों दूरी है 
कहीं न कुछ अपेक्षा कर दें, अंततः सब न्यूनतम सुविधा चाहते। 
  जरूरी तो न दुःखी ही, नर अल्प साधनों संग बहुकाल से जीता    
 प्रकृति-पुत्र, उस संग दिवस-रैन  रिश्ता, गुजर-बसर कर लेता। 

किंचित अंत्यजों से क्यूँ दुराव, इहभाव से कदापि न बड़ा-हित 
विश्व एक-स्रष्टा प्रारूप, महा-घटना उदित, समस्त तत्व निहित। 
कुछ को उत्तम-प्रयोग माने, कुछ अपशिष्ट, यह दृष्टिकोण-गत 
विवेकी ही उत्तम-अधम भेद-सक्षम, आम जन पूर्वाग्रह-ग्रसित। 

अभी विषय न सम-विषम, पर भाव नर वृहद-नजरिया अपनाए
सब स्वीकृत, निज-रूचि अनुरूप जिसे चाहें लें, पर घृणा न करें। 
ध्येय हो हर का समग्र-सम्मान, कैसे मिल-बैठकर बात सकें कर 
प्राण कठिन, प्राणी का बलानुरूप समायोजन, अतः न प्रतिवेदन। 

पर नर यात्री ही तो इस वृहद-सृष्टि में, जितना संभव उतना देख 
ज्ञानेन्द्रियों की सदैव स्वस्थता-संभाल से तो, देख सकोगे विराट। 
जीवन-पूर्णता तो अनुभव से ही  संभव, सार मिलेगा सुचिंतन से 
न घबराना कटु-अनुभवों से कभी, निज-काल में सशक्त करेंगे। 

कवि की क्या वर्तमान-चाह, समय कम पर सारांश तक न गमन 
एक शुरू-यात्रा तो पूर्ण हो, अनुभव लेखनी से निरूपण लें कर। 
मनोदित दार्शनिक भाव स्वतः ही उदित, पर कब लब्ध न ज्ञात 
पर इतना जरूरी चरम-अभिलाषा, कितना निखरे विधाता हाथ। 

मेरा मात्र प्रयोग मन-कलम से, कैसा परिणाम होगा भविष्य-गर्त 
न पूर्वाग्रह किसी भाँति का, यदि समय हो तो जितना चाहे चल। 
दृष्टि निस्संदेह प्रखर चाहिए, उसे देखना अभी वर्तमान क्षणों में 
मन भी दाँव-पेंच लगाता, कलम-माध्यम से कुछ उकेरन करे। 

जीवन चलना अति-दूरी, जिज्ञासा प्रगाढ़ मन-देह बनाए रखना 
कभी तंद्रित न हो जाना कर्त्तव्यों में, महद हेतु दीर्घ जगे रहना।
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण 
सब विश्वास करें परस्पर, व्यर्थ-विवाद हटा राह में हो सार्थक। 

भौतिक-मनस भ्रमण बढ़ाओ, जब संभव निकलो अज्ञात तरफ 
संपर्कों से ही अंतः-कोष वर्धित, विकास के कई प्रदान अवसर। 
महाजन महद सक्षम अनुभव-संपर्कों से, विवेक सदा संगी रहा 
तभी जग में नाम, जन जुड़ना पसंद करते, रहें स्मरित दृष्टांत। 

मन-देह स्वास्थ्य अपनी जिम्मेवारी, सहेजना यत्न से सब अंग 
नित्य-व्यायाम आदि से सकुशल, सामंजस्यता न जाना भूल। 
समुचित अनुरक्षण व काम, सृजनता-गुणवत्ता-क्षमता वर्धन 
ध्यान रखना सामान का, जो भी उपलब्ध हो उपयोग-पूर्ण। 

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे, कलम-यात्रा विचित्र-अदृश्य ओर 
मन बहु-आयाम समक्ष, गुह्य-अध्यायों से ही है सुपरिचय। 
मैं तो जीवन का दास, कहाँ-किस धाम जाना तुझे ही ज्ञात 
कुछ यात्रा-अनुभव, कयास-प्रयास, ओ मौला हो रहमत। 


पवन कुमार,
३० सितंबर, २०१९ समय ६:२३ प्रातः
(मेरी जयपुर डायरी २३ नवंबर, २०१६ समय ९:२२ प्रातः से)   

