उलझन
------------
मन की प्रणाली की समझ की कुछ आशा है
लगता है कि जल्द कुछ बात बन जाएगी।
मैं आता हूँ जाने के लिए, मन में कुछ गुनगुनाता हूँ
इसी अन्तराल में ही रहना तो जीवन का नाम है।
मैं करूँ क्या, इसको बिताऊँ कैसे
इसी को समझने में ही जीवन बीत जाता है।
मेरी ध्वनि कहाँ से निकलती है, खोज जारी है
अपनी कोशिशों को ढूँढू कहाँ, यही कोशिश जारी है।
ज्ञात है सब कुछ पास ही में है मेरे,
पर अल्प-समझ के कारण समझ नहीं पाता हूँ, विडम्बना में हूँ।
जानता हूँ कि जानता ही नहीं कि क्या जानने योग्य है,
फिर भी जानने में व्यस्त हूँ।
प्रक्रिया सतत खोज की है और विरोधाभासों से,
ठोस निकालने की कोशिश जारी है।
कितना सहज है अपने को समझाना
कि मुश्किल है अपने नज़दीक आना।
ज़रूरी है समीप बैठना स्वयं के, चाहे निरर्थक की ही पुनरावृत्ति हो
अपना भक्त बनूँ और कुछ अन्तरम पल सार्थक बनाऊँ।
इसी आशा और धन्यवाद सहित।
पवन कुमार,
23 अगस्त, 2014 समय 18:17 सांय
(मेरी डायरी 07 जनवरी 2012 समय 11:42 से )
No comments:
Post a Comment