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Sunday 10 August 2014

कुछ एकान्त

 कुछ एकान्त 
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पता नहीं क्यों पिछले कई दिनों से डायरी को हाथ लगाते हुए डर सा लग रहा है। आज बहुत हिम्मत करने के बाद ही कलम को पन्ने के सीने पर घिसने की कोशिश कर रहा हूँ। इतना समय उपलब्ध होने के बावजूद मैं स्वयं से बहुत दूर पा रहा हूँ। मस्तिष्क का खालीपन शायद इस तथ्य का द्योतक है कि मैं स्वयं के निकट नहीं पा रहा हूँ। अपने प्रति कुछ ईमानदारी का निर्वाह करना चाहिए लेकिन इसको मैं इसको अमल में नहीं ला पा रहा हूँ। अपने को किस भाँति उत्कृष्टता के मार्ग पर अग्रसर करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा है न ही अपने भूत, वर्तमान और भविष्य पर विचार ही कर रहा हूँ।

चारों ओर इतना कुछ घटित हो रहा है, मैं केवल संज्ञा-शून्य सा यूँ ही कुछ निहारता रहता हूँ। कुछ आभास, स्पंदन नहीं है तो लगता है मैं मुर्दों के शहर में आ गया हूँ जिसके मन-मस्तिष्क में कोई चेतना नहीं है। अपनी कोई चिंता नहीं है और न मन में कोई मंथन है। बस कभी किसी चर्चा का कभी-2 हिस्सा बन जाता हूँ वरना तो मैं शायद अपने को ही भूल बैठा हूँ। संसार में आया हूँ लेकिन संसारी नहीं हूँ। लोक की बात करता हूँ लेकिन उसे सुधारने का कोई यत्न नहीं है। संसार में लोग प्रयत्नों द्वारा अपने आस-पास को सुन्दर बनाने में लगे हैं लेकिन मुझे कुछ ऐसा नहीं लग रहा कि मैं योग्य हूँ और यदि हूँ तो उससे अपनी गुणवत्ता, क्षमता में वृद्धि कर रहा हूँ। क्यों मेरे कार्यालय का कार्य लम्बित है और क्यों नहीं उसे पूरा करने के अपना दिन-रात कर पाता ? क्यों नहीं मेरे मन में नचिकेता की जिज्ञासा आती और न ही अर्जुन की कर्मठता आती। क्यों अधूरे ढेर पर कुण्डली मार कर बैठा हूँ ? क्यों नहीं सही समय निर्णय लेता और क्यों कार्य के भार को बढ़ाए जा रहा हूँ ?

जिन योग्य व्यक्तियों के बारे चर्चा होती है वे निश्चय ही बहुत परिश्रमी रहे होंगे। मान सकता हूँ कि पिछले तीन दिन से स्वास्थ्य बिगड़ने (बुखार के कारण) अपनी इन तीन छुट्टियों का इस्तेमाल कार्यालय के कार्य नहीं कर पाया लेकिन पिछली चार छुट्टियों में भी कोई बहुत ज्यादा कार्य क्यों नहीं किया। मेरे भाई, ऐसा कैसे चलेगा। माना कि तुम्हारा दो साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है लेकिन जिम्मेवारी इतने से तो पूरी नहीं हो जाती। अभी विभाग में बहुत दिन नौकरी करनी है अतः इसका भविष्य शायद अपना भविष्य है। परिश्रम इसमें अपना योगदान करेगा कि यह अधिक सुगमता, सुघड़ता और सुंदरता से चले। 

आज 15 अप्रैल, 2001 रविवार का दिन है। मैं कमरे में बैठा इस समय कुछ सयंमित होकर इस डायरी में अपने दिमाग के कुछ पल स्थाई रूप से अंकित कर देना चाहता हूँ चाहे वे बोझिलता से भरे क्यों न हो या फिर पश्चाताप के क्षण ही क्यों न हो। संसार में जिन मनुष्यों ने महत कार्य किए हैं, वे उन्होंने अपने अंदर कमी अहसास करके ही किए हैं। जब दुर्बलता सबलता में बदल दी जाती है, मानव का पुरुषार्थ कहलाता है। पर जीवन तो कभी थमता नहीं है, इसकी यात्रा तो सदा होती रहती है। जीवन क़र्ज़ के ब्याज की भाँति बढ़ता जाता है और अपने आगामी बचे हुए दिनों में से खर्च करता जाता है। शायद उस परम सत्य की ओर बढ़ाए लिए जाता है जिसमें सभी की मंज़िल है। पर मंज़िल पर पहुँचने से पहले पथ की पहचान भी तो आवश्यक है। मंज़िल क्या है और क्या हम उसे समझ सकते हैं ? प्रश्न विशाल है और उत्तर ढूंढने  की चेष्टा भी शायद उसी दिशा में एक कदम है। 

अपने को पहचानना और इस जीवन को उत्तम, अत्युत्तम बनाने की चेष्टा मनुष्य का सतत यज्ञ है। इस संसार से जो लिया है, उसका कुछ भाग वापस कर देना ही शायद हमारी इसके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। गौर से देखने की प्रवृत्ति डालो और सहज बनो - यही अभी के लिए मेरी सीख है। 


पवन कुमार, 
10 अगस्त, 2014 समय 20:21 सायं    
( मेरी शिलोंग डायरी दि० 15 अप्रैल, 2001 से )

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