Sunday, 15 September 2019

'यह जग मेरा घर'

यह जग मेरा घर
------------------


हर पहलू का महद प्रयोजन, ऐसे ही तो जिंदगी में न कहीं बसते 
नव-व्यक्तित्वों से परिचय, नया परिवेश निज-अंश बन जाता शनै। 

कुछ लोग जैसे हमारे हेतु ही बने, मिलते ही माना प्राकृतिक मिलन 
जैसे अपना ही कुछ बिछुड़ा सा रूप, मात्र मिलन की प्रतीक्षा-चिर। 
धीरे-२ आत्मसात भी, यदा-कदा विरोधाभास तो बात अति सहज 
खुद पर भी कभी क्रोधित-खीजते, अंतरंगों से भी तो क्या अचरज?

जीवन में कुछ सीमित पड़ाव ही मिलते, बस कब आ जाते अज्ञात 
उन्हीं में कुछ समय जिंदगी बस जाती, चाहे पसंद करें या तटस्थ। 
स्थानांतरण हो जाता वहाँ कौन मिलेंगे, नाम-गाँव का न पता कुछ
धीरे-२ वही एक शरणालय, पूर्व-अपरिचित अब सहयोगी अंतरंग। 

किसको जानते थे जब जग आए, पर धीरे से एक दुनिया ली बना 
लोग जुड़े या हम उनसे एक बात, तात्पर्य सौहार्द एक निजता सा।  
एक अपरिचित से परिणय हो जाता, फिर बन जाते जन्मांतर-संगी 
दो देहों में एक आत्मा वास, उसके सब कष्ट लूँ यही इच्छा रहती। 

नव-स्थल आगमन पश्चात शनै मकान-सड़क-गलियों से अपनापन 
कालोपरांत नए चेहरे निज रूप ही लगते, जंतु-पक्षियों से भी प्रेम। 
क्या यह सहज प्रवृत्ति, आसानी से ही हम एक दूजे को लेते अपना 
नेत्र-भाव-व्यवहार भाषा प्रधान, यदि वाणी-मिलन तो और सुभीता। 

अपने ही काल देखूँ तो कुछ निश्चित जगहों पर ही अद्यतन कार्यरत 
कुछ वर्ष एक जगह व्यतीत, एक अमिट छाप जीवन संग चिपक। 
निज मर्जी से तो कोई न आया बस धकेला सा गया, समझौता फिर 
वहीं करना-खाना, खुश हो रहोगे तो ज्यादा तन-मन से स्वस्थ भी। 

पर शुरुआत थी संपर्कों का हमारे जीवन में है एक विशेष उद्देश्य
लोग पुनः टकरा ही जाते, स्मृति नवनीत, लगता कल की ही बात। 
निकट-नरों का हम पर गहन असर, किंचित हमारा भी उन पर 
आदान-प्रदान से शनै सब एक सम, चाहे बाहर से पृथक-दर्शित। 

हमारे घर अचानक पूर्व-विचार के मेरी बेटी ले आई लूना पिल्ली 
शुरू में अच्छी, पर बाद में उसकी पोट्टी-मूत्र से घृणा होने लगी। 
लगभग एक वर्ष उसकी हरकतें सही, अब है घर की सदस्या सी
अब उसके बिना कुछ भी पूरा न, पशुओं से प्यार हो सकता भी। 

यह आवश्यक न जिनको हम जानते, सभी को दिल से चाहते 
पर जैसे भी पूर्व-स्वीकृति के न, बस यूँ कहें हमपर धकेले गए।
उनका भी असर हम पर, उनके हेतु भाव अंतः-प्रभावित करते 
न चाहते भी न्यूनतम रिश्ता, अनुभव-भावों का स्थायी प्रभाव है। 

जिंदगी में कई व्यक्तित्वों से योग, गूढ़-संपर्क चाहे काल-सीमित
अमिट असर, प्रतिक्रिया स्वभावानुसार, परिणाम हो जाता निज। 
पर प्रश्न कि विशेष संपर्क में आते ही क्यूँ, यदि वे न तो सही और 
या वृहद विश्व नियम-रोपित, निश्चित अवधि पर ही अमुक मिलन। 

अनेक भाग्य-सिद्धांत विद्वान-निर्मित, बहुत अधिक तो विश्वास न 
या किसी अच्छे से अभी तक न संपर्क, जो पूर्वाग्रह कर दे दूर। 
जब स्वयं अंध तो सर्व तमोमय ही, प्रकाश-अभाव ही अंधकार 
स्वयं अपढ़ तो शिक्षा व्यर्थ प्रतीत, महत्त्व संपर्क-साधन से ज्ञात। 

   'तू नहीं तो कोई और सही', सब हैं एक परम-पिता का न अंश    
 सहोदरों से रक्त-रिश्ता, सम अभिभावक अंड-शुक्राणु मिलन। 
बंधु जो माता-पिता व भाई-बहन संपर्क से जुड़े, वे भी भाग होते 
प्रश्न है अन्यों से कैसे संबंध हों, न साँझा हमारा रक्त-कण उनसे।

वृहदता से देखें तो सब मानव सीमित अभिभावक-संतति किंचित 
उनके ही रज-कण बिखरें, समस्त मानव जाति से रिश्ता है अटूट। 
यहाँ-वहॉं बिखर गए तो क्या, बीज एक से तो पादप तथैव अंकुरित 
कोई विरोधाभास न समरूपता में, स्वसम से होता संपर्क जल्द। 

मानव-समूह चाहे विलग प्रतीत, भिन्न अभिभावकों में समाए सम 
सब संतति-गुण सहज मिलते, एक अपनापन है उदित यकायक।  
श्रेष्ठता-अहंभाव नरों में अप्राकृतिक, कुछों छद्मियों ने दिया समझा 
गरीब-धनी में कुछ न विभेद, जीवन-संघर्षों से किंचित कर्कश हाँ। 

बड़ा प्रश्न क्यूँ अमुकों से ही मिलन या पूर्व-अपरिचित स्थल-गमन
क्या उनसे कोई पूर्व-संबंध, या जग में कुछ न कुछ रहता घटित। 
गुजारा स्थान-परिवर्तन से, समायोजन करना होता, शनै प्यार भी 
सत्यमेव एक निज भाग बन जाते, उनसे निकसित प्रयोजन भी। 

जीवन में भी है बहुल नूतन संपर्क, लोग मिल रहें, कुछ रहें बिछुड़
निश्चित बहु जीवंत भाग निर्मित, अपनों से मिलना भी आवश्यक। 
संपर्क हमारे रिश्ते सुदृढ़ करते हैं, सुहृदों को न कभी त्यागो अतः 
'आँखों से दूर मन से भी दूर है', रिश्ते मरते नहीं देते हैं मार हम। 

जिस पर ध्यान होगा वही बढ़ेगा, अतः संपर्कों का योजन संभव 
जहाँ जन्म है वहाँ भी ध्यान दो, उनको भी मिलना चाहिए लाभ। 
बात याद रखो जहाँ जाओ अमिट छाप दो, बन जाय स्मृति-अंश 
  चाहे कुछ की बात, संपर्क-क्षेत्र बढ़ाओ, विविध-मिलन से समृद्ध।  

'यह जग मेरा घर' जितना संभव, खुली अक्षियों से दर्शन का प्रयास 
जिन नव-स्थलों पर गमन संभव, जाओ, निज जैसों से और परिचय। 
जहाँ कुछ सहायता कर सकते, करो, अंततः है यह अपना ही हित 
सब कुछ निज ही, मात्र संपर्क-साधन की देर, सब दूरी जाती मिट। 
  

पवन कुमार,
१५ सितंबर, २०१९ समय ११:३९ मध्य रात्रि  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० ३० मई, २०१७ समय ९:३२ प्रातः से)

Monday, 2 September 2019

नवीन-भाव


नवीन-भाव 
---------------


एक नवीन-भाव पल की आवश्यकता, स्थापन्न कागज-पटल 
लेखनी माध्यम, मन-विचार डायरी में, बहिर्गमन से विस्तृत। 

चलो आज नवीनता-वार्ता करते, माना सनातन को पुनरुक्त 
वे ही विचार पुनः-२ उदित, चाहे शब्द-लेखन में कुछ भिन्न। 
नव-साहचर्य से मन-उदय, अनुभव खोले प्रकटीकरण-राह 
बहुदा स्व ही लुप्त, निज उबासी-कयासों से न आते बाहर। 

सच है कि जग अति-विशाल, दर्शन-मनन एक सीमा-बद्ध 
मन-कंप्यूटर प्रोसेसर गति सीमित, अल्प ही काल-प्रकट। 
इकाई बायट प्रति सेकंड, लब्ध समय प्रयोग तो बड़ा संभव
निकट सुपर-कंप्यूटर पर प्रयोग न, कुल काम तो ही शून्य।  

अर्थ यदि गति कुछ कम भी, अधिक समय में बड़ी दूरी तय 
विश्व-कोष में बड़ी संख्या विवरण, पर कुछ से ही परिचय।  
चलेंगे तो दूरियाँ पटेगी, नव-अनुभव ग्रहण, मन-रवें सुदीप्त 
नवीनता स्व-स्थित, समय प्राप्त तो कागज पर भी उकेरित। 

खुले चक्षु-मन से दर्शन-मनन है, कार्यशाला-मोड की उत्कंठा
भ्रमण से नव पथ-स्थल दर्शन, प्रवास-संपर्क से नई-सूचना।   
हर जन पृथक स्थल से, भिन्न सूचना-पुञ्ज, क्यों न करें ही बात 
परस्परता से सघनता बढ़ेगी, जितना जुड़ेंगे उतने लाभान्वित। 

मानव-यात्रा कुछ वर्ष-यापन, कितना मनन-गति से बिताया समय 
एक मोटी पोथी बनते प्रक्रिया में, सभी कुछ तो प्रयोग पर निर्भर।  
कोल्हू-बैल भी गतिमान नेत्र-पट्टी बांधे, वृत्त-गिर्द  करता दूरी तय 
यहाँ नव दिशा-स्थलों से परिचय, अन्यथा तो अपने में ही सिकुड़। 

क्या पथ सुप्राप्ति का या तो बैठे रहें, कुछ पास आऐंगे ही परिचय भी 
यह निज-निर्भर, किनको कितनी अपेक्षा, कितना करते संपर्क ही। 
जलपुरुष निकट तृषित आऐंगे ही, यदि मृदु बर्ताव और भी सुभीता 
उसपर निर्भर कितना रूबरू, कुछ पूछकर सूचना-ज्ञान व लाभ। 

एक सूत्र टूटना पुनः उसे जोड़ना, निश्चित ही कुछ समय-ऊर्जा माँग 
एक द्रुम पूर्व-स्थिति में न गमित, हर पल बदलते रहते हैं मन-भाव। 
तथापि वृहत-ग्रंथ लिखे जाते, एक ही दिवस-निष्ठा से काम न बनता 
अपने को पुनः पथ पर स्थापन, कुछ विचित्रता भी पर काम चलेगा। 

विषय नवीनता मनन-दर्शन में, जो बहु आयाम-प्रतिभाऐं करें युग्म 
मति-कोष्टकों की भी स्मरण क्षमता, अनुपम-रमणीयता करें एकत्र। 
जीवन का तो घटित हो जाना सत्य, समृद्धि कितने उत्तमों से संयोग 
हाँ आज का नवीन भी प्राचीन हो जाएगा, तो भी सदा बढ़ें उस ओर। 

संपर्क-ज्ञान संग विस्मृत, सीमित स्मरण-क्षमता, सर्वस्व न समाहित 
कंप्यूटर की अति स्मरण-क्षमता जैसे 1TB, वह भी शनैः पड़ती कम। 
अनेक पुरानी फाइल-दस्तावेजों, चित्र हटाने पड़ते हेतु स्पेस-लब्धता 
अन्यथा शीघ्र-पूरित सब स्पेस, कितनी हार्ड-डिस्क रखें सब-सहेजना। 

पर समय-तकनीकों संग कंप्यूटर-प्रोसेसिंग क्षमता-मैमोरी भी वर्धन 
चाहे यकायक न दर्शित, नर का बौद्धिक-दैहिक विकास समय संग। 
माना न सम, मोबाईल-फोन, कंप्यूटरों की भिन्न क्षमताओं के मॉडल 
जितनी जरूरत, क्रय-शक्ति ले लो, रूचि-हैसियत अनुसार व्यवहार। 

मानवों में प्रज्ञान की क्या भिन्न अवस्थाऐं, या मात्र निजानुसार प्रयोग 
वैज्ञानिक व कमेरे की बौद्धिक-क्षमता सम, बस एक द्वारा सुप्रयोग। 
बचपन से देखते कुछ भिन्नता लोगों में, जैसे समझना-परिभाषा देना 
शुरू में अल्प, कालांतर में एक का  प्रयोग-त्याग, गतिमय है दूजा।  

यथा प्रयोग, तथा वर्धन, हाँ कभी अति-प्रयोग दुष्परिणाम भी गोचर  
वृतांत सब तरह के, पर निश्चित अप्रयोग से नितांत पड़ जाता ठप्प। 
कार्यशालाओं हेतु लोग यंत्र खरीद लेते, अप्रयोग से पुराने व व्यर्थ  
धन-साधन नष्ट, चाहे किञ्चित-प्रयोग, समुचित तो निश्चितेव श्लाघ्य। 

कोई न इतना निपुण बस जोड़े ही, पीछे मुड़कर भी न देखे संग्रह 
या देख-समझ सुरुचिपूर्ण सृजन, अपनी हर वस्तु की करता कद्र। 

निज-वस्तु संभाल स्व-जिम्मेवारी, हाँ कालांतर में उपयुक्तता घटित 
अमुक काल जैसा न सार्थक, प्रिय-अमूल्य, अब नव-संदर्भ जरूरत। 
फिर सृजनशीलता, नव-भाव संग्रहीता, मूढ़ से प्रवीण में रूपांतरण 
यह भी तुलनात्मक निज संदर्भ में, पूर्ण ज्ञान संदर्भों में अति-दोयम। 

कोई किसी विधा प्रवीण अन्य में अनाड़ी, पर अर्थ न कि मूढ़ है वह  
अर्थ यह भी संभव एक हर जगह न पारंगत, मन-देह की सीमा निज। 
पर न विरोध उन्नति हेतु, कमसकम जहाँ रूचि वहाँ हो प्रयास अधिक 
अन्य-विधा रूचि भी समृद्धि, तो भी पूर्ण का कुछ अंश ही दर्शन संभव। 

फिर अर्थ क्या है हम जैसे भी, कमसकम निकट का करें प्रयोग पूर्ण
आवश्यकता बढ़ेगी तो हाथ-पैर भी मारोगे, क्षमता हेतु पूर्ण तब यत्न। 
अन्य को भी समझा सकोगे -सुवृत्ति दान दो, वृहदता स्व में दर्शन  
जीवन-यंत्र प्राप्त अति कष्ट से, पूर्ण प्रयोग से करें सार्थकता सिद्ध। 

प्रथम-कक्षा छात्र को एक कायदा या शुरू-पाठों की ही आवश्यकता 
लेकिन प्रख्यात विद्वान-गृह तो बहु-विधाओं की पुस्तकों से होता भरा। 
अर्थ कि वह सब काल ऐसा न था, प्रथम श्रेणी से बढ़ पहुँचा यहाँ तक 
भली-भाँति ज्ञात वह अत्यल्प, अनेक ज्ञान-आयाम हैं यावत अस्पर्श। 

कौन मानव-स्वरूप हमारे गिर्द छितरित, सब भाँति के नमूने दर्शित 
सब शून्य से अनंतता के किसी सोपान -तल, कुछ चढ़ ऊपर तिष्ठ। 
ज्ञात अभी बड़ा कर्म अपूर्ण, ऊर्ध्व से ही दूर दर्शन - प्रेरणा मिलेगी 
इसका मूल उद्देश्य अंतः-दर्शन ही, अग्र-ऊर्ध्व बढ़े तो हो संतुष्टि। 

नवीनता सुमृदु भाव बहु-आयाम योगी, मन-चक्षु खोल जिज्ञासु बन
जितना संभव सृजनात्मक बनो, लब्ध काल में अधिकतम  संग्रह। 
प्रखरता आएगी, निज संग अनेकों में सकारात्मक परिवर्तन संभव
लक्ष्य दूर पर मन सुग्राह्य, पैरो में शक्ति, दृष्टि प्रखर, लाभेव अतः।  

आगे बढ़ो अनवरत, योग अनुभवों से, उत्तम तो जाएगा ही ठहर 
जिसकी जब जरूरत प्रयोग कर, धैर्य रखो, सबसे मित्रता-भाव। 


पवन कुमार,
२ सितंबर, समय ६:३२ सायं 
(मेरी डायरी दि० १६ व १७ दिसंबर, २०१६ समय ११ :२८ प्रातः से)